संसार चक्र की गति प्रगति

जानें या न जानें सच तो सच है

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मनुष्य अभी तक अपने आपको सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी मानता रहा है। यह भी माना जाता रहा है कि परमात्मा ने उसे जितने श्रेष्ठ अनुदान, विभूतियां और विशेषतायें दी हैं, उतनी अन्य किसी प्राणी को कहीं भी नहीं मिली हैं। इस मान्यता ने उसे गौरवान्वित करने की अपेक्षा उसका दम्भ ही अधिक बढ़ाया है। लेकिन ऊंट जब पहाड़ के नीचे आता है तभी यह पता चलता है कि वास्तव में ऊंट ही सबसे ऊंचा नहीं है। मनुष्य के साथ भी पिछले दिनों कुछ इस तरह की स्थिति घटी है, जब अन्य ग्रहों और नक्षत्र तारकों में जीवन के अस्तित्व का पता चला और यह पता चला कि अन्य लोकों में पृथ्वी से भी अधिक उन्नत सभ्यता है तो मनुष्य का यह दम्भ टूटा ही है।

भूतकाल में जो कुछ जाना या माना गया था उसे सच ही माना जाय यह आवश्यक नहीं। ज्ञान अनन्त है। सत्य असीम है। उसका एक अंश ही मनुष्य की सीमित बुद्धि के लिये जान सकना सम्भव है। प्रगति की क्रमबद्ध यात्रा पर चलते हुये हम सत्य के अधिक निकट पहुंचते जाते हैं। इसलिये हमें सत्य की हर नई किरण का स्वागत करने के लिये तैयार रहना चाहिये। पूर्वाग्रहों पर अड़कर बैठ जाना और जा कहा जाता रहा है उसी को सच मानते रहना बुद्धिमत्ता का चिन्ह नहीं है।

कभी धरती को केन्द्र और अन्य ग्रह तारकों को उसकी परिक्रमा करता हुआ माना जाता था। आकाश को चादर की तरह चपटा माना जाता था पर अब वैसी मान्यता नहीं रही चन्द्रमा की गणना अब नव-ग्रहों में से हटा कर पृथ्वी के उपग्रह में करदी गई है। सौर मण्डल में तीन ग्रह और नये सम्मिलित हो गये हैं।

आकाश के बारे में अतीतकाल के लोग विभिन्न मान्यतायें रखते रहे हैं यूनानी लोगों की मान्यता थी कि बादलों में निवास करने वाले देवताओं का सारे आकाश पर राज्य है वह लोहे की तरह कड़ा है और धरती के कन्धों पर टिका है।

मैक्सिकोवासी 22 आकाश मानते थे धरती से ऊपर 13 आकाश स्वर्ग है जिनमें से सिर्फ पहला ही आंखों से दीखता है। धरती के नीचे 9 आकाश हैं जो नरक हैं।
दक्षिण अमेरिका के रैड इण्डियन सात आकाश मानते हैं जिनमें से पांच पृथ्वी के ऊपर दो नीचे हैं। वे इनके रंग भी भिन्न बताते हैं क्रमशः नीला, हरा, पीला, लाल, सुनहरा, बैंगनी और सफेद। इन सब के अधिपति अलग अलग आकृति-प्रकृति के देवता लोग हैं।

मान्यतायें पत्थर की लकीर नहीं हैं। आज जिस आधार पर हम एक बात को सत्य मानते हैं कल आधार बदल जाने पर परिभाषा बदल जायगी और पुराने प्रतिपादन को छोड़ने के लिये विवश होना पड़ेगा। इसमें भूत काल के प्रतिपादन कर्त्ताओं का अपमान नहीं है। उनने अपने समय की परिस्थितियों के अनुरूप जो सर्वोत्तम सत्य समझा उसे कहा। पर किसी ने भी यह नहीं कहा कि जो उनके द्वारा कहा जा रहा है वह अन्तिम है या पूर्ण सत्य है। ‘नेति नेति’ का घोष करते हुये तत्व दर्शियों ने सदा यह कहा कि जो बताया जा रहा है वह अन्तिम नहीं है, पूर्ण नहीं है। ‘स्याद्वाद’ दर्शन में इसी तथ्य को स्वीकार किया गया है और भावी अन्वेषण एवं विचार परिवर्तन के लिये पूरी गुंजाइश रखी गई है।

चन्द्रमा के सम्बन्ध में मनुष्य ने न जाने कब-कब से—क्या-क्या स्वप्न संजो कर रखे थे। कितनी मधुर कल्पनायें उसके साथ जोड़कर रखी थीं। विज्ञान ने उन्हें अस्त-व्यस्त करके रख दिया।

पाश्चात्य साहित्य में उसे चन्द्रमुखी महिला के रूप में चित्रित किया है। राहु के आक्रमण से पड़ने वाला चन्द्रग्रहण हमारे लिये चिन्ता का विषय था और उसे विपत्ति से छुड़ाने के लिये जप, दान किये जाते थे।

चन्द्रमा अमृत का घट है। उसकी चन्द्रिका अमृत बरसाती है। चन्द्र प्रकाश में शीतल किया हुआ दूध—शान्तिदायक होता है। शरद पूर्णिमा के चन्द्र प्रकाश में द्धीर का भोजन करते हुये उसमें अमृत मिश्रण की आशा की जाती है। किसान शुक्ल पक्ष में चन्द्रमा को साक्षी बनाकर बीज बोते हैं। चन्द्रमा का ज्यों-ज्यों रूप निखरता है त्यों-त्यों समुद्र कोटि-कोटि हाथ पसारकर उसे अपने अंक में आबद्ध करने के लिये व्याकुल होता है। ज्वारभाटे की यही साहित्यिक कल्पना है। स्त्रियों के मासिक धर्म की चन्द्र कलाओं के साथ संगति बिठाई जाती है।

पौराणिक गाथा के अनुसार चन्द्रमा की उत्पत्ति समुद्र मन्थन से उत्पन्न रत्नों के रूप में हुई। उसे शिवजी के मस्तक पर निवास करते रहने का स्थान मिला। दक्ष प्रजापति की 27 कन्यायें चन्द्रमा को विवाही गईं। इनमें से रोहिणी को अधिक प्यार करने से रुष्ट अन्य 26 पत्नियों ने जब अपने पिता से शिकायत की तो इस पक्षपात के लिये उसे दक्ष के शाप से कलंकी होना पड़ा। इन्द्र के द्वारा अहिल्या के साथ छल करने में सहयोग करने के कारण गौतम ऋषि के शाप से उसे कलंकी बनना पड़ा। मणि चुराने के अभियोग में शाप लगने के कारण भाद्र पद शुक्ल चतुर्थी को चन्द्र दर्शन हेय घोषित किया गया। स्त्रियां गणेश चतुर्थी को चन्द्र दर्शन के उपरान्त ही कुछ खाती हैं और चन्द्र देवता से सुहाग वरदान मांगती हैं। रजनी पति निशा नाश चन्द्रमा को काम उमंग उत्पन्न करने वाला बताया गया है। प्रेयसी की चन्द्र मुख से तुलना कवि न जाने कब से करते रहे हैं।

मुसलमान ईद का चांद देखकर अपना व्रत उपवास पूर्ण करते हैं। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार चन्द्रमा एक पूर्ण ग्रह है। उसे शास्त्राधार का मध्य बिन्दु मानकर ग्रह गणित आगे चलता है, यात्रा मुहूर्तों में चन्द्रमा की दिशा स्थिति को ध्यान में रखा जाता है। मनुष्यों पर जब चन्द्र दशा आती है अथवा जब अन्तर प्रत्यन्तर आते हैं तब शुभ लाभ का फलित बताया जाता है। सप्ताह का एक दिन चन्द्रमा के नाम पर ही निर्धारित है उस दिन को मंगलमय माना गया है। बच्चे उसे चन्दा मामा मानते रहे और मातायें उस चन्द्र खिलौने को ला देने का आश्वासन न जाने कब से अपने नन्हें शिशुओं को देती रही हैं।

आधुनिक विज्ञान के अनुसार चन्द्रमा 2000 मील व्यास का एक वर्तुलाकार निर्जीव पिण्ड है जो सूर्य के प्रकाश से चमकता है। उसका बोझ पृथ्वी की तुलना में 81 वां अंश ही है। वहां न पानी है न हवा। न कोई जीव, न वनस्पति। शब्द का सर्वथा अभाव। नीरव निस्तब्धता का साम्राज्य। विश्व किरणों की, उल्काओं की—अणु किरणों की—निरन्तर वर्षा होती रहने से वहां की चट्टानें धूल बन गई हैं। उसकी परतों में नाइट्रोजन, गन्धक, फास्फोरस, कार्बन डाई ऑक्साइड तथा कतिपय धातुयें विद्यमान हैं। रात को वहां अति शीत होता है और दिन को अति ताप। वह पृथ्वी की परिक्रमा 240000 मील दूर रहकर करता है।

चन्द्रमा के सम्बन्ध में अब तक मान्यतायें प्रतिपादित और प्रचलित रही हैं। डार्विन का कथन है—पुरातन में पृथ्वी तप्त द्रव थी। उसमें अनेक विस्फोट होते थे। वह तप्त रस सूर्य की परिक्रमा कर रहा था। इसी बीच पृथ्वी के विस्फोट और सूर्य के आकर्षण से पृथ्वी का एक टुकड़ा उचट कर अलग हो गया और स्वतन्त्र रूप से घूमने लगा यही चन्द्रमा है। पृथ्वी के जिस स्थान से यह टुकड़ा टूटा वहां प्रशान्त महासागर का गड्ढा बन गया।

डा. वा वाईज ने भी थोड़े हेर-फेर के साथ इसी मत की पुष्टि की। उनने धूमकेतु विश्व किरणें तथा शक्ति आघातों के कारण चन्द्रमा में अनेक खड्ड बन जाने की बात कही। जेम्स जीव्य और डा. वफुन्स का मत है कि—कभी कोई विशाल तारा सूर्य के समीर होकर गुजरा। उसके और सूर्य के गुरुत्वाकर्षणों में रस्साकशी हुई। इस संघर्ष में सूर्य का एक बड़ा भाग महा भयंकर विस्फोट के साथ टूट गया। उस टूटे भाग से सौर मंडल के अन्य ग्रह बने और उसी मलबे में से चन्द्रमा बन गया। चन्द्रमा पृथ्वी के समीप होने के कारण धरती के गुरुत्वाकर्षण में जकड़ गया और उसी की परिक्रमा करने लगा।

डा. फेड हायल का कथन है—अनन्त आकाश में प्रचण्ड ज्योति के फेंके हुए कणों को सूर्याकर्षण ने खींचा और वह धूलि, सघन होकर चन्द्रमा बन गई।

अब चन्द्रमा के सम्बन्ध में यह नये तथ्य स्वीकार कर लिये गये। प्राचीन मान्यताओं की साहित्य में चर्चा भले ही होती रहे पर उन्हीं को सही मानने के लिए कोई आग्रह नहीं करता। यही उचित भी है।

यूनान का खगोल वेत्ता अनेग्जागोरस बड़े दाव के साथ कहता था कि सूर्य का विस्तार इतना है कि जितना यूनान का दक्षिण भाग। उन दिनों यह प्रतिपादन पूरी तरह गुप्त माना गया था। जरा सा सूरज भला कहीं यूनान के दक्षिण भाग जितना बड़ा हो सकता है?

पीछे दूसरे खगोल वेत्ता और भी आगे बढ़े। उन्होंने हिसाब लगा कर बताया कि सूर्य का विस्तार पृथ्वी से भी बड़ा है। सुनने वालों ने इसे और भी बड़ी अतिशयोक्ति माना। यह ग्रह गणित आगे भी जारी रहा और ज्योतिर्विद पोसिडोयिस ने सूर्य का विस्तार और भी बड़ा बताया उसका प्रतिपादन वर्तमान मान्यता से लगभग आधा था। मध्यकाल में ब्रह्माण्ड की सुविकसित कल्पना करने वाला पुराना दैवज्ञ ‘दान्ते’ है। उसने अपनी पुस्तक ‘पैराडाइसो’ में कहा है—सूर्य, चन्द्र, स्वर्ग, स्थिर नक्षत्र इन सबका एक केन्द्र मण्डल है। चौबीस घण्टे में उसका एक चक्कर पूरा होता है। आज की ब्रह्माण्ड मान्यता की तुलना में उसे बचपन की कल्पना ही कहा जा सकता है। अब ब्रह्माण्ड के विस्तार की मान्यता पुरातन की अपेक्षा बहुत आगे और बहुत विस्तृत है। तारे आसमान की छत में लटके हुए अब झाड़ फानूस नहीं रहे। वर्तमान खगोल विद्या के अनुसार सबसे निकट दीखने वाला तारा भी सूर्य से बहुत बड़ा और बहुत दूर है। सूर्य का प्रकाश पृथ्वी तक आठ मिनट में आ जाता है पर उस निकटवर्ती तारे का प्रकाश हम तक आने में लगभग चार साल लगते हैं। खुली आंखों से जितने तारे हमें दीखते हैं वे सब अपनी आकाश गंगा ‘मन्दाकिनी’ के ही अण्डे बच्चे हैं और उसी से बंधे हैं उसी की गोद में खेलते हैं। हमारी मंदाकिनी आकाश गंगा की तरह ब्रह्माण्ड में करोड़ों आकाश गंगायें हैं।

अपनी आकाश गंगा में लगभग 3 अरब तारे हैं। इनमें निकटवर्ती नक्षत्र की दूरी 290 खरब मील है। ऐसी ऐसी आकाश गंगाएं करोड़ों हैं और वे एक दूसरे से इतनी दूर हैं कि एक का प्रकाश दूसरी तक पहुंचने में 2 करोड़ वर्ष लगते हैं।

सूर्य का वजन 2 अरब टन है। अपनी आकाश गंगा अपने सूर्य से 60 अरब गुनी भारी है। ऐसी करोड़ों आकाश गंगाओं के तारा मण्डल ने जो जगह घेर रखी है उसे सिर में एक बाद के बराबर ही समझना चाहिए। शेष ब्रह्माण्ड तो बिलकुल पोला—सूना—खाली नीरव ही पड़ा हुआ है।

अपना सूर्य, मन्दाकिनी आकाश गंगा का एक छोटा सा तारा है। ऐसे लगभग 1 खरब तारे उसमें गुंथे हुए हैं और अपने सूर्य की तुलना में 60 हजार गुने तक बड़े हैं। इनकी दूरी का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि यदि कोई प्रकाश की गति से—एक सेकिण्ड में 1,86,000 मील की चाल से—चले तो उसे अपनी आकाश गंगा में सबसे निकटतम तारे पर पहुंचने के लिए प्रकाश गति से 4 वर्ष लगेंगे और दूर वाले पर पहुंचने के लिए 82 हजार वर्ष चलना पड़ेगा ऐसी-ऐसी असंख्य आकाश गंगाएं इस अनन्त ब्रह्माण्ड में बिखरी पड़ी हैं। उसकी परिधि और सीमा की कल्पना कर सकना भी मानवी बुद्धि से बाहर की बात है।

कोई समय था जब समझा जाता था कि सृष्टि का केन्द्र यह पृथ्वी ही है। यह स्थिर है और सूर्य चन्द्र तथा तारे इसके आस-पास घूमते हैं। तब धरती को चौकोर या चपटी समझा जाता था। कुछ इसे स्वर्गादपि गरीयसी मानते रहे कुछ ने माना उसे जन्म-मरण के कुचक्र में बांधने वाला भव सागर।

दार्शनिक फिरदौसी ने उसे असीम सौन्दर्य की देवी कहा और बताया है कि यदि स्वर्ग कहीं है तो इस धरती पर ही है।

वैज्ञानिक भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि यह धरती अन्य ग्रह नक्षत्रों की तुलना में अत्यधिक सौभाग्यशाली है। इसकी सूर्य से दूरी तथा कला इतनी उपयुक्त है कि उससे प्राणियों का जन्म, ऋतु अनुकूलता तथा अगणित शोभा, सुविधा का सृजन सम्भव हो सका। यह स्थिति अनय ग्रह नक्षत्रों की नहीं है। उनका तापमान, शीतमान इतना भयंकर है कि जीवन की सम्भावना का कोई लक्षण नहीं दीखता।

चूंकि हम इस धरती पर रहते हैं और निकटवर्ती वस्तु की शोभा, उपयोगिता न दीख पड़ती है, न समझ में आती है। उसे देखने समझने के लिए दूरी का अन्तर होना चाहिए। अपोलो 11 अन्तरिक्ष यान के यात्रियों ने दूर से इस धरती की शोभा को देखा तो वे गदगद हो उठे। उन्होंने उस सौन्दर्य की अभिव्यक्ति को अनिवर्चनीय और और अकल्पनीय बताया।

अब पृथ्वी भूत काल के ज्योतिषियों की मान्यता के अनुरूप स्थिर नहीं है। वह एक नहीं कई चाल चलती है। पृथ्वी की कुछ चालें पहले से ही विदित थीं। पृथ्वी सूर्य मण्डल की परिक्रमा एक वर्ष में पूरी करती है। वह अपनी धुरी पर 24 घण्टे में घूम लेती है। सूर्य—पृथ्वी समेत अपने सौर मण्डल को साथ लिये—महा सूर्य की परिक्रमा के लिए दौड़ा जा रहा है। इनके अतिरिक्त पृथ्वी की एक और गति का पता चला है। जिसे ‘थिरकन’ कह सकते हैं।

ऋग्वेद की एक ऋचा है—‘इह व्रवीतु य उतच्चिकेतत्’ अर्थात्—इस विश्व के सब रहस्यों को यदि कोई जानता है तो वह यहां आकर बताये। तैत्तिरीय ब्राह्मण की एक श्रुति है—‘‘यह विश्व किससे उत्पन्न हुआ यह कौन जानता है? इसके रहस्यों को कौन कह सकता है? देवता भी तो पीछे जन्मे हैं, वे अपने उद्भव से पूर्वकाल का वृतान्त कैसे जान पाये? जिसका एक फल यह पृथ्वी है, उस ब्रह्माण्ड वृक्ष का जन्म किस आरण्यक में हुआ इसे कौन जानता है? इस सबका जो अधिष्ठाता है उसे कौन जानता है? वह अधिष्ठाता भी अपने विस्तार का सम्पूर्ण रहस्य जानता है या नहीं इसे कौन जाने?’’

कापर्निकस भी सत्य की शोध में एक सीमा तक ही बढ़ सका। उसने पृथ्वी को विश्व का केन्द्र तो नहीं माना, पर वे सेहरा सूर्य के सिर बांध दिया। वह कहता था मध्य केन्द्र सूर्य है। उसी के इर्द-गिर्द समस्त ग्रह-नक्षत्र परिक्रमा करते हैं। उसे क्या पता था कि बेचारा सूर्य भी कभी अनन्त ब्रह्माण्ड की परिभ्रमण प्रक्रिया का एक नन्हा-सा बाल-पथिक ही माना जाने लगेगा।

प्राचीन ज्योतिष शास्त्र की मान्यता यही रही है कि पृथ्वी स्थिर है और सूर्य चल एवं ग्रह-नक्षत्र उसकी परिक्रमा करते हैं। पृथ्वी को चपटी तश्तरी नुमा माना जाता था। यों पीछे पाइथागोरस, अलबेरुनी, आर्य भट्ट आदि ने पृथ्वी को गोल तो माना पर उसे भ्रमणशील वे भी नहीं मानते थे।

पहली बार पृथ्वी के भ्रमणशील होने का प्रतिपादन पोलेण्ड निवासी कापर्निकस ने किया और इसके प्रमाण तर्क का प्रतिपादन उसने अपने ग्रन्थ ‘आकाश मण्डल में भ्रमण पथ पर’ नामक ग्रन्थ में किया। उसे अनुमान था कि इस प्रतिपादन से पुरातन पंथी ईसाई समाज उसका घोर विरोध करेगा इसलिये उसने चतुरता से काम लिया, उसे रोम के पापपाल तृतीय को समर्पित किया और ऊपर से ऐसी लीपा-पोती की, प्राचीन प्रतिपादन का खण्डन होते हुये भी कटुता उत्पन्न नहीं हुई। पोप की आड़ में कुछ दिन तो यह चाल सफल रही पर पीछे जैसे ही उसे लोगों ने बारीकी से पढ़ा वैसे ही इसाई धर्म के दोनों ही वर्ग प्रोटेस्टेन्ट और रोमन कैथोलिक उसके विरोध में हाथ धोकर पीछे पड़ गये। अन्ततः पोप के आदेश से उस पुस्तक को जब्त कर लिया गया। प्रतिपादनकर्ता पर वे अपराध लगाये गये जिनका फल उसे मृत्यु दण्ड ही भुगतना पड़ सकता था। अच्छा इतना ही हुआ अपराध लगाये जाने से 73 वर्ष पूर्व ही कापर्निकस मर चुका था। अन्यथा उसे भी धरती को भ्रमणशील बताने वाले एक अन्य खगोलज्ञ बूनी की तरह जीवित जला दिया जा सकता था। ऐसे ही प्रतिपादनों पर गैलीलियो को भारी उत्पीड़न सहने पड़े थे।

गैलीलियो ने खगोल का दूर दर्शन कर सकने योग्य दूरबीन सबसे पहले 1609 में बनाई इससे पूर्व जितना तारामण्डल आंखों से देखा जा सकता था उसी की खोज सम्भव थी और की गई। आचार्य लगध, आर्य भट्ट, वराहमिहर, भास्कराचार्य और टालमी, कापर्निकस केपलर आदि ज्योतिर्विदों ने आंखों से जो देखा जा सकता था उसी आधार पर खगोल विद्या की खोज-बीन की है।

पृथ्वी की अक्ष और उसके सिरे अपने स्थान में फेर बदल करते रहते हैं। 4 मास में यह विचलन 72 फीट तक होता रहता है। पिछली शताब्दियों के खगोल वेत्ता जेम्स ब्रंडले और मौलीनो ने यह आशंका व्यक्त की थी की ध्रुव अपना स्थान बदलते हैं उसका कारण पृथ्वी की एक गति ‘थिरकन’ भी हो सकती है।

ऐसा क्यों होता है, इसके कारणों की खोज करते हुये कई तथ्य सामने आये हैं। अक्ष की विस्थापना, ध्रुव प्रदेशों में बर्फ का पिघलना, समुद्रों की विशाल जल राशि का भटकाव भूगर्भ के तप्त लावे का उद्वेलन और पुनर्वितरण जैसे कारण इस थिरकन के सोचे गये हैं।

तथ्यों का सही निरूपण करने के लिये इंटर नेशनल पोलर योशन सर्विस (अन्तर्राष्ट्रीय ध्रुव चलन सेवा की ओर से उत्तर ध्रुव के चारों ओर 40 डिग्री अक्षांश पर पांच वेधशालाएं स्थापित की गई हैं। और उनमें व्यवस्थित रूप से शोध कार्य हो रहा है। यह वेध शालाएं (1) विजु सावा (जापान) में (2) समरकन्द के निकट ‘केताब’ में (3) इटली के निकट सार्डीनिया के कार्लोफोर्ते में (4) अमेरिका के गैदर्जवर्ग तथा (5) यूक्रिया स्थानों में कार्य संलग्न हैं। रात्रि के छह घण्टे आकाश निरीक्षण के आधार पर इनमें कार्य होता है और निष्कर्ष भिजुसावा केन्द्र में भेज दिया जाता है। इन सभी वेधशालाओं के यन्त्रों की सम्वेदन शीलता में कोई दोष उत्पन्न न होने देने के लिये वहां का तापमान न बढ़ने देने की कठोर व्यवस्था है। रात्रि में अति मन्द रोशनी, सर्दियों में हीटर तक न जलाना, खिड़कियां खुली छोड़ना, कार्यकर्त्ताओं की शारीरिक गर्मी तक बाहर न आने देने जैसी अनेकों सावधानियां बरती जाती हैं।

आकाश भी गहन गम्भीर

आकाश यों एक और अनन्त है ऊंचाई के अनुपात से उसकी स्थिति में जो अन्तर पड़ता जाता है उसे ध्यान में रखते हुये गणना-कर्त्ताओं ने उसका भी परतों के हिसाब से विभाजन कर दिया है।

पृथ्वी के धरातल से लगभग 1000 मील ऊंचाई तक भारी हलकी हवा का अस्तित्व है। इस ऊंचाई को चार भागों में विभक्त किया गया है— (1) ट्रोपोस्फीयर (क्षोस मण्डल) यह समुद्र सतह से 35 हजार फुट तक है। समस्त वायु का लगभग तीन चौथाई वजन इसी क्षेत्र में है। हमारे जीवनोपयोगी तत्व का अधिकांश भाग इसी क्षेत्र में भरा पड़ा है। आसानी से सांस ले सकना 20 हजार फुट तक ही सम्भव है। इससे ऊपर उठना हो तो ऑक्सीजन का यास्कि चेहरे पर बांध कर ही उड़ सकते हैं। इस ऊंचाई पर बर्फानी हवायें चलती हैं जिनसे मुंह और कान के अवयव तक कांपने लगते हैं और बोलना ही नहीं सुनना भी कठिन हो जाता है। बोलने, सुनने की कठिनाई तो इससे ऊपर उठने पर भी बनी ही रहेगी। ऊपर क्रमशः हवा पतली होती जाती है—जिसमें मुंह के लिये ध्वनि कम्पनों को छोड़ सकना कठिन है। बोलने का प्रयत्न करने पर मुंह से सिर्फ ‘गों-गों’ सरीखी कुछ ऐसी आवाज निकलेगी जैसी कोई-कोई जीव-जन्तु बोलते हैं।

(2) स्ट्रोटोस्फीयर (समतापमण्डल) क्षोममण्डल की 35 हजार फुट ऊंचाई पार करने के उपरानत स्ट्रैटोस्फीयर का क्षेत्र आरम्भ होता है जो धरती से 65 मील की ऊंचाई तक चला जाता है। 45 हजार फुट से ऊपर खुला शरीर नहीं जा सकता। इसके लिये एयर- कन्डीशन जेट या बी-36 किस्म का वायुयान चाहिये। यदि वहां कोई प्राणी खुला घूमे तो हवा का दबाव कम होने से उसकी नसें फट जायेंगी। मस्तिष्क विक्षप्त हो जायगा। इस परिधि में ऐसे आवरण ओढ़ना आवश्यक है जिनके कारण वायु का उतना ही दबाव बना रहे जितने का कि शरीर अभ्यस्त है। इस क्षेत्र की वायु शून्य से नीचे 67 डिग्री ठण्डी होती है जिसे बिना सुरक्षा आवरण के सहन नहीं किया जा सकता। समुद्र की गहरी सतह में रहने वाले जल-जन्तुओं को यदि ऊपर ले आया जाय तो जल का दबाव कम हो जाने से वे गुब्बारे की तरह फट जायेंगे। उपरोक्त ऊंचाई पर कोई प्राणी यदि बिना आवरण होता स्वभावतः वह भी गुब्बारे की तरह फटकर आकाश में छितरा जायगा।

19 हजार मील की ऊंचाई पर ब्रह्माण्ड किरणों की वर्षा शुरू हो जाती है। वे सूर्य से निकल कर अन्य ग्रहों की तरह अपनी पृथ्वी पर भी बरसती हैं। वे इतनी घातक होती हैं कि देखते-देखते मृत्यु उपस्थित कर दें। अच्छाई यही है कि धरती तक पहुंच ही नहीं पातीं ऊपर आकाश में अवरुद्ध हो जाती हैं इससे ऊपर का आकाश ही उन्हें रोक लेता है इस परत पर तो वह छुट-पुट बूंदा-बांदी ही कर पाती हैं।

(3) ओजोनोफीयर (ओजोन मण्डल) यह पृथ्वी से 20-25 मील ऊंचाई पे है। यह विचित्र है। नीचे वाले आकाश की शून्य से 67 डिग्री नीचे की ठण्ड अचानक 170 डिग्री फारेनहाइट हीट गर्मी में परिवर्तित हो जाती है। यहां गाढ़ी ऑक्सीजन है। जो सूर्य द्वारा फेंकी गई ब्रह्माण्ड किरणों और अल्ट्रावायलेट किरणों को रोक कर अपने में आत्मसात कर लेती है। इसी किरणें सोखने की क्रिया के कारण ऑक्सीजन इतनी गरम हो जाती है। चालीस मील ऊपर जाने पर कभी रात नहीं होती है।

(4) एक्साफीयर—यह अंतिम आकाश अत्यन्त भयावह है। यहां घोर अन्धकार छाया रहता है। रंग-बिरंगी रोशनियों के तूफान उठते रहते हैं। कुछ दूरी तो शून्य से 28 डिग्री नीचे तक की ठण्ड रहती है पीछे अकल्पनीय गर्मी बढ़ जाती है। पानी खौलने की गर्मी 212 डिग्री फारेनहाइट होती है पर यहां तो वह अंक 4000 डिग्री पर जा पहुंचा है। यह गर्मी कल्पनाशक्ति से बाहर की है। पृथ्वी के अयन मंडल की ऊपरी परत से सूर्य की ब्रह्माण्ड किरणों और अल्ट्रावायलेट किरणों के साथ घोर संघर्ष होता है। वे नीचे उतरना चाहती हैं। वायु की तरह उन्हें रोकती हैं।

इस परत की वायु इतनी पतली होती है कि तोप छोड़ने की आवाज भी निकटवर्ती को सुनाई न पड़ेगी। इसी क्षेत्र में उल्काओं की वर्षा भी होती है कि आकाश के ऊंचे स्तर पर हवा हलकी और पतली पड़ती जाती है साथ ही सूर्य एवं अन्य ग्रहों का वह प्रभाव अधिक स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है जो भूतल पर प्रायः बहुत ही कम मात्रा में आ पाता है उसे तो मध्यवर्ती आच्छादन ही बीच में रोक लेते हैं। यह तो पृथ्वी का आकाश हुआ वैज्ञानिकों के अनुसार सारा ब्रह्माण्ड ही आकाश में शून्य में अवस्थित है। इस ब्रह्माण्ड की रचना इस प्रकार हुई है कि उसकी पोल में हर वस्तु अधर लटकी रहती है। गिरने की बात तो तब बनती है जब उस पर कोई दबाव पड़ता है और बल पूर्वक अपनी ओर खींचता है। यदि दबाव न पड़े तो वह पोले आकाश में अपनी जगह अनन्त काल तक बनी रहेगी।

पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है, इसलिए वह अपने प्रभाव क्षेत्र में दूसरी वस्तुओं को अपनी ओर खींचती है। इसी खिंचाव से प्रेरित होकर चीजें ऊपर से नीचे गिरती हैं। वजन क्या है? वजन उस शक्ति का नाम है जो अमुक वस्तु को पृथ्वी की ओर खिंचने से रोकने के लिए लगानी पड़ती है। दूसरे शब्दों में पदार्थ पर पड़ने वाले पृथ्वी की आकर्षण शक्ति के दबाव को वजन कह सकते हैं।

यह दबाव सदा सर्वदा एक सा नहीं होता। परिस्थितियों के अनुसार वह घटता-बढ़ता रहता है, अस्तु चीजों का वजन भी घट-बढ़ जाता है। एक पदार्थ खुली जगह में जितना भारी होगा उतना पानी में डुबोकर तोलने पर न रहेगा। क्योंकि पानी आकर्षण शक्ति के प्रभाव को कम करता है अस्तु पदार्थ भी तोल में हलका होगा। आकर्षण शक्ति पृथ्वी की सतह पर पूरे जोर पर होती है और जितने ऊपर उठते जायें उतनी कम होती जाती है। जमीन पर वस्तु का जितना वजन होता है उतना बहुत ऊंचे पर्वत शिखर पर पहुंचने से नहीं रहता और ऊपर आकाश में उड़ें तो वजन और भी अधिक घटेगा।

हां इस नाप-तोल में एक बात ध्यान में रखनी होगी कि तराजू और बाट इस प्रकार के बने हों कि उन पर पृथ्वी की आकर्षण शक्ति का दबाव न पड़े अन्यथा वजन ज्यों का त्यों ही बना रहेगा।

उसे कहीं गिरना न पड़े गिरावट का कारण उत्पन्न आकर्षण है। जिन्हें विभिन्न नाम दिये गये हैं। जब यह आकर्षण इन्द्रियों को प्रभावित करता है तब उसे वासना कहते हैं। मन को प्रभावित करता है तब उसी का नाम तृष्णा बन जाता है। जब उसका उद्गम धन होता है तो लोभ कहते हैं और जब व्यक्ति में खिंचाव आता है तो उसे मोह कहते हैं। वस्तुतः वे सभी आकर्षण एक ही स्तर के हैं। चीजें हमें अपनी ओर खींचती हैं। जितनी गति से हम उसमें प्रभावित होते और खिंचते हैं, उसी का नाम गिरावट या पतन है। यह पतन कितना हो रहा है और उसे रोकने के लिए कितनी शक्ति लगानी पड़ेगी- इसे जुआ लिया जाय तो हमारा वजन नापा जा सकता है।

नीचे रहने पर भार बढ़ने और ऊंचे उठने पर उसके हलका होने की स्थिति को ऐसी तराजू से नापा जा सकता है, जो स्वयं दबाव मुक्त है। वस्तुतः इस विशाल ब्रह्माण्ड में कोई दिशा है नहीं। हर वस्तु जहां है वहीं बनी रह सकती है। चन्द्रमा हमें ऊपर लगता है और चन्द्रमा पर जाने से प्रतीत होता है कि पृथ्वी ऊपर आसमान में उगी हुई है। यही बात अन्य ग्रह-नक्षत्रों के बारे में है। यदि हम उनमें से किसी पर जा पहुंचें तो देखेंगे कि अपना लोक नीचा है और पृथ्वी ऊपर आकाश में उसी तरह जगमगा रही है जैसे कि हम किसी तारे को देखते हैं। आकर्षण शक्ति के खिंचाव से खिंचने का नाम ही गिरना है गिरने की दिशा नीचे मानी जाती है।

हम मंगलग्रह की ओर उड़ें तो जब तक पृथ्वी की आकर्षण शक्ति से लड़ते हुए आगे चलेंगे, तब तक सोचेंगे कि ऊपर उठ रहे हैं। जब मंगल की आकर्षण शक्ति के क्षेत्र में प्रवेश करेंगे तो प्रतीत होगा कि गिरना आरम्भ हो गया। खिंचाव का दबाव जितना बढ़ता जायगा उसी अनुपात से गिरने की गति बढ़ती जायगी। इसी तथ्य पर विचार करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ता है कि पतन और कुछ नहीं—नीचता और कहीं नहीं—इसी आधार पर निर्भर है कि हम आकर्षणों से किस कदर प्रभावित होते हैं। इसने मुक्त रह कर ही यह संभव है कि अपनी मूल स्थिति में बने रह जाय, अपनी यथार्थ सत्ता में टिका रहा जाय।

मानवीय सत्ता अनन्त आकाश की तरह सुविस्तृत है। उसके ऊंचे परत क्रमशः धूल, धुन्धः और सघन भारीपन से युक्त होते जाते हैं और अन्ततः वह स्तर आ जाता है जिसमें ब्रह्म के प्रकाश और प्रभाव को अधिक स्पष्टता पूर्वक देखा समझा जा सके। इस तथ्य को स्वीकार किया या समझा जाय अथवा नहीं सचाई तो यही है और उसे देखे, जाने समझे व स्वीकारे बिना आगे बढ़ने-ऊंचा उठने का अन्य कोई उपाय नहीं है।
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