परिवार को सुव्यवस्थित कैसे बनायें?

पारिवारिक जीवन सत्प्रवृत्तियों का साधना क्षेत्र

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सुविधा, प्रसन्नता, निश्चिन्तता, सुसंस्कारिता जैसी सुखद संभावनाओं का तारतम्य संयुक्त परिवार के साथ जुड़ता है। इसलिए हर किसी को उसी सार्वभौम सुव्यवस्था के साथ अपने को जोड़ने का प्रयत्न करना चाहिये। साथ ही यह भी देखना चाहिये कि इसके साथ सुव्यवस्था का समावेश रहे। आचार संहिता का अनुशासन चले, कर्तव्य और अधिकार का ऐसा समन्वय हो कि किसी सदस्य को मनमानी करने का अवसर न मिले और किसी को अनुचित दबाव के कारण घुटना न पड़े। संयुक्त परिवारों में एक सहकारी समिति की भूमिका निभाई जा सकती हैं। अपने कर्तव्यों और दूसरे के अधिकारों का समुचित ध्यान रखने का अवसर मिलता रह सकता है। 
मनुष्य के समुन्नत समाज में परिवार एक ऐसी संस्था है, जिसके सहारे उस परिकर का नहीं, हर सम्बन्धित लोगों-सदस्यों में से हरेक की सामयिक सुविधा एवं भविष्य की प्रगति संभावनाओं की पृष्ठभूमि बनती है। बुहारी अनेक सींकों से ही बनती है, रस्सा तिनकों के मिलन का ही प्रतिफल है। कपड़ा पतले धागों के एक दूसरे के साथ गुंथ जाने पर बनता है। सम्मिलित शक्ति का संयुक्त परिवार मैं उद्भव होता है, उससे न केवल सदस्यों को वरन् समाज के हर घटक को किसी न किसी रूप में लाभ मिलता है एक अच्छी परम्परा का निर्वाह होता रहता है। अनेक स्तर के लोगों के साथ सहयोग और सद्भाव का तारतम्य कसे मिलाये रखा जाय—इसका उपक्रम बनता है। 
एकाकी रहकर व्यक्ति अपनी मनमर्जी चलाने की सुविधा तो किसी प्रकार किसी सीमा तक प्राप्त कर लेता है, पर इसका अत्यधिक मूल्य चुकाना पड़ता है। दूसरों का सहयोग न करने से अपनी क्षमता का लाभ उठाने का लाभ तो मिल जाता है, पर साथ ही यह एक बड़ी हानि अपना सिलसिला चलाने लगती है कि अन्यों का सहयोग उस एकाकी प्रवृत्ति वाले को मिलना बन्द हो जाय। परिवार के अधिकांश कार्य ऐसे हैं जो मिल-जुलकर ही ठीक प्रकार बन पड़ते हैं। निवास–निर्वाह के लिए घर तो हर किसी को चाहिए, उसमें कितनी ही प्रवृत्तियां निरन्तर चलती रहती हैं। भोजन बनाना, सफाई, कपड़े धोना, अतिथि सत्कार, टूट-फूट की मरम्मत, चौकीदारी, हारी-बीमारी में सहायता और परिचर्या आदि यह लाभ संयुक्त परिवार में मिल सकते हैं। एकाकी प्रवृत्ति का मनुष्य बाजार में रोटी खरीदकर तो खा सकता है, यौनाचार भी पैसे के बल पर कर सकता है किन्तु गृह-व्यवस्था के साथ जुड़ी हुई सुविधायें प्राप्त करने से वंचित ही बना रहता है। घर छोड़कर जाने पर ताला तोड़कर चोर माल निकाल ले जाये—इसका खतरा सदा बना ही रहता है, फिर असुरक्षा की स्थिति भी तो बनी रहती है। अंधियारे की तरह एकाकी पक्ष डरावना रहता है, उसमें नीरसता और अनिश्चितता भी जुड़ पड़ती है, ऐसा जीवन एक प्रकार से भारभूत ही साबित होता है, भले ही किसी को कितनी ही सुविधा-साधन उपलब्ध क्यों न हों? 
संयुक्त परिवार मानवी प्रगति की आधारशिला-सहकारिता का एक ऐसा आधार है जिसका निर्वाह करने में ही भलाई है। अच्छी परम्पराओं का निर्वाह उसी के सहारे बन पड़ता है। विवाह की परिपाटी को अब निरस्त नहीं किया जा सकता है, इसके बन जाने पर बच्चे भी होते ही हैं। अभिभावक जब वयोवृद्ध हो जाते हैं तो उनकी सेवा-सुश्रूषा भी कृतज्ञता के नाते कर्तव्य ही बन जाती है, इतना परिवार तो हर किसी के साथ गृहस्थ में प्रवेश करते ही बन जाता है। जहां कृषि कार्य, पशु पालन, घरेलू गृहउद्योगों का आर्थिक आधार है वहां तो उसे घर के सभी सदस्य मिल-जुलकर ही चला पाते हैं। दफ्तर में कमाने और सराय में रहने से जिनका काम चल जाता हो उनकी बात दूसरी है। इसी प्रकार वे लोग भी अपवाद हो सकते हैं जिन्हें सन्त परम्परा अपनाकर परिव्राजक की तरह लोकशिक्षण के लिए निरन्तर परिभ्रमण करना पड़ता है। किसी विशेष धुन के धनी भी ऐसे हो सकते हैं जिन्हें आजीविका की ओर से निश्चिन्तता है और अपने किसी लक्ष्य की पूर्ति के लिए निरन्तर उसी में तन्मय रहना चाहते हैं। जिन्हें परिवार व्यवस्था में रुचि एवं अनुभव में से कुछ भी नहीं है—अविकसित, अपंग स्तर के लोगों को तो किसी परिवार के आश्रित होकर ही रहना पड़ता है। वैसे वे लगते भले ही एकाकी हों, पर सर्वथा उस स्थिति में रहकर कोई जीवित तक नहीं रह सकता है। उनका पोषण परिवार, समाज या सरकार करे, यह एक अलग प्रश्न है। 
देखा ऐसा भी गया है कि विवाह होते ही कई लोग अभिभावकों या संयुक्त परिवार के सदस्यों की अपेक्षा अपनी नई कमाई का लाभ अकेले ही उठाना चाहते हैं। अधिक से अधिक शौक-मौज में पत्नी को सम्मिलित रखना चाहते हैं, ऐसों को यह ध्यान रखना चाहिये कि सन्तान होने पर उनके लिए खर्च तो बहुत करना पड़ेगा कष्ट भी सहना पड़ेगा और देखभाल की जिम्मेदारियों में भी बंधना पड़ेगा, पर यह स्थिति भी देर तक नहीं रह सकती। समयानुसार आज के नवविकसित को भी वृद्ध होना पड़ेगा। तब वयस्क हुई संतान भी उसी का अनुकरण करेगी जो अपने जनक-जननी को करते देखा है, वे भी अपनी रुचि को लेकर अलग हो जायेंगे। वृद्धता की लाचारी आने पर तब उन्हें भी उसी प्रकार निराश्रित होना पड़ेगा जैसा कि उनने अपने समय में स्वयं किया था। यह प्रथा चल पड़ने पर सभी अभिभावकों को वृद्धावस्था, अशक्तता और रुग्णता आदि की स्थिति में वयस्क बच्चों से भी कुछ आशा न रखने का मन बनाना पड़ेगा। यह हो नहीं सकता है कि कोई अपने अभिभावकों की तो उपेक्षा करे, पर स्वयं यह आशा रखे कि उसकी सन्तान पितृऋण चुकाने के लिए अपनी तत्परता प्रदर्शित करेगी। दोहरी परिपाटी चल नहीं सकती, लेने और देने के बांट अलग-अलग प्रकार के नहीं हो सकते। 
अपनी मान्यताओं, भावनाओं और प्रवृत्तियों को शालीनता के ढांचे में ढालने का अभ्यास परिवार में रहकर ही हो सकता है। आयु से या बुद्धि से बालक स्तर के व्यक्ति हर समूह में कुछ न कुछ बने ही रहते हैं, इनके साथ व्यवहार करने में वही रीति-नीति अपनाई जाती है जिसके सहारे बालकों के साथ सद्व्यवहार करते बन पड़ता है। बच्चे पग-पग पर भूल करते हैं, इनका ज्ञान-अनुभव स्वल्प होता है। अनुशासन पालने और शिष्टाचार बरतने के लायक भी उनका मानस नहीं होता, फिर भी उनके साथ क्षमा-करुणा का भाव आत्मीयता के सहारे बनाये रहना पड़ता है। शिशु पालन करने की जिम्मेदारी जिन पर भी आती है, वे इसी रीति-नीति को अपनाये रहते हैं। बच्चों की अविकसित स्थिति पर यदि खीजते रहा जाय, उन्हें उपेक्षा या प्रताड़ना देते रहा जाय तो बात बनेगी नहीं बल्कि बिगड़ेगी। बालकों के साथ किये जाने वाले व्यवहार को उनके साथ भी अपनाया जाना चाहिए जो आयु से तो बड़े हो गये हैं, पर शालीनता के क्षेत्र में अभी भी बहुत पिछड़े हुए हैं। समाधान इसी प्रकार बन पड़ता है, सद्भाव इसी आधार पर बन सकता है। जैसे को तैसा बताने की नीति बच्चों के साथ नहीं अपनाई जाती, उन्हें हर भूल पर तिरस्कृत या प्रताड़ित भी नहीं किया जाता, फिर उन लोगों को ही क्यों आक्रोश का भाजन बनाया जाये जो आयु, शिक्षा या उपार्जन के क्षेत्र में तो बड़े हो चले किन्तु मानवी सद्व्यवहार की परम्परा सीखने-अपनाने का उन्हें अवसर ही नहीं मिला। 
बच्चों के साथ व्यवहार करते समय एक आंख प्यार की एक आंख सुधार की रखनी पड़ती है। इसी आधार पर उनमें उत्साह बना रहता है और सुधार का उपक्रम चलता रहता है। यदि मात्र प्यार ही करते रहा जाय, उनकी हर भली-बुरी इच्छा को पूरा करते रहने का ही प्रयास किया जाय तो निश्चित रूप से बच्चे बिगड़ेंगे और ऐसे आग्रह करने लगेंगे जिन्हें पूरा करने के लिए न्यास, नीति एवं औचित्य को तिलांजलि ही देनी पड़ेगी। स्त्रियां बहुधा कीमती वस्त्राभूषणों के लिए हठ करती देखी गयी हैं, उनमें से कइयों को फिजूलखर्ची की आदत होती है। ठाठ-बाट के प्रदर्शन में घर के हर सदस्य का मन होता है, इसके लिए आवश्यक कार्यों में लगने वाली पूंजी को उड़ा डालने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता। कई बार तो यह आग्रह इतना दबाव डालता है कि उसके लिए अनाचार करने या ऋण लेने के लिए बाधित होना पड़े। बच्चों का सही रीति से पालन करने वाले मोहवश ऐसे आग्रहों को मान्यता नहीं देते। प्यार में कमी की जाने का लांछन सहते हुए भी समझदार अभिभावक मात्र वही करते हैं जो उन्हें करना चाहिए। प्यार के नाम पर अनुचित दबाव डालने वाला वस्तुतः व्यामोह ही होता है और उससे अनेक स्तर का अनहित ही होता है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए हर सद्गृहस्थ को एक आंख प्यार की एक सुधार की रखनी पड़ती है। सघन आत्मीयता रखते हुए भी शालीनता का निर्वाह ऐसे ही दृढ़ उपायों से बन पड़ता है। बात घर-परिवार तक सीमित नहीं है। लोक व्यवहार में भी इस नीति का कड़ाई के साथ परिपालन किया जाना चाहिये। अतिवाद के दोनों सिरों को पकड़ने की अपेक्षा मध्य मार्ग अपनाने का ही प्रयत्न करना चाहिए, न पक्षपात भरा हुआ दुलार किया जाय और न परायेपन के साथ जुड़ने वाले उपेक्षा भाव से प्रेरित होकर अनीति पर उतरा जाय। यह दोनों अवांछनीयतायें राग-द्वेष के नाम से जानी जाती हैं, उन्हें अभ्यास में उतारने के लिए बालकों के साथ किया जाने वाला उचित व्यवहार अभ्यास का अंग बनता है। नीर क्षीर विवेक की दूरदर्शिता अपनाने के लिए सक्षम करता है, यह अवसर परिवार के बीच रह कर छोटों से निपटते रहने के माध्यम से ही परिपक्व किये जाते हैं। दृष्टिकोण इसी आधार पर परिमार्जित होता है। 
दाम्पत्य जीवन में सघन आत्मीयता ही उसे सफल बनाती है, जहां भी स्वार्थ संघर्ष चलेगा, कर्तव्य की उपेक्षा और अधिकार के लिए दबाव डालने का प्रयास होगा वहीं दाम्पत्य जीवन में विकृतियां भर जायेंगी। सन्तान देकर सहयोग पाया जाता है। अपने लिए कठोर और साथी के लिए उदार रहकर ही पति-पत्नी के बीच प्रगाढ़ घनिष्ठता निभती है। यह व्यवहार उन सबके साथ ही किया जाना चाहिये जिन्हें अपना समझा जाता है, जिनके साथ काम करने या सहचरत्व निभाने की अपेक्षा की जाती है। साथी के सद्गुण दीखने-लगते हैं और उसे सुधारने, बढ़ाने, सुविधा देने की रीति-नीति अपनानी होती है। यदि सभी को अपना मानने का दृष्टिकोण हो तो उसी आत्मीयता के साथ सुसम्बद्ध उदारता का परिचय देना होगा। आत्मवत् सर्वभूतेषु की उत्कृष्टता का अभ्यास यदि पति-पत्नी स्तर के मैत्रीभाव से सीखा-समझा और अपनाया जा सके तो उसे गृहस्थ जीवन की पाठशाला में प्राप्त की गई एक बड़ी उपलब्धि माना जा सकता है। 
कृतज्ञता भावना क्षेत्र की एक उच्चस्तरीय विभूति है, उसका अस्तित्व जहां भी होगा वहां यही प्रयास चल रहा होगा कि जिनने अपने साथ जो उपकार किये हैं उन्हें ब्याज समेत वापिस करके उऋण हुआ जाय। अभिभावकों के साथ वयस्क सन्तान को इसी श्रद्धा-सद्भावना का परिचय देना पड़ता है। समाज के अनेकानेक पक्ष एवं घटक अपनी प्रगति में निरन्तर सहायक रहे हैं, ऐसी दशा में यदि समाज ऋण से उऋण होने के लिए सार्वजनिक सेवा को भी निजी स्वार्थ साधना से कम नहीं वरन् उससे अधिक ही महत्व देना चाहिए। 
आर्थिक स्वेच्छाचार परिवार के बीच निभता नहीं, अनाचार की उच्छृंखलता भी सद्गृहस्थ अपना नहीं सकते। उसमें रहते हुए प्रगति पथ पर नीति-मर्यादाओं का ध्यान रखना पड़ता है, एक सदस्य अनाचार पर उतारू हो तो समूचे परिवार की व्यवस्था और प्रगति खतरे में पड़ जाती है—यह अनुभव परिवार में रहकर किया जा सकता है। एक दूसरे के साथ किस प्रकार सघन सहयोग रखा जा सकता है? उसका व्यवहारिक अभ्यास उस परिवार के हर सदस्य को सीखना—समझना और अपनाना पड़ता है। यही हैं वे उपलब्धियां जिन्हें परिवार के बीच रहकर अभ्यास में उतारा और उनका प्रयोग सार्वजनिक जीवन में करते हुए अपनी और दूसरों की सुख-शांति को अक्षुण्ण रखा जा सकता है। 

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