मन के हारे हार है मन के जीते जीत

हिम्मत बटोरें—आत्महीनता छोड़ें

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कहते हैं कि हाथी को अन्य प्राणी डील-डौल में उनके वास्तविक आकार-प्रकार से कहीं बड़े दिखाई देते हैं। उसकी आंख की बनावट ऐसी होती है कि वह अन्य प्राणियों का आकार कई गुना बढ़ा-चढ़ाकर देखती है, इसी कारण हाथी दूसरे प्राणियों से भयभीत रहता है और सामान्यतः एकाएक किसी पर आक्रमण नहीं करता। यह कहावत गलत भी हो सकती है, पर यह सत्य है कि आत्महीनता की ग्रंथि से ग्रस्त व्यक्ति परिस्थितियों को उसी रूप में नहीं देखता जो वास्तव में होती हैं। अपने प्रति हीनता या अविश्वास का भाव रखने वाले लोग परिस्थितियों को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर देखते हैं और उनसे भयभीत, आतंकित, चिंतित होते रहते हैं। इस मनोविकृति के कारण अधिकांश लोग अपने आप स्वयं ही अपना तिरस्कार करते रहते हैं और उसके अभ्यस्त बन जाते हैं।

आत्महीनता की भावना से ग्रस्त व्यक्तियों का स्वभाव दब्बूपन का बन जाता है। वे सही और उचित सामान्य बात भी किसी से नहीं कह पाते। मुंह खोलने में उन्हें डर लगा रहता है कि जिससे जो कुछ वह कहने जा रहे हैं, वह पता नहीं क्या समझ बैठे, रुष्ट न हो जाएं, कहीं झिड़क न दें। वस्तुतः यदि ऐसा हो भी जाता है, तो सामान्यतः कोई बड़ी हानि नहीं होती, पर आत्महीनता की व्याधि से ग्रस्त व्यक्ति इस सीमा तक डरे-दबे रहते हैं कि भले ही कोई हानि हो जाए, वे किसी भी स्थिति में अपनी बात को सरल सीधे ढंग से कहने का साहस नहीं जुटा पाते। आवश्यक होने पर भी कुछ न कह पाने का संकोच बरतने से इस बात की संभावना तो बनी ही रहती है कि गलतफहमियां पैदा हो जाएं, व्यवहार में भ्रांतियां जन्म लेने लगें और इस कारण सामने वाला कुछ-का-कुछ समझकर अप्रत्याशित, अस्वाभाविक, हानिकारक व्यवहार कर बैठे। यह स्थिति मनुष्य को निश्चित ही दयनीय स्थिति में डाल देती है और इसके कोई अन्य कारण दोषी नहीं हैं, व्यक्ति का आत्महीनता ग्रस्त स्वभाव स्वयं ही दोषी है।

विचारणीय है कि लोगों में आत्महीनता की यह भावना क्यों उत्पन्न होती है? मनःशास्त्री उसके कई कारण बताते हैं। उनके अनुसार बचपन में आवश्यक स्नेह-सम्मान न मिल पाना, माता-पिता या अभिभावकों की ओर से उपेक्षा, उपहास का कारण बनते रहना या अभावग्रस्त स्थिति में समय गुजारते रहना आदि ऐसे कारण जो बचपन में ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न करते हैं, जिनके कारण बच्चे बड़े होकर भी आत्महीनता की महाव्याधि के शिकार बनते हैं। बीमार, अपंग और मंदबुद्धि, कमजोर, बच्चे भी बार-बार डांट-डपट सुनते हैं। फलतः उनका मन यह मान बैठता है कि उनकी स्थिति दूसरों की अपेक्षा गई-गुजरी ही है, भाग्य ही कुछ ऐसा है। पिछड़ी समझी जाने वाली जातियों के स्त्री-पुरुष आमतौर पर अपने को दूसरों की तुलना में घटिया अनुभव करते हैं और अपने सोचने-विचारने का ढंग उसी स्तर का बना लेते हैं, मानो उनको बनाते समय विधाता ने घटिया मिट्टी का ही प्रयोग किया हो।

ऐसी बात नहीं है कि आत्महीनता की यह व्याधि केवल पिछड़े और बचपन में उपेक्षित रहने वाले लोगों में ही पाई जाती है। सभ्य और शिक्षित कहे जाने वाले लोगों में भी इस व्याधि के लक्षण रूप दब्बूपन की प्रकृति पाई जाती है और वे अपने इस स्वभाव के कारण स्वयं को हेय स्थिति में डाल देते हैं। ऐसे व्यक्तियों को सहज ही पहचाना जा सकता है। आत्महीनता की ग्रंथि अकारण ही मनुष्य को आलसी, असंतुष्ट दब्बू, चापलूस तथा बात-बात पर खिन्न और क्षुब्ध होने वाले स्वभाव का बना देती है। उससे कोई भी बेगार ले सकता है, ठग सकता है। मन में वैसा न करने की बात रहते हुए भी इनकार करने की हिम्मत नहीं होती तो सामने वाले का आग्रह टालते नहीं बनता है।

इस प्रकार के दब्बूपन के अतिरिक्त आत्महीनता की विकृति उद्धत बनकर भी उभरती है और वह ऐसे कृत्य करने को उकसाती है, जिससे कि लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया जा सके, विधिवत साधारण बनने के लिए तो आवश्यक है कि व्यक्तित्व का समग्र निर्माण किया जाए और उसे आत्मविश्वास से संपन्न बनाया जाए। कहना नहीं होगा कि व्यक्तित्व का समग्र निर्माण करने को आदर्शवादी गतिविधियां अपनाने का साहस जुटाना पड़ता है तथा उस मार्ग पर चलते हुए परिणामों को प्राप्त करने की प्रतीक्षा कर सकें, इस स्तर का धैर्य जुटाना पड़ता है। आत्मविश्वास से रहित, आत्महीनता की व्याधि से ग्रस्त लोगों में ऐसा साहस और धैर्य जुटाने की सामर्थ्य कहां होती है? सो वह उद्धत आचरण करके ही लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने की रीति-नीति अपना लेता है और कई बार आपराधिक गतिविधियां भी अपना लेता है। यों इस तरह की गतिविधियां अपनाने और अपराध करने में भी हिम्मत की आवश्यकता पड़ती है, सो इस रास्ते से जल्दी सफलता मिलते देखकर हीनताग्रस्त व्यक्ति ऐसे लोगों का साथ और संग करता है, जो इन्हीं कुकृत्यों में संलग्न हैं। ऐसे आवारा लोगों का साथ पा लेने के बाद उसमें अपराध कृत्यों को करने का दुस्साहस भी उत्पन्न हो जाता है और इस अभ्यास से वह भी गुंडागर्दी में संलग्न होकर स्वयं को आत्मगौरव संपन्न अनुभव करने लगते हैं। यही कारण है कि उच्छृंखल गतिविधियां अपनाने वाले अवांछनीय तत्त्व निजी जीवन में थोड़ी-सी विपत्ति आते ही बुरी तरह रोने-कलपने लगते हैं। यह बात अलग है कि अवांछनीय गतिविधियां अपनाने के कारण वे सस्ती तरकीब से दोहरा लाभ उठाने की गतिविधियों को पेशे के रूप में अपना लेते हैं और बढ़े-चढ़े अपराध करने लगते हैं, पर मूलतः वे होते आत्महीनता की भावना के शिकार हैं।

आत्महीनता ही वह कारण है, जो स्वयं के उपेक्षित, तिरस्कृत और हेय स्तर होने का आभास देती है, साथ ही उस आभास को न होने देने के लिए अधिक बन-ठनकर, साज-शृंगार के द्वारा दूसरे लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने की प्रवृत्ति अपनाने के लिए प्रेरित करती है, ताकि बहुत-से लोगों को अपनी ओर आकर्षित हुआ देखकर हेय आभास की व्यथा कम होकर आकर्षित होने का मरहम लगाया जा सके। अधिक बन-ठन कर रहने, साज-शृंगार करने वाले व्यक्ति में निश्चित रूप से अधिकांश ऐसे ही होते हैं, जो अपने आपको तिरस्कृत, उपेक्षित एवं हेय स्तर का मानते हैं। भले ही वे अपने बारे में बढ़-चढ़कर बातें करते हों। आत्मसंस्तुति से अघाते नहीं, पर मन में बहुत गहराई में यह भावना छिपी-दबी रहती है। दूसरों के सामने अधिक आकर्षक दिखने, अमीरी का ढोंग रचने और शान−शौकत के लिए अपव्यय करने वाले लोग मूलतः औरों पर अपने बढ़े होने की छाप ही छोड़ना चाहते हैं। ऐसे व्यक्ति कम कीमत की मजबूत चीजें खरीदने के स्थान पर महंगी दुकानों से अधिक मूल्य वाली साधारण वस्तुएं खरीदना ज्यादा पसंद करते हैं। इसके पीछे दूसरों पर अपने बड़प्पन का आतंक जमाने के सिवाय दूसरा कोई कारण नहीं होता। झूठे बड़प्पन की छाप छोड़ने के लिए आमदनी से अधिक खरच भी उन्हें करना पड़ता है और परिणामतः ऋणी बनना पड़ता है अथवा आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ता है।

यह तो हुई आत्महीनता की भावना को दबाने, ढकने और उसके लिए अस्वाभाविक आचरण करने वालों की स्थिति। इस मनोव्याधि से ग्रस्त व्यक्तियों में एक, दूसरे प्रकार का लक्षण भी पाया जाता है। जो आत्मघात, नशेबाजी और मनोवेगों के रूप में देखने को मिलता है। पिछले दिनों अमेरिका के एक मनःशास्त्री प्रो. हाइंज हॉफनट ने अपने एक अध्ययन सर्वेक्षण में यह पाया कि आत्महत्याओं, नशीले पदार्थों के सेवन और आत्महीनता के कारण उत्पन्न रोगों में गहन संबंध है, ये रोग या प्रवृत्तियां छूत के रोग की तरह हैं और परस्पर इस ढंग से संबद्ध हैं कि एक व्यक्ति यदि उसमें से किसी एक प्रवृत्ति का शिकार है, तो उसमें दूसरी प्रवृत्ति बढ़ने की बहुत संभावना रहती है।

प्रो. हॉफनट का कहना है कि 25 वर्ष की आयु तक के युवक-युवतियां सबसे अधिक आत्महत्या का प्रयत्न करते हैं। इसी आयु-वर्ग में स्त्रियां पुरुषों से दुगनी संख्या में आत्महत्या करती हैं। 25 वर्ष की आयु से ऊपर और 50 वर्ष तक की आयु वाले स्त्री-पुरुषों में यह अनुपात लगभग बराबर है। प्रो. हॉफनट और उनके सहयोगियों ने देखा कि जो लोग आत्महत्या करते हैं, उनमें से अधिकांश किसी-न-किसी नशीले पदार्थ का सेवन करते रहे हैं। आत्महत्याओं के पारिवारिक और सामाजिक परिवेश का अध्ययन करने के बाद पाया गया है कि इन परिस्थितियों में आत्म-हत्या करने वाले लोग अपने आप को एकाकी उपेक्षित और अकेला अनुभव करते थे और उन्हीं परिस्थितियों में ऐसे लोगों की ओर आकर्षित हो जाते थे, जो किसी मादक पदार्थ का सेवन करते थे।

अमेरिकी और ब्रिटिश वैज्ञानिक सम्मिलित रूप से अपने एक शोध सर्वेक्षण में इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि मादक द्रव्यों का आदी शीघ्र ही अपने संपर्क में आने वाले नए व्यक्ति को अपने जैसा ही बना लेता है। मजे की बात तो यह है कि स्वयं को एकाकी, उपेक्षित और अकेला अनुभव करने वाला व्यक्ति ही नशेबाजी की ओर जल्दी आकर्षित होता है तथा उस परिवेश में अपने को सुरक्षित अनुभव करने लगता अथवा आत्मविस्मरण के गहन अंधकार में डूब जाता है। यह भी देखा गया है कि मादक पदार्थों की ओर प्रायः ऐसे युवक-युवतियां ही अधिक आकर्षित होते हैं, जिन्हें माता-पिता से भरपूर स्नेह नहीं मिला है अथवा जो उपेक्षित रहे हैं। बचपन में इस प्रकार उपेक्षित रहने वाले व्यक्तियों में चिंताजनक रूप से आत्महीनता की भावना पाई जाती है। प्रायः यही लोग जीवन में पथभ्रष्ट होते हैं।

अपने सर्वेक्षण से प्राप्त निष्कर्षों के आधार पर प्रो. हॉफनट ने प्रतिपादन किया है कि जितने लोग दरिद्रता, बेकारी, पारिवारिक कलह, असफल प्रेम, निराशा, हताशा और असाध्य बीमारी आदि कारणों से आत्मघात करते हैं। उससे भी अधिक आत्मघात वे लोग करते हैं, जो आत्महीनता की महाव्याधि से ग्रस्त रहते हैं। यही वह कारण है, जिसकी प्रतिक्रिया मानसिक संतुलन के रूप में परिलक्षित होती है और लोग छोटी-छोटी कठिनाइयों या असफलताओं को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर देखते हैं। ऐसे लोग ही आत्मघाती कदम उठाते हैं।

मनःशास्त्रियों के अनुसार आत्महीनता की भावना और भी न जाने कितने ही, आधि-व्याधियों की जननी है। अतः उससे छुटकारा पाना ही श्रेयस्कर है। परिस्थितियों का बढ़ा-चढ़ाकर देखने की आदत और अपने आप को दूसरों के सामने छोटा, हेय, हीन समझने का स्वभाव आत्महीनता की व्याधि का प्रमुख लक्षण है। इस व्याधि को जड़-मूल से मिटाने का उपचार सुझाते हुए मनःशास्त्री कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को उचित और अनुचित का अंतर करना आने से लोग अपने आप में इतना साहस संजोएं कि जो सही है, उसी को अपनाएं और जो गलत हैं, उससे स्पष्ट इनकार कर सकें। सहमत होना और हां कहना अच्छी बात है, पर वह इतनी अच्छी बात नहीं है कि यदि कोई बात अनुचित लग रही है और अनुचित लगने के पर्याप्त कारण हैं, तो भी हां किया ही जाए और सहमत हुआ ही जाए। स्पष्ट रूप से, निःसंकोच भाव से अस्वीकार करने की हिम्मत भी रखनी चाहिए। सोच-विचार करने में यह बात भी सम्मिलित रखनी चाहिए कि हर सही-गलत बात में हां-हां करते रहने से दूसरों की दृष्टि में अपने व्यक्तित्व का वजन घट जाता है और आत्मगौरव को ठेस पहुंचती है, वह तो अलग है।

विकसित और परिष्कृत व्यक्तित्व का अर्थ है कि अपनी मान्यता को स्पष्ट किंतु नम्र और संतुलित शब्दों में व्यक्त कर पाना, जो ऐसा कर पाते हैं, वह अपना मूल्य बढ़ाते व उन्नति के पथ पर बढ़ते चले जाते हैं।

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