प्रेम साधना के पथ पर

January 1961

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कुछ सूक्ष्म दृष्टि से एवं जीवन की निम्न भूमिका के ऊपर उठकर देखने पर पता चलता है कि सारा विश्व एवं इसके सम्पूर्ण पदार्थ एक ही नियम के अंतर्गत दिखाई देते हैं। ऊर्ध्वगामी, दिव्य जीवन की पवित्र भूमिका में पहुँचने पर तो यह नियम प्रत्यक्ष दिखाई देता है। उस एक ही नियम के कारण जीव और निर्जीव दोनों अपने पर्यायों को बदलते रहते हैं। वे कायम और सुरक्षित रहते हैं और विकास को प्राप्त करते हैं। वह नियम है प्रेम का नियम। प्रेम जीवन के लिए एक आवश्यक तत्व ही नहीं वस्तुतः वह जीवन का एकमात्र नियम है। प्रेम ही जीवन है ऐसा कहा जाय तो अत्युक्ति न होगी। इसलिए जीवन साधना के साधक प्रेम की साधना को ही अपनाते हैं और इसी से अन्त में प्रेम के इस अनन्त सागर में विलीन होकर स्वयं प्रेम स्वरूप बन जोत हैं जैसे एक पानी की बूँद समुद्र में मिल कर समुद्र बन जाती है। फिर वहाँ प्रेम का साम्राज्य होता है इसके अतिरिक्त कुछ नहीं।

प्रेम में सुरक्षित रहने की शक्ति है। प्रेम का आधार पाकर विश्व भवन खड़ा है। प्रेम के समाप्त होते ही तत्क्षण इसका विनाश निश्चित है। प्रेम के कारण ही विश्व में जीवन कायम है। जब व्यक्ति प्रेम के नियम का उल्लंघन करके प्रतिद्वन्द्वी बन जाते हैं तो वहीं से दोनों के विनाश की लीला प्रारम्भ हो जाती है। आज विश्व मुख्यतया दो गुटों में बँटा हुआ है। इन दोनों गुटों में जब तनाव, उत्तेजनात्मक वातावरण बन जाता है तो विश्व के शुभ चिन्तक चिन्तित हो जाते हैं। परस्पर प्रेम में ही सुरक्षा समृद्धि और विकास निहित हैं इसके विपरीत विनाश ही हो सकता है। मनुष्य हृदय में जब तक पूर्ण प्रेम नहीं होता उसमें द्वेष, घृणा का निवास होता है तभी वह संसार के नियम को कठोर समझता है किन्तु जब ये दूषित तत्व समाप्त हो जाते हैं तो उसका हृदय दया और प्रेम से द्रवित हो उठता है, और वह संसार के नियम में असीम दयालुता और प्रेम पाता है। जब मनुष्य प्रेम के नियम को उल्लंघन करता है तभी तो दुखों, हानियों एवं परेशानियों से पड़ जाता है। जीवन भार बन जाता है।

प्रेम ही सम्पूर्ण सुखों का आधार है। आज प्रत्येक व्यक्ति सुखी जीवन के लिए तरह-तरह के साधन जुटाता है। सुख के लिये हर क्षण प्रयत्न भी करता है किन्तु फिर भी अधिकांश लोग दुखी एवं क्लान्त दिखाई देते हैं। इसका एकमात्र कारण है वे प्रेम को छोड़कर अन्यत्र सुख की खोज करते हैं जो बालू में से तेल निकालने जैसा प्रयत्न है। सुख भोगने के लिए प्रेम को जीवन में उतारना होगा। इसी की साधना करनी होगी।

निस्वार्थ सच्चा प्रेम ज्ञान भी है, शक्ति भी। जो प्रेम की प्रेरणा से कार्य करता है उसे न कोई कठिनाई आती और न कोई उसका साथ छोड़ते हैं। यदि कोई कठिनाई आवे तो भी साथियों की मद्द और प्रेम के वातावरण में उसका कोई महत्व नहीं रहता । जिसने प्रेम करना सीख लिया उसने अपनी असफलता को सफलता में, प्रतिकूल को अनुकूल में, प्रत्येक घटनाओं और परिस्थितियों को सुख एवं सुन्दरता में ढालना सीख लिया । वस्तुत: मनुष्य के ज्ञान एवं शक्ति का विकाश प्रेम में ही निहित है अन्यत्र नहीं।

प्रेम मनुष्य को अजेय बनाता है, अभय करता है। प्रेम का सन्देश ही यह है कि समस्त विश्व में ऐसी कोई शक्ति नहीं है जो हानिकारक हो । स्वयं पाप, विकार, असुरता, जिन्हें जन -साधारण शक्तिशाली और दुर्जय समझते हैं वे भी प्रेम के समक्ष निर्बल और नाशवान ठहरते हैं, प्रेम के समक्ष इनका अस्तित्व इसी प्रकार समाप्त हो जाता है जैसे प्रकाश के समय अन्धकार । प्रेम में हिंसा नहीं है वस्तुत: अहिंसा ही प्रेम का दूसरा नाम है। प्रेम पथ का पथिक जब दूसरों की हिंसा करने के विचारों , इच्छाओं को ही नष्ट कर देता है, तो सब ओर से उसके रक्षक और हितैषी मिल जाते हैं। तब वह अपने को अजेय समझता है। प्रेम दण्ड नहीं देता। दण्ड का विधान मनुष्य की अपनी ही द्वेष बुद्धि एवं संसार के प्रेम नियम के उल्लंघन में ही है। प्रेम को भूल कर जब मनुष्य अपने आपको ही देखता है वहीं दु:खों का प्रारम्भ हो जाता है और फिर उसका बनाया हुआ दण्ड विधान लागू होता है। प्रेम दण्ड से नहीं वरन प्रेम से शासन करता है, जहाँ न परतन्त्रता होती है न कोई अभाव।

शारीरिक दृष्टि से महात्मा गाँधी वजन में ९६ पौंड हड्डियों का ढाँचा मात्र थे। न कोई रूप का आकर्षण था न कोई कला। फिर भी उनके मनमें जो विचार आया उसको पूर्ण करने के लिए अनेकों व्यक्ति तैयार हो गये । लाखों उनकी अँगुली के इशारे पर तैयार थे। मुँह से जो बात निकलती सारा जन समाज उसे पालन करने को कटिबद्ध हो जाता। जिधर उनके कदम बढ़ते उधर अनेकों कदम चल पड़ते। जिधर दृष्टि पड़ती उधर अनेकों नेत्र लग जाते ? यह शक्ति कहाँ से आई ? उनके प्रेम से प्रेम में अकूतं शक्ति भण्डार सन्निहित है ? जो मनुष्य प्रेम को ईश्वर का आदेश मानकर जीवन का सम्बल बनाता है, प्रेम के नियम में अपनी तुच्छ इच्छा को दखल नहीं देने देता उसमें दैवी शक्ति जाग्रत हो जाती है और उससे महान कार्य होते हैं। प्रेम से विवेक जाग्रत होता है। बुद्धि प्रकाशित हो उठती है प्रेम के बिना वह अन्धी और निर्जीव रहती है। जो कार्य बुद्धि द्वारा नहीं होते प्रेम उसे कर दिखाता है। प्रेम उन बातों को जान लेता है जिन्हें बुद्धि नहीं जान सकती ?

प्रेम से ही अमर शान्ति की प्राप्ति होती है। जिसके हृदय में प्रेम है वहाँ अशान्ति, उद्वेग पहुँच नहीं सकते। यदि अपना दाव चलाते हैं तो स्वयं ही नि:शेष हो जाते हैं। प्रेम के साधक के मस्तिष्क और हृदय में शान्ति रहती है। प्रेम के सहारे चलकर ही एक दिन मनुष्य जीवन मुक्त हो जाता है। ईश्वरीय सत्ता का साम्राज्य प्राप्त कर लेता है।

जहाँ प्रेम में इतनी शक्ति और ज्ञान निहित है वहाँ प्रेम साधना भी कुछ कम कठिन नहीं है। बिरले ही इसकी अन्तिम मञ्जिल तक पहुँचते हैं। प्रेमोपासना के कुछ नियम अवश्य हैं जिन्हें पूरा किये बिना उद्देश्य में सफलता नहीं मिलती हैं ?

प्रेम सदैव त्याग पर अवलम्बित रहता है। बिना दिए प्रेम जीवित ही नहीं रहता । जो जिससे प्रेम करेगा उसके लिये कुछ उत्सर्ग करके ही शान्त होगा। मीरा ने प्रेम किया था गिरधर गोपाल से, वह सर्वस्व त्याग कर वृन्दावन की ओर चल पड़ी थी। महात्मा गांधी का देश प्रेम व ईश्वर प्रेम प्रसिद्ध है जिससे उन्होंने अपने जीवन को सम्पूर्ण रूप से अपने प्रेमपात्रों को अर्पण कर दिया । वस्तुत: मनुष्य जब प्रेम करता है तो अपनी ही हानि करता है लौकिक दृष्टि से, जिसे त्याग भी कहा जाता है। कि वास्तव में यह प्रेम की एक आन्तरिक दशा हे देने को बाध्य करती है, अपना स्वयं का ख्याल नहीं करती। उत्सर्ग पर ही, त्याग पर ही प्रेम जीवित रहता है। प्रेम साधना पथ पर अग्रसर होने के लिए त्याग को जीवन में अपनाना आवश्यक है। ज्यों-ज्यों त्याग वृत्ति बढ़ेगी प्रेम का पौधा भी उसी क्रम में बढ़ता जायेगा और सम पर जब फलित और पुष्पित होगा तो सारा वातावरण उसकी मधुर गंध से महक उठेगा, जहाँ मनुष्य को अपार शक्ति, आनन्द, सन्तोष, प्रसन्नता प्राप्त होगी।

प्रेम सहिष्णु होता है वह सब कुछ सहता है यही तो सच्चे प्रेम की पहिचान है। ईश्वर प्रेम के पीछे लोग कितने दुःख और परेशानियाँ सहन करते हैं। मीरा ने जहर का प्याला पिया, दयानन्द को सत्रह बार जहर खाना पड़ा और अपमान सहन करना पड़ा। कितने ही देवभक्तों ने देश प्रेम के लिए अपने बलिदान किए, भयंकर यातनाएँ सहन कीं। मासूम बच्चे दीवारों में चुनना दिये गये किन्तु यह सब किस लिए? प्रेम के लिए। प्रेम भरपूर सहनशीलता चाहता है। क्रोध अथवा झुँझलाहट उसके पास नहीं फटकते। आपत्तिकाल को भी प्रेम सहिष्णुता के माध्यम से सुखमय बना लेता है। प्रेम शिकायत नहीं करता जो कुछ आये उसे सहन करने को तैयार रहता है तभी तो प्रेम साधना की सुदीर्घ मंजिल प्राप्त होती है। प्रेमी सभी परिस्थितियों का सहर्ष स्वागत करता है। जिससे भी प्रेम का नाता जोड़ लिया है उसके लिये सब कुछ सहन करना, अपने प्रेम सम्बन्ध को ही प्रमुख मान अन्य परिस्थितिजन्य झंझावातों से, कठिनाइयों से विचलित न होना, उन्हें सहर्ष सहन करना ही सच्चे प्रेम के लिए अभीष्ट है।

निस्वार्थता प्रेम का मूलाधार है। जो प्रेम किया जाय वह निस्वार्थ हो। स्वार्थ ही गन्दी बू प्रेम में पैदा हो जाती है तो वह प्रेम नहीं रहता प्रत्युत पाप बन जाता है, यह स्वार्थ भले ही कैसा भी हो, प्रेम पथ के पथिक के लिये सर्वथा त्याज्य है। स्वार्थ मय प्रेम संकुचित होता है इसलिए वह दुखदायी और भार स्वरूप होता है। थोड़ा और बहुत स्वार्थ भी प्रेम को कलंकित करता है।

प्रेम ही जीवन है, जीवन ही प्रेम है। प्रेम साधना ही जीवन साधना है। प्रेम साधना के पथ पर अग्रसर होकर अपने सारे भेद भावों, विकारों को निकालकर सब से प्रेम करना शुरू कीजिये। उस परमपिता परमात्मा से प्रेम कीजिए। उसके बताए हुए विश्व से, मानव जाति से, पशु-पक्षियों से सब से प्रेम कीजिए। प्रेम से ही जीवन को सराबोर कीजिए। अनन्त जीवन धार की एक कड़ी रूप में ही यह हमारा भौतिक जीवन हे। प्रकृति के विधान के अनुसार यह शरीर और अनन्य जगत समय पर नष्ट हो जाता है किन्तु जीवन धारा अगाध गति से चलती रहती है। वही सत्य है सत्य के लिये समग्र के लिए ही प्रेम कीजिए। प्रेम, प्रेम सर्वत्र प्रेम ही के दर्शन कीजिए। चार दिन की जिन्दगी के लिये तुच्छ स्वार्थ, अहंकार, संग्रह के लिए जीवन को नष्ट करना, जीवन के साथ विश्वासघात है, ईश्वर के प्रति विश्वासघात है। प्रेम-स्वरूप यह सृष्टि और हमारा जीवन प्रेममय होने के लिए ही है।

(श्री शारदा कान्त त्रिवेदी)


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