परिवार को सुव्यवस्थित कैसे बनायें?

परिवारों में सहकारिता का समावेश

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बिखराव उसी सीमा तक सहन होता है, जिससे एकता में कोई व्यवधान न पड़े। ईश्वर एक से अनेक हुआ तो, पर उसने विराट् ब्रह्म के रूप में विश्व ब्रह्माण्ड की एकता भी बनाये रखी। शरीर में कितने अंग-अवयव विभिन्न प्रकार के विनिर्मित तो हुए, पर उन सबका सहयोग एक समग्र शरीर की संरचना कर सका। व्यक्ति एक इकाई तो है, पर उसकी स्थिरता, सम्पन्नता, प्रसन्नता और प्रगति सहजीवन में ही है। इस दिशा में पहला कदम परिवार परिकर में प्रवेश करते हुए ही उठाना पड़ता है। वह एक प्रयोगशाला-पाठशाला है जिसमें सामाजिक शालीनता के लिए आवश्यक मर्यादाओं और वर्जनाओं का नित्य-नियमित रूप से अभ्यास करना पड़ता है। एकाकी प्रकृति का व्यक्ति अपने स्वभाव, अभ्यास को इस योग्य नहीं बना सकता कि सर्वजनीन सद्भाव, सहयोग अर्जित कर सकने में समर्थ एवं सफल हो सके। 
परिवार संस्था को जीवन्त स्थिति में बनाये रहना इसलिये आवश्यक है कि उसी आधार पर अगले दिनों समाज व्यवस्था एवं विश्व व्यवस्था चलनी है। समय की गति अत्यधिक द्रुतगामी हो गयी। बढ़ी हुई जनसंख्या और उसकी बढ़ती हुई आवश्यकता ने समय के अनुरूप प्रचलनों में क्रान्तिकारी परिवर्तन के लिए विवश किया है। अब धरती पर इतनी जगह नहीं रह गयी है कि हर किसी के लिये अलग-अलग ठीक तरह रहने की व्यवस्था जुट सके। स्थान की कमी ने मिल-जुलकर रहने की उपयोगिता समझने के लिये विचारशील वर्ग को उद्बोधन दिया है कि वे सहजीवन की पारिवारिकता की आवश्यकता स्वयं समझें और अपने प्रभाव क्षेत्र में अन्यान्यों को परिचित कराने के लिये विशेष प्रयत्न करें। मनुष्य पारिवारिकता की, सहकारिता की वृत्ति अपनाकर ही अधिकाधिक सभ्य बनता चला आया है। आदान-प्रदान की नीति अपनाने से ही उसकी समर्थता बढ़ी है। मध्यकालीन अन्धकार युग में विलगाव और बिखराव का प्रतिफल देख लिया। उन कड़ुवे फलों को बार-बार चखने की आवश्यकता नहीं है। विपन्नता की विषम बेला में नये सिरे उपाय से खोजना पड़ेगा। अनौचित्य में परिवर्तन लाने के लिये कदम उठाना पड़ना। अन्यथा सामयिक विषमता का सामना कर सकना संभव न होगा। 
अत्यधिक छोटे परिवार बसाने का प्रयोजन पाश्चात्य देशों ने इस शताब्दी में भली प्रकार पूरा कर लिया है। उसके हानि-लाभों का भी अनुमान लगा लिया गया है। कमाऊ होते ही पति-पत्नी अभिभावकों को छोड़कर अलग स्वतंत्र घर बसाकर रहते हैं। परिवार की कोई जिम्मेदारी रहती नहीं। भोजन बाजार से खरीदकर खा लिया जाता है। मौज-मस्ती ही एक मात्र काम रह जाता है। आजीविका उपार्जन के उपरान्त सारा समय उसी माहौल में बीतता है। इसमें व्यवधान डालने के लिए बच्चे उत्पन्न हो जाते हैं, तो उनसे पीछा छूटते न देखकर किसी प्रकार पाल तो लिया जाता है, पर जैसे ही थोड़े समर्थ होते हैं, वैसे ही उन्हें शिशुपालन गृहों में डाल दिया जाता है, इसी स्थिति में वे जीते, पढ़ते, बड़े होते और काम-धंधे में लग जाते हैं। माता-पिता का स्नेह सान्निध्य उनने जाना ही नहीं। ऐसी दशा में यह आशा कैसे की जा सकती है कि वे अपने जन्मदाताओं के प्रति कृतज्ञता, आत्मीयता जैसे सद्भाव संजोयें उनके कोई स्वजन सम्बन्धी होंगे इसे जानने की तो उन्हें इच्छा तक नहीं होती। ऐसी दशा में वे समर्थ होने पर इस पूर्वज समुदाय की कोई सेवा-सहायता करेंगे, इसकी आशा कैसे की जा सकती है। वृद्धावस्था आने पर उस स्वेच्छाचार के अभ्यस्त लोगों को सन्तान से कोई सहानुभूति या सहायता न मिले तो इसमें आश्चर्य की बात नहीं है? जराजीर्ण स्थिति में मौत के दिन किसी प्रकार बूढ़ा खाने के अनाथालयों में ही व्यतीत करने पड़ते हैं। वहीं वे अपने को एकाकी अनुभव करते हुए दम तोड़ते हैं। 
स्वच्छन्दता, विलासिता के उन्माद में दाम्पत्य जीवन ही कहां टिक पाता है। नवीनता की ललक रसास्वादन की सहज प्रवृत्ति होती है। तितलियां और भौंरे एक फूल पर टिके रहने पर विश्वास नहीं करते। वे एक से दूसरे पर, दूसरे से तीसरे, चौथे, सौंवे पर मंडराने पर प्रसन्नता पाते हैं। पाश्चात्य देशों में दम्पति जीवनभर इसी प्रयोग को करते हुए अनेकानेक साथी बदलते रहते हैं। यही दशा वृद्धावस्था में भी रहती है। जो जिसके साथ अधिक सुविधा देखता है वह उसके समीप चला जाता है। जिसके साथ कठिनाई का सामना करने, विकास करने में सुविधा गंवाने को बाधित होना पड़े, उसके साथ कौन रहे? जराजीर्ण स्थिति में कोई युग्म पति-पत्नी का उत्तरदायित्व निभा सके, ऐसा कभी-कभी कहीं-कहीं दीख पड़ता है अन्यथा अधिक सुविधा, अधिक स्वच्छन्दता बढ़ते रहने की अभ्यस्त प्रवृति अन्तकाल तक चलती रहती है। इस प्रचलन का कट अनुभव पाश्चात्य जगत को तो भली प्रकार हो चुका है। अविकसित देश भी अपनी पुरानी परम्पराओं को छोड़कर तथाकथित ‘‘सम्पन्न सभ्यों’’ का अनुसरण करने का मानस बना रहे हैं। इसे रसास्वादन की दृष्टि से ही उपयोगी समझा जा सकता है। प्रतिफल की दृष्टि से उस स्थिति में उत्पन्न होने वाली असंख्य हानियों को समझा जाने लगा है। जो जन्मदाताओं और संतान तक को एक-दूसरे के साथ जुड़ा हुआ न रख सकें, उसमें दाम्पत्य जीवन तूफानी चक्रवातों को पार करते टिक सकेगा, इसकी आशा कैसे की जाय? इस विपन्नता का जीवन क्रम की स्थिरता पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। आत्मीयता, श्रद्धा, सद्भावना, कृतज्ञता की उपेक्षा करके मात्र भौतिक सुविधाओं के सहारे कोई कितने दिन प्रसन्न रह सकता है। इसे आधुनिकता के रंग में रंगी हुई तथाकथित सभ्य समुदाय की मनःस्थिति और परिस्थिति का निकटता से पर्यवेक्षण करने पर सहज ही जाना जा सकता है। 
बढ़ती हुई आधुनिकता छूत की बीमारी की तरह अछूते क्षेत्रों को भी अपनी चपेट में ले ले तो कोई आश्चर्य नहीं। फलतः सर्वत्र एकाकीपन, स्वेच्छाचारिता के माहौल में कोई किसी के प्रति निष्ठावान न रह सकेगा। किसी को किसी की विश्वसनीयता पर, प्रामाणिकता पर भरोसा न रहेगा और अवसरवाद ही सब कुछ बन जायेगा। परिवार परम्परा के बिखराव के यह सहज स्वाभाविक परिणाम हैं। जिनने इसका भली प्रकार अनुभव कर लिया, उनकी स्थिति समझते हुए अपने लिए उपयोगी चिरस्थाई सुख शान्ति का मार्ग चुना जाय, इसी में भलाई है। 
सहकारिता को हर क्षेत्र में कार्यान्वित करते हुए ही प्रगति और प्रसन्नता का उपलब्ध हो सकना संभव है। यही है मानवी प्रगति के साथ जुड़े हुए तथ्यों का सार संक्षेप। इसी महान परम्परा को वंश विकास के संदर्भ में जोड़ने पर ‘संयुक्त परिवार’ की परिपाटी बनती है। इसमें प्रत्यक्ष लाभ भी है और परोक्ष लाभ भी। समय, श्रम, धन और दौड़-धूप की बचत करने में परिवार व्यवस्था के अन्तर्गत सहजता बन पड़ती है। 
संसार भर के विचारशीलों में सहजीवन, सहअस्तित्व एवं सहयोग संवर्धन की उपयोगिता समझी जा रही है। उसका दैनिक जीवन में उपयोग संयुक्त परिवार के रूप में ही संभव दीखता है। इस प्रणाली को आज नहीं तो कल अपनाने के लिए लोकमानस को सहमत होना पड़ेगा। इसके अतिरिक्त विषमताओं से घिरे वातावरण में और कोई स्थिर साधन है नहीं। 
सह जीवन की आचार संहिता न बन पड़ने और आपाधापी को अधिक स्थान मिल जाने से ही वर्तमान परिवार असुविधा भरे हो जाते हैं और जिन्हें अधिक स्वतंत्रता प्राप्त करने की इच्छा है, वे उस तनाव भरे वातावरण से अलग होने की बात सोचने लगते हैं। भूल यही हो जाती है कि सहजीवन के सिद्धान्तों को व्यवहार में जोड़े रहने वाली आचार संहिता का निर्माण नहीं हो सका है। यदि सुव्यवस्था की रीति-नीति समझी, बनाई, चलाई जा सके तो संयुक्त परिवार में सुविधा ही सुविधा है। बचत ही बचत है। प्रसन्नता ही प्रसन्नता है। उस विधा के अन्तर्गत प्रगति की जितनी संभावना है, वह एकाकी अनिश्चित और विशृंखलित परिपाटी अपनाने में हो ही नहीं सकती। 
कुछ समय से इस संदर्भ में ‘कम्यून’ स्तर के प्रयोग जहां-तहां अपनाये जा रहे हैं। उनकी सुखद परिणति भी प्रत्यक्ष देखी जा रही है। ‘कम्यून’ योजना में कुछ परिवार मिल-जुलकर एक व्यवस्था तंत्र बनाते हैं। साथ-साथ रहते और आवश्यक व्यवस्थाओं को मिल-जुलकर एक तंत्र के अन्तर्गत सुनियोजित करते हैं। भोजन पकाना, कपड़े धोना, सफाई उपक्रम, शिशुपालन, उनका शिक्षा संवर्धन, मनोविनोद, दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकने वाला सहकारी स्टोर आदि का उपक्रम आदि बन पड़े तो थोड़े समय और खर्च में वे कार्य होते रह सकते हैं जिनके लिए छोटे परिवारों को ढेरों खर्च, समय और पैसा खर्च करना पड़ता है। इसी उलझन में उलझे रहने वाले किसी महत्वपूर्ण कार्य के लिए समय ही नहीं निकाल पाते। फलस्वरूप उन्हें घरेलू जंजाल में, उलझनों में उलझे रहने के अतिरिक्त और कुछ सोचते, करते बन ही नहीं पड़ता। घर की चौकीदारी, रसोईदारी, सफाई करने भर में महिला वर्ग का प्रायः सारा समय चला जाता है। आधी जनसंख्या इसी व्यवस्था में खप जाती है। यदि सहकारी परिवारों की व्यवस्था बन सके तो इस निरर्थक उलझन में समय गंवाने वाले लोग अधिक महत्वपूर्ण कार्यों में संलग्न होकर अपनी और समाज की प्रगति में असाधारण सहायता कर सकते हैं। उनका काम थोड़े से कर्मचारियों द्वारा संपन्न होता रह सकता है। इस नये उद्योग में लगने वाले लोगों को इस सहकारी व्यवस्था के अन्तर्गत नया काम भी मिल सकता है। इस प्रकार अनेकों की रोजी रोटी का हल इन पारिवारिक सहकारी तंत्र में लग जाने पर सहज ही हो सकता है। विधवायें, परित्यक्ता स्तर की महिलायें बड़ी संख्या में इसी प्रयोजन के लिये खप सकती हैं। 
कम योग्यता वालों को बेकार न रहना पड़े और अधिक क्षमता सम्पन्न अधिक महत्व के काम में लगें तो वैयक्तिक और सामूहिक प्रगति का नया मार्ग खुल सकता है। सुयोग्य महिलायें मात्र चूल्हा फूंकने और झाड़ू लगाने में ही अपनी उच्चस्तरीय योग्यता समाप्त कर दें तो इसमें हर किसी के लिए हर प्रकार घाटा ही घाटा है। इसकी अपेक्षा यह कहीं अधिक उत्तम है कि घरेलू व्यवस्था में उन्हें खपाया जाय जो उपयुक्त काम न मिलने के कारण आजीविका कमा सकने में असमर्थ रहते हैं। संयुक्त परिवार वंश आधार पर बनते हैं, पर सामूहिक परिवार तो समान स्वभाव के लोग एक साथ मिलकर चला सकते हैं। जब सभी क्षेत्रों में सहकारिता को अधिक उत्साह के साथ अपनाया जा रहा है तो कोई कारण नहीं कि परिवार व्यवस्था के लिये वही रीति-नीति न अपनाई जा सके। इस विधा को अपनाने में सबसे बड़ा भावनात्मक लाभ यह है कि मिल-जुलकर रहने, एक जैसी रीति-नीति अपनाने का अभ्यास बढ़ता है। सबसे अलग होकर रहने और एकाकी जीवन बिताने में स्वच्छन्दता भले ही अधिक मिल जाय, पर उसमें उन सभी लाभों से वंचित रहना पड़ता है, जो मिल-जुलकर रहने, एक-दूसरे के साथ संगति बिठाने और तालमेल अपनाने के आधार पर उपलब्ध होते हैं। 
बहुमुखी प्रगति के मार्ग पर चलती हुई मनुष्य जाति को अपनी शान्ति, सुरक्षा और प्रगति के लिए हर क्षेत्र में सहकारिता को बढ़ावा देना होगा। व्यवसाय भी इसी आधार पर चलेंगे। व्यवस्था और प्रगति के सभी तन्त्र ऐसे बनेंगे जिनमें सामूहिकता और सहकारिता की ही प्रधानता रहे। अब इसी विधा को अपनाना अगले दिनों अनिवार्य हो जायगा तो फिर परिवार के क्षेत्र में ही अलगाव और बिखराव की अवांछनीयता को क्यों सहन किया जा सकेगा। संयुक्त परिवार के निभने में यदि अड़चन दिखाई देती हो तो सहकारी परिवारों का गठन नये आधार अपनाकर नई आचार संहिता के आधार पर किया जा सकता हैं। 

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