बड़े आदमी नहीं महामानव बनें

नियमितता का अभ्यास—एक श्रेष्ठ गुण

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विचार दिशा देते हैं, पर सामर्थ्य आदतों से रहती है। वे ही मनुष्य को किसी निर्धारित दिशा में चलने के लिए केवल प्रेरणा देती हैं वरन् कई बार तो उसे वे अपनी अनुरूप करा लेने के लिए विवश तक कर देती हैं भले ही परिस्थितियां अनुकूल हों। नशेबाजी जैसी आदतें इनका उदाहरण हैं। स्वास्थ्य, पैसा, यश आदि की हानियों को समझते हुए भी नशे के आदी मनुष्य नशा करते और उनके दुष्परिणाम भुगतते हैं। छोड़ने की बात सोचते हुए भी वे वैसा कर नहीं पाते। कारण कि विचारों की तुलना में आदतों की सामर्थ्य अत्यधिक होती है। अनुपयोगी होते हुए भी वे कई बार प्रबल होती हैं कि पूरा करने के अतिरिक्त और कोई चारा दिखाई नहीं पड़ता। भले या बुरे जीवन क्रम में जितना योगदान आदतों का होता है उतना और किसी का नहीं।

आदतें, आसमान से नहीं उतरतीं। विचारों को कार्यान्वित करते रहने का लम्बा क्रम चलते रहने पर वह अभ्यास आदत बन जाता है और उसे अपनाये रहने में जितना समय बीतता जाता है, उतना ही वह ढर्रा सुदृढ़ चला जाता है। वह परिपक्वता कालान्तर में इतनी गहरी जड़े जमा लेती हैं कि उखाड़ने के असामान्य उपाय ही भले सफल हों। सामान्यता तो वह अभ्यस्त ढर्रा ही जीवन क्रम पर सवार रहता है और उसी पटरी पर गाड़ी लुढ़कती रहती है।

आदतें बनाई जाती हैं, भले ही उनका अभ्यास योजना बनाकर किया गया हो अथवा रुझान, सम्पर्क, वातावरण, परिस्थिति आदि कारणों से अनायास ही बनता चला गया हो। यह आदतें ही मनुष्य का वास्तविक व्यक्तित्व या चरित्र होता है। मनुष्य क्या सोचता है क्या चाहता है, इसका अधिक मूल्य नहीं। परिणाम तो उन गतिविधियों के ही निकलते हैं जो आदतों के अनुरूप क्रियान्वित होती रहती है। प्रतिफल तो कर्म ही उत्पन्न करते हैं और वे कर्म अन्य कारणों के अतिरिक्त प्रधानतया आदतों से प्रेरित होते हैं।

बुरी आदतें अक्सर दूसरों की देखा-देखी या सम्बद्ध वातावरण के कारण क्रियान्वित होती और स्वभाव का अंग बनती चली जाती हैं। मन का स्वभाव पानी की तरह नीचे की ओर लुढ़कने का है। इन दिनों लोक प्रवाह भी अवांछनीयता का पक्षधर ही बन गया है। दोस्ती गांठने वाले चमकदार व्यक्तियों में से अधिकांश की आदतें घटिया स्तर की होती हैं। उनके प्रभाव सम्पर्क से भी वैसा ही अनुकरण चल पड़ता है। इस प्रकार अनायास ही मनुष्य बुरी आदतों का शिकार बनता जाता है। यही है वह चंगुल जिसमें जकड़े हुए लोग हेय जीवन जीते और दुष्प्रवृत्तियों के दुष्परिणाम सहते हैं।

जिस क्रम से आदतें अपनाई जाती हैं, उसी रास्ते उन्हें छोड़ा या बदला भी जा सकता है। रुझान, सम्पर्क, वातावरण, अभ्यास आदि बदला जा सके तो कुछ दिन हैरान करने के बाद आदतें बदल भी जाती हैं। कई बार प्रबल मनोबल के सहारे उन्हें संकल्पपूर्वक एवं झटके से भी उखाड़ा जा सकता है। पर ऐसा होता बहुत ही कम है। बाहर की अवांछनीयताओं से जूझने के तो अनेक उपाय हैं, पर आन्तरिक दुर्बलताओं से एक बारगी गुंथ जाना और उन्हें पछाड़ कर ही पीछे हटना किन्हीं मनस्वी लोगों के लिए ही सम्भव होता है। दुर्बल मन वाले तो छोड़ने पकड़ने-आगे बढ़ने पीछे हटने के कुचक्र में ही फंसे रहते हैं। अभीष्ट परिवर्तन होने पर उनका दोष जिस-तिस पर मढ़ते रहते हैं। किन्तु वास्तविकता इतनी ही है कि आत्म परिष्कार के लिएसत्प्रवृत्तियों के अभ्यस्त बनने के लिएसुदृढ़ निश्चय के अतिरिक्त और कोई उपाय है नहीं। जिन्हें पिछड़ेपन से उबरने और प्रगतिशील जीवन अपनाने की वास्तविक इच्छा हो उन्हें अपनी आदतों का पर्यवेक्षण करना चाहिए और उनमें से जो अनुपयुक्त हों उन्हें छोड़ने, बदलने का

सुनिश्चित निर्धारण करना चाहिए सौभाग्य निर्माता, प्रगतिशील महामानवों में से प्रत्येक को यही उपाय अपनाना पड़ता है।

अनगढ़ स्थिति में आमतौर से सभी मनुष्य कुसंस्कारी होते हैं। जीव ने क्रमिक विकास के लम्बे रास्ते पर चलते हुए मनुष्य स्तर तक पहुंचने में सफलता पाई है। यह सब अनायास ही नहीं हो गया। महत्वाकांक्षा ने अधिक उत्तम परिस्थिति प्राप्त करने के लिए तदनुरूप मनःस्थिति बनाई है। सदुद्देश्य के लिए किये गये प्रयत्नों में नियति भी सहायक होती है और ईश्वर की अनुकम्पा भी। अस्तु जीवधारी को उच्च स्तरीय स्थिति तक पहुंचने की अभिलाषा उसे वहां ले आई जहां सृष्टि का मुकुट-मणि-मनुष्य कहलाने का गर्व गौरव उपलब्धि हो सके।

इतने पर भी अनेकों में कुसंस्कारों का अभ्यास अभी से बना हुआ है जो निम्न योनियों की विषम परिस्थितियों में भले ही स्वाभाविक रहे हैं, पर आज उन्हें अपनाये रहने में हानि ही हानि है।

मानवी प्रगति के मार्ग में अत्यन्त छोटी किन्तु अत्यन्त भयानक बाधा हैअनियमितता की आदत। आमतौर से लोग अस्त-व्यस्त पाये जाते हैं। हवा के झोंकों के साथ उड़ते रहने वाले पत्तों की तरह कभी इधरकभी उधर कुदकते-फुदकते रहते हैं। निश्चित दिशा होने से परिश्रम और समय बेहतर बर्बाद होता रहता है। धीमी चाल से चलने की स्वल्प क्षमता रखते हुए भी सतत् प्रयत्न से कछुए ने बाजी जीती थी और बेतरतीब उछलने-भटकने वाला खरगोश अधिक क्षमता सम्पन्न होते हुए भी पराजित घोषित किया गया है। सामर्थ्य का जितना महत्व है उससे अधिक महत्ता इस बात की है उससे अधिक महत्ता इस बात की है। कि जो कुछ उपलब्ध है उसी को योजनाबद्ध रूप से, नियत क्रम व्यवस्था अपना कर, सदुद्देश्य के लिए उपयुक्त किया जाय। जो ऐसा कर पाते हैं वे ही क्रमिक विकास के राज मार्ग पर चलते हुए उन्नति के उच्च शिखर तक पहुंचते हैं। जो इस ओर ध्यान नहीं देते उन्हें योग्यता एवं सुविधा के रहते हुए भी पिछड़ी परिस्थितियों में पड़े रहना पड़ता है। जबकि सुनियोजित जीवनचर्या बन सकने वाले एक के बाद दूसरी पीढ़ी पर चढ़ते हुए वहां पहुंचते हैं जहां साथियों के साथ तुलना करने पर प्रतीत होता है कि कदाचित किसी देव दानव ने ही ऐसा चमत्कार प्रस्तुत किया हो, पर वास्तविकता इतनी ही है कि प्रगतिशील ने नियमितता अपनाई। अपने समय, श्रम और चिन्तन को एक दिशा विशेष में संकल्पपूर्वक नियोजित रखा। इसके विपरीत दुर्भाग्य का पश्चात्ताप उन्हें सहन करना पड़ता है, जो लम्बी योजना बनाकर उस पर निश्चयपूर्वक चलते रहना तो दूर अपनी दिन चर्या बनाने तक की आवश्यकता नहीं समझते और बहुमूल्य समय को ऐसे ही आलस्य प्रमाद की अस्त-व्यस्तता में गंवाते रहते हैं। कहते हैं कि लक्ष्य और क्रम बनाकर चलने वाली चींटी पर्वत शिखर पर जा पहुंचती है जब कि प्रमादी गरुड़ ऐसे ही जहां-तहां पंख फड़फड़ाता और वीट करता दिन गुजारता है।

अच्छी आदतों में सर्वप्रथम गिनने योग्य हैनियमितता। समय और कार्य की संगति बिठाकर योजनाबद्ध दिनचर्या बनाने और उस पर आरूढ़ रहने का नाम नियमितता है। उसके बन पड़ते ही चिन्तन को विचार करने के लिए एक दिशा मिलती है। व्यवस्थित कार्यक्रम बनाकर चलने से शरीर को उसमें संलग्न रहने की इच्छा रहती तथा प्रवीणता मिलती है।

पराक्रमों में सबसे अधिक महत्व का वह है जिसमें अपनी अनगढ़ आदतों को सुधारने का श्रेय पाया जा सके। बाहरी संघर्षों से जूझने और कठिनाइयों को हटाने से दूसरे लोग भी सहायता कर सकते हैं और परिस्थिति वश भी श्रेय मिल सकता है किन्तु अनुपयुक्त आदतों को बदलना मात्र अपने निजी पुरुषार्थ के ऊपर ही रहता है इसलिए उसे प्रबल पराक्रम की संज्ञा दी गई है और ऐसे लोगों को सच्चे अर्थों में शूरवीर कहा गया है। 

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