परिवार को सुव्यवस्थित कैसे बनायें?

पारिवारिकता से जुड़ा असाधारण दायित्व

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परिवार और कुटुम्ब दोनों समान अर्थबोधक प्रतीत होते हैं, पर वस्तुतः है उनके बीच असाधारण अन्तर। वंश परिकर से जुड़ने वालों का समूह कुटुम्ब कहा जाता है, यह विवाह-प्रजनन की परिणति है। जिसके साथ वे सभी प्रवृत्तियां जुड़ती हैं जो वंशवृद्धि के अतिरिक्त वंश विकास की आवश्यक नीति-नियमों के साथ जुड़ी हुई होती हैं। उनकी उपेक्षा होने पर उस परिकर में अव्यवस्था फैल जाती है और जो हैं उनका निर्वाह ही नहीं जीवन भी बाधित हो जाता है। 
परिवार की संरचना में यह आवश्यक नहीं कि वह सुनियोजित ढंग से सुसंस्कृत बनाया जाय अथवा जहां ऐसा व्यवस्था क्रम चल रहा है वहां जाकर सम्मिलित हुआ जाय। परिवार सुयोग्य माली द्वारा काटा-छांटा, रोपा और बढ़ाया गया उद्यान है, कुटुम्बों को जंगली झाड़ियों का झुरमुट ही कहा जा सकता है। जो जगह घेरते हैं वे अपने परिकर में सांप-बिच्छुओं को आश्रय देते हैं, उनके समीप जाने-गुजरने वाला भी कांटे चुभने, कपड़े फटने, दिशा भूलने जैसे जंजालों में फंसता है, वे स्वयं तो अनुपयोगी होने के कारण तिरस्कार के भाजन बनते ही हैं। 
जिनमें नवागन्तुकों का समुचित स्वागत-सत्कार करने, सुविधा देने की क्षमता हो वे उसे नाप-तौल लें और निमन्त्रण भेजने की उतावली न करके तब तक के लिये रुकें जब तक कि बरात ठहराने के लिये उपयुक्त जनवासे की, सत्कार सामग्री की व्यवस्था न बन जाय। विवाह करने की उतावली क्यों की जाय? उसमें भिन्न मनःस्थिति और परिस्थिति में पली विचित्र महत्वाकांक्षाओं के सपने संजोये रहने वाली एक भावुक और अनुभवहीन युवती ने उत्साह को, मानस को, स्वभाव को, क्रिया-कलाप को एक नई दिशा देनी पड़ती है। धर्मपत्नी की भूमिका निभा सकना पति का दर्प भरे मानस की इच्छा पूर्ति वाली बात मनवाने की अपेक्षा कहीं अधिक कठिन है। इसे सरकस के कलाकार सधाने जैसे अनेक जोड़-तोड़ों से भरापूरा कौशल समझना चाहिये, इसके लिये सर्वप्रथम पति का अपना समग्र व्यक्तित्व ऐसा होना चाहिये कि स्वयं सांचा बन सके और साथ में चिपकने वाले को ठीक अपने जैसा स्वरूप दे सके। इससे कम तैयारी में कोई उपयुक्त सहधर्मिणी पा नहीं सकता, ऐसी प्रतिमायें गढ़ी-गढ़ाई बाजार में नहीं मिलतीं, उन्हें अपने हाथों मूर्तिकार की तरह गढ़ना और चित्रकार की तरह भावभरी तस्वीर बनाने में अपनी कलाकारिता की छाप छोड़नी पड़ती है। सुगृहणियां आदर्शों की दिशा में चलने और चलाने वाली गृहणियां अपवाद रूप से पितृगृह से ढली और किसी सौभाग्यशाली को वरदान की तरह मिली होंगी अन्यथा इस सन्दर्भ में सफल मनोरथ व्यक्ति को यह निर्माण कार्य स्वयं करना पड़ता है। इसके लिए चेतावनी या धमकी देते रहने भर से खाई और भी चौड़ी होती है। किसी को उत्कृष्टता के ढांचे में ढालने के लिये सर्वप्रथम सृजेता को ही उच्च स्थिति तक पहुंचना चाहिये। अनगढ़ों को सुगढ़ बनाना भी एक असाधारण कला है—उसके साथ सघन आत्मीयता, प्रसन्नमुद्रा, क्षमाशीलता और अटूट धैर्य की आवश्यकता होती है। जो इस योग्य अपने को ढाल सके वे पत्नी-पति उपयुक्तता के ढांचे में ढलने का साहस करें अन्यथा अयोग्यता-असमर्थता की स्थिति में अविवाहित रहना ही अच्छा है। ठीक यही बात वयस्क युवती के लिए भी लागू होती है, उसे अनगढ़ स्तर के पति को भी सुसंस्कृत बनाने के लिए आवश्यक चिन्तन और कौशल पितृगृह में संजो लेना चाहिए। अच्छे उदाहरण देखने को न सही सुनने को तो मिल ही जाते हैं, उनका बारीकी से पर्यवेक्षण करने पर यह पता चलता है कि इसे देखने में छोटे किन्तु व्यवहार में अत्यन्त भारी भरकम कार्य को सम्पन्न करने के लिये कितना अधिक संतुलित कौशल चाहिये। नारी पक्ष का वजन और भी अधिक भारी है, क्योंकि उसे न केवल पति को बालक की तरह संभालना पड़ता है वरन् एक अपने ढंग के ढांचे में ढले हुए परिवार को भी समेट-बटोर कर इस स्थिति तक लाना पड़ता है जिसमें शालीनता की परम्परायें फूल-फल सकें। बात इतने तक ही समाप्त नहीं हो जाती, नवजात शिशुओं का प्रजनन तो उतना कष्टसाध्य नहीं है। उन्हीं आदतों को सुसंस्कारिता के साथ अविच्छिन्न रूप से जोड़ सकना और भी अधिक जटिल है। जो समझते नहीं, जिन पर आदेश काम नहीं करते उन्हें उपयुक्त स्तर का बनाना कितना असाधारण कार्य होता है—इसे भुक्तभोगी ही जानते हैं। यह सब कुछ न आने पर नव विवाहितों को ऐसे चक्रव्यूह में फंसना पड़ता है, जिससे बाहर निकल सकने का कोई मार्ग नहीं दीखता। पति-परिवार, सन्तान सभी बेकाबू हो रहे हैं तो उनको अपने ढांचे में ढालना, मण्डली को मानवी गरिमा से तालमेल बिठा लेने योग्य बनाना काफी बोझिल कार्य है। इसके लिए जिन नर-नारियों में आवश्यक धैर्य और कौशल है, जिनने अपने को सृजनकर्ता कलाकार के स्तर तक पहुंचा लिया हो उन्हीं का विवाह बन्धन में बंधना सार्थक है अन्यथा उपयुक्त स्थिति न बन पड़ने तक अविवाहित बने रहना ही अधिक श्रेयस्कर है। आयु बढ़ते ही विवाह अनिवार्य रूप में करना ही पड़ेगा—इस मान्यता में दूरदर्शी विवेकशीलता का समावेश कहीं दीखता नहीं। 
विवाह के पूर्व भी हर युवक-युवती के सामने एक परिवार विद्यमान रहता है। लड़की के लिए उसमें माता-पिता, भाई-बहिन, भी सेवा-श्रम करते रहने के लिए उपलब्ध रहते हैं। लड़कों के भी अभिभावक, भाई-भतीजे, चाचा-भाई एवं उनकी पत्नियां, वृद्धायें आदि कितने ही सदस्य रहते हैं—उस कुटुम्ब का अनेक स्तर का अनेक प्रकार का सहयोग–अनुदान ऋण के रूप में अपने ऊपर चढ़ा होता है, फिर उससे उऋण होने को भी प्राथमिकता दी जाय तो उसे कृतज्ञता की कर्तव्य पालन की अभिव्यक्ति ही कहा जायेगा। 
जिनका निजी परिवार बहुत छोटा है उनका सदस्य संख्या बढ़ाने का, चहल-पहल देखने को मन करता है। उनके लिए एक मात्र उपाय यही है कि किन्हीं असमर्थ परिवारों के बालकों को अपने संरक्षण में ले लें, उनके भरण-पोषण की, शिक्षा-चिकित्सा की व्यवस्था बनायें। स्वावलम्बी होने तक उनकी भरपूर सहायता करें, इसके उपरान्त उन्हें अपने पैरों पर खड़ा होने और स्वतन्त्र बुद्धि से जीवनयापन करने के लिए खुला छोड़ दें। उनमें से कोई स्वेच्छापूर्वक साथ रहने के लिए इच्छुक हों तो उसे वैसा अवसर भी दिया जा सकता है। इन दूसरों के पेड़-पौधों को सींचने-बढ़ाने में एक परिष्कृत बुद्धि वाले माली की तरह लगे रहा जा सकता है। 
अनर्थ का पहाड़ वहां से टूटना आरम्भ होता है जब अपने प्यार-दुलार या अनुचित धन-वैभव को किसी के लिए उत्तराधिकार में हस्तान्तरित करने की संकीर्णता जोर मारती है। सन्तान रहित या मात्र लड़कियों वाले लोग किसी को गोद रखने की बात सोचते हैं, यह क्षुद्रता का घिनौना उदाहरण है। अपने प्यार-दुलार को क्या असंख्यों पिछड़े हुए लोगों को नहीं दिया जा सकता? क्या संचित सम्पदा को किसी एक के लिए छोड़ मरना कृपणता की चरम सीमा नहीं है? क्या उस संचय को देश, धर्म, समाज, संस्कृति की असंख्य आवश्यकताओं की पूर्ति में नहीं लगाया जा सकता? वृन्दावन के राजा महेन्द्रप्रताप अपना उत्तराधिकार प्रेम महाविद्यालय को हस्तांतरित कर गये थे, ऐसा अन्यान्य असंख्य उदारचेता भी कर चुके हैं। गोद रखने की प्रथा में संकीर्ण कृपणता झांकती है। असमर्थ बालकों को स्वावलम्बी बनने तक संरक्षण देना दूसरी बात है। निस्वार्थ सेवा, समुचित कृतज्ञता और प्रतिदान की ललक लेकर वापिस लौटती है, उसी में आनन्द मिलता है। मात्र अपनी पत्नी के पेट से जन्मे बच्चे के लिए ही प्यार और वैभव सुरक्षित रखा जाय, इसमें महानता की झलक-झांकी कहीं भी नहीं दीख पड़ती। गोद लेने, पराये बच्चे को उत्तराधिकारी घोषित करने, उसी से बुढ़ापे में सेवा-सहायता की अपेक्षा करने, वंश चलने जैसी कामना करना अवास्तविकता और अनुदारता के जाल-जंजाल में ही भटक मरना है। 
विवाह के साथ ही व्यक्ति असंख्य दायित्वों से लदता है, उनके न निभ पाने पर असाधारण रूप से त्रास सहता है। बच्चे जनने लगना अपने ऊपर इतनी जिम्मेदारी को लादना है जो समूचे परिवार के ऊपर ऐसा भार बनती है जो खींचे नहीं खिंच पाती। भावी परिणामों और दायित्वों को भली प्रकार समझने और उनके लिए समुन्नत क्षमता अर्जित कर लेने पर ही नया कुटुम्ब बढ़ाने का साहस हजार बार सोच-समझ कर करना चाहिए। इन दिनों वस्तुस्थिति को समझते हुए फूंक-फूंक कर ही कदम बढ़ाना चाहिए। जो आंख बन्द कर विवाहोत्सव और सन्तान जन्म का हर्षोत्सव देखने के लिए कुछ भी कर गुजरने के लिए आतुर हैं, वे कुटुम्ब में और नये सदस्य तो बढ़ा सकते हैं, पर परिवार सृजन के उस श्रेय का लाभ नहीं ले सकते जो सृजेता, संरक्षक सदस्य सभी को सब प्रकार कृतकृत्य करता है। 
सुनियोजित परिवार एक ऐसा माध्यम है जिसमें संचालकों को आत्म परिष्कार के लिए बाधित होना पड़ता है। अपने को उदाहरण बनाये बिना किसी से भी आदर्शवादी अनुकरण की आशा नहीं करनी चाहिए। जिस परिवार के संचालक अपने को अनुकरणीय स्तर तक न पहुंचा चुके होंगे, उनके लिए यह सम्भव न होगा कि अन्यान्य परिजनों को सन्मार्ग पर चलाकर उत्कृष्टता का लक्ष्य प्राप्त कर सकें। दुर्गुणी, दुर्बुद्धिग्रस्त और अनाचारी लोग अपने सदस्यों और अनुचरों को भी वही विरासत में छोड़ मरते हैं, उसी छूत की संक्रामकता से उन्हें भी पतन-पराभव की आधि-व्याधियों में जकड़ते हैं। बाहर वाले अपरिचितों को तो मौखिक आदेश-परामर्श भी दिये जा सकते हैं, पर निकटवर्ती लोग तो वस्तुस्थिति समझते और नंगा स्वरूप देखते हैं। ऐसी दशा में उनके लिए वही वास्तविक परामर्श होता है जो अपने चिन्तन, चरित्र और व्यवहार के रूप में प्रस्तुत किया गया है। 
शालीनता पुष्पवाटिका की तरह फलती है। अपनी सुगन्ध और शोभा से दर्शकों का मन मोहती और वातावरण को सुगन्ध से भरती है, उसकी सर्वत्र सराहना होती है। इसके विपरीत हेय व्यक्ति के कण-कण में घुसी हुई निकृष्टता सर्वप्रथम अपने को अप्रमाणिक, अनगढ़ एवं घृणा-तिरस्कार का भोजन बनाती है। उसके उपरान्त उसके साथी-सहयोगी उस संस्कार छूत से प्रभावी होते हैं। कचरा जब सड़ता है तो विषाणुओं से सारे प्रभाव क्षेत्र में सड़न-असहनीय दुर्गन्‍ध भरती है। परिवार कैसा बन पड़ा? इसके सम्‍बन्‍ध में यही कहा जा सकता है कि जैसा कुछ उसे बनाया गया वैसा बन गया। कुन्‍ती और मदालसा ने अपने स्‍तर का प्रजनन और परिवार बना कर खड़ा कर दिया। परिवार बनाने में कोई बुद्धिमत्ता नहीं, यह कार्य तो क्षुद्र स्‍तर के प्राणी कीड़े-मकोड़े भी करते रहते हैं। मनुष्‍य की गरिमा यह है कि वह परिवार के साथ रहने की प्रवृत्ति-प्रेरणा को सार्थक बनाने, सीखने-सिखाने का, ढलने-ढालने का क्रम जारी रखें। 
सेवा का दृष्टिकोण तो विश्वव्यापक स्तर का रखा जा सकता है, पर उसे व्यवहार में चरितार्थ कर पाना अपने निकटवर्ती क्षेत्र में ही बन पड़ता है। परिवार एक ऐसी संस्था है जो बालक के जन्मने से पूर्व ही उसे सहयोग प्रदान करने के लिए तैयार रहती है। अपनी बहुमुखी उदारता से उसे बना-बढ़ाकर लाभान्वित करती है, स्नेह देने और सुधारने-सिखाने में उसकी अपने ढंग की भूमिका रहती है। बड़े होने पर उस बालक का कर्तव्य हो जाता है कि जो अनुदान दिया गया है उसका प्रतिदान देने की तैयारी करे और जब तक वह शृंखला पूरी तरह न बन पड़े तब तक नये उत्तरदायित्व अपने अपने ऊपर ओढ़ने का दुस्साहस न करे। यह उऋणता मात्र भोजन-वस्त्र जैसी सुविधायें जुटा देने भर से पूरी नहीं हो जाती वरन् यह अपेक्षा रखती है कि अधिक सुसंस्कृत बनकर अपने परिवार का सदस्य उस भावनात्मक विभूतियों से उन्हें लाभान्वित करे, जो सच्चे अर्थों में किसी को प्रामाणिक प्रतिभावान और सुसंस्कृत बनाती हैं। परिवार की खदान भले कोयले जैसी रही हो, पर उसमें से प्राणवान् प्रतिभाओं को तो हीरा बनकर ही निकलना चाहिये। कीचड़ में कमल खिल सकते हैं, सीपियों में मोती बन सकते हैं तो कोई कारण नहीं कि सामान्यतया अनगढ़ परिस्थितियों वाले परिवार में भी उच्चस्तरीय प्रतिभायें न जग सकें—इस सुयोग का बन पड़ना ही पारिवारिकता की सच्ची उपलब्धि है। 

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