अंतिसंतं न जहाति अन्ति संत न पश्यति।
देवस्य पश्य काव्यं न जीर्यति।।
यद्यपि परम निकट है तो भी, उसे न लख पाता संसार।
और निकटतम होने से ही, उसे न लख पाता संसार।।
कहीं नयन भी कर सकते हैं निज पुतली का अवलोकन?
शक्ति ओजप्रद परम तत्व का कैसे आत्मा ले दर्शन?
हे मन! यदि तू करना चाहे परमेश्वर के शुभ दर्शन।
तो कर उसके चिर नूतन इस, विश्व काव्य का अवलोकन।।
मानव कृत नाटक पड़ जाता शीघ्र पुराना देखे बाद।
बार बार सम्मुख आने पर पैदा करत और विषाद।।
जीर्ण न होता, अंत न पाता, अजर-अमर प्रभु कृत यह काव्य।
क्षण-क्षण नूतनता दर्शाता, रस सरसाता नव सम्भाव्य।।
क्षण-क्षण पल-पल इसे निरखना प्रभुलीला में हो तन्मय।
हे मन! चेतन रहकर दर्शन, करता जह उसका मधुमय।।
-यज्ञदत्त अक्षय