मन के हारे हार है मन के जीते जीत

विचार संस्थान की सुव्यवस्था अत्यंत अनिवार्य

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काया के विभिन्न अवयवों को सुंदर, सुडौल, सुसज्जित बनाने के लिए हम पूरा ध्यान रखते हैं और उस कायिक सौंदर्य-संवर्द्धन के लिए वस्त्र-आभूषण, शृंगार-प्रसाधन, पुष्प आदि जो कुछ सूझता है उसे जुटाने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। इससे विदित होता है कि काया और उसके विभिन्न अवयवों को अच्छी स्थिति में रखने के संबंध में हमारी सतर्कता और सुरुचि कितनी बढ़ी-चढ़ी है, पर यह देखते हैं कि यह ध्यान, देखने-दिखाने तक ही सीमित है। पर ये देखते हैं कि यह ध्यान, देखने-दिखाने तक ही सीमित है। जो दृष्टि से ओझल है उसकी उपेक्षा ही होती रहती है, फिर चाहे वे अवयव कितने ही महत्त्वपूर्ण क्यों न हों? पेट, आंतें, जिगर, गुरदे, फेफड़े, हृदय जैसे अवयव होठ, गाल, भौं, नाक आदि से कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। उनकी सुसज्जा तो पीछे की बात है, सुरक्षा तक पर ध्यान नहीं जाता और वे अस्त-व्यस्त स्थिति में पड़े रहने के कारण रुग्ण बने रहते हैं। फलतः जीवन का आनंद ही चला जाता है, एक प्रकार से जिंदगी की लाश ही किसी प्रकार ढोनी पड़ती है।

मस्तिष्क को—उसके चेतना प्रवाह मन की गरिमा पर जब विचार किया जाता है, तो प्रतीत होता है कि जीवन का अस्तित्व स्वरूप स्तर और भविष्य भी उसी केंद्र बिंदु के साथ जुड़ा हुआ है। देखने में जो कुछ किया, कमाया और भोगा जाता है, उसमें शरीर की ही भूमिका दृष्टिगोचर होती है, पर वास्तविकता दूसरी ही है। मन ही पूरी तरह शरीर पर छाया हुआ है, उसके भीतर भी वही रमा है। विपन्नता और संपन्नता का संबंध परिस्थितियों और व्यक्तियों के साथ तोड़ा तो जाता है, पर थोड़ी गहराई में उतरने पर स्पष्ट हो जाता है कि काया की कठपुतली जो तरह-तरह की हरकतें करती और संवेदनाएं प्रकट करती है, उसमें पर्दे के पीछे बैठे बाजीगर मन की उंगलियां ही अपनी करामात दिखा रही होती हैं।

स्वास्थ्य, अर्थ-व्यवस्था, परिवार-प्रबंध, श्रेय-सम्मान के लिए प्रयत्न करने में हमारी गतिविधियां संलग्न रहती हैं। उन्हीं प्रयासों में एक कड़ी मनःसंस्थान को सुव्यवस्थित रखने को भी जोड़ी जानी चाहिए। बालों को सुसज्जित रखने का जितना ध्यान रखा जाता है। यदि उतना ही मानसिक संतुलन बनाए रहने का ध्यान रखा जा सके तो प्रतीत होगा कि सर्वोपरि बुद्धिमत्ता और सर्वोच्च सफलताएं प्राप्त करने का द्वार खुल गया। मन के हारे हार है और मन के जीते जीत वाली उक्ति की यथार्थता में रत्ती भर भी संदेह की गुंजाइश नहीं है।

मस्तिष्क की तुलना एक अच्छे–खासे बिजलीघर से की जा सकती है, उसकी उत्पादित शक्ति का वितरण तंत्र-नर्वस सिस्टम-समस्त शरीर में होता है और उसी की शक्ति से समस्त अवयव अपना-अपना काम ठीक प्रकार कर पाते हैं। मस्तिष्कीय विद्युत उत्पादन का जितना भाग समस्त शरीर को गतिशील रखने में खरच होता है, उससे कुछ ही कम अपनी निज की मशीनरी को चलाने और खुराक जुटाने एवं टूट-फूट करने में खप जाता है। चिंतन अथवा हलचलों के लिए हम जान-बूझकर कुछ भी नहीं करें, तो भी मस्तिष्क स्वयमेव चालू रहेगा। उसे सोते-जागते विश्राम कभी नहीं, सोचने-विचारने वाला भाग कुछ समय तक नींद में विश्राम भी पा लेता है, पर अवयवों को गतिशील एवं जीवित रहने वाला अचेतन भाग तो जन्म से लेकर मरणपर्यंत अनवरत रूप से कार्य संलग्न रहता है।

सोचने या काम करने में मस्तिष्कीय शक्ति का सीमित, संतुलित एवं व्यवस्थित व्यय होता है, किंतु मानसिक उत्तेजनाओं की स्थिति में शक्ति व्यय का अनुमान अत्यधिक बढ़ जाता है। चूल्हे में ईंधन सीमित जलता है, पर ईंधन के ढेर में आग लग जाने पर तो ऊंची लपटें उठने लगती हैं और देखते-देखते उतना ईंधन जलकर खाक हो जाता है, जिससे महीनों चूल्हा जलता रहता। घबराहट, चिंता, भय, शोक, उदासी जैसी मनःस्थिति होने पर गिरावट स्तर की खिन्नता होती है और क्रोध, आवेश, कामुकता, आतुरता जैसे प्रसंगों में उत्तेजित प्रतिक्रिया उभरती है। दोनों ही परिस्थितियों से मानसिक संतुलन बिगड़ता है। ज्वार हो या भाटा—दोनों ही परिस्थितियों में समुद्र में समान उथल-पुथल होती है। खिन्नता एवं प्रसन्नता की अति से जो आवेश मनःक्षेत्र में उत्पन्न होता है, उसके कारण सही चिंतन कर सकना और निष्कर्ष निकाल सकना संभव नहीं रहता। थका हुआ आदमी असफलताओं की निराशाजनक बातें सोचता और नशे में धुत्त व्यक्ति दूर की हांकता है। जिसे कुछ विशेष उपलब्धियां मिल गई हैं, वह फूला नहीं समाता और धरती जोतने जैसे मनसूबे बांधता है। लो ब्लड प्रेशर और हाई ब्लड प्रेशर के लक्षण भिन्न-भिन्न हैं, पर कष्ट दोनों ही व्याधियों के रोगी समान रूप से भुगतते हैं।

शरीर और मन का अन्योन्याश्रित संबंध है। मन प्रसन्न हो तो शरीर में सक्रियता रहेगी और यदि खिन्नता छाई हो तो क्रियाशीलता में ही कमी नहीं आएगी, वरन् उसके साथ अस्त-व्यस्तता जुड़ जाने से जो थोड़ा-बहुत काम किया गया था, वह भी गलत-सलत हो जाएगा और उसका नुकसान न करने से भी अधिक महंगा पड़ेगा।

मनःस्थिति का नाम ही मूड है। मूड अनुकूल हो तो आदमी काम पर सवार रहेगा और यदि वह प्रतिकूल हो तो काम आदमी पर सवार रहेगा। दोनों परिस्थितियों में कितना अंतर है, इसका परिचय प्राप्त करना हो, तो एक उस आदमी को देखा जाए जो घोड़े पर सवार होकर तेजी से सफर कर रहा है। दूसरा वह आदमी देखा जाए, जिसके जिम्मे मरा घोड़ा ढोकर या घसीटकर ले जाने का काम सौंपा गया है। दोनों अपनी प्रसन्नता के अनुरूप ही वे सौभाग्य-दुर्भाग्य का अनुमान लगा रहे होंगे उसी अनुपात से उनके उत्साह एवं बल में भी घट-बढ़ का अंतर पड़ रहा होगा।

मन कुछ काम तो अपने आप ही कर लेता है, कुछ उसे इंद्रियों की सहायता से कराने पड़ते हैं। चिंतन, मनन, ध्यान, कल्पना, योजना, निष्कर्ष, निश्चय आदि क्रियाएं वह अपने आप ही कर लेता है। चलना-फिरना, खाना-पीना, देखना-सुनना, बोलना जैसे कार्य उसे इंद्रियों की सहायता से कराने पड़ते हैं।

इंद्रियां देखने भर में स्वतंत्र हैं, उनका स्थान मस्तिष्क से दूर है तथा बनावट भी भिन्न है, इसमें उनकी भिन्नता अनुभव की जाती है, पर तथ्य यह है कि वे सभी मन के बाजीगर द्वारा उंगली के इशारों पर चलाई जाने वाली कठपुतलियां भर हैं। अधिक-से-अधिक इतना कह सकते हैं मानो वे महाराज की रखैल नर्तकी हैं, जिन्हें अपने स्वामी को प्रसन्न करने के लिए तरह-तरह के खेल और स्वांग रचने पड़ते हैं। इंद्रियों की बुरी आदतों से कई प्रकार की हानियां होती हैं। चटोरपन, कामुकता, आलस, दुर्व्यसन जैसे कृत्यों के लिए इंद्रियों को दोष दिया जाता है और उनका नियंत्रण निग्रह करने की बात सोची जाती है। यह जड़ का ध्यान रखकर पत्ते को सींचने के समान है। इंद्रिय निग्रह के स्थानीय अभ्यास प्रायः असफल रहते हैं। कामुकता की प्रवृत्ति को लंगोट-बांधने के प्रतिबंध से नहीं रोका जा सकता। प्रतिबंध से प्रत्यक्ष रुक सकते हैं, पर भीतर से उनकी लिप्सा झलकती रहे, तो अंतःशक्तियों का क्षरण इंद्रिय भोग जितना ही होता रहेगा। पानी का सोता रोका जाना चाहिए। मेड़ बांधने पर तो वह एक जगह रुकते ही दूसरी जगह फूट पड़ेगा। इंद्रिय निग्रह की आवश्यकता अनुभव हो तो स्थानीय रोकथाम की बात सोचने के साथ लिप्साओं के उद्गम मन पर नियंत्रण करना चाहिए। इंद्रिय निग्रह की सफलता मनोनिग्रह पर निर्भर है।

कुसंस्कारी मन कच्चे पारे की तरह है। वहीं सुसंस्कारी बना लिए जाने पर मकरध्वज जैसे पारद रसायनों के रूप में विकसित होता है, तो गुणकारी रसायन का काम करता है। कच्चा पारा तो भयंकर शरीर विस्फोट एवं मरण का निमित्त ही बन सकता है। मन की गुलामी बुरे किस्म की पराधीनता है। गुलाम सोने खाने जैसे समय तो अवकाश प्राप्त कर लेते हैं, पर मन के गुलाम को दिन-रात में कभी भी चैन नहीं। स्वतंत्रतापूर्वक वह कुछ भी कर सकना तो दूर सोच तक नहीं सकता।

बंध-मोक्ष का, पतन-उत्थान का आधारभूत कारण मन है। परिस्थितियों को बहुधा श्रेय या दोष दिया जाता है, वह लांछन मात्र है। यदि परिस्थितियां कारण रही होतीं, तो उन परिस्थितियों के रहने वाले सभी न सही अधिकांश को तो एक जैसा मार्ग अपनाना चाहिए था, पर वैसा होता कहां है? अच्छी-से-अच्छी परिस्थितियों के लोग समस्त सुविधा साधन होते हुए भी बुरे-से-बुरे कर्म करते हैं। इसके विपरीत भारी विपत्ति में फंसे हुए और अभावग्रस्त स्थिति में रहते हुए भी कितने ही लोग अपनी नैतिकता और सदाशयता बनाए रहते हैं। वास्तविक कारण मन का स्तर है, वह अपनी निकृष्टता एवं उत्कृष्टता के अनुरूप मनुष्य की गतिविधियों को इच्छित दिशा में घसीटता चला जाता है।

मन को अवांच्छित चिंतन से बचाना तथा सदैव परिस्थिति से तालमेल बैठाने जैसी स्थिति में बनाए रखना भी एक कला है। मानवी गरिमा इसी में है कि मानव योनि के उपयुक्त श्रेष्ठ चिंतन एवं सत्कार्यों से भरा जीवन जिया जाए। यह एक विडंबना ही है कि इस विभूति का समुचित उपयोग नहीं बन पाता।

प्रसिद्ध विचारक और चिंतक डॉक्टर बाल्टर टौपेल ने लिखा है, ‘‘केवल मनुष्य ही रोता हुआ पैदा होता है, शिकायत करता हुआ जीता है और मरता है।’’ अन्य प्राणियों को जीवन में न तो कोई परेशानी होती है और न समस्याएं। मनुष्य विचारशील और भाव-प्रवण होने के कारण छोटी-छोटी घटनाओं से भी प्रभावित होता है तथा उन पर अपनी प्रतिक्रियाएं व्यक्त करता है। ये प्रतिक्रियाएं अनुकूल कम होती हैं और प्रतिकूल अधिक।

समाज के प्रत्येक वर्ग में प्रत्येक स्थिति के व्यक्ति का यदि विश्लेषण किया जाए, तो प्रतीत होगा कि हर कोई कहीं-न-कहीं, किसी-न-किसी कष्ट या समस्या से पीड़ित है। निर्धन व्यक्ति अपनी गरीबी से पीड़ित है तो समृद्ध और किन्हीं कारणों से। कोई भौतिक सुख-सुविधाओं से परेशान है तो कोई मानसिक शांति न मिलने से, आज के समय में तो ये समस्याएं और भी अधिक जटिल हो गई हैं। सभ्यता के विकास के साथ-साथ और भी नई-नई समस्याएं उत्पन्न होने लगी हैं। आज की मशीनी सभ्यता ने मनुष्य के लिए जो नई समस्याएं उत्पन्न की हैं, उनमें प्रमुख है—मानसिक तनाव। यों चिंताएं, विक्षोभ दबाव और असफलता का दुःख मनुष्य को सदा से परेशान करते हैं, पर विगत कुछ दशाब्दियों में मानसिक तनाव के कारण कई ऐसे रोग फैलने लगे हैं, जिनका कारण शरीर में खोजे भी नहीं मिल पाता। ऐसे रोगों को अंगरेजी में ‘साइकोसोमैटिक’ रोग कहा जाता है।

चिकित्सा विज्ञान की नई-नई शोधों और उपचार पद्धतियों के बल पर कुछ दशकों में जहां कई पुरानी बीमारियों पर पूरी तरह नियंत्रण प्राप्त कर लिया गया था, वहीं अब कुछ ऐसे रोग बड़ी तेजी से फैल रहे हैं, जिनका पहले कभी नाम भी नहीं सुना गया था। विशेषज्ञों के अनुसार उन रोगों को सभ्यता के राजरोग कहा जाता है। उनका कहना है कि मन पर पड़ने वाले दबावों और मानसिक तनाव के कारण ही ये रोग उत्पन्न होते हैं।

विज्ञान की भाषा में मन शरीर का कोई अवयव नहीं है। वैज्ञानिकों के अनुसार जिसे मन कहा जाता है, वह मस्तिष्क की शक्तियों का ही विशिष्ट प्रकार से होने वाला प्रक्षेपण है। मनुष्य शरीर के द्वारा संपन्न होने वाली सभी गतिविधियों क्रिया-कलापों का संचालन मन द्वारा होता है—यह तो सर्वविदित है। शरीर के द्वारा कुछ कार्य तो मनुष्य अपनी इच्छानुसार करता है जैसे—चलना, उठना-बैठना, लिखना-पढ़ना आदि। इनके अतिरिक्त शरीर में कई ऐसी प्रक्रियाएं भी चलती रहती हैं, जिनका मनुष्य अपनी इच्छानुसार नियंत्रण नहीं कर सकता। जैसे पाचन क्रिया, रक्त परिभ्रमण, हृदय स्पंदन, नाड़ी चलना आदि। इन प्रक्रियाओं का नियंत्रण मस्तिष्क के जिस भाग द्वारा होता है, उसे हाईपैथेल्मष कहते हैं। इस केंद्र से चलकर स्नायु पथ के द्वारा अनैच्छिक गतिविधियां चलती हैं। इसके भी दो भाग हैं—एक को पैरासिंथेटिक कहा जाता है तथा दूसरे को सिंथैटिक। पहला पाचन, पोषण और शुद्धिकरण जैसे कार्य करता है तथा दूसरा भाग प्राणी को विशिष्ट परिस्थितियों से निपटने की क्षमता प्रदान करता है। तनाव या दबाव के समय मस्तिष्क का यह हिस्सा सक्रिय हो उठता है। जैसे खतरा प्रस्तुत होने पर इसके कारण रक्तचाप बढ़ जाता है, दिल की धड़कन तेज हो जाती है, हृदय से अत्यधिक रक्त प्रवाहित होने लगता है, रक्त में शर्करा की मात्रा बढ़ जाती है और शरीर से एड्रिनेलिन नामक रसायन भी प्रवाहित होने लगता है। यह सब परिवर्तन अन्य संकटों से जूझने के लिए होते हैं, किंतु जब साधारण-सी बातों को लेकर भी चिंतित हुआ जाने लगता है तो भी यही परिवर्तन होते हैं।

भावनाओं की शरीर पर क्या प्रतिक्रिया होती है? इसका यह एक छोटा-सा उदाहरण है। प्रकृति ने भावनाओं का शरीर से यह संबंध विशिष्ट उद्देश्य से जोड़ा है। वह उद्देश्य यह है कि प्राणी का शरीर परिस्थितियों के अनुरूप ढल सके। कुछ घटनाओं और भावनाओं की शरीर पर होने वाली प्रतिक्रियाओं को समझा जा सकता है। डर के कारण पेशाब छूट जाना, घबराहट से पसीना छूटना, चिंता के कारण भूख न लगना, गुस्से में होने पर चेहरा तमतमा उठना, परेशानी से नींद न आना और लज्जा के मारे लाल हो जाना, चेहरा झुका लेना आदि स्थितियां दरसाती हैं कि भावनाओं का प्रभाव मनुष्य शरीर के रक्त–प्रवाह और अंदरूनी हलचलों पर अनिवार्य रूप से पड़ता है।

पसीना छूटने से पता चलता है कि भावनाएं शरीर की उन ग्रंथियों को प्रभावित करती हैं, जो पसीना छोड़ने का काम करती हैं। बहुत बुरी खबर सुनने या मानसिक आघात पहुंचने पर घबरा उठने के साथ मूर्च्छित तक हो जाने की स्थिति दरसाती है कि मस्तिष्क का क्रिया-कलाप भी भावनाओं से प्रभावित है। ये सब स्थितियां इस बात की द्योतक हैं कि परिस्थितियां, भावनाओं को जन्म देती हैं और भावनाएं शारीरिक प्रक्रियाओं को। परिस्थिति विशेष से निपटने के लिए शरीर में होने वाले ये परिवर्तन प्रकृति की बहुत ही उपयोगी व्यवस्था होती है।

परंतु कई बार अकारण ही व्यर्थ की चिंताएं होती हैं और उन स्थितियों में भी यही परिवर्तन होने लगते हैं। लंबे समय तक यही स्थिति बनी रहे तो मनुष्य शरीर कई रोगों से आक्रांत हो जाता है। आधुनिक सभ्यता में जीवन-क्रम की तेज गतिशीलता और कदम-कदम पर प्रतिस्पर्द्धा की आपा-धापी भी मस्तिष्क में मिथ्या आशंकाओं, भय और गुत्थियों को जनम देती है। वैसी दशा में मस्तिष्क के आदेश से शरीर में वैसी प्रक्रिया होने लगती है, जैसी कि वास्तविक संकट के समय होती है। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि इस तरह की प्रक्रियाएं अपेक्षाकृत कम तीव्र होती हैं, परंतु वे लंबे समय तक चलती हैं। जब वास्तविक संकट सामने होता है, तब तो ये प्रतिक्रियाएं जितनी तेजी से शुरू होती हैं, उतनी ही तेजी से संकट दूर हो जाने पर अपने आप समाप्त हो जाती हैं। लेकिन वास्तविक और अमूर्त संकट से उत्पन्न प्रक्रिया भले ही तीव्र न हो, पर धीमे-धीमे शरीर में चलती जाती हैं तथा उससे शरीर को नुकसान पहुंचता है। उदाहरण के लिए वास्तविक संकट उत्पन्न होने के कारण हृदय की गति बढ़ जाती है और संकट समाप्त होते ही पुनः स्वाभाविक स्थिति में आ जाती हैं, किंतु मनोकल्पित आशंका से हृदय गति कुछ तेजी से ही धड़कती है। ऐसी आशंकाओं का कोई आधार तो होता नहीं, अतः ये आशंकाएं भी लंबे समय तक चलती रहती हैं और हृदयगति भी निरंतर बढ़ी हुई रहने लगती है, जो शारीरिक व्याधि का रूप धारण कर लेती है। उपरोक्त ढंग से बढ़ी हुई हृदय की गति के रोग को ‘‘टैकी कार्डिया’’ कहा जाता है।

इसी प्रकार संकट के समय मस्तिष्क रक्त-प्रवाह को आमाशय से हटाकर ऊपरी मांसपेशियों की ओर मोड़ देता है। ऐसे क्षणों में घबराहट से जी मिचलाने लगता और उबकाई आने लगती हैं। यह प्रक्रिया मिथ्या भय के कारण भी होती है और अवास्तविक भय के कारण भी यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। ऐसी स्थिति में वह खट्टी डकारें आने, जी मिचलाना जैसे लक्षण प्रकट होने लगते हैं।

ये सब लक्षण रोग के प्रतीत होते हैं और लगता है, शरीर स्वास्थ्य में कोई खराबी आ गई है, परंतु वास्तव में इनकी जड़ मन के भीतर होती है। व्यक्ति इस बात को नहीं समझता और मानसिक कारणों को यथावत रखते हुए रोग की भी चिंता करने लगता है। जितना ही वह रोग के बारे में सोचता जाता है, उतना ही रोग बढ़ता नजर आने लगता है और दोहरी समस्या बन जाती है।

इस तरह मानसजन्य रोगों की एक लंबी सूची है और विज्ञान भी यह मानने लगा है कि 65 प्रतिशत रोगों का कारण इस तरह की मानसिक अपरिपक्वता ही है। व्यक्तित्व में प्रौढ़ता का अभाव ही मानसजन्य शारीरिक रोगों का कारण बनती है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो निरंतर किन्हीं बातों को लेकर चिंतित रहना, गलत-सलत शंका-कुशंकाएं करते रहना और व्यर्थ के वहम पालना मानवीय मस्तिष्क को अत्यांतिक तनावग्रस्त कर देते हैं। तनाव का बहुत अधिक बढ़ जाना ही इस तरह के रोगों का कारण बनता है।

मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि तनाव जीवन का एक अनिवार्य अंग है, परंतु वह सीमा से अधिक हो जाता है, तो मस्तिष्क और शरीर पर बुरा प्रभाव डालने लगता है। सिएटल के वाशिंगटन विश्वविद्यालय में चिकित्सा विभाग के प्रधान डॉ. होम्स ने हाल ही में लंबे समय तक शोध और अनुसंधान के बाद यह प्रतिपादित किया है कि सक्रिय जीवन व्यतीत करते हुए कोई भी व्यक्ति तनाव से पूर्णतः मुक्त नहीं हो सकता। उनका कहना है कि एक ही तरह की घटनाएं अलग-अलग अनुपात से तनाव का कारण बनती हैं। उन्होंने ऐसी विभिन्न घटनाओं की तथा घटकों की एक लंबी सूची बनाई जिसके कारण मानसिक तनाव उत्पन्न होता तथा इन घटनाओं के लिए अंक निर्धारित किए और कहा कि वर्ष में 200 अंकों से अधिक तनावपूर्ण स्थितियों में स्वास्थ्य के लिए खतरा उत्पन्न हो सकता है।

डॉ. होम्स ने जीवनसाथी की मृत्यु से लेकर रहन-सहन में परिवर्तन और यहां तक कि सोने की आदतों में बदलाव तक भी तनाव का कारण बताया है। यह बात अलग है कि कौन व्यक्ति इन घटनाओं से कितना तनाव अनुभव करता है। इस तनाव से पूर्णतः छुटकारा नहीं पाया जा सकता और न ही इसके लिए चिंता करने की कोई आवश्यकता है। परंपरा ने मनुष्य शरीर और मन को इस योग्य बनाया है कि वह दैनंदिन जीवन में आने वाले तनाव को झेल सके। समस्या उत्पन्न तब होती है, जब मनुष्य साधारण घटनाओं को भी आवश्यक से अधिक महत्त्व देने लगता है। इस स्थिति से बचने का एक ही उपाय है कि मनुष्य अपनी सीमाओं और सामर्थ्यों को सही ढंग से पहचाने तथा उनके अनुसार अपना जीवनक्रम बनाए। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक और डॉ. सोलिए के अनुसार अपनी सामर्थ्य के अनुसार तनाव झेलना स्वास्थ्य के लिए अच्छा ही है।

लेकिन सामर्थ्य से अधिक तनाव बढ़ता प्रतीत हो तो डॉ. सोलिए ने उसके लिए श्रम को सबसे बड़ा उपचार बताया है। अपने आप को व्यस्त रखना अनेक प्रकार की समस्याओं के साथ मानसिक तनाव से मुक्त होने का भी अचूक उपाय है। महत्त्वाकांक्षाओं और क्षमताओं में सामंजस्य भी तनाव की संभावना को बहुत कम कर देता है। अपनी स्थिति से ऊंचा उठने और उन्नति के चरम शिखर को छूने की इच्छा हर किसी में रहती है। निश्चिंतता को ही अपना लक्ष्य बनाना चाहिए, पर उसके लिए अधैर्य या व्यग्रता से काम नहीं लेना चाहिए। सीढ़ी-दस-सीढ़ी ही लक्ष्य तक पहुंचा जा सकता है। डा. सोलिए का यह भी कहना है कि तनाव से उत्पन्न शारीरिक व्याधियों से बचने के लिए व्यक्ति का आस्थावान होना भी आवश्यक है। ईश्वर के अस्तित्व को मानने में किसी को आपत्ति भी हो सकती है, पर कम-से-कम अपने प्रति आस्था तो रखी ही जा सकती है। अपने प्रति आस्थावान रहने के लिए आवश्यक है कि अपना सही-सही मूल्यांकन किया।

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