गायत्री को भारतीय संस्कृति की जननी और यज्ञ को भारतीय धर्म का पिता कहा गया है। एक ज्ञान की गंगोत्री और दूसरा विज्ञान का अधिष्ठाता है। दोनों के समन्वय से मनुष्य में देवत्व के उदय की परिस्थितियां बनती हैं। गायत्री साधना की पूर्णता अग्निहोत्र के साथ जुड़ी हुई है। व्यावहारिक जीवन में गायत्री को सद्भावनाओं की प्रेरक और यज्ञ को सत्कार्यों का संकल्प समझा जा सकता है। दोनों एक ही तथ्य के दो पक्ष अन्योन्याश्रित और परस्पर पूरक हैं।
नवयुग में गायत्री के तत्वज्ञान को विश्व चिन्तन का आधार माना जायगा और यज्ञीय परमार्थ परम्परा के अनुरूप व्यक्ति तथा समाज की रीति-नीति का निर्धारण होगा। दोनों का दर्शन एवं प्रयोग जन-जन को विदित होना चाहिए। इस दृष्टि से गायत्री यज्ञ अभियान को युग निर्माण योजना द्वारा प्रचलित धर्मतन्त्र से लोकशिक्षण का एक महत्वपूर्ण अंग माना गया है।
धर्मानुष्ठानों में यज्ञ को परब्रह्म का प्रतीक-प्रतिनिधि माना जाय। उससे पवित्रता एवं परमार्थ परायणता की प्रेरणा ग्रहण की जाय। इस प्रयास को ज्ञानयज्ञ का अंग माना गया है। ज्ञान गोष्ठियों और सम्मेलनों में गायत्री यज्ञों को केन्द्र बिन्दु मानकर चला गया है। धर्म परम्परा के इस पुनर्जीवन ने लोक श्रद्धा को उभारने में बहुत सफलता प्राप्त की है।
प्रचलित गायत्री यज्ञों में अन्न का एक दाना भी न होमा जाय। श्रमदान से सारे साधन जुटाये जायें। स्वयंसेवी धर्म प्रेमी इस प्रक्रिया को बिना किसी लोभ-लालच के पूर्ण करें करायें। नर-नारी सभी उसमें भाग लें। गायत्री मन्त्र से जड़ी बूटियों के हव्य की आहुतियां देने की प्रक्रिया नितान्त सस्ती और सरल होने से सर्वत्र लोकप्रिय हुई है। इन यज्ञों में भाग लेने वालों को आदतों और मान्यताओं में घुसी अवांछनीयताओं में से एक का परित्याग करना पड़ता है और एक सत्प्रवृत्ति को बढ़ाने का संकल्प लेना पड़ता है। इस प्रकार व्यक्ति और समाज के नवनिर्माण में गायत्री यज्ञों के माध्यम से प्रगति का नया द्वार खुल रहा है।
हर वर्ष छोटे-बड़े हजारों-लाखों गायत्री यज्ञ वैयक्तिक और सामूहिक रूप से सम्पन्न होते हैं उनमें उपस्थित धर्मप्रिय जनता को व्यक्ति, परिवार एवं समाज के नव निर्माण में यज्ञीय परम्परा के समावेश का व्यावहारिक मार्गदर्शन मिलता है। गायत्री यज्ञ के साथ सजीव प्रवचन का कार्यक्रम अविच्छिन्न रूप से जुड़ा रहता है। अग्निहोत्र के साथ ज्ञानयज्ञ के जुड़ा रहे से भावनात्मक नवनिर्माण का उद्देश्य जितनी अच्छी तरह सम्पन्न होता है, उतना भारत जैसे धर्मप्रिय देश में और किसी प्रकार संभव नहीं।
घर-घर में बलिवैश्व की परम्परा अपनाकर भोजन के छोटे पांच टुकड़ों की आहुतियां देने का प्रचलन हुआ है। इन पांच आहुतियों से शारीरिक, मानसिक, सामाजिक आर्थिक एवं धार्मिक क्षेत्र में सत्परम्पराओं के प्रवेश का भाव-भरा चिन्तन और मार्गदर्शन मिलता रहे ऐसा प्रयत्न किया गया है।
यज्ञ द्वारा शारीरिक मानसिक आधि-व्याधियों के निराकरण, प्रखरता सम्वर्धन एवं वातावरण के संशोधन सम्बन्धी तथ्यों को उजागर करने के लिए ब्रह्मवर्चस में शोध प्रयास चल रहा है।
अधिक जानने के लिए सम्पर्क सूत्र
गायत्री तपोभूमि (युग निर्माण योजना) मथुरा।