बड़े आदमी नहीं महामानव बनें

शालीनता और सदाशयता को प्रश्रय मिले

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शोधकार्य को यश एवं गौरव प्रदानकर्त्ता माना जाता है। वैज्ञानिक, मनीष इसी प्रक्रिया में निरत रहते हैं। सरकार द्वारा शोधक्रम को परिपूर्ण प्रोत्साहन दिया जाता है। शोध निबन्ध रचने वाले या किसी दार्शनिक, वैज्ञानिक खोज में सफलता पाने वालों को सम्मानित डॉक्टर की पदवी भी मिलती है। कई बार तो शोधकर्त्ता के नाम पर ही उसकी सफलता का नामकरण कर दिया जाता है।

नये खोजे गये गृह नक्षत्रों में से अनेकों का नामकरण तो शोधकर्ताओं के नाम पर ही कर दिया गया है। हिमालय की सर्वोच्च चोटी का सर्वेक्षण कर पता लगाने वाले एवरेस्ट के नाम पर ही उस चोटी को भी ‘‘माउण्ट एवरेस्ट’’ नाम से पुकारा जाता है। भागीरथी को खोज निकालने और उसे जनोपयोग की स्थिति में लाने में सफल हुए महामानव का नाम भागीरथ पड़ा अथवा भागीरथ के श्रम को सम्मान देने के लिए उनकी उपलब्धि को भागीरथी कहा गया।

जिन वैज्ञानिकों ने महत्वपूर्ण आविष्कार किए हैं, उनके शोध श्रम को मनुष्य समुदाय सदा सर्वदा कृतज्ञता पूर्वक स्मरण करता रहेगा। जिन दैवज्ञों ने अन्तरिक्ष को खोजा, जिन मनीषियों ने रोग निदान, कारण उपचार का क्रम खोजा, उनके प्रति, पीड़ितों और पर्यवेक्षकों की अगाध श्रद्धा और कृतज्ञता बनी रहेगी। अमेरिका को खोज निकालने वाले कोलम्बस को उसकी तत्परता के लिए अनन्तकाल तक सम्मान भरा यश मिलता रहेगा। सेवा में यों अनेकों प्रसंग संदर्भों की गणना होती है, पर शोध का अपना अलग ही महत्व है। उसमें प्रत्यक्ष दान पुण्य जैसा कोई घटनाक्रम तो घटित होता नहीं दीखता, इतने पर भी सत्परिणामों को ध्यान में रखने वाले उस प्रयास को पर्वत जैसे दान−पुण्य की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण माना और श्रेय दिया जाता है।

हनुमान जी के समस्त चमत्कारों में सर्वोच्च महत्व का कार्य वह माना जाता है जिसमें उन्होंने सघन वन पर्वतों को ढूंढ़ते-छानते अन्ततः सीता को खोज निकला। इस सफलता के बाद उन्हें वापिस लाने का कार्य अत्यधिक हल्का हो गया। ऐसे ही कथानकों में एक प्रसंग वह भी है जिसमें राजा सगर के खोये हुए यज्ञ-अश्व की तलाश के लिए अपने एको एक परिजन को जुटा दिया गया था और निर्देश दिया गया था कि वे खोजे बिना वापिस लौटें।

इन दिनों जिस वस्तु की अत्यधिक आवश्यकता पड़ रही है उसका नाम है—‘‘आदर्शों के प्रति आस्था’’ इस एक ही वस्तु की कमी पड़ने से भयानक दुर्भिक्ष जैसी स्थिति उत्पन्न हो गयी है और सर्वत्र त्राहि-त्राहि मची है। साधन, सुविधाओं की कमी नहीं, यदि है तो उसकी पूर्ति के प्रयास हर क्षेत्र में तत्परता पूर्वक हो रहे हैं। शिक्षा, वृद्धि से लेकर उपार्जन उद्योग तक के प्रगति प्रसंगों में विज्ञ समाज की शासन तंत्र की समुचित दिलचस्पी दिखाई पड़ रही है। यह दूसरी बात है कि इस संदर्भ में दृष्टिकोण क्या अपनाया गया और कदम सीधी या उल्टी राह पर उठाया गया।

भौतिक उपलब्धियों की कमी नहींजो है उसकी पूर्ति अगले दिनों हो जाने की आशा बंधती और बढ़ती जा रही है। जिस क्षेत्र में निस्तब्धता और निराशा दृष्टिगोचर होती है शालीनता का उत्पादन-अभिवर्धन।इसके अभाव में जो कमाया-उगाया जा रहा है, उसका दुरुपयोग ही बन पड़ता है। फलतः लाभ की बात सोचने वाले भी पग-पग पर घाटा देखते और अन्ततः हानि बढ़ती देखकर निराश होते हैं। इस सन्दर्भ में कई लोकोक्तियां बहुत ही मजेदार हैएक में कहा गया है—‘अन्धी पीसै कुत्ता खाय।दूसरी में कहा गया है—‘अन्धा रस्सी बटता जायबछड़ा उसकी खाता जाय।तीसरी में दो जगह जोड़नेचार जगह टूटनेकी चर्चा है। इन सब में उस स्थिति का उल्लेख है जिसमें आवश्यक देख-भाल के सतर्कता केअभाव में प्रयास पुरुषार्थ को निरर्थक जानेनिष्फल होने की बात कही गई है इन दिनों शालीनता के अभाव में उपलब्ध साधनों का वैसा उपयोग बन नहीं पड़ रहा है जैसा कि आवश्यक है।

साधन कितने हीकुछ भी क्यों हों, उपयोगिता तभी बढ़ती है जब उनके प्रयोक्ता दूरदर्शी एवं सद्भाव सम्पन्न हों। दुरुपयोग होने पर तो अमृत भी विष बन जाता है। सुई जैसी उपयोगी वस्तु भी प्राण-घातक बन सकती है। साधन कितने ही लाभदायक या प्रचुर क्यों हों, उसका दुरुपयोग चल पड़े तो फिर विनाश ही विनाश है। दीपक जलाने वाली दियासलाई गलत हाथों में जाकर पूरे गांव-नगर को भस्मसात् कर सकती है।

संसार का गौरव और भविष्य श्रेष्ठ व्यक्तित्वोंमहामानवों पर अवलम्बित है। वे जितने ही बढ़ेंगे उसी अनुपात में सुखद परिस्थितियां बन पड़ेंगी। वे जितने घटेंगे, उतनी ही दुःखद दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियां उत्पन्न होंगी और दुर्घटनाएं बटेंगी। इन दिनों यह हो भी रहा है। हर क्षेत्र का नेतृत्व घटिया लोगों के हाथों में खिसकता जा रहा है। अग्रिम भूमिका ओछे लोगों के हाथों में पहुंचती जाती है। साहित्य, संगीत, कला जैसे बौद्धिक, उद्योग उत्पादन जैसे आर्थिक, प्रगति, सुरक्षा जैसे शासकीय चिन्तन-चरित्र जैसे धार्मिक क्षेत्रों में अवांछनीयता का प्रवेश क्रमशः बढ़ता ही जा रहा है, इसका कारण एक ही हैउत्कृष्ट व्यक्तित्वों का अभाव। वे अग्रिम पंक्ति में कहीं दीखते ही नहीं। हैं, तो कहीं किसी कोने में मुंह छिपाये बैठे हैं। आन्तरिक उत्साह, प्रखर उद्बोधन एवं अनुकूल वातावरण के अभाव में वे कुछ कर पाने का साहस नहीं जुटा पा रहे सहमे झिझके से किसी कोने में पड़े समय गुजार रहे हैं। यह कहना तो उचित होगा कि शालीनता संसार से उठ गई। ऐसी मान्यता तो एक प्रकार की नास्तिकता होगी। जब सृष्टा के इस सुरम्य उद्यान में किसी भी महान तत्व का आत्यन्तिक विनाश नहीं होता, अस्तित्व किसी किसी रूप में बना ही रहता है तो ऐसा क्यों माना जाय कि संसार में से शालीनता उठ गई और अवांछनीयता की सत्ता सर्वदा के लिए जड़ जमाकर बैठ गई। सारी दुनिया पर छा गई। रात्रि के सघन अंधकार में भी प्रकाश का अस्तित्व कहीं कहीं रहता ही है, भले ही दूरस्थ तारकों में टिमटिमाता क्यों दीखे।

अपने समय का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण कार्य यह है कि शालीनता को ढूंढ़ निकाला जाय। आज तो वह विलुप्त स्थिति में जा पहुंचाती है और खोजने पर कठिनाई से जहां-तहां उसकी झलक-झांकी मिलती है। होना यह चाहिए कि जहां कहीं भी वह छिपी बैठी हो, उसे ढूंढ़ निकाला जाय, मूर्च्छना से विरत किया जाय। जाग्रत सक्रिय बनाया जाय, सघन संघबद्ध किया जाय और उछालने उभारने का इतना समर्थ प्रयत्न किया जाय कि वह अग्रिम मोर्चे पर जा खड़ी हो। महत्वपूर्ण कार्यों की जिम्मेदारी अग्रिम पंक्ति में खड़ी होकर निभाये। ऐसा हो सके तो वर्तमान साधन सुविधा साधन भी इतने पर्याप्त सिद्ध हो सकते हैं कि उनके बलबूते अपनी दुनिया सुख-शान्ति से भरी पूरी दृष्टिगोचर होने लगे।

युग परिवर्तन का तात्पर्य यही है कि उच्चस्तरीय प्रतिभायें उभरें और उज्ज्वल भविष्य की संरचना में अपना पुरुषार्थ लगायें। ‘‘मनुष्य में देवत्व का उदय’’ इसी को कहा जायेगा। इतना बन पड़े तो समझना चाहिए कि धरती पर स्वर्ग के अवतरण की सम्भावनाएं। सार्थक होने में कोई कठिनाई शेष नहीं रही। अवरोध की चट्टान एक ही हैं उत्कृष्टता और प्रखरता से भरे-पूरे व्यक्तियों का अभाव, पलायन अथवा बिखराव विसंगठन इन दिनों इन्हीं को जहां-तहां से ढूंढ़ निकालना है। यदि उन्हें खोजा जा सका, जमा किया और जगाया उभारा जा सका तो समझना चाहिए समस्याओं, विपत्तियों विभीषिकाओं का तीन चौथाई हल निकल आया।

सदाशयता को ढूंढ़ निकालनाप्रखर परिष्कृत बनाना सत्प्रवृत्तियों के लिए नियोजित कर लेना, यह समूची कार्य पद्धति ऐसी है जिसे देव परम्परा ही कहा जा सकता है। जो अपनाते हैं वे स्वयं धन्य बनते और अन्यों को भी धन्य बनाते हैं। प्रस्तुत विषम वेला में इस स्तर के प्रयत्नों में संलग्न व्यक्तियों की ही आवश्यकता है। इन्हीं ही युग पुरुष कहा जाएगा। ऐसे सृजन शिल्पी स्वयं तो कृतकृत्य होंगे ही, असंख्यों अन्यायों को भी उच्च स्तरीय श्रेय उपलब्ध कराने वाले बड़भागी बनेंगे।


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