गायत्री के पांच मुखों वाले चित्रों को उच्चस्तरीय साधना का संकेत, मार्ग दर्शन कहना चाहिए। बालकों का आरम्भिक शिक्षण एक मात्र वर्णमाला से किया जाता है, इस स्थिति में अनेक विषयों में उसका ध्यान बढ़ाना उचित नहीं माना जाता है। बच्चे केवल वर्णमाला का ही अभ्यास कराते हैं। सद्बुद्धि के रूप में, मानवता के रूप में —मातृ भावना परिष्कृत करने के रूप में एक मुखी गायत्री का चित्रण है। यह सर्व जनीन सर्व सुलभ एवं सर्वोपयोगी। एक मुख और दो भुजाओं वाले चित्रों में गायत्री माता के एक हाथ में कमण्डल और दूसरे में पुस्तक है। इसका तात्पर्य इस महाशक्ति को मानवता की उत्कृष्ट आध्यात्मिकता की प्रतिभा बना कर उसे मानवी आराध्या के रूप में प्रस्तुत करना है। इस उपासना के दो आधार हैं, ज्ञान और कर्म। पुस्तक से ज्ञान का और कमंडलु-जल से कर्म का उद्बोधन कराया गया है। यही वेद माता है, इसी को विश्व माता की संज्ञा दी गयी है। सर्वजनीन और सर्वप्रथम इसी उपास्य को मान्यता दी गई है।
साधना की ऊंची स्थिति में पहुंचने पर ऊंची कक्षाओं के विद्यार्थियों की तरह उपासना पद्धति में भी कई विषय सम्मिलित कर दिये जाते हैं। भाषा, गणित, भूगोल, इतिहास और विज्ञान यह पांचों विषय ऊंची कक्षाओं में सम्मिलित रहते हैं। साधना क्षेत्र में भी वह वजन बढ़ता है। सामान्य से असामान्य स्तर तक पहुंचे हुए साधकों को पांच गुना अधिक श्रम करना पड़ता है उसे पांच कोशी उपासना कहते हैं। इसी का चित्रण गायत्री के पांच मुखों के रूप में किया गया।
किसी मनुष्य या देवता के पांच मुख वस्तुतः होते नहीं हैं। यदि किसी के होंगे तो उसकी विचित्र स्थिति बन जायगी। सोने, खाने, बोने में भारी असुविधा उत्पन्न होगी। रावण के दस शिर माने जाते हैं इस अलंकार का तात्पर्य इतना ही है कि उसका मस्तिष्क दश विद्वानों की सम्मिलित शक्ति जितना विकसित था। इन दस शिरों में एक शिर गधे का भी था। यदि वस्तुतः वैसा रहा होता तो गधा जो खाता है वही उसे खिलाना पड़ता और रावण के मुख से गधे की आवाज भी सुनने को मिलती। पर वस्तुतः वैसा कुछ था नहीं वह भी अन्य मनुष्यों की तरह एक मुख और दो हाथ का व्यक्ति था। दैत्य आकार में नहीं प्रकार में बड़े होते हैं। नेपोलियन, सिकन्दर, हिटलर आदि को अपने युग का दैत्य कह सकते हैं। अलंकार रूप में इनके चित्रण भी उनके कार्य विस्तार के अनुरूप किये जा सकते हैं। इतने पर भी उनका शरीर सामान्य मनुष्यों जितना ही माना जायगा। गायत्री के पांच मुखों के अलंकारिक चित्रण में इतना ही संकेत है कि इसकी उच्चस्तरीय उपासना में पांच कोशों के जागरण अनावरण की साधना का महत्वपूर्ण स्थान है।
पांच मुख और दस भुजा वाली प्रतिमा में कई संकेत हैं। दस भुजाएं, दस इन्द्रियों की सूक्ष्म शक्ति का संकेत करती है और बताती है कि उनकी संग्रहीत एवं दिव्य सामर्थ्य गायत्री माता की समर्थ भुजाओं के समतुल्य है। दसों दिशाओं में उसकी व्यापकता भरी हुई है। दस दिग्पाल—दस दिग्राज पृथ्वी का संरक्षण करते माने गये हैं। गायत्री की दस भुजाएं ही दस दिगपाल हैं। उनमें थकाए हुए विविध आयुधों से यह पता चलता है कि वह सामर्थ्य कितने प्रकार की धाराएं प्रवाहित करती एवं कितने क्षेत्रों को प्रभावित करती हैं।
उच्चस्तरीय साधना में पंचमुखी गायत्री प्रतिमा में पंचकोशी गायत्री उपासना की आवश्यकता का संकेत है। यह पांच कोश अन्तर्जगत के पांच देव, पांच प्राण, पांच महान् सद्गुण पंचाग्नि, पंचतत्व, आत्मसत्ता के पांच कलेवर आदि कहे जाते हैं। पंच देवों की साधना से उन्हें जागृत सिद्ध कर लेने से जीवन में अनेकानेक सम्पत्तियों और विभूतियों के अवतरण का रहस्योद्घाटन किया गया है। पांच प्राणों को चेतना की पांच धाराएं, चिन्तन की प्रखरताएं कहा गया है। चेतना की उत्कृष्टता इन्हीं के आधार पर बढ़ी और प्रचण्ड होती है। प्राण विद्या भी गायत्री विद्या का ही एक अंग है। गायत्री शब्द का अर्थ भी गय=प्राण+त्री=त्राता। अर्थात् प्राण शक्ति का परित्राण करने वाली दिव्य-क्षमता के रूप में किया गया है। कणोपनिषद् में पंचाग्नि विद्या के रूप में इस प्राण तत्व को इन्हीं पांच धाराओं के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
गायत्री के पांच मुखों, पंचकोशों के रूप में उन पांच तत्वों की प्रखरता का वर्णन है जिनसे यह समस्त विश्व और मानव शरीर बना है। स्थूल रूप में यह पांच तत्व पैरों तले रौंदी जाने वाली मिट्टी, कपड़े धोने के लिये काम आने वाले पानी, चूल्हे में जलने वाली आग, पोला आकाश और उसमें मारी-मारी फिरने वाली हवा के रूप में देखे जाते हैं। पर यदि उनकी सूक्ष्म क्षमता पर गहराई से दृष्टि डाली जाय तो पता चलेगा कि इन तत्वों के नगण्य से परमाणु तक कितनी अद्भुत शक्ति अपने में धारण किये बैठे हैं। उनकी रासायनिक एवं ऊर्जा गत क्षमता कितनी महान् है। पंच तत्वों से—बना यह स्थूल जगत और उनकी तन्मात्राओं से बना सूक्ष्म जगत कितना अद्भुत, कितना रहस्यमय है, यह समझने का प्रयत्न किया जाता है तो बुद्धि थक कर उसे विराट् ब्रह्म की साकार प्रतिमा मानकर ही सन्तोष करती है। इन पांच तत्वों के अद्भुत रहस्यों का संकेत गायत्री के पांच मुखे में बताया गया है। और समझाया गया है कि यदि इनका ठीक प्रकार उपयोग, परिष्कार किया जा सके तो उनका प्रतिफल प्रत्यक्ष पांच देवों की उपासना जैसा हो सकता है। पृथ्वी, अग्नि, वरुण, मरुत, अनन्त इन पांच देवताओं को पौराणिक कथा, प्रसंगों में उच्चस्तरीय क्षमता सम्पन्न बताया गया है। कुन्ती ने इन्हीं पांच देवताओं की आराधना करके पांच देवोपम पुत्र रत्न पाये थे। पंचमुखी, पंचकोशी उच्चस्तरीय गायत्री उपासना में तत्व-दर्शन की—तत्व साधना की गरिमा का संकेत है।
मानवी सत्ता के तीन शरीर और पांच कोश हैं। तीन शरीरों का वर्गीकरण सर्वसुलभ है। पांच कोशों के रूप में उसका विभाजन कुछ अधिक गहरा हो जाता है। शिर, धड़, पैर। उसमें तीन प्रकार के पदार्थ भरे हैं, ठोस, पतले और वायु रूप। आहार तीन हैं—अन्न, जल वायु। यह त्रिधा वर्गीकरण सर्व सुलभ है। अब इसी की व्याख्या कुछ और विस्तार से करनी हो तो शरीर को पांच प्रमुख अवयवों में बांटना पड़ेगा। मस्तिष्क, हृदय, जिगर, आमाशय, गुर्दे। भरे हुए पदार्थ तीन तीन नहीं पांच भागों में विभाजित करने पड़ेंगे रक्त, मांस, अस्थि, त्वचा, रोम।
आहार को दाल, साग, रोटी में नहीं वरन् हाइड्रोकारबोनेट-प्रोटीन, चिकनाई, सब्जी आदि में विभक्त करना होगा। यदि और भी गहराई से व्याख्या विवेचना करनी हो फिर न तीन से काम चलेगा और न पांच से फिर उसके और भी अनेकानेक विभाजन होते चले जायेंगे। प्राथमिक कक्षाओं में विज्ञान एक विषय है पीछे उसकी शाखा प्रशाखाएं—तीन-पांच ही नहीं अनेक भागों में विभक्त होती चली जाती हैं। तीन शरीर और पांच कोश यह एक ही मानवी अस्तित्व के पर्यवेक्षण विभाजन की शैलियां हैं। बैद्य लोग, बात, पित्त, कफ, के आधार पर—हकीम लोबी, वादी, खाकी के आधार पर रोगों का निदान करते हैं। क्रीमोपैथी में लाल, पीला, नीला रंग घटने बढ़ने से रोगों की उत्पत्ति मानी जाती है और तदनुरूप चिकित्सा की जाती है। डाक्टरी निदान में रक्त, मल, मूत्र-थूक एक्सरे जैसे परीक्षण आवश्यक समझे जाते हैं। यह प्रयोग एवं परीक्षण की शैलियां भर हैं। उससे रोग के मूल स्वास्थ और उसके निवारण के उद्देश्य पर कोई अन्तर नहीं पड़ता है। होम्पोर्वेद, आयुर्वेद, तिब्बी, ऐलोपैथी, नैचरोपैथी आदि की निदान तथा चिकित्सा पद्धतियों में अन्तर रहते हुए भी उनके बीच कोई विग्रह या झंझट नहीं है। सुविधानुसार इनमें से किसी का भी प्रयोग करके रोग निवृत्ति का उद्देश्य प्राप्त किया जा सकता है। गायत्री उपासना के दोनों ही साधना विधान अपने-अपने स्थान पर उपयोगी है। त्रिपदा साधना में तीन शरीरों की—तीन ग्रन्थियों की व्यवस्था है। पंचमुखी साधना में पांच कोशों का अनावरण करना पड़ता है। इनमें से किस के लिए कौन पद्धति अधिक सरल एवं उपयोगी पड़ेगी यह अपनी मनःस्थिति के आधार पर किसी अनुभवी के परामर्श से निश्चय करना चाहिए। यहां पंचकोशी उपासना की चर्चा ही समीचीन है।
कोश कहते हैं खजाने या आवरण को मानवी सत्ता में पांच अत्यन्त बाहुल्य रत्न भण्डार छिपे पड़े हैं। इन्हें खोज निकालने से जो लाभ मिलते हैं उन्हें प्रसिद्ध पंच देवताओं का अनुग्रह बरसने के समतुल्य माना गया है। भवानी गणेश, ब्रह्मा विष्णु महेश यह पांच देवता माने गये हैं। यह देव शक्तियां ब्रह्माण्ड व्यापी भी हैं और काम सत्ता में भी उनके केन्द्र संस्थान विद्यमान हैं भीतर और बाहर दोनों ही जगह उसका अस्तित्व छोटे और बड़े आकार विद्यमान है। कोश विज्ञान के अनुसार जीवन सत्ता का विभाजन पांच वर्गों में हुआ है। अन्नमय कोश—प्राणमय कोश-मनोमय कोश—विज्ञानमय कोश—आनन्दमय कोश। यह सामान्यतया मूर्छित, प्रसुप्त स्थिति में पड़े रहते हैं। बीज के भीतर भी वृक्ष बनने की क्षमता तो आरम्भ से ही विद्यमान रहती है पर वह प्रकट तभी होती है जब उसे विधिवत् बोया उगाया जाता है। पांच कोश भी तिजोरी के भीतर पांच तालों के भीतर संपत्ति की तरह समझे जा सकते हैं। ऊपरी परतों की अपेक्षा नीचे की परतें अधिक बहुमूल्य हैं। सामान्य बुद्धि भी यही कहती है कि सस्ती वस्तुएं बाहर कम सुरक्षित जगह पर रख दी जाती हैं। मूल्य की दृष्टि से सुरक्षा का प्रबन्ध भी किया जाता है। सस्ती वस्तुएं बरामदे में—कीमती कमरे में उससे महंगी सन्दूक में और फिर सबसे अधिक कीमत वाली तिजोरी के भी भीतर रहने वाले छोटे लौकर में बन्द की जाती है। परमात्मा ने भी यही किया है। हाथ पैर निकाल दिये हैं हृदय फेफड़े, मस्तिष्क आदि को मजबूत बक्सों में बन्द करके रखा है। पांच कोशों की स्थिति भी यही है। वे स्तर के अनुरूप एक के बाद एक ऊंचे होते चले गये हैं। तदनुरूप उनकी शक्तियां एवं सिद्धियां भी अधिक उच्चस्तरीय अधिक महत्वपूर्ण होती चली गई हैं।
मानवी सत्ता जड़ शरीर और चेतन आत्मा के समन्वय से बनी है। इन दोनों खण्डों के पांच-पांच भाग हैं। शरीर पदार्थ से पदार्थ को तत्व कहते हैं। तत्व पांच हैं—पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश। जीवन चेतना को प्राण कहते हैं। प्राण के पांच भाग हैं। प्राण, अपान, व्यान, समान उदान। पांच तत्व और पांच प्राणों के समन्वय से पांच कर्मेन्द्रियां और पांच ज्ञानेन्द्रियां बनी हैं। पदार्थों की इन्द्रियों द्वारा जो अनुभूति होती है उन्हें तन्मात्राएं कहते हैं। तन्मात्राएं पांच हैं—शब्द रूप, रस, गन्ध स्पर्श। इन्हीं का विस्तार काय कलेवर में दृष्टिगोचर होता है। इसी को प्रपन्च कहते हैं। प्रपन्च में फंसा हुआ प्राणी बद्ध और उससे छूटा हुआ मुक्त कहलाता है।
पन्च कोषों की पंच तत्वों और पन्च प्राणों के समन्वय से बनी हुई ऐसी अदृश्य सत्ता कह सकते हैं, जो शरीर के आकार प्रकार की तो होती है पर उसमें स्थूल का अंश बहुत स्वल्प और सूक्ष्मता की मात्रा अत्यधिक रहती है। इन शरीरों का मोटा अनुमान प्रेत शरीर या छाया पुरुष से लगाया जा सकता है। ‘छाया पुरुष’ जीवित स्थिति में ही शरीर के साथ-साथ ही रहता है। तांत्रिक विधि से उसे सिद्ध कर लेने पर वह अदृश्य, साथी सेवक का काम देता है। शरीर में ठोस पदार्थ होने से वह भारी रहता है और दौड़ धूप नहीं कर सकता। छाया पुरुष हलका और अदृश्य होने के साथ-साथ ऐसी विशेषताओं से युक्त भी होता है जो बहुत प्रयत्न करने पर किसी प्रकार पाई जगाई जाती है। छाया पुरुष परिपक्व सूक्ष्म शरीर भी कहा जा सकता है।
अंग्रेजी में इसे ‘‘ईथरीक डबल’’ कहते हैं। पंचकोश विज्ञान की दृष्टि से इसे अन्नमय कोश कहा जायगा। एक दूसरा उदाहरण प्रेत का है मरने के बाद काया तो नष्ट हो जाती है पर उसकी प्राणवान छाया पीछे भी बनी रहती है। स्वर्ग नरक जैसे सुख दुःख भुगतने की अनुभूति उसे होती है। मरने से पूर्व के मित्र शत्रुओं के प्रति राग द्वेष उसे बना रहता है। स्वभाव संस्कार भी वैसे ही बने रहते हैं। उत्तेजित अशान्त प्रेत उपद्रव करते हैं किन्तु सौभ्य स्वभाव वाले शान्ति पूर्वक विश्राम करते हैं। यह स्थिति भी अन्य भोश की है। छाया पुरुष और प्रेतात्मा के अस्तित्व का परिचय प्रायः मिलता रहता है।
आगे से चार शरीर अन्नमय कोश की तुलना में उसी अनुपात में सूक्ष्म—सूक्ष्मतर—सूक्ष्मतम होते चले गये हैं, जिन्हें स्थूल शरीर की तुलना में अदृश्य प्रेत शरीर कह सकते हैं। इन अधिक सूक्ष्म शरीरों को क्रमशः अगले कोश कहा जायगा अन्नमय कोश को अंग्रेजी में फिजीकल बॉडी कहते हैं। ‘बॉडी’ का अर्थ मोटे अर्थ में प्रत्यक्ष शरीर ही समझा जाता है पर आध्यात्म की परिभाषाएं सूक्ष्म शरीर से आरम्भ होती हैं। इसलिए इसे वस्तुतः वह सूक्ष्म शरीर ही समझा जाना चाहिये जो स्वप्न-प्राण विनियोग आदि में काम आता है मन मस्तिष्क से रूप में अपना अस्तित्व बनाये हुए है और जीवन यापन की हर प्रक्रिया में प्रायः साथ साथ ही रहता है। उससे आगे के प्राणमय कोश की ईथरिक बॉडी—मनोमय कोश को एस्ट्रल बॉडी—विज्ञानमय कोश को कास्मिक बॉडी—और आनन्दमय कोश को कांजल बॉडी कहते हैं। इन पांचों को मिलाकर एक पर्व मानवी सत्ता बनती है। इनमें एक के बाद दूसरे की महत्ता तथा समर्थता अपेक्षाकृत अधिक होती चली गई है। साधना करने और इनमें से प्रत्येक में एक से एक अधिक ऊंचे स्तर की शक्तियां सिद्धियां मिलती चली जाती है। इसी आधार पर उन परतों को शरीरस्थ पांच देवताओं की संज्ञा दी गई है और कहा गया है कि इन्हें जीवित कर लेने वाला पांच देवताओं के साथ रहने वाला अथवा उन्हें साथ रखने वालों की स्थिति में पहुंच जाता है।
पूजा में पंचामृत का पंचोपचार का—पंच गव्य का—प्रसंग आता है। तपस्वी पंचाग्नि तपते हैं। पंच केश रखाते हैं, रत्नों में पांच प्रमुख हैं उन्हें पंच रत्न कहते हैं। वस्त्र दान में पांचों कपड़े देने की व्यवस्था बनाई जाती है। पंचायत शब्द इसीलिये बना है कि उससे पांच पंचों का प्रचलन था। राम पंचायत के चित्र सभी ने देखे हैं। कई देवताओं के भी गायत्री की तरह ही पांच मुख हैं। पांच मुख के शंकर जी तथा पांच मुख वाले हनुमान जी की मूर्तियां अनेकों मन्दिरों में प्रतिष्ठापित है। आयुर्वेद में कई जड़ी बूटियों के पंचांग काम में आते हैं। ग्रहगणित बताने वाले सभी पंडितों के पास पंचांग रहता है। वेदान्त साधना में पंचीकरण विद्या का विस्तार पूर्वक वर्णन हुआ है इस सब की समता गायत्री की पंचमुखी आकृति और पंच कोशी साधना से की जा सकती है।
जीवन प्रक्रिया के अन्तर्गत पंचवर्गों के विभाजन अनेक दृष्टियों से जाते हैं। शारीरिक—मानसिक—आर्थिक पारिवारिक एवं सामाजिक समस्याएं ही हर मनुष्य के भौतिक जीवन में उपस्थित रहती हैं। उन्हीं के समाधान के लिये निरन्तर दौड़ धूप और माथा पच्ची होती रहती है।
व्यवहारिक सद्गुणों में पांच ही प्रमुख हैं (1) तत्परता (श्रम निष्ठा) (2) स्वच्छता (व्यवस्था) (3) मितव्ययिता—(सादगी) (4) सद्भाव (शिष्टाचार) (5) आत्मीयता (सहकार) इन्हीं पांच को पारिवारिक पंचशील कहते हैं। प्रगतिशील जीवन क्रम और पारिवारिक विकास प्रायः इन्हीं पांचों सिद्धांतों पर निर्भर रहता है।
लगभग इन्हीं सद्गुणों को वैयक्तिक जीवन की प्रखरता का आधार माना गया है। परिष्कृत अन्नमय कोश का लक्षण है श्रम और संयम का अभ्यास, प्राणमय कोश का सत्साहस और सत्संकल्प से—मनोमय कोश का सन्तुलन विवेक से—विज्ञानमय कोश का सहृदयता सज्जनता से—आनन्दमय कोश का श्रद्धा और भक्ति से—प्रमाण परिचय मिलता है। यह विभूतियां जितनी विकसित हो समझा जाना चाहिये कि वह शरीर उसी अनुपात से विकसित हो चला। स्पष्ट है कि आन्तरिक विभूतियों के ही मूल्य पर बाह्य जीवन की सफलताओं एवं सम्पत्तियों का उपलब्ध होना निर्भर है।
पांच कोशों का जागरण पांच अदृश्य शक्ति संस्थानों के उद्गम केन्द्रों की निष्क्रियता को सक्रियता में बदल देना है। जमीन के नीचे कितनी ही जल धाराएं ऐसी बहती हैं जो भूतल पर रहने वाली नदियों की तुलना में अधिक बड़ी, अधिक तेजी से जल बहाने वाली होती हैं। चूंकि वे नीचे दबी हुई हैं इसलिए उनका लाभ धरती के निवासियों को मिल नहीं पाता जो ऊपर बहती हैं वे काम में आती हैं। राजस्थान में यह प्रयत्न चल रहे हैं कि उस प्रदेश में नीचे बहने वाली नदियों का पानी ऊपर लाया जाय और उसे वहां के मरुस्थलों को हरा भरा बनाया जाय। यह प्रयत्न सफल हो गये तो वहां के सूखे और पिछड़े क्षेत्र को हरा भरा और सुसम्पन्न बनने का अवसर मिल जायगा। मानवी काय में अन्तर्हित सूक्ष्म शक्ति स्रोत इसी प्रकार के हैं यदि उनकी प्रसुप्ति हटाई जा सके और जागृति का अवसर दिया जा सके तो आज की स्थिति में कल भारी अन्तर दृष्टिगोचर होगा। पिछड़ेपन को प्रगतिशील बनने में तनिक भी देर न लगेगी।
साधारणतः कर्मेन्द्रियों के भ्रम और ज्ञानेन्द्रियों के अनुभव का लाभ उठाकर ही मनुष्य की समस्त गतिविधियां चलती हैं। इन्हीं के सहारे उसे ऊंचा उठने और आगे बढ़ने का अवसर मिलता है। उपार्जन और उपयोग इन्हीं उपकरणों के सहारे होता है। यह सीमित साधन है। इससे आगे के असीम साधन और हैं जिन्हें अदृश्य शक्ति स्रोत कहा गया है। पंच कोश यही हैं। इनसे बने शरीर यदि ठीक तरह काम करने लगे तो समझना चाहिए कि एक व्यक्तित्व पांच गुना सामर्थ्यवान बन गया। एक को चार साथी मिल जाने से पांच भाइयों के साथ मिलकर काम करने जैसी स्थिति बन गई। पांचों पंच मिलकर जो निर्णय करेंगे वह फैसला मान्य ही होगा। पांच पाण्डवों ने एक सूत्र में बंधकर स्वल्प साधनों से महाभारत में विजय पाई थी। किसी को सफलता मिलती चली जाय तो कहते हैं कि ‘‘पांचों उंगलियां घी में हैं।’’ महर्षि पंच शिख ने आध्यात्म तत्व ज्ञान के जिन रहस्यों का प्रकटीकरण किया है वे पंच कोशों के आवरण से उपलब्ध होने वाले ज्ञान विज्ञान का ही संकेत करते हैं। यह पांच अग्नि शिखाएं—पांच ज्वालाएं—पांच कोशों में सन्निहित दिव्य क्षमताएं ही समझी जा सकती हैं।
पांच कोशों के पांच देवताओं का प्रथक से भी वर्णन मिलता है। अन्नमय कोश का सूर्य—प्राणमय कायम—मनोमय का इन्द्र—विज्ञानमय का पवन और आनन्दमय कोश का देवता वरुण माना गया है। कुन्ती ने इन्हीं पांचों देवताओं की साधना करके पांच पाण्डवों को जन्म दिया था। वे देव पुत्र कहलाते थे।
इन पांच कोशों एक देवताओं की पांच सिद्धियां हैं—अन्नमय कोश की सिद्धि से निरोगता, दीर्घ जीवन एवं चिर यौवन का लाभ है। प्राण मय कोश से साहस शौर्य पराक्रम प्रभाव प्रतिभा जैसी विशेषताएं उभरती हैं। प्राण विद्युत की विशेषता से आकर्षक चुम्बक व्यक्तित्व में बढ़ता जाता है और प्रभाव क्षेत्र पर अधिकार बढ़ता जाता है मनोमय कोश की जागृति से विवेक शीलता, दूरदर्शिता बुद्धिमता बढ़ती है और उतार चढ़ावों में धैर्य सन्तुलन बना रहता है। विज्ञान मय कोश से सज्जनता का उदार सहृदयता का विकास होता है और देवत्व की उपयुक्त विशेषताएं उभरती हैं। अतीन्द्रिय ज्ञान अपरोक्षानुभूति, दिव्य दृष्टि जैसी उपलब्धियां विज्ञानमय कोश की हैं। आनन्द मय कोश के विकास से चिन्तन तथा कर्तृत्व दोनों ही इस स्तर के बन जाते हैं कि हर घड़ी आनन्द छाया रहे संकटों का सामना ही न करना पड़े। ईश्वर दर्शन, आत्म साक्षात्कार, स्वर्ग मुक्ति जैसी महान उपलब्धियां आनन्द मय कोश की ही देन है।
जागरण एवं अनावरण शब्द पंच कोशों के परिष्कार की साधन में प्रयुक्त होते हैं। इन प्रसुप्त संस्थानों को जागृत सक्रिय सक्षम बनाकर चमत्कार दिखा सकने की स्थिति तक पहुंचा देना जागरण है। अनावरण का तात्पर्य है आवरणों का हटा दिया जाना। किसी जलते बल्ब के ऊपर कई कपड़े ढक दिये जाये तो उसमें प्रकाश तनिक भी दृष्टिगोचर न होगा। इन आवरणों का एक एक परत उठाने लगे तो प्रकाश का आभास क्रमशः बढ़ता जायगा। जब सब पर्दे हट जायेंगे तो बल्ब अपने पूरे प्रकाश के साथ दिखाई पड़ने लगेगा। आत्मा के ऊपर इन पांच शरीरों के—पांच आवरण पड़े हुए हैं उन्हीं को भव बन्धन कहते हैं इनके हट जाने या उठ जाने पर ईश्वर दर्शन, आत्म साक्षात्कार, एवं बन्धन मुक्ति का लाभ मिलता है।