संसार चक्र की गति प्रगति

मनुष्य से भी महान कहीं कुछ है

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इस विशाल ब्रह्माण्ड में अकेली पृथ्वी पर ही जीवधारी नहीं रहते वरन् अन्यत्र ग्रह नक्षत्रों पर भी जीवन विद्यमान है, अब यह सम्भावना स्पष्टतः स्वीकार कर ली गई है। परिस्थितियों के अनुरूप जीवधारियों की आकृति और प्रकृति में अन्तर हो सकता है, पर उसका अस्तित्व अन्यत्र भी है अवश्य, इस दिशा में खगोल वेत्ताओं की उपलब्धियां क्रमशः यही सिख करती जा रही हैं कि अपने सौर मण्डल में भी जीवन का अस्तित्व मौजूद है और इसके बाहर के नारकों में बुद्धिमान जीवधारियों की सत्ता विद्यमान है।

फेनेमारिया (कैलिफोर्निया) विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डा. मेथ्यू नार्टन का कथन है कि मानवी प्रयत्नों से शुक्र ग्रह में कुछ स्थानों पर वनस्पतियां उगाई जा सकती हैं और अन्य रेडियो प्रयत्नों द्वारा वहां संव्याप्त कार्बनडाइऑक्साइड के मूलतत्व कार्बन को अलग किया जा सकता है। शुक्र-ग्रह सम्बन्धी अपने शोध-निबन्ध में नार्टन महोदय ने इन गैसों के विच्छेदीकरण और वनस्पति उत्पादन की प्रक्रिया को फोटो संथेसिस की एक विशिष्ट प्रणाली के रूप में प्रस्तुत किया है और कहा है कि इस आधार पर शुक्र में जल वर्षा आरम्भ हो सकती है तथा वहां का वातावरण कुछ दिन में ऐसा ही हो सकता है जैसा कि जीवधारियों के रहने योग्य अपनी पृथ्वी का है। पुल्कोवो रेडियो टेलिस्कोप द्वारा प्राप्त सूचनायें ऐसी नहीं हैं कि शुक्रग्रह पर जीवन के अस्तित्व से सर्वथा इन्कार किया जा सके और न डा. री का वह कथन अभी तक पूरी तरह रद्द किया गया है जिसमें उन्होंने शुक्र में प्राणधारियों का बड़ी संख्या में होना सम्भावित बताया था।

मंगल ग्रह में कई हजार मील दूर रहकर अन्तरिक्ष यानों ने जो 80 हजार फोटो भेजे हैं उन्हें देखने पर यह निश्चित नहीं किया जा सका कि उनमें जीवन विद्यमान है। ग्रीनवेव्स (वर्जीनिया) के पर्यवेक्षकों ने भी उपलब्ध रेडियो सन्देशों के आधार पर अभी यह निष्कर्ष नहीं निकाला है कि उनकी पहुंच के क्षेत्र में पृथ्वी के अतिरिक्त अन्यत्र भी जीवन है।

वर्जीनिया के ग्रीनवैक नामक स्थान पर अवस्थित रेडियो वेधशाला के खगोल शास्त्री फ्रैकड्रेक ने एक तारे से आने वाले रेडियो संकेतों का अध्ययन किया था। जहां से यह संकेत आते थे उस तारे का नाम उन्होंने ‘ओज्मा’ रखा था और इसी नामकरण के आधार पर उनकी अनुसन्धानशाला को ओज्मा प्रोजेक्ट कहा जाता तक संकेत सुने थे। यद्यपि उस समय किसी निष्कर्ष पर न पहुंचा जा सका फिर भी ड्रेक महोदय ने यह भविष्यवाणी की थी कि अब न सही फिर कभी सही हम अंतर्ग्रही प्राणियों के साथ आदान-प्रदान में सफलता प्राप्त करे रहेंगे।

जहां-तहां पाये गये उल्का पिण्डों में जीवन तत्व पाये गये हैं, इससे अनुमान होता है अन्यत्र भी जीवन होना चाहिये। अपने लोक में कभी-कभी ऐसे वाइरस (विषाण्ड) आ धमकते हैं जिनकी ताप सहन शक्ति इतनी अधिक होती है जितनी पृथ्वी पर सम्भव नहीं। इन आधारों को देखते हुये इस मान्यता की पुष्टि होती है कि अन्यत्र भी जीवन होना ही चाहिये।

जो सूचनायें अन्य ग्रहों से हमारे उपकरणों ने प्रस्तुत की हैं उनके आधार पर मोटा निष्कर्ष यह निकाला गया है कि अपने सौर मण्डल में पृथ्वी के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं जीवन की सम्भावना नहीं है। पर यह निष्कर्ष सही ही हो इसकी कोई गारन्टी नहीं। मौसम की खोज खबर लेने वाले उपग्रह अक्सर आकाश में उड़ते रहते हैं। उन्होंने पृथ्वी के जो चित्र भेजे हैं उनके आधार पर कई वैज्ञानिकों ने ठीक वैसे ही निष्कर्ष निकाले हैं और अन्तरिक्षवेत्ताओं को चुनौती दी है कि इन चित्रों का वैसा ही निष्कर्ष उन्हीं आधारों पर निकालें जैसा कि अन्य ग्रहों के सम्बन्ध में निकाला गया है। यही सिद्ध होगा कि पृथ्वी पर कोई जीवन नहीं है। वहां जीवित प्राणियों के रहने की कोई सम्भावना नहीं है। यह चुनौती प्रस्तुत करने वालों में कार्नेल विश्व विद्यालय के खगोलवेत्ता प्रो. कार्ल सागन अग्रणी थे, वे चुनौती देते थे कि इन उपग्रह प्रेषित चित्रों के आधार पर कोई यह साबित करे कि धरती पर भी जीवन हो सकता है। जिस तरह जीवन रहते हुये भी धरती के प्रस्तुत उपकरणों ने यही निर्जीवता दर्शाई है उसी तरह उनकी खोज खबर को इतना प्रमाणिक नहीं माना जा सकता कि सौर मण्डल में अन्यत्र कहीं जीवन की सम्भावना का स्पष्टतया खण्डन किया जा सके।

मंगल पर जो परिस्थितियां हैं उनमें धरती से भेजे हुये जीव भी जी सकते हैं इस तथ्य का प्रतिपादन कैलीफोर्निया की एक्सरिसर्च लेबोरेटरी के डा. सीरल पोन्नमपेरूया तथा डा. हैरल्ड क्लीन ने किया है। उन्होंने ‘रिव्यू आफ बायोलौजी’ के अक्टूबर 1970 के अंक में एक तर्कपूर्ण लेख छपाया है जिसमें यह सिद्ध किया है कि पृथ्वी पर उन जटिल परिस्थितियों में जीवन-यापन करने वाले प्राणी मौजूद हैं जैसे कि मंगल ग्रह पर हैं। पृथ्वी पर 14 डिग्री से लेकर 20 डिग्री तक तापमान में जीवित रहने वाले प्राणी मौजूद हैं जब कि मंगल ग्रह पर वह न्यूनतम 85 डिग्री और अधिकतम 112 डिग्री ही आंका गया है। उबलते पानी और तीव्र ऐसिडों में भी पाये गये हैं। मंगल पर अल्ट्रा वायलेट रेडिएशन, वायुमण्डलीय घनत्व तथा अस्तित्व से इनकार किया गया है पर इन तीनों ही परिस्थितियों में जीवन के फलने-फूलने की पूरी-पूरी गुंजाइश है। इस प्रतिपादन के पक्ष में सबसे मजबूत दलील यह है कि पृथ्वी पर अब से 4.6 अरब वर्ष पहले जीवन आरम्भ हुआ, उस समय तक यह अग्नि पिण्ड थोड़ा ही ठण्डा हो पाया था। उस समय सिर्फ अमोनिया, मोथस हाइड्रोजन और भाप के सघन बादल ही आकाश में छाये हुए था। सूर्य की पराबेगनी किरणों की वर्षा से और ज्वालामुखी विस्फोटों की गर्मी से सर्वत्र बिखरे अणु टूट-टूट कर विभिन्न रूपों में परिणत हुए। उन्हीं से अमीनो अम्ल एवं कार्बनिक पदार्थ बने जिनसे जीवन का प्रादुर्भाव सम्भव हो सका। इन्हीं तत्वों का संयोजन डी.एन.ए. के रूप में सामने आया। प्रोटीन की रचना हुई और जीवित कोशिकाओं की हलचल उत्पन्न हुई। उसी का क्रमिक विकास विभिन्न जीव जन्तुओं के रूप में सामने आया। यह पृथ्वी पर जीवन उद्भव का इतिहास अन्य ग्रहों पर भी दुहराया जा सकता है। शिकागो विश्वविद्यालय के जीव विज्ञानी स्टेनले विलर फ्लोरिया विश्वविद्यालय के सिडनी फोक्स, ह्यू स्टन विश्वविद्यालय के जुआन जोरों इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि अन्य ग्रहों में इन दिनों जो परिस्थितियां हैं उनमें भी जीवन विकास की सम्भावना है भले ही पृथ्वी निवासियों से भिन्न प्रकार का ही क्यों न हो।

संसार के विभिन्न भागों में अन्तरिक्ष से टूटे हुये उल्का पिण्डों के जो अवशेष पाये गये हैं उनमें कार्बोनेशियस काड्राइट जैसे अमीनो अम्ल मिले हैं साथ ही प्राणियों के फासिलपिंजर भी उनमें देखे गये हैं। सन् 1970 में आस्ट्रेलिया में गिरी उल्का से 17 प्रकार के अमीनो अम्ल पाये गये थे। मैसाचुसेट्स इन्स्टीट्यूट आफ टेक्नोलॉजी के एक प्रतिवेदन में शनि के तथा वृहस्पति के उपग्रहों में जीवन होने की सम्भावना की गई है।

अब धरती के विज्ञानी भी मानने लगे हैं कि अन्य परिस्थितियों में भी जीवन का विकास एवं परिपोषण हो सकता है। पृथ्वी पर कार्बन, ऑक्सीजन, कार्बन डाई ऑक्साइड और पानी की उपस्थिति में ही जीवन पलता है सो ठीक है पर अब यह भी स्वीकार कर लिया गया है कि ‘सिल्किन’ भी कुछ अन्य यौगिकों के साथ मिल कर जीवन का आधार हो सकता है। पानी की जगह द्रव अमोनिया, द्रव मीथेन हाइड्रोजन सल्फाइड भी काम दें सकते हैं। ऑक्सीजन की जरूरत गन्धक भी पूरी कर सकता है।

हम कई ग्रहों के बारे में यह जानते हैं कि वहां बहुत ठंड अथवा गर्मी होनी चाहिये पर यह अनुभव सही नहीं है। पृथ्वी के इर्द गिर्द हवा और धूप की मजबूत छतरी तनी हुई है वह पृथ्वी पर आने वाली सूर्य किरणों को रोक कर उपयुक्त गर्मी बनाये हुये है। इस छतरी की एक परत में अतिशीत की और एक परत में अति ताप की स्थिति है। यदि अन्य किसी ग्रह के निवासी पृथ्वी का पता लगा रहे हों और उनके हाथ इन दो परतों में से जो भी लगेगी उसी के आधार पर यह मान बैठेंगे कि इस लोक का तापमान इसी स्तर का है, जबकि वस्तु स्थिति इससे सर्वथा भिन्न प्रकार की होगी। धरती पर तापमान जीवन के उपयुक्त सह्य है। ठीक इसी प्रकार अन्य ग्रहों में वहां के निवासियों के लिए उपयुक्त तापमान किसी गैसीय छतरी में ढका छिपा हो सकता है। वहां की स्थिति के बारे में हमें बहुत ही कम जानकारी है ऐसी दशा में किसी उचित निष्कर्ष पर पहुंचना कठिन है। इन परिस्थितियों में हम यह कल्पना कर बैठें कि अन्य ग्रहों में जीवन नहीं होगा, सर्वथा अनुचित है। सौर मण्डल भर की हमें थोड़ी जानकारी है। यदि इस छोटे क्षेत्र में जीवन नहीं भी हो तो भी यह नहीं कहा जा सकता कि पृथ्वी ही एक मात्र सजीव है और अन्यत्र सर्वत्र निर्जीवता और निस्तब्धता का साम्राज्य है।

जीवन कहीं भी—किसी भी रूप में क्यों न प्राप्त हो उसके मूल में डी.एन.ए. से यौगिकों के रूप में पाये जाने वाले रासायनिक पदार्थ ही हैं। इन रसायनों का अस्तित्व अन्य लोकों में भी है इस सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता।

प्रख्यात रूसी खगोल वेत्ता निकालाई कार्दाशेव ने अन्तरिक्ष से अवतरित होने वाली विभिन्न रेडियो ध्वनि तरंगों को वर्णछटा में परिवर्तित करके ऐसे चार्ट तैयार किये थे जिनसे यह प्रकट होता था कि प्रकृतिगत परिवर्तनों से रेडियो कम्पनी की क्या स्थिति होती है, और अंतर्ग्रहीय रेडियो संकेतों की उन से क्या भिन्नता है। इस अन्वेषण को आगे जारी रखते हुये सोवियत संघ के एक-दूसरे ज्योतिर्विद् गेन्नादि शोलोमित्स्को ने पता लगाया कि सौ दिन के अन्तर से एक जैसे अंतर्ग्रही रेडियो संकेत नियमित रूप से—नियमित क्रम से आते हैं। इन नियमितता के पीछे किन्हीं प्रबुद्ध प्राणियों का प्रयास ही होना चाहिए?

खगोलज्ञ मानते हैं कि हमारी आकाश गंगा में एक करोड़ के लगभग ग्रह ऐसे हैं जो अपने-अपने सूर्यों की परिक्रमा करते हुये ऐसे क्षेत्र में रहते हैं जहां न अधिक सर्दी है न गर्मी, वहां हमारी धरती की तरह ही मध्यवर्ती शीत-ताप की ही नहीं अन्य परिस्थितियां भी ऐसी हैं जिन पर जीवन अपने आप पनप सकता है। जीव विज्ञानी पहले यह मानते थे कि जीवन का आधार कठिन है। पर अब यह माना जाने लगा है कि सिलिकन में भी कार्बन जैसी ही जीवन को उत्पन्न कर सकने वाली क्षमता मौजूद हैं। सिलिकन प्रचुर मात्रा में अन्य ग्रहों पर मौजूद है तो वहां जीवन भी होना ही चाहिए।

केम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रो. मार्टिन रायल ने 25 ऐसे रेडियो तारकों की सूची तैयार की है जो अपने सूर्य की अपेक्षा सैकड़ों गुने बड़े और तेजस्वी हैं। उनकी ऊर्जा कल्पनातीत है। प्रो. फ्रड हायल के अनुसार उन रेडियो तारकों के अनेक ग्रह-उपग्रह जुड़े हुए हैं। उनमें अनेकों की स्थिति जीवन के लिए अनुकूल उपयुक्त होने की पूरी-पूरी सम्भावना मानी जा सकती है। ऐसी ही उपलब्धियों से प्रभावित होकर ब्रिटेन के अन्तरिक्ष विज्ञानी लार्डस्नो ने आशा व्यक्त करते हुये कहा था कि वह दिन हम सब के लिये बेहद खुशी का होगा जब ब्रह्माण्ड के अन्य प्राणियों के साथ हमारा सम्पर्क बनेगा।

कहीं तो है ही जीवन

अपनी पृथ्वी जैसी स्थिति के ग्रह इस समस्त ब्रह्माण्ड में 100,000 अरब माने जाते हैं। इनमें से एक हजार पीछे एक ऐसा जरूर होगा जिनमें जीवन विकास के लिये अनुकूल परिस्थितियां मौजूद हों। उनमें से भी एक हजार पीछे एक ग्रह जरूर ऐसा होगा जिसमें मनुष्य जैसे समुन्नत प्राणियों का अस्तित्व हो। यदि यह कल्पना सही है तो कहा जा सकता है कि ब्रह्माण्ड में 10 करोड़ ग्रह ऐसे होने चाहिये जिनमें बुद्धिमान प्राणी निवास करते हों। पृथ्वी पर जिस प्रकार के अणु परमाणु पाये जाते हैं उन्हीं से मिलते जुलते अन्य ग्रहों में भी हैं। शीत ताप जहां भी मध्यवर्ती होगा वहां निश्चय ही प्राणियों की उत्पत्ति होने लगेगी और क्रमशः अधिकाधिक विकसित होते चले जायेंगे। आर्थर क्लार्क की ‘टू थाउजेन्ड वन ए स्पेस ऑडिसी’—एच.जी. वेल्स की ‘दी वार आफ दी वर्ल्डस’ क्लिफर्ड सिमैककी ‘इमिग्रैन्ट’—फ्रेड होयल की ‘‘फिफ्रप्लैनेट’’—एडगर राइसवरी की ‘ग्रीन मैन फ्राममार्स’ जैसी पुस्तकों में प्रस्तुत प्रतिपादन से यह सहज ही विश्वास होता है कि अनन्त ब्रह्माण्ड में अनेकों में समुन्नत जीवन का अस्तित्व अवश्य होगा। जियू लवर्ग, एडगर एलन, जेम्स ओबिएन्स, कार्ल गन नाइजेक आसियोव आदि विद्वानों ने कल्पना और तर्कों के आधार पर ही अन्तर्ग्रही जीवन के सन्दर्भ में अनुमान लगाया है इन मनीषियों ने कोई ठोस प्रमाण प्रस्तुत नहीं किये हैं तो भी जो सम्भावनायें और तथ्य प्रस्तुत किये हैं वे उपेक्षणीय नहीं हैं।

डा. फ्रेड होयल ने एक पुस्तक लिखी है ‘‘आफ मेन एण्ड गैलेक्सीज’ उसमें उन्होंने बताया है कि अपनी आकाश गंगा में अन्तर्ग्रही सन्देशों के आदान प्रदान की कोई एक लाख रेडियो संचार धारायें बहती हैं जिनसे कुछ महत्वपूर्ण ग्रह परस्पर कई तरह के आदान-प्रदान करते हैं। इस संचार व्यवस्था में धरती निवासी भी एक दिन भागीदार होकर रहेंगे।

अब तक के सन्देश जो उपग्रहों ने भेजे हैं, उनसे एक बात निश्चित हो गई है कि अभी ग्रह प्रकारान्तर से पांच महाभूतों (आकाश, पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि) से बने हुये हैं। इनकी न्यूनाधिक मात्रा के अनुसार वहां वनस्पति भी होगी। बादल तो हैं ही, तापमान और वायुभार भी है पर इनका अपनी पृथ्वी के तापमान और वायुभार से सामंजस्य नहीं है। इसलिये यह तो नहीं कहा जा सकता कि वहां के प्राणधारियों की मानसिक और शारीरिक स्थिति कैसी है, किन्तु जीवन के अस्तित्व के बारे में बिल्कुल इनकार नहीं किया जा सकता।

हारवर्ड वेधशाला (न्यूयार्क) के अवकाश प्राप्त ज्योतिषी डा. हारलो शेपले के अनुसार तो 10 करोड़ से भी अधिक ग्रहों में घास, वृक्ष और जीव रहते हैं। यह विचार उन्होंने एक टेलीविजन कार्यक्रम में व्यक्त किया। तीन अन्य अमेरिकी वैज्ञानिकों ने भी इस विश्वास की पुष्टि की कि केवल पृथ्वी पर ही जीव नहीं रहते अन्य लोकों में भी जीवन का अस्तित्व विद्यमान् है।

73 वर्षीय रूसी वैज्ञानिक श्री ए.आइ. ओपारिन की राय ग्रहों पर जीवन है। अकादमीशियन, ओपारिन 50 वर्ष से जीवन के उद्भव पर अनुसंधान कर रहे हैं, उन्होंने एक प्रश्न के उत्तर में बताया कि अन्य ग्रहों पर किसी तरह का जीवन होना चाहिए, किन्तु यह जरूरी नहीं कि वे मानव जैसे प्राणी हों। ज्यों-ज्यों मनुष्य प्रगति करेगा, उसे अन्य ग्रहों के प्राणियों के बारे में जानकारी, रासायनिक व खनिज विज्ञान की विधियों के प्रयोग और उल्का-पिण्डों के द्वारा मिलती रहेगी। श्री ओपारिन जो सोवियत विज्ञान अकादमी की जीव विज्ञान इन्स्टीट्यूट के डाइरेक्टर और जीव शास्त्रियों की अन्तर्राष्ट्रीय सोसायटी के उपाध्यक्ष भी हैं, का कहना है कि कार्बन यौगिकों की विकास की प्रक्रिया ही पृथ्वी पर जीवन का आधार है तो अन्य ग्रहों पर जहां भी कार्बन यौगिक हैं, जीवन का होना बिल्कुल निश्चित है—(1) आदिकालीन आर्गनिक पदार्थ हाइड्रो कार्बन, (2) विभिन्न प्रकार के जटिल आर्गनिक पदार्थों के जलीय घोल में प्राइमरी सूप का निर्माण और (3) जटिल बहु आणविक खुली प्रणाली, यह तीन प्रक्रियायें ही प्राणियों के उद्भव के स्रोत हैं और यह विकास क्रम अन्तरिक्ष में व्यापक रूप से विद्यमान् है।

अब यदि अन्तरिक्ष में जीवन है तो उनमें बौद्धिक विकास और शब्द ध्वनि की स्थिति भी होनी चाहिये। अन्तरिक्ष वैज्ञानिक काफल समय से यह कहते आ रहे हैं किन्तु हमारी ग्रहणशीलता भिन्न प्रकार की होने से हम उन्हें समझ नहीं पा रहे पर यह निश्चित है कि किसी ग्रह में अत्यन्त बुद्धिमान् प्राणियों का निवास है अवश्य। प्रसिद्ध वैज्ञानिक कार्दाशेव ने उन विशेषताओं पर प्रकाश डाला है जिनके द्वारा अन्तरिक्ष से स्थायी तौर पर आने वाली ध्वनियों में से उन ध्वनियों को पहचाना जा सकता है, जो किसी कृत्रिम स्रोत से आ रही हैं। उन्होंने विभिन्न स्रोतों से आने वाली ध्वनि तरंगों के वर्ण छटाओं के अलग-अलग चार्ट तैयार किये हैं, एक चार्ट में उन्होंने दिखलाया है कि पृथ्वी से हजारों लाखों प्रकाश वर्षों की दूरी पर स्थिति सभ्यताओं के रेडियो संकेतों की वर्ण छटा (रेडियो फोटो, किस प्रकार होगी। यह वर्ण छटा प्राकृतिक स्रोतों से निकलने वाली वर्ण छटा से बिलकुल भिन्न होगी।

पृथ्वी और अन्य लोकों को मिलाने वाली कुछ अदृश्य शक्तियों की सूक्ष्म धारायें हैं, जो जीव को ऊर्ध्व या अधोगामी तक पहुंचाने में समर्थ हैं। वरुण, इन्द्र अग्नि आदि तत्वों की विशिष्टता और बहुलता वाली यह शक्ति धारायें पृथ्वी के समीप भी हो सकती हैं और किसी ऐसे स्थान पर भी जहां पृथ्वी निर्धारित समय पर घूमते-घूमते पहुंचती हो और उन शक्ति धाराओं के समीप हो जाती हो पर एक बात यह निश्चित है कि वह शक्ति धारायें भू-गुरुत्वाकर्षण (ग्रेविटेशन) नहीं हो सकतीं, क्योंकि यदि ऐसा होता तो जिन घटनाओं द्वारा उक्त शक्ति पथों की निश्चिंतता अगली पंक्तियों में प्रमाणित कर रहे हैं, वैसी घटनायें कहीं भी किसी स्थान में हो सकती थीं।

विज्ञान यह मानने लगा है कि आकाश में कुछ विशिष्ट प्रकार के नक्षत्र ऐसे हैं, जो कुछ एक ही प्रकार की किरणें या ऊर्जा प्रवाहित करते हैं और उनकी शक्ति एवं प्रचण्डता इतनी तीव्र होती है कि वे सृष्टि के किसी भी स्थान में व्यापक हलचल उत्पन्न करती रहती है। 1962 के राकेट अभ्यास के समय यह पाया गया कि सूर्य से बहुत दूर हमारी आकाश गंगा में ही एक ऐसा तारा है जो वर्तमान और एक्स विकिरण की अपेक्षा दस लाख गुनी तीव्र रफ्तार से एक्स-विकिरण कर रहा है। यह तारा पृथ्वी से 1000 प्रकाश वर्ष दूर है और इसका नाम ‘स्को एक्सवन’ रखा गया है।

तात्पर्य यह कि अब तक की यह मान्यता कि पृथ्वी की जलवायु में केवल सूर्य का ही हस्तक्षेप है, गलत है। एक्स-विकिरण के ही तीस तारे छह वर्षों में ढूंढ़े गये हैं, अभी अन्य महत्वपूर्ण किरणों के तारे जो अपना विशिष्ट प्रभाव रखते हैं, अनन्त आकाश में हैं और उनकी जानकारी वैज्ञानिकों को नहीं है पर कुछ ऐसी घटनायें अवश्य सामने आई हैं, जिनसे भारतीय दर्शन की उक्त मान्यता सत्य सिद्ध होती है कि आकाश में सूक्ष्म प्रवाह है अवश्य जो लौकिक जीवन में ही नहीं पारलौकिक जीवन को भी प्रभावित करते हैं। अन्य लोकों के वासी

5 दिसम्बर 1945 को 5 टी.बी.एम. बम वर्षक हवाई जहाज हवाई जहाज हवाई अड्डे से प्रशिक्षण उड़ान पर रवाना हुये। उन्हें पहले पूर्व की ओर जाना था, फिर उत्तर की ओर अन्त में दक्षिण-पूर्व होकर लौटना था। सब वायुयान पेट्रोल, ईंधन, दिशा निर्देशक यन्त्रों और संसार साधनों से पूरी तरह सुसज्जित थे। उड़ाकों में कोई नया नहीं था, सब पुराने योग्य और अनुभवी उड़ाके। किसी प्रकार की घटना की रत्ती भर भी सम्भावना नहीं थी।

कन्ट्रोल टावर के निर्देश पर पहला जहाज जिसे स्कवाड्रन लीडर चला रहे थे, उड़ा उसके 5 मिनट के अन्तर से शेष चार आकाश में गड़गड़ाने लगे। प्रथम वायुयान में दो व्यक्ति शेष चारों में तीन-तीन व्यक्ति थे। सब जहाज मजे में उड़ते गये। रेडियो संदेश मिला हम 200 मील प्रति घण्टा की रफ्तार से ठीक तरह उड़ रहे हैं। अब हम अटलांटिक महासागर के पूर्वी किनारे की ओर बढ़ रहे हैं।

दोपहर ढल चुकी थी। तीन बजकर पैंतालीस मिनट हुये थे कि एकाएक खतरे का संकेत मिला। जहाजों को उतरने का सन्देश देने की तैयारी की जाने लगी पर तभी स्क्वाड्रन लीडर की आवाज सुनाई दी—हम लोग एकाएक कहां आ गये, कुछ पता नहीं चल रहा, यन्त्र ठीक हैं पर जब नीचे की ओर देखते हैं तो न समुद्र है न कहीं जमीन। पूछा गया नक्शा देखकर अपना ग्रिड रिफरेन्स (स्थान का पता) दो—तो उत्तर मिला—‘यहां भौगोलिक स्थिति के बारे में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता।’

यह आखिरी शब्द थे। इसके बाद जहाज कहां गये आज तक किसी को पता नहीं चल पाया। चलते-चलते अनुमानित सन्देश मिला था, उत्तर-पूर्वी किनारे से कोई 225 मील दूर........। उसी के आधार पर 13 कर्मचारियों और अच्छे से अच्छे यन्त्रों से सुसज्जित मार्टिन हवाई जहाज को खोज के लिये भेजा गया। 5 मिनट तक उसने अपने उड़ने की खबर दी पर उसके बाद ही उधर से भी कोई आवाज आना बन्द हो गई। रात भर समुद्र के रक्षक जहाजों ने उधर निगाह रखी। प्रातःकाल होते ही 21 जहाज समुद्र में दौड़ाये गये। 300 जहाज आकाश का चप्पा-चप्पा छानने लगे। 12 खोजी दल जमीन में खोज करते रहे। दिन भर खोज चलती रही पर न तो समुद्र तल पर एक बूंद तेल का निशान मिला न जमीन पर जहाज का एक इंच टुकड़ा। किसी के शव मिले न कोई पुर्जे। मार्टिन जहाज तो समुद्र तल पर भी आराम से उतर सकता था। उसका सन्देश प्रसारक यन्त्र इतना जबर्दस्त था कि उससे दूसरे देशों को भी सन्देश भेजे जा सकते थे पर उसका भी कहीं कोई सुराग न मिला।

नौसैनिक अधिकारियों ने बहुत खोज की पर वे किसी कारण का पता न लगा सके। उन्होंने रिपोर्ट प्रकाशित करते हुए कहा—‘यह सब क्या हुआ हम इसकी कल्पना तक नहीं कर सकते।’ इस स्थान का नाम ‘प्वाइन्ट आफ नो रिटर्न’ रखा गया। वहां जो भी गया आज तक नहीं लौट पाया।

हमने विज्ञान में इतनी उन्नति की है कि चन्द्र और मंगल ग्रहों तक पहुंच रहे हैं। हमारा भूगोल इतना समृद्ध हो चुका है कि ध्रुवों तक के बारे से अच्छी तरह जानने लगे हैं। ऐसी योजना बनाई जा रही है कि समुद्र के भीतर घुसकर धरती को छेद दिया जाय ताकि उत्तर और दक्षिण की दूरी न्यूनतम रह जाये पर उन पारलौकिक तथ्यों का पता लगाने में हमारी बुद्धि बिलकुल काम नहीं करती जो इस तरह की अविज्ञात घटनायें घटित किया करते हैं।

हमारी पृथ्वी संसार के शून्य महाचक्र में कहां घूम रही है, कहां से कैसा विकिरण किस समय हो रहा है, यह रहस्य सुलझने को नहीं आ रहे हैं। बड़े-बड़े भौतिक उपकरण मानवीय बुद्धि कौशल भी इस तरह के अज्ञात कारणों का पता लगाने में असफल हैं घटनायें ज्यों की त्यों होती रहती हैं।

इस घटना के ठीक तीन वर्ष बाद ही 28 जनवरी 1948 को एक चार इंजनों वाला ब्रिटिश जहाज ‘स्टार-टाइगर’ किंग्स्टन जा रहा था। उसका सम्बन्ध बरम्पुड़ा हवाई अड्डे से था। हवाई जहाज में कर्मचारियों सहित 26 यात्री सवार थे। जहाज से खबर मिली मौसम साफ है, हम ठीक तरह से उड़ रहे हैं, इसके बाद जैसे ही वायुयान उस प्वाइन्ट के स्पर्श में आया, न जाने कहां लुप्त हो गया। समुद्र में कोई निशान नहीं, धरती का कहीं मुख चौड़ा न हुआ। क्या उसे फिर आकाश निगल गया इसका आज तक कुछ पता नहीं चला पाया।

‘स्टार-टाइगर’ की तरह एक दिन ‘एरियल’ ने उड़ान भरी। कैप्टन जे.सी. मैक्फी चालक थे, उन्हें बारम्पुड़ा से जमैका जाना था। फोर्टलैंडरले (फ्लोरिडा) के निकट वह स्थान आता है, जहां की उड़ान काफी विचित्र होती है। वहां एक छोटा तिकोना चक्कर काटकर बढ़ना होता है। एरियल की तेल टंकियों में दस घण्टे तक उड़ने के लिये पर्याप्त तेल था, हवाई अड्डा छोड़ने के पौन घण्टा बाद कैप्टन मैक्फी ने खबर दी जमैका ठीक समय पर पहुंच रहे हैं इसके बाद न कोई आवाज ही आई और न यही पता चला कि एरियल कहां स्वाहा हो गया।

यह तीनों घटनायें एक से एक भयंकर घटित हुई पर आज तक इस बारे में सही तथ्यों का पता नहीं लगाया जा सका। न वहां से कोई संकेत मिले और न ही उस रहस्य का पता लगाया जा सका कि उस स्थान पर पहुंच कर वायुयानों का क्या हो जाता है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि सम्भवतः उस स्थान पर किसी ग्रह का इतना तेज विकिरण होता हो कि जहाज जलकर गैस बन जाते हैं। उस स्थान पर यदि मनुष्य सकुशल रह सके तो अनुमान है कि पृथ्वी और आकाश के अनेक रहस्यों का पता चले। पृथ्वी के अक्ष के सम्बन्ध में नई जानकारियां मिल सकती हैं, क्योंकि उस बिन्दु पर पहुंचते ही जमीन दिखाई देना बन्द हो जाती है, एक अनन्त गहराई रह जाती है। यह भी सम्भावना है कि वहां किसी ग्रह का अति प्रखर गुरुत्वाकर्षण हो जो वायुयानों को अपनी ओर खींच लेता हो। ऐसा भी सम्भव है कि किसी ग्रह से वहां विद्युत धारायें प्रवाहित होती हों जो जहाजों को चुम्बक बनाकर किसी शक्तिशाली ग्रह या क्षुद्र ग्रह की ओर ढकेल देती हों।

अनुमानों में कहां कितनी सत्यता है, कहां नहीं जा सकता पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि मानवीय विधान की अपेक्षा ईश्वरीय विधान अधिक शक्तिशाली है। वहां न मनुष्य की भौतिक सामग्री साथ देती है, न बुद्धि-कौशल, तकनीक काम देती है न साइन्स। उसे जानने के लिये तो अपने जीवन के दृष्टिकोण को ही बदलना पड़ता है। अपनी तुच्छता स्वीकार करनी पड़ती है और महाकाल की महाशक्तियों पर विश्वास करना पड़ता है, जब इस तरह की ज्ञान-बुद्धि जागृत होती है तो मनुष्य (जीवात्मा) के कल्याण का मार्ग भी निकलने लगता है।
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