मन के हारे हार है मन के जीते जीत

हमारा सबसे निकटवर्ती शत्रु—क्रोध

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प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में कई व्यक्तियों के नित्य संपर्क में आना पड़ता है और विभिन्न परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। इनमें से कुछ व्यक्तियों का व्यवहार या कुछ परिस्थितियां मन को अनुकूल प्रतीत होती हैं और कुछ प्रतिकूल। अनुकूल व्यवहार अथवा परिस्थितियां पाकर सुखी होना स्वाभाविक है, उसी प्रकार प्रतिकूल व्यवहार या परिस्थितियां पाकर क्षोभ भी होता है, बहुधा यह क्षोभ इतनी उत्तेजना उत्पन्न करता है कि व्यक्ति अपने पूरे आवेग से उन परिस्थितियों को नष्ट कर देने के लिए चढ़ दौड़ता है। यह आवेग कई बार इतना तीव्र होता है कि व्यक्ति अपनी समझ-बूझ और विवेक को ताक पर रखकर अपनी शक्तियों को नष्ट-भ्रष्ट करने लगता है। इस प्रकार की आवेगपूर्ण स्थिति को क्रोध भी कह सकते हैं।

क्रोध के समय व्यक्ति यह भूल जाता है कि क्या उचित है और क्या अनुचित? इस स्थिति में क्रुद्ध व्यक्ति अपनी शारीरिक और मानसिक शक्तियों को बड़ी बुरी तरह नष्ट कर डालता है। जब किसी व्यक्ति पर क्रुद्ध हुआ जाता है, कोई व्यक्ति दूसरे पर या परिस्थितियों पर क्रोध करता है, तो वह दूसरे व्यक्ति में भी संचरित हो जाता है और ऐसी दशा में लड़ाई से लेकर आत्मघात जैसी स्थितियां बन जाती हैं।

क्रोध के संबंध में अब तक किए गए अध्ययनों के अनुसार एक स्वस्थ, शांत व्यक्ति की तुलना में कमजोर, दुर्बल और तनावग्रस्त व्यक्ति ज्यादा क्रोधित होता है। कहावत प्रसिद्ध भी है कि ‘कम कुब्बत गुस्सा बहुत।’ वैसे नीतिशास्त्रियों के अनुसार क्रोध करने की आवश्यकता भी है, किंतु नीतिकारों ने जिस क्रोध को आवश्यक बताया है, उसके संबंध में यह भी लिखा है कि वह विवेकपूर्ण होना चाहिए। यदि क्रोध को पूरा त्याग दिया जाए, तो अनीति, अन्याय का विरोध, दुष्ट तत्त्वों का दमन और असुरता का प्रतिकार किस प्रकार संभव होगा? मनीषियों ने अनीति, अन्याय, दुष्टता और असुरता का प्रतिरोध करने के लिए सात्त्विक क्रोध का उपदेश किया है, पर मनोविकार के रूप में जिस क्रोध की यहां चर्चा की जा रही है, वह निश्चित ही अमंगलकारी और हानिप्रद है। कवि वाणभट्ट ने इस मनोविकास के संबंध में कहा है—‘‘अति क्रोधी मनुष्य आंख वाला होते हुए भी अंधा ही होता है।’’ वाल्मीकि रामायण में कहा गया है—‘‘क्रोध प्राणों को लेने वाला शत्रु है। वह अत्यंत तीक्ष्ण धार वाली तलवार के समान है और सर्वनाश की ओर ले जाने वाली राह है।’’

क्रोध का मन की दूसरी दुःखकारी भावनाओं से गहरा संबंध है। यदि क्रोध शीघ्र समाप्त हो जाए, तो उससे होने वाली शक्ति का क्षरण तत्काल रुक जाता है, पर यदि क्रोध मन की गहराइयों में पहुंचकर जम जाए तो यह बैर की भावनाएं बन जाती हैं और दूसरों के गुण, प्रेम, भावना उच्च संस्कार सब भूलकर प्रतिपक्षी का नुकसान करने, दूसरे को हानि पहुंचाने की बुरी भावना निरंतर सताती रहती है। चिकित्साविज्ञानियों के अनुसार जब क्रोध आता है तो शरीर की आंतरिक तथा बाह्य क्रियाएं सभी प्रभावित होती हैं। इस स्थिति में कुछ रसायनों की उत्पत्ति अधिक होने लगती है और कुछ की कम। फलतः शरीर स्वास्थ्य को बुरी तरह क्षति पहुंचती है।

क्रोध आते ही शरीर की मांसपेशियां खिंचने लगती हैं। हाथ और पैर की मांसपेशियों में तो विशेष रूप से खिंचाव आता है, क्योंकि लड़ाई की स्थिति में इन्हीं अंगों को सबसे ज्यादा जोखिम उठाना पड़ता है। चेहरे पर भी खिंचाव आने लगता है। मांसपेशियों के खिंचाव का परिणाम पूरे शरीर पर पड़ता है और हाथ-पैर तथा चेहरे के अतिरिक्त अन्य अंग भी खिंचने-सिकुड़ने लगते हैं। इसके अतिरिक्त क्रोध की अवस्था में श्वसन भी बहुत प्रभावित होता है। वैज्ञानिकों के अनुसार यह सब इस कारण होता है कि क्रोध की अवस्था में शरीर की ऊर्जा का तेजी से क्षरण होने लगता है। इस क्षरित ऊर्जा की पूर्ति के लिए श्वसन क्रिया तीव्र हो जाती है। फेफड़े पहले की अपेक्षा अधिक क्रियाशील होने लगते हैं और सांस की गति बढ़ जाती है। सांस की गति बढ़ जाने से तेजी से सांस लेने और तेजी से सांस छोड़ने के कारण शरीर में ऑक्सीजन की मात्रा अधिक पहुंचने लगती है, जो वहां उपस्थित भोजन से अतिरिक्त ऊर्जा का अवशोषण करती है।

क्रोध की स्थिति में शरीर अपनी सुरक्षा-व्यवस्था के अनुसार विभिन्न परिवर्तन करता है। उस समय यकृत भी अधिक मात्रा में ग्लाइकोजिन निकालने लगता है। इस प्रकार जो अतिरिक्त ऊर्जा का क्षरण होता है, उसकी पूर्ति यदि न की जाए तो शरीर में कई विकार और रोग पनपने लगते हैं। उदाहरण के लिए ज्यादा क्रोध करने वालों को रक्तचाप तथा हृदय संबंधी रोग होने की संभावना बहुत बढ़ जाती है। यह तो सभी जानते हैं कि जब क्रोध आता है, तो हृदय की धड़कन आम स्थिति की अपेक्षा कई गुना अधिक बढ़ जाती है और हृदय पर पूर्वापेक्षा अधिक दबाव पड़ता है। इस स्थिति में हृदय की धड़कन बढ़ जाने के कारण शरीर में रक्त का परिभ्रमण भी पहले की अपेक्षा ज्यादा होने लगता है।

क्रोध की स्थिति में पाचन क्रिया भी विशेष रूप से प्रभावित होती है। एक प्रकार से उस समय तो पाचन-संस्थान अपना काम करना ही बंद कर देता है। उदर तथा आंत्र की क्रियाशीलता उस समय अत्यंत मंद पड़ जाती है। इस संबंध में किए गए अध्ययनों से यह निष्कर्ष सामने आए हैं कि अगर गुस्से की स्थिति में कुछ भी खाया जाए, तो उसका पाचन नहीं होता है, बल्कि उस समय पेट में जो भोजन रहता है, उसका पचना बंद हो जाता है। कई लोगों को इसी कारण अत्यंत क्रोध की अवस्था में उल्टियां होने लगती हैं। जी मिचलाने, उबकाई आने और पेट में भारीपन अनुभव होने की शिकायत तो बहुतों को होती है।

क्रोध की अवस्था में यह भी देखा गया है कि मुंह एकदम सूख जाता है। उस समय मुंह के भीतर लार बनने की प्रक्रिया एकदम मंद पड़ जाती है। यही कारण है कि गुस्सा उतर जाने के बाद बहुतों को जोर की प्यास लगती है। कई लोग तो क्रोध की स्थिति में ही पानी पीते हैं। पानी पी-पीकर कोसने की उक्ति सर्वविदित है। इस अवस्था में ठीक से बोलते भी नहीं बनता, क्योंकि मुंह की वे ग्रंथियां जो बोलने में विशेष रूप से सहायक होती हैं, अकड़ने-जकड़ने लगती हैं और उस कारण शब्दों का उच्चारण ठीक से नहीं हो पाता। ‘त’ के स्थान पर ‘ट’, ‘प’ के स्थान पर ‘फ’ जैसे शब्दों का उच्चारण न चाहते हुए भी हो जाता है।

आंखों पर भी क्रोध का प्रभाव पड़ता है। उस समय आंख की दृष्टि सीमा में फैलाव आ जाता है। यही कारण है कि बहुत अधिक क्रोध करने वालों को कई नेत्र रोग उत्पन्न हो जाते हैं। शरीर के विशेष अंगों पर क्रोध के प्रभाव की ही यहां चर्चा की गई है। वस्तुतः तो पूरा शरीर ही क्रोध से प्रभावित होता है और उस स्थिति का हजारों नसों पर दबाव पड़ता है। तंत्रिका तंत्र भी इससे प्रभावित होता है।

इस सर्वनाशकारी क्रोध पर कैसे नियंत्रण किया जाए? बहुधा देखा गया है कि क्रोध न करने का संकल्प लेने के बावजूद भी कई बार ऐसी परिस्थितियां बन जाती हैं, जब सारे संकल्प-विकल्पों को तोड़कर क्रोध का आवेश उमड़ आता है। शांत मनःस्थिति में ही यह अनुभव होता है कि क्रोध आया था।

क्रोधी व्यक्ति जब किसी पर क्रुद्ध होकर उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाता तो अपने पर क्रोध करने लगता है, अपने को दंड देने और अपनी ही हानि करने लगता है। क्रोध मनुष्य को पागल की स्थिति में पहुंचा देता है। बुद्धिमान और मनीषी व्यक्ति क्रोध का कारण उपस्थित होने पर भी क्रोध का आक्रमण अपने पर नहीं होने देते। वे विवेक का सहारा लेकर उसे अनिष्टकर आवेग पर नियंत्रण कर लेते हैं और इस प्रकार अपनी हानि से बच जाते हैं।

प्रचेता एक ऋषि के पुत्र थे। स्वयं भी शोधक थे, वेद-वेदांग के ज्ञाता थे। संयम और नियम से रहते थे। दिन-अनुदिन तप संचय कर रहे थे, किंतु उनका स्वभाव बड़ा क्रोधी था। उन्होंने क्रोध को एक व्यसन बना लिया था और जब-तब उससे हानि उठाते रहते थे, किंतु न जाने वे अपनी इस दुर्बलता को दूर क्यों नहीं कर पाते थे? इस दुरभिसंधि की अपेक्षा करने से होता यह था कि एक लंबी साधना से प्रचेता जो आध्यात्मिक शक्ति संचय करते थे, वह किसी कारण से क्रोध करके नष्ट कर लेते थे। इसलिए साधना में रत रहते हुए भी वे उन्नति के नाम पर यथास्थान ही रहते थे। होना तो यह चाहिए था कि अपनी इस अप्रगति का कारण खोजते और उसको दूर करते, लेकिन वे स्वयं पर ही इस अप्रगति से क्रुद्ध रहा करते थे। अस्तु, एक मानसिक तनाव बना रहने से उनका स्वभाव खराब हो गया था और वे जरा-जरा-सी बात पर उत्तेजित हो उठते थे।

एक बार वे एक वीथिका से गुजर रहे थे। उसी समय दूसरी ओर से कल्याणपद नाम का एक और व्यक्ति आ गया। दोनों एक-दूसरे के सामने आ गए। पथ बहुत संकरा था। एक के राह छोड़े बिना दूसरा जा नहीं सकता था, लेकिन कोई भी रास्ता छोड़ने को तैयार न हुआ और हठपूर्वक आमने-सामने खड़े रहे। थोड़ी देर खड़े रहने पर उन दोनों ने हटना-न-हटना प्रतिष्ठा-अप्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया। अजीब स्थिति पैदा हो गई।

यहां पर समस्या का हल यही था कि जो व्यक्ति अपने को दूसरे से अधिक सभ्य, शिष्ट और समझदार समझता होता, तो वह हटकर रास्ता दे देता और यही उसकी श्रेष्ठता का प्रमाण होता। निश्चित था कि प्रचेता कल्याणपाद से श्रेष्ठ थे। एक साधक थे और आध्यात्मिक उन्नति में लगे थे। कल्याणपाद एक धृष्ट और ढीठ व्यक्ति था, यदि ऐसा न होता तो एक महात्मा को रास्ता तो देता ही साथ ही नमन भी करता। प्रचेता को यह बात समझ लेनी चाहिए थी, किंतु कुस्वभाव के कारण उन्होंने वैसा नहीं किया, बल्कि उसी के स्तर पर उतरकर अड़ गए। कुछ देर दोनों खड़े रहे, पर फिर प्रचेता का क्रोध हो आया। उन्होंने उसे शाप दे दिया कि राक्षस हो जाए। तप के प्रभाव से कल्याणपाद राक्षस बन गया और प्रचेता को ही खा गया। क्रोध से विनष्ट प्रभाव हुए प्रचेता अपनी रक्षा न कर सके।

क्रोध अपने आप तो पैदा नहीं होता। वह अपनी मानव संतान के समान अपने से ही पैदा होता और अपना ही नाश करता है। ऐसी संतान से दूर रहने में ही भलाई है। क्रोध एक प्रकार की आवेशजन्य स्थिति है, जो व्यक्ति को रुग्ण बनाती है, उसका सम्मान गिराती है। क्रोध अनीति के प्रति तो आना ही चाहिए, किंतु वह विवेक से जुड़ा हो और सोद्देश्य हो। क्रोधी व्यक्ति बिना अपनी शालीनता खोए भी अपना आक्रोश व्यक्त कर सकता है। इससे अपनी सम्मान रक्षा तो है ही, अनीति के प्रतिकार का दायित्व भी पूरा होता है। यही एक सज्जन के जीवन की रीति-नीति होनी चाहिए।

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