सरदार बल्लभ भाई पटेल

अंग्रेजों भारत छोडो

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अब कांग्रेस के मुख्य नेताओं की दृष्टि में वह समय आ गया था, जब उनको अंतिम रूप से स्वतंत्र होने का निश्चय करके अंग्रेजों से खुले तौर पर कह देना चाहिए कि- "आप यहाँ से चले जायें।" जबान से तो इन शब्दों को कहना कोई कठिन काम न था और सभी उग्र राजनीतिज्ञ बरसों से यही कह रहे थे। पर इस बार केवल मुँह से कह देने की बात न थी, वरन् निश्चय किया गया था कि जो कुछ कहा जाये। उसे कार्य रूप में भी परिणत किया जाये। इस संबंध में कांग्रेस कार्य समिति की जो बैठक जुलाई १९४२ में हुई, उसमें देश को एक नया आदेश देने का प्रस्ताव पास किया गया, जिसका सारांश था- 'अंग्रेजों चले जाओं !' यद्यपि इस उद्देश्य को किस विधि से पूरा किया जाये? इस संबंध में सब नेताओं के मनोभाव एक से न थे तो भी वर्धा में यह प्रस्ताव सर्वसम्मति से पास किया गया और यह निश्चय किया गया कि  अगस्त को बंबई में "अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी" की बैठक करके इसकी पुष्टि कराई जाये और देश भर में एक विशाल आंदोलन खडा कर दिया जाये, जिसे सरकार सँभाल न सके। नेताओं में से कुछ के मन में अभी तक अहिंसात्मक सिद्धांत की भावना काम कर रही थी, पर सरदार पटेल अब देशव्यापी क्रांति के लिए ही तैयार हो गये। उस समय देश का वातावरण ऐसा गर्म हो गया था कि किसी को यह भरोसा न था कि किस समय देश में अशांति का दौरदौरा हो जायेगा अथवा किस समय सरकार का दमनचक्र चल पडे़गा और सब राजनीतिक कार्यकर्ताओं को युद्ध संबंधी आर्डिनेंस के अंतर्गत एक ही दिन गिरफ्तार करके जेल के सीखचों में बंद कर दिया जायेगा। सरदार पटेल अपनी मानसिक स्थिति के कारण इस बात को बहुत अच्छी तरह समझते थे, इसलिए उन्होंने एक दिन का समय भी न खोकर वर्धा से लौटते ही अहमदाबाद की एक लाख व्यक्तियों की विराट् सभा में अपना संदेश कह सुनाया- "ऐसा समय फिर नहीं आयेगा। आप मन में भय न रखें। किसी को यह कहने का मौका न मिले कि गांधीजीअकेले थे। जब वे ७४ वर्ष की आयु में हिंदुस्तान की लडाई- लड़ने के लिए, उसका भार उठाने के लिए निकल पडे हैं, तब हमें भी समय का विचार कर लेना चहिए। आपसे माँग की जाए या न की जाए, समय आये या न आये, किंतु अब आपके लिए कुछ पूछने की बात नहीं रह जाती।

सन् 
१९१९ में रॉलट एक्ट के विरोध से लेकर अब तक जितने भी कार्यक्रम रहे हैं, उन सबका समावेश इसमें हो जायेगा। 'टैक्स मत चुकाओआंदोलन' 'कानून भंग' और इसी तरह की दूसरी लडाईयाँ जो सीधे रूप में सरकारी शासन के बंधन तोड़ने वाली हैं, उन्हें कांग्रेस अपना लेगी। रेलवे वाले रेलें बंद करके, तार विभाग वाले तार विभाग बंद करके, डाकखाने वाले डाक का काम छोड़ कर, सरकारी नौकर अपनी नौकरियाँ छोड़कर और स्कूल, कॉलेज बंद करके सरकार के तमाम यंत्रों को स्थगित कर दिया जाए। यह लडाई इसी किस्म की होगी। इसमें आप सब भाई साथ दीजिए। इसमें आपका हार्दिक सहयोग होगा तो यह लडाई थोडे ही दिनों में खत्म हो जायेगी और अंग्रेजों को यहाँ से चला जाना पडेगा। काम करने वालों को सरकार पकड़ भी ले, तो हर एक हिंदुस्तानी अपने आपकोकांग्रेसी समझे और उसी तरह अपना फर्ज अदा करे। अगर वह पुकार होते ही लड़ने को तैयार हो जाए, तो स्वतंत्रता हमारा दरवाजा खटखटाती हुई आकर खडी हो जायेगी।"
 

इन बातों को सरदार पटेल ने कई सभाओं में दुहराया और इस प्रकार अपने साथियों और अनुयायियों कोअगामी देशव्यापी विद्रोह का संकेत देकर वे एक अगस्त को ही बंबई चले गये और वहाँ उन्होंने चौपाटी पर सार्वजनिक सभा में अपने अहमदाबाद वाले संदेश को और भी संक्षिप्त और स्पष्ट करते हुए कहा- "आपको यही समझकर यह लडाई छेड़नी है कि महात्मा गांधी और सभी वरिष्ठ नेताओं को पकड़ लिया जायेगा। गांधी जी को पकडा जाये तो आपके हाथ में ऐसा करने की ताकत है कि २४ घंटे में ब्रिटिश सरकार का शासन समाप्त हो जाए। आपको सब कुंजियाँ बाट दी गई हैं, उनके अनुसार अमल कीजिये। सरकार का शासन चलाने वाले अगर सभी लोग हट जायें तो सारा शासन भंग हो जायेगा।"

 और  अगस्त की कांग्रेस कमेटी की मीटिंग में तो गांधी जी के 'अंग्रेजों चले जाओ' प्रस्ताव का समर्थन करते हुए सरदार पटेल ने जो कुछ कहा वह एक प्रकार से अगले दिन  अगस्त से आरंभ होने वाले विद्रोह का श्रीगणेश करना ही था।



उन्होंने कांग्रेस के अहिंसा सिद्धांत का जिक्र करते हुए कहा-


"लडाई के समय हमारा कार्यक्रम हमेशा गांधी जी ने तैयार किया है। जब तक वे बैठे हैं, वे जो हुक्म देंगे वही हम मानेंगे। नरम हो या गरम, जो वे कहें वही करना सिपाहियों का काम है। हमें बडी- बडी धमकियाँ दी जा रही हैं। हुकूमत का तरीका सबको मालूम है। वह सबको पकडेगी। बहुत- सी सूचियाँ और आर्डिनेंस तैयार किये गये हैं और तैयार किये जायेंगे। वह तो पिछली लडा़ईयों के समय से दफ्तरों में तैयार रखे थे, उनमें नई बात क्या है? मगर हमें अपनी जिम्मेदारी सोच लेनी है, समझ लेनी है। जब तक गांधी जी मौजूद हैं, तब तक वे जो हुक्म दें, जो हिदायत जारी करें, एक के बाद एक जो कदम उठाने को कहें, वही उठाना है, न जल्दबाजी की जाय? न पीछे रहा जाय। हर एक व्यक्ति को आज्ञा और अनुशासन का पालन करना है लेकिन मान लीजिये सरकार ने ही कुछ किया, सबको पहले से ही पकड़ लिया तो क्या किया जाये? ऐसे हो, अगर सरकार गांधी जी को पकड़ ले तो ऐसे मौके पर कदम- कदम की बात नहीं हो सकती। फिर तो हर एक हिंदुस्तानी का, जिन्होंने इस देश में जन्म लिया है। उन सबका- यह फर्ज होगा कि अपने देश की आजादी तुरंत हासिल करने के लिए उसे जो सूझे वही कर डाले। जो यहाँ बैठे हैं, वे सब इतनी बात यहीं से लेते जायें। जब तक गांधी जी हैं, वे हमारे सेनापति हैं, परंतु वह पकडे जायें तो किसी की जिम्मेदारी किसी पर नहीं रहेगी। सारी जिम्मेदारी अंग्रेजों के सिर रहेगी। अराजकता की जिम्मेदारी भी उन्हीं पर होगी। अराजकता का डर अब देश को नहीं रोक सकेगा।" 

"अखबारों के साधारण पाठक सन् 
९४२ के विद्रोह के समय समझते थे। कि ये दुर्घटनायें नेताओं की गिरफ्तारी से उत्तेजित होकर की जा रही हैं। पर सरदार पटेल के ऊपर दिये उद्गार साफ बतलाते हैं कि विद्रोह की योजना पहले ही निश्चित कर ली गई थी और सभी नेताओं को उसका पता था। पर सरदार पटेल तो उसके लिए पूरी तरह तैयार थे और उनको आगामी सप्ताह में ही होने वाली तोड़- फोड़ और घोर अशांति का अच्छी तरह पता था। उन्होंने अपने अहमदाबाद के भाषण में जो रेल, तार, डाक आदि के बंद हो जाने का संकेत किया तो लोगों ने भी विद्रोह के पहले ही दिन इन्हीं को रोकने कि व्यवस्था की। उस दिन समस्त देश में सैकड़ोंस्थानों पर रेल की पटरियाँ उखाडी गईं, तार काटे गये और डाकखाने जलाये गये। जनता के बडे- बडे दलों ने अनेक कस्बों तथा छोटे नगरों के कलेक्टरों के कार्यालय और खजानों पर हमला किया और बहुत से स्थानों में दो- चार दिन के लिए अपनी 'सरकार' भी कायम कर दी। पर सरदार पटेल को अपनी जनता की शक्ति का पूरा अनुमान था। इसलिए उन्होंने गिरफ्तारी से कुछ समय पहले ही कह दिया था "बस, हमारी क्रांति सात दिन की होगी। इसमें जो कुछ कर सकते हो बडी तेजी से कर डालो।" 
  
क्या यह एक आश्चर्य की बात नहीं है कि देश को स्वतंत्र कराने का इतना 
बडा काम एक ऐसे व्यक्ति ने किया, जिसका स्वास्थ्य नष्ट हो चुका था, आंतरिक अंगों में खराबी आ जाने से जो सदैव रोगी ही बने रहते थे? अहमदनगर के जेलखानों में भी वे अपने जीवन से निराश थे। हमेशा परहेज करते रहने की जिंदगी उनको पसंद नहीं आती थी तो भी देश की खातिर वे सब कुछ चुपचाप सहन करते रहे और उसी रोगी शरीर का भार ढोते हुए, भारत को एक सुदृढ़ राष्ट्र बनाने का सर्वोच्च कार्य पूरा कर गये। महापुरुषों का यही लक्षण होता है कि वे परमार्थ के लिए स्वार्थ को छोड़ सकने की पूरी सामर्थ्य रखते हैं। 

जानकार लोगों का कहना है कि यद्यपि कांग्रेस कार्यकारिणी ने सर्वसम्मति से 'अंग्रेजों चले जाओ' वाला प्रस्ताव पास किया था। पर आपस के वाद- विवाद में मौलाना- आजाद, 
डॉ० सैयद महमूद और आसफअलीकी राय यह थी कि महात्मा गांधी और कांग्रेस को यह आंदोलन आरंभ नहीं करना चाहिए था। नेहरू जी और पंत जी भी कुछ अंशों में इस मत के समर्थक थे। इन लोगों का कहना था कि इस प्रकार के आंदोलन से अमेरिका और चीन, जो भारत को स्वतंत्र किये जाने के पक्ष में हैं, हमसे सहानुभूति न रखेंगे। वे हमारे इस कार्य को इस निगाह से देखेंगे कि मानो हम युद्ध- प्रयत्नों में बाधा डाल रहे हैं और इस प्रकार हिटलर की सहायता कर रहे हैं। पर सरदार पटेल का मत इसके विपरीत था और वे अंत तक १९४२ के 'अंग्रेजों चले जाओ' आंदोलन का पूर्ण रूप से समर्थन करते रहे। 

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