(श्री रामकुमार चतुर्वेदी)
मन निश्चय सा, वेग पवन-सा
बढ़े चलो उन्मत्त सिपाही!
(1)
कल का काम आज कर डालो,
और आज का अब कर डालो!
चलो समर में आज युगों के,
दबे हुए अरमान निकालो!
बैठे काम नहीं चलने का,
कुछ कर डालो, कुछ कर डालो!
यह रणभेरी की पुकार है,
भय कैसा? बढ़कर लोहा लो!
होश नहीं आता है तुमको,
देश इधर वीरान हो रहा,
रुला चुकी है तुम्हें हजारों बार,
तुम्हारी लापरवाही!
बढ़े चलो उन्मत्त सिपाही!
(2)
गत युग की हारों को भूला,
उफ! यह भी कैसी निर्बलता!
बलि का नाम सुना कि दृगों से,
वेग अश्रु का फूट निकलता!
जब प्राणों पर आ पड़ती है,
पशु भी अपनी पर आ जाते!
शर्म नहीं आती है? नर होकर
तुम पीछे कदम हटाते
ज्वालमुखी हो, लेकिन तुमने
अब तक फटना सीख न पाया!
सुनो! जुल्म के चरण दलित,
करने की देते हैं आग हो!
बढ़े चलो उन्मत्त सिपाही!
(3)
विश्व शक्ति का है, निर्बलता
रोज यहाँ कुचली जाती है!
अश्रु नहीं संकल्पों के बल पर,
दुनिया बदली जाती है!
किसने कहा कि तुम निर्बल हो?
किसने कहा लहू पानी है?
वर्दी फटी हुई है तो क्या?
हृदय प्रलय का अभिमानी है!
चलो क्रूर का महलों में,
हम विप्लव-ज्वाला धधका दें!
हम मानव हैं, कभी न सह सकते,
हैं पशुता की मनचाही!
बढ़े चलो उन्मत्त सिपाही!
(4)
आज जवानी मचल रही है,
चलो आज संसार पलट दें।
आज विभव का दर्प चूर्ण कर,
ताज फेंक दें, तख्त उलट दें!
जन-समुद्र में ज्वार उठा है,
अरे! ‘अगस्त्व’! कहाँ सोता है?
चिर-पीड़ित का सिंहनाद,
प्रलयकर आज मूक होता है?
चरण-चरण में महानाश है,
हम हैं ज्वाल-पथ के राही!
आज रक्त से धो देनी है,
दीन देश के मुख की स्याही!
बढ़े चलो उन्मत सिपाही!
*समाप्त*