आत्मबल की अकूत शक्ति।

January 1947

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साँसारिक अनेक प्रकार के बलों में आत्मबल सर्वोपरि है। इसकी समता कोई दूसरा बल नहीं कर सकता। यह आत्म बल सत्यता, पवित्रता और दृढ़ता की त्रिवेणी में उत्पन्न होता है। यह त्रिवेणी जिसके अन्तःकरण में प्रवाहित होती है वही आत्मवान् है। आत्म बल का उसी में भंडार समझना चाहिए।

एक महापुरुष का कथन है कि सत्य में हजार हाथियों का बल भरा हुआ है। पर यह बात अधूरी है। वास्तव में सत्य इतना बलशाली है कि उसकी प्रचंड शक्ति का ठीक ठीक अन्दाज करना मनुष्य की कल्पना शक्ति से बाहर की बात है। अनुभवी ऋषियों ने भौतिक बल की तुच्छता का और आत्म बल की महत्ता का भली प्रकार अनुभव करने के उपरान्त कहा है कि—”धिक बलं क्षत्रिय बलं ब्रह्मतेजो बलं बलम्” भौतिक बल को धिक्कार है, बल तो वास्तव में ब्रह्मबल ही है। सत्य की अटूट शक्ति के सामने बड़े-बड़े शक्तिशालियों को नतमस्तक होना पड़ता है। हिरण्य कश्यपु, रावण, कंस, कौरव जैसे बलवानों को अपने विरोधी बहुत ही स्वल्प साधन वालों के सामने परास्त होना पड़ा। ‘सत्यमेव जयते नानृतम्’। सूत्र में श्रुति ने स्पष्ट कर दिया है कि केवल सत्य की ही विजय होती है, असत्य की नहीं। असत्य के द्वारा जो लाभ लोग उठा लेते हैं वह भी वास्तव में सत्य का ही दोहन है। सत्य की आड़ लेकर ही लोग किसी को ठग पाते हैं। यदि वे स्पष्ट कर दें कि हमारा व्यवहार झूठा है तो उन्हें किसी काम में तनिक भी सफलता नहीं मिल सकती। जो लोग असत् व्यवहार द्वारा कुछ सफलता प्राप्त कर लेते हैं असल में वह भी सत्य की ही विजय है।

सत्य परमात्मा का रूप है। सत्य नारायण भगवान की जिस हृदय में प्रतिष्ठा है। जो अपने विचार, कार्य और विश्वासों को सत्य से परिपूर्ण रखता है उसके अन्तःकरण में इतनी शान्ति एवं प्रसन्नता रहती है जिसकी तुलना करने वाला आत्म संतोष संसार की किसी भी सम्पन्नता एवं सफलता द्वारा प्राप्त नहीं हो सकता। सत्य रूपी नारायण जिसके मन में विराजमान है वह दैवी शक्ति से संपन्न है, वह ईश्वर में ओत प्रोत है और ईश्वर उसमें ओत प्रोत है। ऐसे मनुष्यों को ही सफल जीवन कहा जा सकता है। उसी को भीतर और बाहर सच्ची शान्ति के दर्शन होते हैं। जिसके मन में असत्य नहीं वह सदा निर्भय है। उसे डरने या व्यथित होने की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती।

पवित्रता, निस्वार्थता और उदारता का सम्मिश्रण है। जो तुच्छ स्वार्थों की अपेक्षा परमार्थ को प्रधानता देता है, जिसका हृदय संकीर्णता की विषैली दुर्गन्ध से मुक्त है, तो उदारता प्रेम, दया करुणा, स्नेह, आत्मीयता, सेवा, सात्विकता, सहायता की भावनाओं से तरंगित रहता है ऐसा मनुष्य इस भूलोक का देवता है। पवित्रता सात्विकता सहृदयता दैवी सम्पत्ति है, जिसके पास यह सम्पत्ति मौजूद है वह संसार का सबसे बड़ा धनी है। पवित्रता से बढ़िया वस्त्र और आभूषण इस लोक में और कोई नहीं है। इसे धारण करके कुरूप से कुरूप मनुष्य भी अलौकिक सौंदर्य शाली बन जाता है। पवित्रता एक ऐसी गंध है जो आस पास के वातावरण को हृदय हुलसाने वाली तरंगों से परिपूर्ण बना देती है। सदाचार, संयम, सन्मार्ग, ईमानदारी, सरलता, शान्ति, नम्रता, विनय क्षमा, एवं प्रसन्नता का स्वभाव पवित्रता का प्रतीक है। यह गुण जिसमें मौजूद है उस देवोपम पुरुष की महत्ता को असाधारण ही समझना चाहिए।

दृढ़ता अन्तः प्रदेश में जमे हुए सुदृढ़ विश्वासों के आधार पर उत्पन्न होती है। सुदृढ़ विश्वास केवल वे ही हो सकते हैं जिनमें सत्यता भरी हुई हो। कोई भय आने पर चोर अपना चोरी का माल छोड़कर भाग खड़ा होता है, पर जिसने पसीना बहाकर पैसा कमाया है वह भय उपस्थित होने पर अपने धन की रक्षा के लिए जान देने खड़ा हो जाता है। वेश्या आपत्ति आने पर अपने जार पुरुष को धता बता देती है पर सती स्त्री पति पर प्राण निछावर करना एक खेल समझती है। विश्वास, विचार और कार्य वही दृढ़ होते हैं जिनमें सत्यता भरी हुई है। सुगन्ध उन्हीं फूलों में होती है जो वास्तविक हों, कागज के फूल तो आखिर कागज के ही रहेंगे।

दृढ़ता मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण करती, उसे बल एवं गति प्रदान करती है, आगे बढ़ाती है और उद्देश्य क्षेत्र तक ले पहुँचती है, पर वह स्थिर तभी रहती है जब सचाई, वास्तविकता एवं सद्बुद्धि पर निर्भर हो। झूठे भ्रमपूर्ण, स्वार्थ भरे, पक्षपाती आधार पर अधिक देर खड़ा नहीं रह सकता। लाभ का आकर्षण कम होने पर तथा खतरे का लक्षण दिखाई देने पर ऐसी दृढ़ता क्षण भर में काफूर हो जाती है पर जो सत्य की मजबूती है उसे मनुष्य बड़े से बड़ा खतरा उठा कर भी नहीं छोड़ता। देश के लिए, धर्म के लिए, कर्तव्य के लिए, जान की बाजी लगाने वालों और सर्वस्व बलिदान करने वालों के चरित्र से इतिहास भरे पड़े हैं। मन वाणी और कर्म को दृढ़ एकता बिना सत्यता, बिना पवित्रता के नहीं हो सकती।

आत्मबल के तीन स्रोत है। सत्यता, पवित्रता और दृढ़ता यह तीनों निर्भरिणी जहाँ एकत्रित हो जाती हैं वहीं त्रिवेणी का संगम होता है, पवित्रता बिंगला है और दृढ़ता सुषुम्ना है। इनके सुसाधन से आत्मबल की कुंडलिनी शक्ति जागृत होती है। जिसने वह त्रिविधि सफलता प्राप्त कर ली वह निर्बल होते हुए भी बलवान है निर्धन होते हुए भी धनवान है, अशिक्षित होते हुए भी विद्वान है, लोक और परलोक की समस्त सिड़ियाँ उसके हाथ में हैं।


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