संसार चक्र की गति प्रगति

अन्य ग्रहों पर उन्नत सभ्यतायें भी

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ब्राजील के दो टेलीविजन इन्जीनियर मिगेल वायना जिसकी आयु कोई 35 वर्ष होगी, मैनुअल क्रूज जो 32 वर्ष का था—दोनों की अन्तरिक्ष के रहस्य जानने की उत्कट अभिलाषा रहती थी। दोनों ने मिलकर एक प्रयोगशाला बनाई थी और उसमें विभिन्न प्रकार के प्रयोग किया करते थे। कुछ लोगों का कहना है कि उन्होंने अन्तरिक्ष वासियों को सन्देश प्रेषित करने के कुछ सूत्र ढूंढ़ लिये थे। वे कितने सत्य थे, इस सम्बन्ध में कुछ कहा नहीं जा सकता।

अगस्त 1966 की बात है। उक्त दोनों वैज्ञानिक कैम्पोस से रियो-डि-जानेरियो के लिये निकले। इसी वर्ष साओ पोली से कोई 100 मील उत्तर पश्चिम की ओर आकाश में कोई गोलाकार वस्तु तेजी से चक्कर काट रही थी। बाद में उससे कोई हव्य निकला, जिससे कम्पिनास कस्बे की सारी सड़कें गीली हो गईं। वैज्ञानिकों ने उक्त हव्य का विश्लेषण किया तो यह पाया कि वह पिघला हुआ शुद्ध दिन था। अनुमान है कि वह गोलाकार वस्तु कोई उड़न तस्तरी थी, जो किसी अन्य ग्रह से आई थी। उसमें बैठी हुई आत्माओं ने या तो प्रयोग के लिये या फिर संकेत देने की दृष्टि से ही वह द्रव पृथ्वी में डाला होगा।

दोनों इंजीनियर घर से 9 बजकर 30 मिनट पर निकले। क्रूज की धर्मपत्नी नेली ने एक हजार पाउण्ड के नोट एक कागज में बांधकर क्रूज को दिये, जिससे वह आवश्यक वस्तुयें खरीद सकें। उन्हें टेलीविजन के कुछ पुर्जे और कार खरीदनी थी। दोपहर के बाद दोनों नितराय शहर पहुंचे। वहां उन्होंने बरसाती कोट खरीदे। दुकानदार हैरान था कि इतनी भयंकर गर्मी में बरसाती कोट खरीदने का क्या कारण हो सकता है?

वहां से चलकर दोनों एक होटल में आये और ‘मिनरल वाटर’ की कुछ बोतलें खरीदीं। यह होटलविन्टेम पहाड़ी की तलहटी में है। वहां से निकलकर क्रूज और वायना दोनों विन्टेम पहाड़ी पर चढ़ने लगे। उन्हें ऊपर चढ़ते हुए बहुत लोगों ने देखा। होटल की नौकरानी मारिया सिल्वा ने उन्हें 1000 फुट ऊंची पर पहुंचते देखा और उसके बाद जो कुछ हुआ, वह अब तक भी लोगों के लिये महान् आश्चर्य एवं रहस्य का कारण बना हुआ है।

जैसे ही दोनों पहाड़ पर चढ़े कोई उड़न तस्तरी के आकार की वस्तु पहाड़ी पर उतरती दिखाई दी। उस समाचार की पुष्टि नगर के प्रमुख दलाल की पत्नी श्रीमती ग्रासिन्द्रा सूजा ने भी की है। उन्होंने लोगों को बताया कि कोई विचित्र वस्तु आकाश से विन्टेम पहाड़ी पर उतर रही थी। उसका रंग हरा, पीला और किनारे आग की तरह लाल रंग के थे।

विन्टेम पहाड़ी घने जंगलों वाला स्थान है और पिछले 25 वर्षों से वहां अक्सर उड़न तश्तरियां देखी जाती रही हैं। कुछ लोकों की तो निश्चित धारणा ही हो गई है कि जिस तरह पृथ्वीवासी मंगल, शुक्र आदि ग्रहों में जाने के लिये चन्द्रमा को स्टेशन बना रहे हैं, उसी प्रकार अन्तरिक्ष वासियों ने ब्राजील के विन्टेम पहाड़ को यहां की परिस्थितियों के अध्ययन का स्टेशन बनाया है। यहां प्रायः प्रतिदिन कोई विचित्र वस्तु आकाश से उतरती और कुछ देर ठहरकर चली जाती है।

क्रूज और वायना के वहां पहुंचने के बाद लोगों ने उड़न तश्तरी तो देखी किन्तु रात तक क्या हुआ, इस सम्बन्ध में कुछ पता नहीं चला पाया। प्रातःकाल कुछ लड़के शिकार खेलने के लिये पहाड़ी पर चढ़े। वहां उन्होंने दोनों युवकों को मरा हुआ पड़ा देखा। बाद में यह खबर सारे शहर में फैल गई। पुलिस ने जाकर देखा तो आश्चर्य चकित रह गई। उनकी मृत्यु बड़े ही रहस्यमय ढंग से हुई।

दोनों बरसाती कोट पहने थे। पर कोट के नीचे कपड़ों में जरा भी कहीं सलवटें न थी जिससे स्पष्ट है कि किसी से हाथा-पाई नहीं हुई। दोनों के शरीर में घाव नहीं थे। उनके पास एक पर्चा पड़ा पाया गया, उसमें कई दिन के प्रयोग के लिये कुछ गोलियों के नाम लिखे थे, उससे यह आशंका हुई कि सम्भवतः उन्होंने जहरीली औषधि खाई होगी पर अन्त्यपरीक्षा में उनके शरीर में किसी प्रकार के विष का कोई प्रभाव नहीं पाया गया।

लाश के पास दो मुखौटे भी थे, उनमें सांस लेने के छेद तो थे पर आंखों के लिये कोई स्थान ना था। कुछ रंगीन कागज भी बिखरे थे, उनमें कोई ऐसा सूत्र लिखा था, जिसका कोई भी वैज्ञानिक अर्थ नहीं निकाल पाया। दूसरे दो पर्चों में कुछ संकेत इस तरह थे—‘‘बुधवार एक गोली, दवा तब लो जब नीचे लेट जाओ। दूसरे पर लिखा था शाम को 6 बजकर 30 मिनट पर गोली खाकर चेहरा मुखौटों से ढकलो और संकेत की राह देखो।’’

तिलस्म सी दिखने वाली इस तमाम बातों से अनुमान लगाया कि क्रूज और वायना अन्तरिक्ष से आने वाले उस यान पर चढ़कर किसी अन्य ग्रह को चले गये। उनका सूक्ष्म शरीर हो गया। सम्भवतः वे शरीर को इस तरह सुरक्षित इसलिये छोड़ गये होंगे कि बाद में वे अन्तरिक्ष से लौटकर आयेंगे और अपने शरीर में पुनः प्रवेश कर लेंगे। सूक्ष्म शरीर को बाहर निकालकर पुनः मृत शरीर में प्रवेश के उदाहरण अनेक पौराणिक गाथाओं में मिलते हैं। 1959 में 17 मई को हिन्दुस्तान में भारतीय सेना के अंग्रेज अफसल श्री एल.पी. कैरल का प्रत्यक्ष प्रमाण प्राप्त अत्यन्त रोचक वर्णन छपा था। उन्होंने उसमें बताया था—‘‘मैंने एक वृद्ध योगी को एक मृत युवक के शरीर में प्रवेश करते देखा और उससे सम्पर्क स्थापित कर सारा रहस्य ज्ञान किया।’’ उन्होंने इस लेख में स्वीकार किया है कि आत्म की सत्ता शरीर से प्रथक और स्वतन्त्र है और वह अपने अच्छे-बुरे कर्मानुसार पुनर्जन्म और अन्य लोकों का भी आवागमन करता है।

प्रो. जे.वी. राइन ने भी विचार संक्रमण (हैलीपैथी) और दिव्य-दृष्टि (क्लेयर वायेन्स) के कई प्रयोगात्मक अनुसंधानों के द्वारा यह सिद्ध कर दिखाया कि भौतिक उपकरण न हों तो भी दूसरों के विचार और अति दूरस्थ या भविष्य की घटनाओं का ज्ञान हो सकता है। यह भी प्रमाणित किया कि संसार के भिन्न-भिन्न भागों में जीव एक देह का परित्याग कर नया जन्म ग्रहण करते हैं। उनमें से कई को तो पूर्वजन्मों की स्मृति ऐसे ही बनी रहती हैं, जैसे सोकर जागने के बाद भी पिछले दिन की सारी घटनायें याद रहती हैं।

क्रूज और वायना की लाशों को सुरक्षित रखा जाता तो सम्भव था, उक्त तथ्यों की आश्चर्यजनक खोज होतीं, किन्तु पुलिस इन सब बातों को मनने के लिये तैयार न थी पुलिस इन्सपैक्टर जोस ब्रिटेन-कोर्ट ने दोनों मुखौटे परीक्षण के लिये भेजे पर उनमें किसी प्रकार की रेडियो धर्मी तरंगों की बात पुष्ट नहीं हुई। प्रिटेन-कोर्ट का दावा था कि जब वे लोग पहाड़ी पर आकर खड़े हुए होंगे, तब उनसे कोई वस्तु टकराई होगी। पर इस स्थिति में भी उनके शरीर में कहीं चोट के निशान तो होते। जिन परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हुई, उन्हें देखकर तो यही लगता है कि उनके साथ सुनियोजित प्रयोग किया जा रहा था।

वायना के पिता ने उनके प्रयोग की कई विचित्र बातें बताईं और यह आशंका व्यक्त की कि इन दोनों का अन्तरिक्षवासियों से कोई रेडियो सम्बन्ध था और उनकी हत्या अन्तरिक्ष-वासियों ने ही की।

जो सबसे आश्चर्य की बात है वह है उस पर्चे का खो जाना जो पुलिस ने मृतकों के पास से प्राप्त किया। उस पर्चे को पुलिस ने तिजोरियों के अन्दर पहरे में रखा था पर उस कागज को कोई बड़े ही रहस्यपूर्ण ढंग से निकाल ले गया। उसका आज तक पता नहीं चल पाया।

यद्यपि यह सब अनुपान ही है कि हत्या अन्तरिक्षवासियों ने की। सम्भवतः मृत-आत्मायें वापस आतीं पर उनके शव सुरक्षित नहीं रखे गये। और यह कि उस पुर्जे में कुछ ऐसे सूत्र थे, जिनके सहारे उड़न तश्तरियों का रहस्य पकड़ा जा सकता था। यदि भौतिक उपकरणों के माध्यम से पृथ्वीवासी दूसरे ग्रहों में जा सकते हैं तो अन्तरिक्षवासी भी यहां आ सकते हैं।

इस घटना का कारण क्या है? इस बारे में अधिकार पूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता लेकिन तथ्य, स्थिति और अन्यान्य कारणों से उक्त अन्तरिक्ष विज्ञानियों की मृत्यु में अन्तरिक्षवासी कहीं न कहीं कुछ न कुछ अवश्य अहम् भूमिका रखते हैं, यह असंदिग्ध है। ब्रह्माण्ड में ऐसे अनेक ग्रह नक्षत्रों का अस्तित्व है जिनमें हमारे ही समान अथवा हमसे भी अधिक विकसित सभ्यता वाले प्राणी निवास करते हैं। यह तथ्य अब कल्पना मात्र नहीं रहा, वरन् प्रमाणों के आधार पर अधिकाधिक स्पष्ट होता जा रहा है। इन सुविकसित प्राणियों के साथ सम्पर्क बना कर जीवधारियों की समग्र चेतना को अधिक सुविकसित किया जा सकेगा और लोक लोकान्तरों के सहयोगी आदान प्रदान से कितना लाभ उठाया जा सकेगा, उसकी मधुर कल्पना ही रोमांचित कर देती है।

अन्य ग्रहों से सम्पर्क सहयोग

मास्को स्थित स्टर्नवर्ग राज्य ज्योति इन्स्टीट्यूट के डा. निकोलाई एस. कार्दाशेव का दावा है कि ‘‘एक अत्यन्त विकसित सभ्यता का पता लगा लिया गया है।’’ इस विराट विश्व में जीवन तत्व की संभावना किस-किस ग्रह उपग्रह पर हो सकती है इसके लिये विभिन्न स्तर की खोजें विभिन्न यन्त्र उपकरणों द्वारा बहुत ही गम्भीरता पूर्वक हो रही हैं। अमेरिका की ‘नेशनल रेडियो एस्ट्रोनोमी आवजरवेटरी’ द्वारा विनिर्मित ओजमा प्रोजेक्ट यन्त्र पर रेडियोटेलिस्काप और एस्ट्रोरेडियो सिस्टम की दोनों पद्धतियां काम कर रही हैं, जिनकी सहायता से यह नक्षत्रों की परिस्थितियों का क्रमिक ज्ञान सन्तोष प्रद रूप से प्राप्त होता चला जा रहा है। अब तक की उपलब्धियों से अमेरिकी वैज्ञानिक इस तथ्य को अधिक दृढ़ता पूर्वक व्यक्त करने लगे हैं कि पृथ्वी जैसा न सही—किसी न किसी प्रकार का जीवन अनय अनेक ग्रहों में भी मौजूद है।

आवश्यक नहीं कि अन्य ग्रहों के निवासी मनुष्य जैसी ही आकृति प्रकृति के हों। वहां की मिट्टी और परिस्थिति जैसी भी होगी वैसे ही उनके शरीर बन गये होंगे वैसे ही आहार विहार के अभ्यस्त बने होंगे। इतने पर भी जीव का स्वाभाविक गुण चिन्तन और विकास उनमें अवश्य ही विद्यमान रहा होगा। चेतना का स्वभाव विकासोन्मुख होता है। विकसित चिन्तन विकसित परिस्थितियां भी उत्पन्न कर सकता है यह ऐसे मूल-भूत आधार हैं जिनको सामने रखने से उस आशा की चमक बढ़ती ही चली जा रही है कि अन्तर्ग्रही जीवन का अस्तित्व विद्यमान है और उसे पारस्परिक सहयोग से अधिक शीघ्र और अधिक मात्रा में विकासोन्मुख बनाया जा सकता है।

वह दिन कितना सुखद होगा जब हम विश्व मानव की सुखद संभावनाओं को ही कार्यान्वित करने तक सीमित न रहेंगे वरन् ब्रह्माण्ड जीवन को स्नेह सहयोग से सींच कर विसंगठित बिखरे हुए जीवन को एकता के सूत्र में बांध कर स्वर्गीय सम्भावनाओं को साकार कर सकने में समर्थ होंगे।

एक प्रश्न यह भी है कि अन्य ग्रहों पर जीवन हो तो क्या वहां तक हमारा आवागमन सम्भव हो सकता है? क्योंकि बिना प्रत्यक्ष सम्पर्क अथवा आदान-प्रदान को जीव सत्ताएं ब्रह्माण्ड में अपने स्थान पर बनी रह कर भी अन्य लोक वासियों के लिए कुछ अधिक उपयोगी सिद्ध न हो सकेंगी।

तारकों की दूरी को देखते हुए और मनुष्य-प्राणी की सीमित आयु को देखते हुए यह खाई पटती नहीं दीखती कि उन लोकों तक पहुंचना 4 और वापिस लौटना सम्भव हो सके। अपने आधुनिकतम अन्तरिक्ष यान द्वारा यदि निकटतम तारक की यात्रा की जाय तो उसमें कम से कम चार प्रकाश वर्ष लगेंगे। एक प्रकाश वर्ष अर्थात् लगभग 60 खरब मील की दूरी।

वैलेस सलीवान ने अपनी पुस्तक ‘वी आर नाट अलोन’ हम अकेले नहीं हैं पुस्तक में अन्तरिक्ष यात्राओं के एक नवीन आधार का उल्लेख किया है। यह आधार 21 सेन्टीमीटर अथवा 1420 मेगा साइकिल बेकलेंग्थ के रेडियो कम्पनों पर अवलम्बित है। हाइड्रोजन परमाणुओं के विकरण की यह स्वाभाविक कम्पन गति है। इसे करतलगत किया जा सकता है। तब अन्तरिक्ष यात्रा के लिए कम समय, कम श्रम एवं कम धन लगाकर ही अन्तर्ग्रही आवागमन सम्भव हो सकता है।

प्रकाश की चाल से चल सकने वाले अंतर्ग्रही यान तारकों की दूरी को देखते हुए वहां पहुंचने में और लौटने में जितना समय लेंगे उसमें मनुष्य की कई पीढ़ियां बीत जाएंगी। इतनी लम्बी प्रतीक्षा में बैठा रहना अन्तरिक्ष जिज्ञासुओं के लिए कठिन है अस्तु वह आधार ढूंढ़े जा रहे हैं जो उस गति में तीव्रता ला सकें। सौभाग्य से वे आधार मिल भी गया है। मेगा साइकिल वेकलेंग्थ के सहारे यान इतना तेजी से उड़ सकेंगे कि अभीष्ट अवधि के अन्दर ही अंतर्ग्रही आवागमन सम्भव हो सकें।

मनुष्य की गरिमा महान है उसकी बुद्धि को दैवी वरदान ही कहा गया है। अलभ्य आकांक्षा—तन्मय, तत्परता, समग्र एकाग्रता और प्रचण्ड श्रम शीलता के चारों आधार मिल जाने पर मानवी बुद्धिमत्ता सीमा की समस्त मर्यादाओं को लांघ जाती है। बलि भगवान की तरह वह तीन चरणों में समस्त विश्व ब्रह्माण्ड को नाप सकती है। नापने जा भी रही है। इस बुद्धिमत्ता का जब कभी सदुपयोग होगा तो मनुष्य पर देवताओं को निछावर किया जा सकेगा और तब इस धरती की गरिमा स्वर्ग से बढ़ी-चढ़ी ही होगी। कभी यह कहा जाता था कि अंतर्ग्रही उड़ान की गति अधिक से अधिक प्रकाश की गति हो सकती है। ब्रह्माण्ड विस्तार को ध्यान में रखते हुए इस मन्द गति से अन्य ग्रहों की खोज ला सकना अति कठिन है। उतनी लम्बी उड़ान के लिए ईंधन ले चलने से वे यान अत्यन्त भारी हो जायेंगे। फिर इतने लम्बे समय तक मनुष्य जीवित भी नहीं रह सकेंगे। उतने दिन तक खाने-पीने की सामग्री लेकर चलना भी सम्भव नहीं।

उस सभी कठिनाइयों का हल अब मिलता जाता है। एक हल के अनुसार लम्बी मंजिल पार करने के लिये अपने यानों को थोड़ी ही दूर उड़ना पड़ेगा उसके बाद अभीष्ट ग्रह की आकर्षण शक्ति में जब प्रवेश पा लिया जायगा तो अपने यान को उड़ने की जरूरत न पड़ेगी। मंजिल स्वयं ही खिंचती हुई अपने पास चली आयेगी अर्थात् वे ग्रह स्वयं ही हमें खींचने लगेंगे। अपने यान के इंजन बन्द कर दिये जायेंगे किन्तु यात्रा क्रम मजे में चलता रहेगा। ऐसी दशा में अधिक ईंधन लेकर चलने की जरूरत न पड़ेगी। शीत निद्रा में सुला कर यात्री को दीर्घजीवी बनाया जा सकेगा और अन्न-जल तथा वायु की जितनी मात्रा यान में भरी जायगी उसी को बार-बार शुद्ध करके प्रयुक्त होने योग्य बनाया जाता रहेगा और उतनी ही सामग्री से मुद्दतों तक गुजर-बसर होती रहेगी। अतएव निकट भविष्य में उन सभी कठिनाइयों को सरल बना लिया जायगा जो इन दिनों अतीव कठिन और निराशाजनक प्रतीत होती हैं।

ब्रह्माण्ड शोध कार्य के उपयुक्त एक अति महत्वपूर्ण विज्ञान हाथ में आया है रिलेटिविस्टक वेलेसिटी अर्थात् आपेक्षित तीव्र गति। इस आधार पर पांच हजार वर्षों की यात्रा दस वर्ष में ही की जा सकेगी। इस विज्ञान का विवेचन करते हुए विज्ञानी डोनाल्ड ने उसे गुरुत्वाकर्षण का उल्लंघन कहा है। उड़न तश्तरियों का दूरवर्ती ग्रह नक्षत्रों से धरती पर आना-जाना इसी आधार पर सम्भव है।

पृथ्वी द्रुत गति से अपने धुरी पर घूमती है और सूर्य की परिक्रमा करती हुई बिना पंख के उड़ती है इस गति के फल स्वरूप उसमें गुरुत्वाकर्षण पैदा होता है। धरती की चीजों को यह गुरुत्वाकर्षण ही बांधे रहता है और हमें पता भी नहीं चलता कि हम सब भी घूम रहे हैं। यदि गुरुत्वाकर्षण न होता तो यह गति हमें उछाल कर ब्रह्माण्ड में ऐसा फेंक दें कि फिर कभी पता ठिकाना ही न मिल सके।

यदि किसी वस्तु का अपना गुरुत्वाकर्षण हो और उसका वेग पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण को निरस्त कर सके तो फिर वह अनन्त ब्रह्माण्ड में कहीं भी सरलतापूर्वक आ जा सकता है। पृथ्वी से जो राकेट अन्तरिक्ष में फेंके जाते हैं, उनमें भारी मात्रा में ईंधन खर्च करने की आवश्यकता इसलिये पड़ती है कि गुरुत्वाकर्षण के दबाव से संघर्ष करते हुए वे ऊपर उठ सकें, यदि किसी यान में अपना गुरुत्वाकर्षण हो तो फिर उसकी गति अन्तरिक्षीय स्तर की होगी। तब दिल्ली से अमेरिका पहुंचने के लिये केवल पांच मिनट पर्याप्त होंगे। अभी तो हर यान को अन्तरिक्ष में अपनी ही शक्ति से किसी दिशा में आगे बढ़ना ही पड़ता है वह ठहर नहीं सकता। यदि ठहर जाय तो कोई न कोई ग्रह नक्षत्र उसे अपनी आकर्षण शक्ति से पकड़कर घसीट लेगा। ठहरना उसी यान के लिये सम्भव हो सकता है जिसमें अपना गुरुत्वाकर्षण हो ऐसा कोई यान हो तो उसे पृथ्वी की पकड़ से बाहर निकलने के लिये तो थोड़ा जोर लगाना पड़ेगा। पीछे स्वतन्त्र होकर जब वह कहीं ठहरेगा तो वहां किसी ग्रह की आकर्षण शक्ति उसे अपनी ओर अपनी शक्ति से बुलाने लगेगी। इसका अर्थ यह हुआ कि उस यान को वहां तक चलना पड़ेगा, जहां ठहरने पर वह इच्छित ग्रह की ओर सीधा जाने लगे। बस वहां से वह मंजिल की ओर चलेगा। यह कहने की अपेक्षा यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि मंजिल उसकी ओर चलेगी। बस यात्रा तुर्त-फुर्त पूरी होगी। यह सफलता मिलने पर चन्द्रमा में पहुंचने के लिए ‘साढ़े तीन घण्टे, शुक्र के लिये 36 घण्टे, मंगल के लिये 48 घण्टे और बृहस्पति तक पहुंचने के लिये 6 दिन पर्याप्त होंगे। यह विलोम गुरुत्वाकर्षण की शक्ति है, उसी का विकास करने में रिलेटिविस्टिक वैलोसिटी की गहराई से शोध की जा रही है। ऐलेग्जेण्डर सेवेरस्की और वर्क हार्ड हीम इस शोध के अग्रणी माने जाते हैं। विभिन्न देशों की अनुसन्धान शालाएं इस दिशा में अनेकानेक प्रयोग परीक्षण करने में संलग्न हैं।

लम्बे वर्षों में पूरी हो सकने वाली यात्रा के लिए यह तरीका ढूंढ़ निकाला गया है कि अन्तरिक्ष यान के रवाना होते ही ‘‘हाइवर नेशन’’ प्रक्रिया द्वारा यात्री को शीतल करके गहरी निद्रा में सुला दिया जाय और जब लक्ष्य स्थान निकट आवे तब स्वसंचालित प्रक्रिया उसे गर्मी पहुंचाकर जगा दें। ऐसा करने से उस यात्री पर समय का प्रभाव न पड़ेगा। वह जिस आयु का सोया था उसी आयु का शरीर लेकर जगेगा। लौटने पर भी इसी पद्धति को अपनाया जायेगा फलतः सैकड़ों वर्षों की लम्बी अन्तरिक्षीय यात्रा कर लेने पर भी वह न तो बूढ़ा होगा और न मरेगा उसकी जवानी यथावत् बनी रहेगी।

अन्य ग्रहों से संपर्क

ब्रह्माण्डीय भाषा का स्वरूप, इस प्रश्न पर विचार करने के लिए विशेषज्ञों के दो अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन हो चुके हैं। इनका कहना है कि गणित सिद्धान्तों के आधार पर ऐसी भाषा बन सकती है। गणित की आवश्यकता किसी भी लोक के निवासियों को पड़ेगी ही और उसका क्रम वही 1,2,3,4,5 वाला सर्वत्र होगा। वृत की परिधि और उसके व्यास का अनुपात एक स्थिर संख्या होती है। इसी आधार पर ऐसी भाषा बन सकती है जिसे अन्य लोक के बुद्धिमान प्राणी समझ सकें। सन् 1961 में ड्रेक और औलिवर नामक वैज्ञानिकों ने ऐसी भाषा की एक रूप रेखा भी तैयार की थी, यह रेडियो तरंगों पर आधारित है। हाइड्रोजन अणु से निकलने वाले विकरण को इकाई माना गया है। इन तरंगों की लम्बाई पर 1271 रेडियो धड़कन भेजी जायेंगी और हर दो धड़कनों के बीच समान अन्तराल डाला जायगा। इस आधार पर किसी भी लोक वासियों के लिए चित्र भेजे जा सकेंगे। इन आकृतियों को देखकर चित्रों के आदान प्रदान का सिलसिला चलेगा। पृथ्वी पर भी भाषा का विकास इसी चित्र प्रक्रिया के आधार पर हुआ है। अभी भी जहां भाषा का आधार न मिले वहां चित्र बनाकर ही पृथ्वी वासी विचारों का आदान प्रदान करते हैं। ब्रह्माण्डीय भाषा का सिलसिला भी इस माध्यम से आरम्भ होगा। अन्य लोकों के साथ रेडियो सम्पर्क बनाने के लिये 21 से.मी. हाइड्रोजन बैण्ड उपयुक्त समझा गया है। स्काटिश वैज्ञानिकों ने सूर्य के इर्द-गिर्द एक अन्तरिक्ष यान घूमते देखा है। इसे एप्साइलौन वाटिस तारे के निवासियों द्वारा अपने सौर मण्डल की खोज खबर लेने के लिये भेजा हुआ माना गया है। वैज्ञानिक इस प्रयत्न में हैं कि उससे सम्पर्क बनाकर अन्तर्ग्रही आदान-प्रदान की एक नई कड़ी जोड़ी जाय।

इन सम्भावनाओं और प्रयत्नों के देखते हुये यह आशा की जा सकती है कि निकट भविष्य ब्रह्माण्ड में अवस्थित बुद्धिमान प्राणी परस्पर सम्पर्क स्थापित करेंगे और परस्पर आदान-प्रदान की व्यवस्था बनायेंगे। एक ऐसे आविष्कार के प्रयास भी चल रहे हैं। इसका पूर्ण विकास हो जायेगा तो यह संसार इतने समीप आ जायेगा कि भारत और अमेरिका की दूरी ही नहीं विश्व ब्रह्माण्ड ही सिमट कर एक बिन्दु पर आ जायेगा।

ऐसी सम्भावना के प्रथम यन्त्र का नाम है ‘टेल स्टार’। इसमें न तो कोई विध्वंसक है और न ही कोई ऐसे उपकरण जो अन्तरिक्ष यात्रा के काम आयें। इन सबसे हट कर नया ही प्रयोग हुआ है, उसे विश्व-शांति और कल्याण के लिये अणु सत्ता का उपयोग की संज्ञा दी जा सकती है। उसमें ऐसी संचार और ग्रहण व्यवस्था रखी गई है, जिसकी सहायता से दुनिया के किसी भी भाग में बैठे मनुष्य को देखना, बातचीत करना आदि सम्भव हो जायेगा। अभी विशेष प्रग्रहण केन्द्रों (रिसीविंग स्टेशन्स) के माध्यम से ही यह व्यवस्था सम्भव होगी पर टेल-स्टार का विस्तृत अध्ययन एक दिन मनुष्य-मनुष्य के बीच बेतार-के-तार की तरह का सम्बन्ध सूत्र बन जायेगा, ऐसी सम्भावना उसके निर्माता डा. पियर्स ने स्वयं ही व्यक्त की है।

‘टेल-स्टार’ एक प्रकार का एक चक्र ही है, जिसमें भीतर तो वैज्ञानिक उपकरण हैं और बाहर सन्देश प्रेषित (ट्रांसमिट) और ग्रहण (रिसीव) करने वाली विचित्र प्रणाली का अंकन किया गया है। इसमें गहरे रंग की 3600 वर्ग सौर सेल (वह बेटरियां जो सूर्य की ऊर्जा से चलती हैं) और भीतर पट्टियों की एण्टेना हैं। ऊपर वाली पट्टी 6390 मेगासाइकिल्स पर सन्देश ग्रहण करती है, अर्थात् इस फ्रिक्वेंसी पर कहीं से भी प्रेषित समाचार या वृत्त चित्र को वह ग्रहण कर लेगी और निचली पट्टी 4970 मेगासाइकिल से उस सन्देश या चित्र को सारी सृष्टि में फैला देगी। पिछले दिनों अन्तरिक्ष यात्री कूपर की यात्रा को अमेरिका के अतिरिक्त इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी आदि कई देशों में दिखाया गया, वह टेल-स्टार की सहायता से ही था।

‘टेल-स्टार’ की तकनीकी (टैक्लिकल) रचना मानव शरीर से कम आश्चर्यजनक नहीं है। जिस प्रकार हमारे शरीर में 72 हजार नाड़ियों का जाल बिछा है और वह सब कुछ ऐसे शक्ति केन्द्रों (कोष या चक्रों) उपकेन्द्रों से सम्बद्ध हैं, जहां की शक्ति से इन सामंजस्य स्थापित होता है। शरीर के एक स्थान की प्रतिक्रिया दूसरे अंगों पर होती है, वह इन नाड़ियों के माध्यम से होती है, उसे विशेष शक्ति कोषों की अस्तर अनुभूति (सेल्फ रियलाइजेशन) कह सकते हैं, उसी प्रकार टैलस्टार में भी हजारों ग्रहण और प्रेषण (रिसीविंग एण्ड ट्रान्समिसिंग) प्रणालियां रखी गई हैं, जिससे उन्हें विश्व के किसी भी भाग में सुना और देखा जा सके।

टेलस्टार का कुल वजन 170 पौण्ड और व्यास केवल 34 इंच है, जिस तरह एक बालक किसी पतंग को मजे से आकाश में उड़ा लेता है, उसी प्रकार टेलस्टार को अन्तरिक्ष में पृथ्वी की कक्षा में स्थापित कर दिया जाता है। वहां से वह अपना काम प्रारम्भ कर देता है। अभी इसे केवल अमेरिका की बैल टेलीफोन प्रयोगशाला ने तैयार किया। उसे छोड़ने के लिये एण्डोवर नामक स्थान में एक विशाल एण्टेना निर्मित किया गया है। अभी केवल यूरोप में ही कुछ ऐसे केन्द्र स्थापित हुये हैं, जो इस संचार व्यवस्था का लाभ उठा रहे हैं, पर वह दिन दूर नहीं जब इसकी सहायता से चन्द्रमा और शुक्र आदि ग्रहों में पहुंचे लोगों से भी बातचीत करने में सहायता मिलेगी।

‘टेलस्टार’ की मुख्य भूमिका यह है कि वह धरती से प्राप्त संकेतों को दस अरब गुना शक्ति देकर बढ़ा देता है और फिर उस बढ़ी हुई शक्ति से उस सन्देश को धरती की ओर प्रेषित करता है। उपग्रह से संकेत भेजने की शक्ति डाईवाट की है, जो पृथ्वी पर आने तक घटकर अरबों हिस्से के बराबर रह जाती है। इस कारण सामान्य स्तर पर उसे सुना जाना सम्भव नहीं होता, इसलिये एण्डोवर (स्था का नाम) 177 फुट ऊंचा एण्टोना (उपग्रह संचार-केन्द्र) बनाया गया। यह संकेतों की आवाज को फिर बढ़ा देता है, जिससे सामान्य संचार व्यवस्था का कार्यक्रम चलने लगता है, अर्थात् एण्डोवर की फ्रिक्वेंसी पर यूरोप के (अभी) सभी देश अपने रेडियो और टेलिविजन सेटों पर सुन और देख लेते हैं। बाद में यह व्यवस्था सारे संसार के लिये उपलब्ध हो जायेगी।

इस व्यवस्था पर भारी व्यय लगता है। 30 लाख डालर की धनराधि केवल एक बार के प्रयोग में व्यय होती है। इतना व्यय हर बार उपग्रह भेजने पर उठाना पड़ता है। फिर यहां पृथ्वी में अनेक एण्डोना स्थापित करने का व्यय भी बहुत अधिक है। अमेरिका में 177 फुट का शविल एण्टोना बना है, उसका 370 टन भार है और डिग्री के बीसवें भाग तक नियन्त्रण कर सकता है, का निर्माण व्यय कई करोड़ डालर तक बैठा है, इसलिये यह व्यवस्था सब के लिये सम्भव नहीं। इंग्लैंड में ‘गूनहिली डाउन्स’, फ्रांस में ब्रिटोनी और पश्चिमी जर्मनी में म्यूनिख के बाहर बिल्हेम में ही एण्टोना निर्मित होने की सम्भावनायें हैं, शेष देश तो अभी उसकी प्रारम्भिक जानकारी जुटाने में ही संलग्न हैं। सभी देशों में व्यवस्थायें हो जायेंगी तो एक महाद्वीप का दूसरे महाद्वीप से संचार का सीधा सम्बन्ध जुड़ जायेगा और तब अन्तरिक्ष यात्रियों के सन्देश, उनके चित्र आदि भी यहां उतने ही साफ देखे और सुने जा सकेंगे।

11 जुलाई 1962 को पहला टेलस्टार आकाश में स्थापित किया गया। जब वह एण्डोवर की एण्टोना से उड़कर अपने नियत स्थान पर चक्कर लगाने लगा। 25 टन वजन और नकली रबर मिले डिक्रोन तन्तुओं से बने एण्डेावर एण्टोना ने आध घन्टे में ही सन्देश प्रणाली का श्री गणेश किया उधर ह्वाइट हाउस में अमेरिका के उपराष्ट्रपति टेलीफोन हाथ में लेकर खड़े थे। इधर फ्रैड कैपेल एण्डोवर से बोले—‘आप जानते होंगे कि यह आवाज टेलस्टार उपग्रह द्वारा प्रसारित की जा रही है, आपको मेरी आवाज कैसी सुनाई दें रही है। उधर से उपराष्ट्रपति ने अभिवादन का उत्तर इन शब्दों में दिया—‘मि. कैपेल, आपकी आवाज बिल्कुल साफ सुनाई दें रही है।’’ यह उद्घाटन था इसके बाद लाखों अमेरिकियों ने सारे पेरिस को अपने टेलीविजनों में देखा। वहां की प्रत्येक वस्तु साफ ऐसे ही दिखाई दें रही थी, जैसे कोई आकाश में बैठकर विस्तृत भूभाग का दृश्य देख रहा हो। पेरिस का संगीत दृश्य और स्वर बिलकुल स्पष्ट और साफ सुने गये। फिर इंग्लैंड का कार्यक्रम दिखाया गया। टेलस्टार से अन्तरिक्ष की अनेक महत्वपूर्ण जानकारियां मिलने के भी समाचार मिले हैं। अनुमान है कि यह टेलस्टार दो-सौ वर्ष तक काम करता रहेगा।

वैज्ञानिक इस बात को मानते हैं कि यान्त्रिक संचार और दूर दर्शन (टैलिविजन) प्रणाली शरीर की संचार और दर्शन प्रणाली का नमूना है, वे यह भी मानते हैं कि मनुष्य के मस्तिष्क में उठने वाले विचारों को भी एक नियत फ्रिक्वेंसी पर ग्रहण किया जा सकता है पर उसके लिये भेजे जाने वाले सन्देशों की शक्ति टेलस्टार की तरह किसी अणु-शक्ति द्वारा बढ़ी दी जाय, उसी प्रकार ग्रहण करने वाला भी अपनी शक्ति को उतना बढ़ालें कि वह हवा में तैरते हुये सन्देशों में से अपनी फ्रिक्वेंसी के सन्देश की शक्ति को बढ़ाकर ग्रहण करले। ऐसे चक्र, ऐसे संस्थान में 3600 बैटरियों की तरह उन विचारों को शक्ति दें सकें, शरीर में हैं केवल उनके विकास की आवश्यकता है, इसकी पुष्टि वैज्ञानिक संचार-उपग्रह टेलस्टार से कर रहे हैं।

जिस दिन यह आविष्कार पूरा हो जायगा उस दिन मनुष्य मनुष्य तो क्या सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड एक बिन्दु पर आ जायगा। फिर किसी भी ग्रह से, जहां के निवासियों से सम्पर्क किया जा सकेगा और ब्रह्माण्डीय आदान-प्रदान की सम्भावनायें जो इन दिनों स्वप्न सी लगती हैं शीघ्र ही साकार हो सकेगी। परन्तु यह अध्ययन और निरीक्षण मनुष्य को संकुचित परिधि और क्षुद्र अहं की सीमाओं से बाहर निकालने के लिये भी प्रेरित प्रोत्साहित करें तो इन उपलब्धियों को भी सफल सार्थक कहा जायेगा।
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