सम्पन्नता के चार आधार

January 1947

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बलों का उपार्जन ही सिद्धि प्राप्ति का राज मार्ग है। जो बलवान है वही सिद्ध है। जिसमें आत्म बल है उसे ही तो आध्यात्मिक सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। बलवान की सहायता लेकर निर्बल लोग सुख प्राप्ति की आशा लगाते हैं। जो बलवान हैं उन्हें इस प्रकार किसी का पराश्रित नहीं रहना पड़ता। सिद्धि की सहायता लेने के लिए दूसरे सिद्धों को तलाश करने की अपेक्षा यह अच्छा है कि स्वयं सिद्ध बनें, स्वयं सिद्धियाँ प्राप्त करें। जिससे दूसरों का सहारा तकने की बजाय अपने ही बाहुबल से अपना कार्य चल सके।

अमृत, पारस, आकाश में उड़ना, अदृश्य होना, शरीर बदल कर पशु−पक्षी बन जाना, भूत भविष्य जान लेना, जैसी संदिग्ध एवं अनिश्चित सिद्धियों, बहुत ऊंची श्रेणी की चीजों को प्राप्त करने की क्षुब्ध अभिलाषा नहीं करनी चाहिए। सीढ़ी-सीढ़ी चढ़ने से पर्वत पर चढ़ा जा सकता है। कदम-2 चलकर लंबी मंजिल पार कर ली जाती है। पहले उन सिद्धियों को प्राप्त करना चाहिए जो सुलभ हैं, सीधे साधे तरीकों से प्राप्त की जा सकती हैं जिनके द्वारा इसी जीवन में स्वर्ग प्राप्त किया जा सकता है।

सुखी सम्पन्न बनने के लिए हमें दूसरों पर नहीं रहना चाहिए। दूसरों की दी हुई सहायता एक दो प्रयोजनों को पूरा कर सकती है। बार-बार एवं हर काम के लिए दूसरों का आश्रय कहाँ तक लिया जा सकता है? और दूसरे भी कहाँ तक उसकी मदद कर सकते हैं? ओस चाटने से काम नहीं चल सकता, जलाशय की व्यवस्था करके ही नित्य बार-बार लगने वाली प्यास के कष्ट से बचा जा सकता है। अपने बाहुबल से उपार्जित शक्तियाँ ही स्थायी रूप से क्लेश निवारिणी एवं सुख दायिनी हो सकती हैं। इस बलवान बनने, शक्ति संचय करने की ओर हमारी प्रवृत्तियों को अग्रसर होना चाहिए। अब नीचे की पंक्तियों में बलोपार्जन के संबंध में कुछ प्रकाश डाला जाता है।

शारीरिक बल- शारीरिक व्यथाओं से छुटकारा पाने और स्वस्थता का आनन्द भोगने के लिए हमें शारीरिक बल एकत्रित करना चाहिए। इसके लिए (1) आहार की सावधानी (2) रहन सहन में विवेक शीलता (3) शक्तियों का उचित मात्रा में खर्च (4) मानसिक सन्तुलन (5) विकृति का परिमार्जन इन पाँच उपायों की आवश्यकता है। इन पाँच उपायों से बिगड़ा स्वास्थ्य सुधर सकता है और सुधरा स्वास्थ्य चिरस्थायी रह सकता है।

आहार की सावधानी में, खुलकर भूख लगने पर ही भोजन करना, भूख से कम खाना, भोजन को भगवान का प्रसाद समझ कर अमृत भावना के साथ प्रसन्नता पूर्वक खाना, भली प्रकार चबाकर खाना, सात्विक आहार ग्रहण करना यह पाँच नियम ध्यान रखने योग्य हैं। क्या वस्तु खानी चाहिए क्या न खानी चाहिये? इस संबंध में बड़े-बड़े ग्रन्थ मौजूद हैं पर उनका सार यह है ताजे, सजीव, पौष्टिक शुद्ध रुचिर, एवं धर्मोपार्जित पदार्थ खाने चाहिएं। घी तेल मसाले अग्नि आदि द्वारा जो चीजें बहुत तली, जलाई एवं भूनी जाती हैं वे हानिकर हो जाती हैं। ताजे फल, हरे शाक, मेवे, दूध दही, दलिया, चावल, दाल, रोटी जैसी सात्विक चीजें ठीक हैं। एक साथ बहुत प्रकार के पदार्थ न खाये जाएं, थाली में बहुत तरह की चीजों की भरमार न होनी चाहिए। अन्याय से लिया हुआ, अशुद्ध घृणित व्यक्तियों द्वारा बनाया हुआ भोजन त्याज्य है। सूत्र रूप में बताई हुई इन थोड़ी बातों को पूरी सावधानी के साथ बरता जाय तो वह स्वास्थ्य की समस्या को हल करने में बड़ा सहायक होता है। तन्दुरुस्ती का अधिक आधार भोजन पर निर्भर है पर हम अपनी असावधानी से उसे नष्ट करते रहते हैं।

समाज बल—दूसरे व्यक्तियों के असहयोग विरोध एवं आक्रमण से होने वाले कष्ट तथा सहयोग, सम्मिलन एवं सहायता द्वारा प्राप्त होने वाले लाभ, यह हमारी सामाजिक स्थिति के ऊपर निर्भर हैं। मनुष्य एकाकी नहीं है वरन् वह सामाजिक प्राणी है। दूसरों द्वारा अपने साथ जो व्यवहार किया जाता है, उसकी प्रतिक्रिया मन पर हुए बिना नहीं रहती। प्रशंसा, समर्थन एवं सहयोग से कलेजा ढाल हो जाता है, छोटे व्यक्ति भी आगे बढ़ जाते हैं, अल्प साधन होते हुए भी उन्हें सुख सन्तोष की अनुभूति होती है।

सामाजिक बल संचय करने के लिए (1) मधुर भाषण (2) सेवाभाव (3) उच्च चरित्र (4) पराक्रम (5) व्यवहार कुशलता इन पाँच चीजों की आवश्यकता होती है। विनय नम्रता शिष्टाचार, मधुर भाषण, मधुर व्यवहार में पराये अपने हो जाते हैं। जहाँ मिठास होती है वहाँ चींटियां और मक्खियाँ अपने आप जमा हो जाते हैं जिसे मधुर व्यवहार करना मीठा बोलना आता है उसे दूसरों की सद्भावनाएं अनायास ही प्राप्त होती हैं। जो दूसरों की सेवा करता है, उसे अपने लिए सेवा भाव प्रस्तुत करने वालों की कमी नहीं रहती। उपकार, भलाई और अहसान करके दूसरों का हृदय जीता जा सकता है। जिसका हृदय जीत लिया गया है वही सच्चा अनुचर है। उच्च चरित्र, सदाचार, व्यक्तिगत जीवन की पवित्रता, निस्वार्थता, न्याय परायणता, एवं खरा व्यक्तित्व मनुष्य की ऐसी विभूतियाँ हैं जिनके सामने विरोधियों के सब हथियार झूठे पड़ जाते हैं। शत्रुओं को भी उनका मान करना पड़ता है, उनके वचनों में ऐसा बल होता है जिसे मानने के लिए दुराग्रहियों को भी विवश होना पड़ता है। पराक्रमी, पुरुषार्थी, चैतन्य उद्योगी, क्रियाशील स्वभाव के मनुष्य पग पग पर सफलताएं प्राप्त करते हैं। जिस काम को ऐसे लोग हाथ में लेते हैं, अपनी लगन के कारण तुर्त फुर्त पूरा कर डालते हैं, उनके इस गुण पर मुग्ध होकर सब लोग उनसे मित्रता रखना चाहते है, उनका सहारा, अपनी कठिनाइयाँ का हल करने के लिए तकते हैं। यह क्षमता शत्रुओं को डराने और मित्रों को आकर्षित करने में बड़ी कारगर होती है। व्यवहार कुशलता के द्वारा रूठे को मनाना, भ्रम में पड़े हुए को समझाना, भटके हुए को राह पर लाना आसान है। दूसरों की मनोवृत्तियों को परख कर जो लोग उचित अवसर पर उचित व्यवहार करते हैं वे बड़े बड़े संकटों को टाल देते हैं और बड़े-बड़े लाभों को प्राप्त कर लेते हैं, इन पाँच उपायों के द्वारा मनुष्य को सामाजिक बल प्राप्त होता है। सामाजिक कुरीतियाँ और राजनैतिक दासता भी इन्हीं उपायों से दूर की जाती हैं।

अर्थबल—आज तो अर्थ युग है, पैसे की महिमा इतना बढ़ गई है कि हर बात में पैसे की ही प्रधानता है। पैसे से दुष्प्राप्य वस्तुएं प्राप्त होती हैं और बड़ी बड़ी मुश्किलें आसान हो जाती हैं। पैसे की आवश्यकता सब कोई अनुभव करता है, पर प्राप्त वही कर पाते हैं जिनमें उसे प्राप्त करने की क्षमता है। अर्थोपार्जन पाँच बातों पर निर्भर है (1) उत्पादक श्रम (2) व्यवस्था कौशल (3) मितव्ययिता (4) जागरुकता (5) विश्वव्यापी व्यापार नौकरी, कृषि, शिल्प आदि चिकित्सा वकालत, उपदेश आदि क्षेत्रों में दल श्रमों के बदले में धन मिलता है और मानसिक श्रम का एवज बढ़ता है और बुद्धि को इस प्रकार से विकसित करने की आवश्यकता है कि साधारण श्रम से उचित मात्रा में धन कमाया जा सके। बिना इस प्रकार की योग्यता के केवल बोझा ढोने के शारीरिक श्रम से तो मनुष्य गधे और बैल की बराबर भी नहीं कमा सकता है। व्यवस्था करने की कुशलता मैनेजरी की योग्यता बहुत बड़ी योग्यता है। कम श्रम से अधिक काम होना, शक्ति का एक कण भी अपव्यय न होने देना, आवश्यकताओं को अविलम्ब पूरा कर देना, पूँजी श्रम, साधन और निकासी का ठीक समन्वय रखना व्यवस्थापक की कुशलता है। इन चारों में से एक भी कम हो जाने पर काम रुक जाता है इसलिए चतुर मैनेजर हर काम में इन चारों को जुटाने में सफलता प्राप्त किये रहता है। विज्ञापन और सजावट भी व्यवस्था का एक अंग है। मितव्ययिता कम खर्ची केवल आवश्यक वस्तुओं के लिए ही पैसा खर्च करना, धनी बनने का प्रमुख नियम है। फिजूल खर्ची से कुबेर के भी खजाने खाली हो सकते हैं। जागरुकता, सावधानी, सतर्कता रखे बिना कोई व्यक्ति धनी नहीं हो सकता। बदलती हुई परिस्थितियों के चढ़ाव उतार को बारीकी और गंभीरता से देख कर जो अपनी कार्य पद्धति में समयानुसार हेर फेर करता है वही लाभ उठाता है। निकट भविष्य के अच्छे और बुरे अवसरों की जो ठीक कल्पना कर लेता है और पहले से ही उनके लिए तैयारी करता है वह जीतता है। सजग आदमी आमतौर से धोखा नहीं खाते और न मौका चूकते हैं। विश्वास व्यापार की जान है। जो व्यापारी अपने संबंध में और अपने कारोबार के सम्बंध में विश्वास, यश और प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेते हैं उसके ग्राहक बढ़ते रहते हैं। साथ ही लाभ भी बढ़ता रहता है। अर्थ उपार्जन में यह पाँच सूत्र हैं।

बुद्धिबल—बुद्धिबल उपरोक्त तीनों बलों से सम्पन्नता के कारण सर्वप्रधान है। वे तीनों भी इसी बुद्धिबल पर निर्भर करते हैं। यदि बुद्धिबल हो तो उन तीनों का उपार्जन किसी न किसी प्रकार से प्राप्त भी हो जाएगा। तो उनका चिरस्थायी रहना कठिन है। इसलिए अपने आपको सुशिक्षित बुद्धिमान और क्रिया कुशल बनाने का सतत प्रयत्न करना चाहिए। बुद्धिबल के लिए पाँच बातें आवश्यक हैं (1) ज्ञान प्राप्ति की तीव्र इच्छा (2) तर्क का आश्रय (3) अध्ययन (4) संगति (5) सूक्ष्म निरीक्षण और मनन।

जिसे जानने की उत्कट अभिलाषा है वह एक दिन अवश्य जानकार बनकर रहेगा उसकी यह इच्छा ही ऐसे साधन जुट देगी जिससे अभीष्ट ज्ञान को प्राप्त करना सुगम हो जाय। हठ, दुराग्रह, भ्रम और अन्ध विश्वास को छोड़कर जो तर्क और प्रमाणों के आधार पर सत् असत् का निर्णय करता है वह वस्तु स्थिति तक पहुँच जाता है, उसकी बुद्धिमता में बढ़ोतरी होती है। इच्छित विषय के पुस्तकें तथा पत्र पत्रिकाएं पढ़ने से तथा उस विषय के जानकारों की समीपता में रहने से, उस प्रकार के कार्यों में क्रियात्मक हाथ बंटाने से ठोस ज्ञान मिलता है। सूक्ष्म दृष्टि से परिस्थितियों को देखने, उनकी तह तक पहुँचने की कोशिश करते रहने से नई नई बातें, नये नये तथ्य सूझ पड़ते हैं। जो खोज में रहता है वह अभीष्ट स्थान तक पहुँच जाता है।

“मैं सब जानता हूँ, मेरी अकल सबसे आगे है, मेरी ही बात सबसे ऊपर है, मैं ही सही हूँ और सब गलत हैं,” इस प्रकार का दुराग्रह और अहंकार रखने वालों की बुद्धि दिन दिन घटती है। यह मिथ्या अहंकार बुद्धि विकास के मार्ग को बन्द कर देता है इसलिए जिन्हें बुद्धि बल के सम्पादन की इच्छा है उन्हें इस प्रकार के अहंकार से पूर्णतया बचा रहना चाहिए। विभिन्न विषयों की गहरी जानकारी प्राप्त करने के लिए विद्यार्थी जैसी अभिरुचि रखनी चाहिए और तर्क द्वारा परीक्षा करके हर बात का खरा खोटापन परखते चलना चाहिए। अधिक जानकारी, अधिक वास्तविक जानकारी, अधिक उपयोगी जानकारी इन तीन आधारों पर जो अपने ज्ञान को बढ़ाता रहता है वह एक दिन बुद्धिबल संपन्न हो जाता है।

जिस प्रकार चार पाये लगाने से एक पूर्ण पलंग बनता है। उसी प्रकार चारों प्रकार के बलों से मिलकर एक पूर्ण बल बनता है। हमें इस सर्वांग पूर्ण बल को प्राप्त करने और उसे बढ़ाने के लिए निरन्तर प्रयत्न शील रहना चाहिए यह बल जैसे-2 बढ़ेगा वैसे ही वैसे जीवन अधिक साधन सम्पन्न बनता जाएगा और जिन वस्तुओं के लिए लोग तरसते हैं वे अनायास ही प्राप्त होने लगेंगी। सिद्धों की सहायता इसलिए ढूंढ़नी पड़ती है कि जीवन की आवश्यक वस्तुएं, आवश्यक सुविधाएं अपने बलबूते पर नहीं मिल पाते। जब शक्ति सम्पन्नता अपने में ही स्थापित हो जावेगी तो परमुखापेक्षी एवं पराश्रित न रहना पड़ेगा। सिद्धों की सहायता से कुछ प्राप्त करने की अपेक्षा, सबलता द्वारा बहुत प्राप्त करने का मार्ग उत्तम है। हमें सबल बनने के मार्ग को ही महत्व देना चाहिए और योग्यताएं एकत्रित करने में जुट जाना चाहिए, यही सुखदायक सिद्धियाँ प्राप्त करने का ठीक रास्ता है।


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