बड़े आदमी नहीं महामानव बनें

व्यक्तित्व की कसौटी-आदर्शनिष्ठा

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जिस वातावरण में मनुष्य रहता है उसमें पतनोन्मुखी प्रेरणा उभारने वाले तत्वों की बहुतायत है। प्रायः अधिकांश व्यक्ति उसी प्रेरणा प्रवाह में बहते रहते और किसी तरह जीवन के दिन काटते हैं। उनका तो कोई ऊंचा आदर्श होता है और कोई सिद्धान्त। शिश्नोदर परायण जीवन की आवश्यकताओं की आपूर्ति ही उन्हें अभीष्ट होती है। उसी के इर्द-गिर्द ही उनकी समूची चेष्टाएं गतिशील होती हैं। फलतः वे जीवन-पर्यन्त कुछ ऐसा नहीं कर पाते जिसे महत्वपूर्ण कहा जा सके। उच्चस्तरीय आदर्शों के प्रति निष्ठावान रह पाना उनके लिए कठिन पड़ता है। फल स्वरूप लोभ-मोह स्वार्थ परता के अवसर आते ही वे विचलित हो जाते और प्रस्तुत अवसर का लाभ अपने स्वार्थों के लिए उठाते देखे जाते हैं। समाज में ऐसे व्यक्तियों की संख्या ही अधिक है।

कुछ ऐसे व्यक्ति भी होते हैं जो हर तरह की परिस्थितियों में अपनी आदर्श निष्ठा एवं सिद्धान्तनिष्ठा को अक्षुण्ण बनाये रहते हैं। परिस्थितियां उन्हें प्रभावित नहीं कर पाती। आदर्शों की रक्षा कर्तव्य परायणता को वे अपना सबसे बड़ा धर्म मानते हैं। प्रत्यक्ष घाटा उठाते हुए सहर्ष असफलताओं का वरण करते हुए भी वे अपनी प्रामाणिकता पर किसी प्रकार की आंच नहीं आने देते। ऐसे व्यक्तित्व समाज देश और संस्कृति के गौरव होते हैं। स्वयं तो महान बनते ही हैं उनकी महानता अनेकों को प्रेरणा प्रकाश देने में समर्थ होती है।

यों तो आदर्शों एवं सिद्धान्तों की बड़ी बड़ी बातें कितने ही व्यक्ति करते रहते हैं पर उन्हें व्यवहार में तो कुछ ही उतार पाते हैं। मनुष्य की वास्तविक परख तो लोभ मोह के अवसरों पर होती है। जो अपनी सिद्धान्त निष्ठा के प्रति अडिग रहते हैं ऐसे व्यक्तियों से ही समाज फलता और फूलता है।

ऐसे ही कुछ प्रसंग यहां प्रस्तुत हैं। तब अंग्रेजों का शासन काल था। अंग्रेज अपनी संस्कृति को भारतीय जन-जीवन का अंग बनाने के लिए हर तरह से प्रयास कर रहे थे। कितने ही प्रकार के लोग भी भारतीयों को दिए जाते थे। सरकारी कर्मचारियों को अंग्रेजी पोशाक पहनना आवश्यक कर दिया गया। सर आशुतोष मुखर्जी के ऊपर भी अंग्रेजी वेश-भूषा अपनाने के लिए दबाव डाला गया। उनका ऑफिसर इस बात से सदा नाराज रहता था कि वे धोती कुरता पहनते हैं। एक दिन उस ऑफिसर ने आशु तोष मुखर्जी को बुलाया और कहा कि यदि तुम अंग्रेजी पोशाक पहन लो तो तुम्हारी पदोन्नति कर दी जायेगी मुखर्जी ने अधिकारी के प्रस्ताव को दृढ़ता से इंकार करते हुए कहा ऐसा कदापि संभव नहीं है। पद एवं पैसे के लिए मैं अपना जातीय स्वाभिमान कभी परित्याग नहीं कर सकता यह सोचकर कि ऐसा अनौचित्य पूर्ण दबाव सदा पड़ता रहेगा उन्होंने नौकरी से इस्तीफा दे दिया तथा स्वतन्त्रता संग्राम में अपना सक्रिय-योग दान देने लगे।

काला कांकर नरेश राजा रामपाल सिंह ने हिन्दुस्तान नामक पत्र आरम्भ किया उन दिनों महामना मालवीय की विद्वता की ख्याति सर्वत्र फैल चुकी थी सम्पादन के लिए उपयुक्त व्यक्ति जानकर राजा रामपालसिंह ने मालवीय जी को इस कार्य के लिए सादर आमंत्रित किया। साथ में आजीविका के रूप में दो सौ पचास रुपये माहवार की एक बड़ी धनराशि भी निर्धारित करदी। जो आज के लगभग तीन हजार रुपये के बराबर होती है। यह सोचकर कि आजीविका के साथ-साथ राष्ट्रीय विचारों को देशवासियों के समक्ष स्वतन्त्र रूप से प्रस्तुत करने के लिए सुअवसर मिलेगा। मालवीयजी ने राजासाहब का आमंत्रण स्वीकार कर लिया।

यह बात मालवीयजी को पहले ही मालूम हो गयी थी कि राजासाहब को शराब पीने की बुरी लत है। सोचा, शायद सुधर जायं। उन्होंने सम्पादन कार्य स्वीकार करने से पूर्व यह शर्त लगा दी कि राजा साहब कभी भी नशे की स्थिति में उनसे नहीं मिलेंगे। पर नशे के अभ्यस्त ढर्रे के कारण राजा साहब अपनी प्रतिज्ञा का पालन नहीं कर सके। यह देखकर मालवीय जी ने सम्पादन कार्य से इस्तीफा दे दिया अधिक वेतन आदि देने का प्रलोभन राजा रामपालसिंह देते रहे पर मालवीय जी की आदर्श निष्ठा अविचलित ही बनी रही।

ब्रिटिश सरकार ने पण्डित नेहरू को विचलित करने के लिए एक चाल चली और कहा कि यदि जवाहरलाल नेहरू देश की राजनीति में भाग लेना छोड़ दें तो उन्हें श्रीमती कमला नेहरू की देख-रेख के लिए हमेशा के लिए जेल से मुक्त किया जा सकता है। कमला नेहरू को उस समय क्षय रोग हो गया था। उन दिनों स्वतन्त्रता आन्दोलन तीव्र गति से चल रहा था। नेहरू तब बनारस जेल में थे। उक्त आशय का एक पत्र, पं. जवाहरलाल नेहरू को भी जेल में ब्रिटिश सरकार ने भेज दिया। पं. नेहरू के परीक्षा की यह विचित्र घड़ी थी। एक ओर धर्म पत्नी रुग्णावस्था, दूसरी ओर देश प्रेम आखिर उन्होंने पत्नी से परामर्श के लिए एक दिन जेल आकर मिलने का आग्रह किया।

वे समय पर जेल पहुंच गयीं। ब्रिटिश सरकार के प्रस्ताव की सूचना श्रीमती कमला नेहरू को भी मिल चुकी थी उन्होंने सजल नेत्रों से पर स्पष्ट शब्दों में नेहरूजी से आग्रह किया—‘‘आप सहर्ष राजनीति में बने रहिए, देश कोमातृभूमि को आपकी आवश्यकता है। इस नश्वर शरीर की देख-रेख के लिए आप राष्ट्रीय हित का परित्याग करें।’’ धर्म पत्नी से प्रेरणा पाकर पं. नेहरू ने किसी भी कीमत पर ब्रिटिश सरकार का दबाव स्वीकार करने का निश्चय किया। उधर श्रीमती कमला नेहरू की स्थिति बिगड़ती गयी और अन्ततः उनका रुग्णावस्था में ही देहान्त हो गया पर नेहरूजी की देश प्रेम की आस्था अडिग रही।

बंगाल के दिवंगत नेता डॉक्टर विधानचन्द्र राय बिहार से बी.एस.सी. परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद कलकत्ता मेडिकल कालेज में डाक्टरी पढ़ रहे थे। उन दिनों कलकत्ता में ट्रामगाड़ी चलना शुरू हुई थी। उनके एक अंग्रेज प्रोफेसर थेकर्नल पैक जो अपनी घोड़ागाड़ी से कहीं जा रहे थे। कर्नल पैक की गाड़ी ट्रामगाड़ी से टकरा गयी विधानचन्द्र के सामने ही यह घटना घटीं कर्नल साहब ने घोड़ा गाड़ी के कोचवान के विरोध में विधान चन्द्र राय को गवाह बनाना चाहा। अपना मन्तव्य उन्होंने राय के समक्ष स्पष्ट किया। गलती कोचवान की नहीं थी। इसलिए विधानचन्द्र ने ऐसा करने से दृढ़ शब्दों में इंकार कर दिया। एक विषय की मौखिक परीक्षा के इंचार्ज यही प्रोफेसर कर्नल पैक थे। उन्होंने अपनी नाराजगी का बदला विधान चन्द्र राय को मौखिक परीक्षा में फेर करके लिया। पर युवक विधानचन्द्र के ऊपर इसका प्रभाव नहीं पड़ा। पूरी लगन के साथ दुबारा वे परीक्षा की तैयारी करते रहे। इस बीच कर्नल की अन्तरात्मा ने भी उसे अवांछनीय कृत्य के लिए कोसा उसने विधानचन्द्रराय से क्षमा मांगी तथा उनकी सत्य निष्ठा की भूरि-भूरि प्रशंसा की।

लाहौर के मिशन हाईस्कूल में नवीं कक्षा में एक विद्यार्थी पढ़ता था। तब अंग्रेजों का शासन काल था। पढ़ाते-पढ़ाते एक अंग्रेज अध्यापक ने हिन्दू धर्म एवं संस्कृति पर अनेकों प्रकार के आक्षेप कर डाले जिनमें यथार्थता का थोड़ा भी अंश था। एक किशोर बालक को यह सहन हुआ। तुरन्त उठ कर खड़ा हो गया तथा विनम्रता पूर्वक उसने अध्यापक के आक्षेप का तर्क पूर्ण ढंग से विरोध किया प्रसंग वश उसने ईसाई धर्म की कुछ गलत मान्यताओं पर भी आक्षेप कर डाला। भला धर्मान्य अंग्रेज अध्यापक को यह कैसे सहन हो कि एक हिन्दू बालक ऐसी धृष्टता करे। अधिकारों का दुरुपयोग करते हुए अध्यापक ने किशोर को बेंतों से बुरी तरह पीटा तथा अपनी गलती स्वीकार करने के लिये विवश किया। पर मार सहते हुए भी किशोर ने अनौचित्य के सामने सिर नहीं झुकाया। यह किशोर आगे चलकर महात्मा हंसराज के नाम से सुविख्यात हुआ जिसने जीवन भर हिन्दू धर्म के प्रचार एवं प्रसार का कार्य किया पंजाब भर में दयानन्द आर्य वैदिक महाविद्यालयों की स्थापना की।

मोह वश घर के सगे सम्बन्धियों की अनौचित्यपूर्ण बातों का अधिकांश व्यक्ति विरोध नहीं कर पाते और सहन करते रहते हैं। फलतः अवांछनीय प्रचलनों को प्रश्रय मिलता है। राजाराम मोहनराय एक ऐसे साहसी व्यक्ति थे जिन्होंने परिवार का विरोध लेकर भी अविवेकी मान्यताओं का डटकर विरोध किया। उनके पिता अत्यन्त ही रूढ़िवादी थे। किशोर वय से ही मोहनराय ने सतीप्रथा, विधवा निषेध के विरोध में आवाज उठायी। रूढ़िवादी पिता को यह अच्छा लगा। उन्होंने मोहनराय से कहा कि ‘‘या तो तुम उपरोक्त प्रचलनों का विरोध करना छोड़ दो अन्यथा घर से निकल जाओ। आदर्शों के प्रति निष्ठावान मोहनराय ने सहर्ष घर छोड़ देना स्वीकार कर लिया पर अविवेकी परम्पराओं का समर्थन नहीं किया। जीवन-प्रयत्न वे दृढ़ता के साथ अन्धविश्वास, अविवेक एवं अज्ञान का विरोध करते रहे।

अपनी जान हर किसी को प्यारी होती है। ऐसे भी आदर्शों के पुंज हुए हैं जिन्होंने सहर्ष मृत्यु को वरण कर लिया पर मानवी विशेषताओं पर आंच नहीं आने दी। ब्रिटिशन्यायालय के कठघरे में क्रांतिकारी ऊधम सिंह खड़े थे। उन्होंने ब्रिटिश पार्लियामेंट में बम विस्फोट कर तहलका मचा दिया था। जज ने प्रश्न किया ‘‘नौजवान क्या तुम अपने बचाव के लिए वकीलों की सहायता लेना चाहते हो।’’ उत्तर मिला नहीं। प्रश्नों का सिलसिला चल ही रहा था कि एक अंग्रेज युवती भीड़ को चीरती हुई न्यायाधीश के समक्ष उपस्थित हुई। मानवीय न्यायाधीश से उसने युवक ऊधम सिंह से कुछ पूछने की अनुमति मांगी। अनुमति मिलते ही वह ऊधमसिंह से बोली युवक क्या तुम बता सकते हो कि जब तुम्हारी रिवाल्वर में तीन गोलियां शेष थीं, तो तुमने मुझ पर गोली चलाकर निकल भागने की कोशिश क्यों नहीं की? तुम्हारे पास एक चाकू भी था। चाहते तो वार करके आसानी से निकल सकते थे।’’ उल्लेखनीय है कि वह अंग्रेज युवती ही ऊधम सिंह की गिरफ्तारी का कारण बनी थी।

ऊधमसिंह ने अत्यन्त शिष्टता और विनम्रता से उत्तर दिया। ‘‘बहन! हम भारतीय हैं। स्त्री पर हाथ उठाना हमारी संस्कृति के विरुद्ध है। इसलिए मैंने रिवाल्वर की गोलियों का उपयोग नहीं किया तथा जेब में पड़े चाकू को भी विश्राम करने दिया। यदि आपके स्थान पर कोई अंग्रेज अफसर होता तो मेरी गोली का अवश्य निशाना बन जाता।’’

युवती के नेत्रों से अश्रु धारा बह चली। प्राणों की बलि देकर भी सांस्कृतिक आदर्शों के ऊपर आंच आने की अपूर्व एवं बेमिसाल निष्ठा को देखकर उपस्थित जन समुदाय के नेत्र भी सजल हो उठे। नर नाहर ऊधम सिंह को मृत्युदण्ड मिला पर आज भी उनके सत्साहस आदर्शनिष्ठा को याद करके हर भारतीय का सिर श्रद्धा से झुक जाता है। एक ओर प्रत्यक्ष, असफलता को भी वरण करके आदर्शों की रक्षा करने वालों के उपरोक्त उदाहरण हैं जिनके अविस्मरणीय संस्मरण याद आते ही हृदय पुलकित हो उठता है। दूसरी ओर आज की स्थिति को देखकर मन ग्लानि से भर उठता है। तिनके की भांति अवांछनीयता के प्रवाह में बहने तथा डूबने उतराने वालों की ही आज समाज में बहुतायत है। ऐसों से भला समाज एवं संस्कृति के उत्थान की किस प्रकार आशा की जा सकती है। इस समय देश को सर्वाधिक आवश्यकता है। ऐसे ही आदर्श पारायण-चरित्र निष्ठ व्यक्तित्वों की। 

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