गायत्री के पाँच मुख पाँच दिव्य कोश

गायत्री के पांच मुख पांच दिव्य कोश

Read Scan Version
<<   |   <  | |   >   |   >>
गायत्री के पंचमुखी चित्रों एवं पंचमुखी प्रतिमाओं का प्रचलन इसी प्रयोजन के लिये है कि इस महामन्त्र की साधना का अवलम्बन करने वालों को यह विदित रहे कि हमें आगे चलकर क्या करना है? जप, ध्यान, स्रोत, पाठ पूजन, हवन, यह आरम्भिक क्रिया-कृत्य हैं। इनसे शरीर की शुद्धि और मन की एकाग्रता का प्रारम्भिक प्रयोजन पूरा होता है। इससे अगली मंजिलें कड़ी हैं। उनकी पूर्ति के लिये साधक को जानकारी प्राप्त करनी चाहिये और उस मार्ग पर चलने के लिये आवश्यक तत्परता, दृढ़ता एवं क्षमता का सम्पादन करना चाहिये। इतना स्मरण, यदि साधक रख सका तो समझना चाहिये कि उसने गायत्री पंचमुखी चित्रण का प्रयोजन ठीक तरह से समझ लिया। वस्तुतः गायत्री परम ब्रह्म परमात्मा की विश्व-व्यापिता महाशक्ति है। उसका कोई स्वरूप नहीं। यदि स्वरूप का आभास पाना हो तो वह प्रकाश रूप में हो सकता है। ज्ञान की उपमा प्रकाश से दी जाती है गायत्री का देवता सविता है। सविता का अर्थ है सूर्य—प्रकाश पुंज। जब गायत्री महाशक्ति का अवतरण साधक में होता है तो साधक को ध्यान के प्रकाश बिन्दु एवं वृत का आभास मिलता है। उसे अपने हृदय शिर, नाभि अथवा आंखों में छोटा या बड़ा प्रकाश पिण्ड दिखाई पड़ता है। यह कभी घटता कभी बढ़ता है। इसमें कई तरह की, कई आकृतियां भी, कई रंगों की प्रकाश किरणें दृष्टिगोचर होती हैं। यह आरम्भ में हिलती-जुलती रहती है, कभी प्रकट कभी लुप्त होती है पर धीरे-धीरे वह स्थिति आ जाती है कि विभिन्न आकृतियां, हलचलें एवं रंगों का निराकरण हो जाता है, और केवल प्रकाश बिन्दु ही शेष रह जाता है प्राथमिक स्थिति में यह प्रकाश छोटे आकार का एवं स्वल्प तेज का होता है किन्तु जैसे-जैसे आत्मिक प्रगति ऊर्ध्वगामी होती है, वैसे-वैसे प्रकाश वृत्त बड़े आकार का, अधिक प्रकाश का अधिक उल्लास भरा दीखता है, जैसे प्रातःकाल के उगते हुए सूर्य की गरमी पाकर कमल की कलियां खिल पड़ती हैं वैसे ही अन्तरात्मा इस प्रकाश अनुभूति को देख कर ब्रह्मानन्द का, परमानन्द का सच्चिदानंद का अनुभव करता है। जिस प्रकार चकोर रात भर चन्द्रमा को देखता रहता है वैसी ही साधक की इच्छा होती है कि इस प्रकाश को ही देखकर आनन्द विभोर होता रहे। कई बार ऐसी भावना भी उठती है कि जिस प्रकार दीपक पर पतंगा अपना प्राण होम देता है, अपनी तुच्छ सत्ता को प्रकाश की महत्ता में विलीन होने का उपक्रम करता है वैसे ही मैं भी अपने अहम को इस प्रकाश रूप ब्रह्म में लीन कर दूं।

यह निराकार ब्रह्म के ध्यान की थोड़ी झांकी हुई। अनुभूति की दृष्टि से साधक को ऐसा भान होता है, मानो उसे ब्रह्म-ज्ञान की, तत्व दर्शन की अनुभूति हो रही हो, ज्ञान के सारांश का जो निष्कर्ष है उत्कर्ष आदर्शवादी क्रिया-कलाप से जीवन को ओत प्रोत कर लेना वही आकांक्षा एवं प्रेरणा मेरे भीतर जाग रही है। जाग ही नहीं वरन् संकल्प का निश्चय का, अवस्था का, तथ्य का रूप धारण कर रही है। प्रकाश की अनुभूति का यही चिन्ह है। माया मोह और स्वार्थ-संकीर्णता का अज्ञान तिरोहित होने से मनुष्य विशाल दृष्टिकोण से सोचता है और महान आत्माओं जैसी साहसपूर्ण गतिविधियां अपनाता है। उसे लोभी और स्वार्थी, मोहग्रस्त, मायाबद्ध लोगों की तरह परमार्थ पथ में साहसपूर्ण कदम बढ़ाते हुए न तो झिझक लगती है और न संकोच होता है। जो उचित है उसे करने के लिये, अपनाने के लिये निर्भीकता पूर्वक साहस भरे कदम उठाता हुआ श्रेय पथ पर अग्रसर होने के लिये द्रुतगति से बढ़ चलता है।

यह तो गायत्री रूपी परमब्रह्म सत्ता के उच्चस्तरीय ज्ञान एवं, ध्यान का स्वरूप हुआ। प्रारम्भिक स्थिति में ऐसी उच्चस्तरीय अनुभूतियां सम्भव नहीं उस दशा में प्रारम्भिक क्रम ही चलाना पड़ता है। जप, पूजन, ध्यान, स्तवन हवन जैसे शरीर साध्य क्रिया-कलाप ही प्रयोग में आते हैं। तब चित्त या प्रतिभा का अवलम्बन ग्रहण किये बिना काम नहीं चल सकता। प्रारम्भिक उपासना, साकार माध्यम से ही सम्भव है। निराकार का स्तर काफी ऊंचे उठ जाने पर आता है। उस स्थिति में भी प्रतिमा का विरोध या परित्याग करने की आवश्यकता नहीं पड़ती, वरन् उसे नित्य कर्म में सम्मिलित रखकर संचित संस्कार को बनाये रहना पड़ता है। इमारत की नींव में कंकड़-पत्थर भरे जाते हैं। नींव जम जाने पर तरह-तरह के डिजाइन की इमारतें उस पर खड़ी होती हैं। नींव में पड़े हुए कंकड़-पत्थर दृष्टि से ओझल हो जाते हैं—फिर भी उनका उपहास उड़ाने, परित्याग करने या निकाल फेंकने की आवश्यकता नहीं पड़ती। वरन् यह मानना पड़ता है कि उस विशाल एवं बहुमूल्य इमारत का आधार वे नींव में भरे हुए कंकड़-पत्थर ही हैं। साकार उपासना की आध्यात्मिक प्रगति भी नींव भरना कहा जा सकता है। आरम्भिक स्थिति में उसकी अनिवार्य आवश्यकता ही मानी गई है। अस्तु अध्यात्म का आरम्भ चिर अतीत से प्रतिमा पूजन के सहारे हुआ है और क्रमशः आगे बढ़ता चला गया है। गायत्री महाशक्ति की आकृति का निर्धारण भी इसी सन्दर्भ से हुआ है। अन्य देव प्रतिमाओं की तरह उसका विग्रह भी आदिकाल से ही ध्यान एवं पूजन में प्रयुक्त होता रहा है।

सामान्यतया एक मुख और दो भुजा वाली मानव आकृति प्रतिमा ही अधिक उपयुक्त है। पूजन और ध्यान उसी का ठीक बनता है। सगी माता मानने के लिये गायत्री को भी वैसे ही हाथ-पैर वाली होना चाहिए जैसा कि साधक होता है। इसलिये ध्यान एवं पूजन में सदा से दो भुजाओं वाली और एक मुख वाली पुस्तक एवं कमण्डल धारण करने वाली हंसवाहिनी गायत्री माता का प्रयोग होता रहा है। किन्तु कतिपय स्थानों में पंचमुखी प्रतिमा एवं चित्र भी देखे जाते हैं। इनका ध्यान-पूजन भले ही उपयुक्त न हो पर उनमें एक महत्वपूर्ण शिक्षण सन्देश एवं निर्देश अवश्य ही भरा हुआ है। हमें उसी को देखना समझना चाहिये।

गायत्री के पांच मुख जीव के ऊपर लिपटे हुए पंच कोश—पांच आवरण हैं। और दस भुजायें, दस सिद्धियां एवं अनुभूतियां हैं। पांच भुजायें बाई और पांच दाहिनी ओर हैं। उसका संकेत गायत्री महाशक्ति के साथ जुड़ी हुई पांच भौतिक और पांच शक्तियों एवं सिद्धियों की ओर है। इस महाशक्ति का अवतरण जहां भी होगा वहां वे दस अनुभूतियां—विशेषताएं सम्पदाएं निश्चित रूप से परिलक्षित होगी। साधना का अर्थ एक नियत पूजा स्थान पर बैठकर अमुक क्रिया-कलाप पूरा कर लेना मात्र ही नहीं है, वरन् समस्त जीवन को साधनामय बनाकर अपने गुण कर्म स्वभाव को इतने उत्कृष्ट स्तर का बनाना है कि उनमें वे विभूतियां प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने लगें, जिनका संकेत पंचमुखी माता की प्रतिमा में दस भुजाएं दिखाकर किया जाता है। भुजायें, शक्तियां एवं सामर्थ्य की प्रतीक हैं। साधना का उद्देश्य शक्ति प्राप्त करना है। दस शक्तियां, दस सिद्धियां जीवन साधना के द्वारा जब प्राप्त की जाने लगें तो समझना चाहिये कि कोई गायत्री उपासक उच्चस्तरीय साधना, पथ पर सफलता पूर्वक अग्रसर हो रहा है।

गायत्री के पांच मुख हमें बताते हैं कि जीव सत्ता के साथ पांच सशक्त देवता, उसके लक्ष्य प्रयोजनों को पूर्ण करने के लिये मिले हुए हैं। वे निद्रा ग्रस्त हो जाने के कारण मृततुल्य पड़े रहते हैं और किसी काम नहीं आते। फलतः जीव दीन दुर्बल बना रहता है। यदि इन सशक्त सहायकों को जगाया जा सके उसकी सामर्थ्य का उपयोग किया जा सके तो मनुष्य सामान्य न रहकर असामान्य बनेगा। दुर्दशा ग्रस्त स्थिति से उबरने और अपने महान गौरव के अनुरूप जीवन-यापन का अवसर मिलेगा। शरीरगत पांच तत्वों का उल्लेख पांच देवताओं के रूप में इस प्रकार किया गया है—

‘‘आकाशस्याधिपो विष्णुरग्नेश्चैव महेश्वरी। दायोः सूर्यः क्षितेरीशो जीवनस्य गणाधिपः।।’’ —कपिलतंत्र

आकाश के अधिपति है विष्णु। अग्नि की अधिपति महेश्वरी शक्ति हैं। वायु—अधिपति सूर्य हैं। पृथ्वी के स्वामी शिव हैं और जल के अधिपति गणपति गणेश जी हैं। इस प्रकार पंच देव शरीर के पंचतत्वों की ही अधिपति—सत्ताएं हैं।

पांच प्राणों को भी पांच देव बताया गया है। पंचदेव मयं जीव, पंच प्राणमयं शिव । कुण्डली शक्ति संयुक्त, शुभ्र विद्युल्लतोपमम् ।। —तंत्रार्णव

यह जीव पांच देव सहित है। प्राणवान होने पर शिव है। यह परिकर कुण्डलिनी शक्ति युक्त है। इनका आकार चमकती बिजली के समान है।

कुण्डलिनी जागरण का परिचय पंच कोशों की जागृति के रूप में मिलता है। कुण्डलिनी शक्तिराविर्भवति साधके । तदा स पंच कोशे मत्तेजोऽनुभवति ध्रुवम् ।। —महायोग विज्ञान

जब कुण्डलिनी जागृत होती है तो साधक के पांचों कोश ज्योतिर्मय हो उठते हैं। पांच तत्वों से शरीर बना है। उनके सत्व गुण चेतना के पांच उभारों के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं। (1) मन, माइंड (2) बुद्धि, इन्टिलैक्अ (3) इच्छा, विल (4) चित्त, माइन्ड स्टाफ (5) अहंकार, ईगो।

पांच तत्वों (फाइव ऐलीमेन्ट्स) के राजस तत्व से पांच प्राण (वाइटल भोर्सेज) उत्पन्न होती हैं। पांच ज्ञानेन्द्रियां उन्हीं के आधार पर अपने विषयों का उत्तरदायित्व निबाहती हैं।

तत्वों के तमस भाग से काय कलेवर का निर्माण हुआ है। (1) रस (2) रक्त (3) मांस (4) अस्थि (5) मज्जा के रूप में उन्हें क्रिया निरत काया में देखा जा सकता है। मस्तिष्क, हृदय, आमाशय, फुफ्फुस और गुर्दे यह पांचों विशिष्ट अवयव, तथा पांच कर्मेन्द्रियों को उसी क्षेत्र का उत्पादन कह सकते हैं।

जीव सत्ता के सहयोग को लिये मिले पांच देवताओं को पांच कोश कहा जाता है यों दीखने में शरीर एक ही दिखाई पड़ता है, फिर भी उनकी सामर्थ्य क्रमशः एक से एक बढ़ी-चढ़ी है। न दीखते हुए भी वह इतने शक्ति सम्पन्न हैं कि उनकी क्षमताओं को जगाया जा सकना संभव हो सके तो मनुष्य तुच्छ से महान और आत्मा से परमात्मा बन सकता है। जीवात्मा पर चढ़े हुए इन पांच आवरणों, पांच कोशों के नाम हैं (1) अन्नमय कोश (2) प्राणमय कोश (3) मनोमय कोश (4) विज्ञानमय कोश (5) आनन्दमय कोश। तेत्तरीय उपनिषद् में अन्नमय के भीतर प्राणमय का, प्राणमय के भीतर मनोमय का—मनोमय के भीतर विज्ञानमय का और विज्ञानमय के भीतर आनंदमय कोश का वर्णन है। इनमें बहुत कुछ साम्य और बहुत कुछ अन्तर है। इसकी चर्चा इस प्रकार हुई है।

‘स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः । तस्येदमेव शिरः । अयं दक्षिणः पक्षः । अयमुत्तरः पक्षः । अयमात्मा । इदं पुच्छं प्रतिष्ठा ।’ —तै. उ. 2।1।1

मनुष्य अन्न रसमय है। यही उसका शिर है। यही उसका दक्षिण पक्ष है। यही उसका उत्तर पक्ष है। यह आत्मा है। यह पुच्छ तंत्र मेरुदंड पर प्रतिष्ठित है। ‘तस्माद्वा एतस्मादन्नरसमयादन्योऽन्तर आत्मा प्राणमयः । तेन ष पूर्णः । सं वा एष पुरुषविध एव । तस्य पुरुषविधतामन्वयं पुरुषविधः । तस्य प्राण एव शिरः । व्यानो दक्षिणः पक्षः । अपान उत्तरः पक्षः । आकाश आत्मा । पृथिवी पुच्छं प्रतिष्ठा ।’ —तै. उ. 2।2।1

उपरोक्त अन्न रस आदि धातुओं से विनिर्मित अन्नमय कोश से प्रथम किन्तु भीतर रहने वाला आत्मा प्राणमय है। वह इतने में ही पूर्ण है। वह भी वैसी ही आकृति का है। वैसी ही उसकी गतिविधि है। उस प्राणमय कोश का प्राण ही शिर है। उसका व्यान दक्षिण पक्ष और अपान उत्तर पक्ष है। आकाश उसकी आत्मा है। पृथ्वी में उसकी पुच्छ प्रतिष्ठा है।

‘तस्माद्वा एतस्मात् प्राणमयादन्योऽन्तर आत्मा मनोमयः । तेनैव पूर्णः । स वा एष पुरुषविध एव । तस्य पुरुषविधतामन्वयं पुरुषविधः । तस्य यजुरेव शिरः । ऋग्दक्षिणः पक्षः । सामोत्तरः पक्षः । आदेश आत्मा ।’ —तै. उ. 2।3।1

इस प्राणमय कोश से भिन्न मनोमय कोश है। प्राणमय कोश, मनोमय कोश से भरपूर है। वह उसी के समान है। जैसा प्राणमय कोश है। वैसा ही मनोमय कोश है। यजु उसका शिर है। ऋग् दक्षिण पक्ष और साम उत्तर पक्ष है। आदेश उसका आत्मा हैं।

वेदों को यहां मनोमय कोश के साथ क्यों जोड़ा गया इसका समाधान शंकर भाष्य में संकल्प मंथन और भाव को यजु-ऋक् साम के रूप में किया है।

‘तस्माद्वा एतस्मान्मनोमयादन्योऽन्तर आत्मा विज्ञानमयः । तेनैष पूर्णः । स वा एष पुरुषविध एव । तस्य पुरुषविधतामन्वयं पुरुषविधः । तस्य श्रद्धैव शिरः । ऋत दक्षिणः पक्षः । सत्यमुत्तर पक्षः । योग आत्मा । महः पुच्छं प्रतिष्ठा ।’ —तै. उ. 2।4।1

मनोमय कोश से अलग विज्ञानमय कोश है। मनोमय कोश विज्ञानमय कोश से आच्छादित है। यह विज्ञानमय है पुरुष के समान ही है। वैसा ही है जैसा मनोमय कोश। श्रद्धा ही इसका शिर है। ऋतु दक्षिण पक्ष और सत्य उत्तर पक्ष है। योग उसकी आत्मा है। महत्त्व में उसकी पुच्छ प्रतिष्ठा है।

‘तस्माद्वा एतस्माद्विज्ञानमयादन्योऽन्तर आत्मानन्दमयः तेनैष पूर्णः । स वा एष पुरुषविध एव । तस्य पुरुषविधतामन्वयं पुरुषविधः । तस्य प्रियमेव शिरः । मोदो दक्षिणः पक्षः । प्रमोद उत्तरः पक्षः । आनन्द आत्मा । ब्रह्म पुच्छं प्रतिष्ठा ।’ —तै. उ. 2।5।1

विज्ञानमय कोश से पृथक् किन्तु उसी के अभ्यन्तर आनन्दमय कोश है। विज्ञानमय कोश आनन्दमय कोश से परिपूर्ण है। यह भी पुरुष के ही समान है। वैसा ही है जैसा विज्ञानमय कोश। प्रिय ही उसका शिर है। मोद (भीतरी आनन्द) उसका दक्षिण पक्ष और प्रमोद (बाहरी आनन्द) उत्तर पक्ष है। आनन्द उसकी आत्मा है। ब्रह्म में उसकी पुच्छ प्रतिष्ठा है।

पंचदशी के तृतीय प्रकरण में 3, 5, 6, 7 और 9 वे श्लोकों में पांच कोषों का विवरण इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है।

पितृभुक्तान्नजाद्वीर्याज्जातोऽन्नेनैव वर्धते । देहः सोऽन्नमयो नात्मा प्राक् चोर्ध्व तद्भवतः ।।

पिता के खाये अन्न से बनने वाले वीर्य द्वारा उत्पन्न काया अन्नमय कोश में। जनम मरण होते रहने के कारण यह काया आत्मा नहीं है। चेतन आत्मा उससे भिन्न है।

पूर्णो देहे बलं यच्छन्नक्षाणां यः प्रवर्तकः । वायुः प्राणमयो नासावात्मा चैतन्य वर्जनात् ।।

काया से भरा पूरा उसे बल देने वाला इन्द्रियों का प्रेरक प्राणमय कोश है। पर यह भी देह की तरह ही अचेतन होने के कारण आत्मा नहीं है—उससे भिन्न है।

पंचकोश क्या है? इनका परिचय देते हुए उपनिषद्कार कहते हैं।

अन्नकार्याणां कोशानां समूहोऽन्नमयकोश इत्युच्यते । प्राणादिचतुर्दशवायुभेदा अन्नमयकोशे यदा वतन्ते तदा प्राणमयकोश इत्युच्यते । एतत्कोशद्वयसंसक्तं मन आदि चतुर्द शकरणैरात्मा शब्दादिविषय संकल्पादिधर्मान् यदा करोति तदा मनोमय कोश इत्युच्यते । एतत्कोशत्रयसंसक्त तद्गतविशेषज्ञो यदो भासते तदा विज्ञानमयकोश इत्युच्यटे। एतत्कोशचतुष्टयसंसक्त स्वाकारणाज्ञाने वटकणिकायामिव वृक्षो यदा वर्तते तदा आनन्दमयकोश इत्युच्यते । —सर्व सारोपनिषद्

अन्न के द्वारा उत्पन्न होने वाले कोशों के समूह इस प्रत्यक्ष शरीर को अन्नमय कोश कहते हैं। प्राण सहित चौदह तत्वों का समूह प्राणमय कोश कहलाता है। इन दोनों कोशों के भीतर इन्द्रियों तथा मन का समूह मनोमय कोश कहलाता है। बुद्धि और विवेक वाली भूमिका विज्ञानमय की है। इन सब कलेवरों के भीतर आत्मा का स्वाभाविक स्वरूप और स्थान आनन्दमय कोश कहलाता है।

इस प्रकार मानवी चेतना को पांच भागों में विभक्त किया गया है। इस विभाजन को पांच कोश कहा जाता है। अन्नमय कोश का अर्थ है इन्द्रिय चेतना। प्राणमय कोश अर्थात् जीवनी शक्ति। मनोमय कोश विचार बुद्धि। विज्ञानमय कोश अचेतन सत्ता एवं भाव प्रवाह। आनन्दमय कोश-आत्म बोध-आत्म जागृति।

प्राणियों का स्तर इन चेतनात्मक परतों के अनुरूप ही विकसित होता है।

गायत्री की उच्च स्तरीय साधना इन पांच कोशों का अनावरण करने उन्हें जागृत करने के लिए ही की जाती है। इस उच्च स्तरीय साधना की ओर इंगित करने लिए गायत्री का अलंकारिक स्वरूप पांच मुख वाला बनाया गया है। इस चित्रण में सूक्ष्म शरीर के पांच कोशों की प्रमुख क्षमता को जागृत करने और इस महाविज्ञान का समुचित लाभ उठाने का संकेत है।

इन कोशों के माध्यम से व्यक्तित्व की समृद्धियों और विभूतियों से सुसज्जित कर सकने वाली दिव्य सम्पदायें उपलब्ध की जा सकती हैं। चेतना क्षेत्र में कुबेर जैसा सुसम्पन्न बना जा सकता है। कोश का एक अर्थ आवरण एवं पर्दा भी होता है। परतें उतारते—आवरण हटाते चलने पर वस्तु का असली स्वरूप सामने आ जाता है। पंचकोशों के जागरण से अनावरण से कषाय कल्मषों के वे अवरोध हटते हैं जिनके कारण जीवात्मा को अपने ईश्वर प्रदत्त उत्तराधिकार से वंचित रह कर दुर्दशाग्रस्त परिस्थितियों में गुजारा करना पड़ता है।

पांच कोशों के विभाजन को तीन के वर्गीकरण में भी प्रस्तुत किया गया है। स्थूल, सूक्ष्म और कारण यह तीन शरीर बताये गये हैं। उन्हें त्रिपदा गायत्री कहा जाता है। स्थूल शरीर में अन्नमय और प्राणमय कोश आते हैं। पंच तत्वों और पांच प्राणों का इसमें समावेश है। सूक्ष्म शरीर में मनोमय कोश और विज्ञानमय कोश सन्निहित हैं। इन दोनों को चेतन मस्तिष्क और अचेतन मानस कह सकते हैं, कारण शरीर में आनन्दमय कोश आता है। विज्ञजनों ने इस विवेचन में यत्किंचित् मतभेद भी व्यक्त किया है, पर वस्तुस्थिति जहां की तहां रहती है।

पांच कोशों का तत्व दर्शन

अन्नमय कोश का अर्थ है इन्द्रिय चेतना, प्राणमय कोश अर्थात् जीवनी शक्ति, मनोमय कोश अर्थात् विचार बुद्धि, विज्ञानमय कोश अर्थात् भावप्रवाह आनन्दमय कोश अर्थात् आत्म बोध स्वरूप में स्थिति। यह पांच चेतना स्तर है। निम्न स्तर के प्राणी इनमें निम्न भूमिका में पड़े रहते हैं। कृमि कीटकों की चेतना इन्द्रियों की प्रेरणा के इर्द-गिर्द अपना चिंतन सीमित रखती है। वे शरीर की जीवनी शक्ति मात्र से जीवित रहते हैं। संकल्प बल उनके जीवन मरण में सहायक नहीं होता। मनुष्य की जी जिविण इस शरीर के अशक्त असमर्थ होने पर भी जीवित रख सकती है, पर निम्न वर्ग में प्राणी मात्र सर्दी गर्मी बढ़ने जैसे ऋतु प्रभावों से प्रभावित हो कर अपना प्रभग त्याग देते हैं उन्हें जीवन संघर्ष के अवरोध में पड़ने की इच्छा नहीं होती। पेट और प्रजनन मात्र के लिए जीवित रहने वाले निम्नस्तरीय प्राणी अन्नमय कोश तक ही विकसित हो पाये यह नहीं कहा जा सकता, मनुष्यों में भी कितने ही इस स्तर के पाए जाते हैं। वे अपने को परिस्थितियों के प्रवाह में जिस जिस दिशा में उड़ते रहने वाला तिनका भर मानते हैं। उनकी अंतःचेतना कोई ऊंची प्रेरणा या दिशा नहीं दे पाती वे इन्द्रिय उत्तेजना से प्रेरित होकर ही विविध कर्म करते हैं। भूख लगती है तो रोटी कमाते या खाते हैं। कामोत्तेजना से विवश होकर रति कर्म का रास्ता ढूंढ़ते हैं। सुख की परिभाषा उनके लिए स्वादिष्ट भोजन, कामीय भोग, श्रम से बचने की सुविधा आदि भी होती है। भले उसे चाहे जो कहा जाय।

प्राणमय कोश की क्षमता जीवनी शक्ति के रूप में प्रकट होती है। जीवित रहने की सुदृढ़ और सुरिवर इच्छा शक्ति के रूप में देखी जा सकती है। मनस्वी, ओजस्वी और तेजस्वी व्यक्तित्व ही विभिन्न क्षेत्रों में सफलताएं प्राप्त करता है। इसके विपरीत दीन हीन भयभीत, शंकाशील, निराश, खिन्न, हतप्रभ व्यक्ति अपने इसी दोष के कारण उपेक्षित, तिरस्कृत एवं उपहासास्पद बने रहते हैं। उत्साह में साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा रहने वाली कर्मनिष्ठा का जहां अभाव होगा वहां अवनति और अवगति के अतिरिक्त और कुछ रहेगा ही नहीं।

शौर्य साहस को श्रम, निष्ठा, तत्परता, तन्मयता और अदम्य उत्साह के रूप में देखा जाता है। कायर और भयभीत व्यक्तियों से कुछ करते धरते नहीं बनता। जो करते हैं वह आधा अधूरा और भौंडा और अव्यवस्थित होता है। पेट्रोल के अभाव में मोटर खय खय करके रह जाती है। तेल के अपने सामने पड़े कार्य को रोता झींकता पूरा पूरा करने का कुछ प्रयत्न करता है पर जीवट के अभाव में वह आधा अधूरा और काना कुबड़ा ही बनकर रह जाता है।

डाकू से लेकर सिद्ध पुरुषों तक, समाज-सेवियों से लेकर राजनेताओं तक हर किसी को अपने प्रयत्न में सफल होने के लिये जीवट की आवश्यकता पड़ती है। इसी की व्याख्या अलभ्य उत्साह, अविचल धैर्य और मर मिटने के कटिबद्ध शौर्य के रूप में देखी जाती है। प्राणमय कोश इसी शक्ति का भान्डागार है। सिंह जैसे पशु और गरुड़ जैसे पक्षी यों हिंसक होने के कारण मानवी गरिमा से बहुत पिछड़े हुए हैं तो भी उन्हें प्राणवान कह सकते हैं। शौर्य, साहस, एवं पुरुषार्थ के कारण ही वे अपने अपने वर्ग के अधिपति बने हुए हैं। यों शरीर बल की दृष्टि से उनकी तुलना में अन्य कई प्राणी अधिक समर्थ स्थिति के भी मौजूद हैं।

मनोमय कोश का अर्थ है कि विचारशीलता विवेक बुद्धि। यह तत्व जिसमें जितना सजग होगा उसे उसी स्तर का मनस्वी या मनोबल सम्पन्न कहा जायगा। यों मन हर जीवित प्राणी का होता है। कीट पतंग भी उससे रहित नहीं है। पर मनोमय कोष के व्याख्याकारों ने उसे दूरदर्शिता तर्क प्रखरता एवं विवेकशीलता के रूप में विस्तार पूर्वक समझाया है। मन की स्थिति हवा की तरह है यह दिशा विशेष तक सीमित न रह कर स्वेच्छाचारी वन्य पशु की तरह किधर भी उछलता-कूदता है। पक्षियों की तरह किसी भी दिशा में चल पड़ता है। इसे दिशा देना, चिन्तन को अनुपयोगी प्रवाह में बहने से बचा कर उपयुक्त मार्ग पर सुनियोजित करना मनस्वी होने का प्रधान चिन्ह है।

मनोनिग्रह-मनोजय इसी का नाम है। जंगली हाथी को पकड़ कर अनुशासित बनाने का काम तो कठिन है, पर इसकी उपयोगिता अत्यधिक है। जंगली हाथी फसलें उजाड़ते और झोंपड़ियां तोड़ते हैं और भूखे प्यासे अनिश्चित स्थिति में भटकते हैं। किन्तु पालतू बन जाने पर उनकी जीवनचर्या भी सुनिश्चित हो जाती है और साथ ही वे अपने मालिक का भी बहुत हित साधन करते हैं। सधे हुए मन की तुलना पालतू हाथी से की जा सकती है और अनियंत्रित मन को उन्मत्त जंगली हाथी कहा जा सकता है। विज्ञानमय कोश को सामान्य भाषा में भावना प्रवाह कह सकते हैं। यह चेतना की गहराई में अवस्थित अन्तःकरण से सम्बन्धित है। विचार शक्ति से भावशक्ति कहीं गहरी है, साथ ही उसकी क्षमता एवं प्रेरणा भी अत्यधिक सशक्त है। मनुष्य विचारशील ही नहीं संवेदनशील भी है। यह संवेदनायें ही उत्कट रूनश की आकांक्षायें उत्पन्न करती हैं और उन्हीं से प्रेरित हो कर मनुष्य बेचैन विचलित हो उठता है।, जब कि विचार प्रवाह मात्र मस्तिष्कीय हलचल भी पैदा कर पाता है। देव और दैत्य का वर्गीकरण इस भावचेतना के उत्तर को देखकर किया जाता है। आसुरी प्रकृति के व्यक्ति आत्मश्लाधर, दर्प, आतंक-निष्ठुरता जैसी उद्धत आकांक्षाओं में डूबे रहते हैं। उन्हें अपना गौरव दूसरों पर रोब जमाने के लिए क्रूर कर्म करने में प्रतीत होता है। ऐसे लोग यदि साहस हीन होते हैं तो विलासी, समुही, छत्री, आकर्षक कपटमयी बन कर दूसरों की तुलना में अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के ताने बाने बुनने लगते हैं। असुरता की परिभाषा इस लोभ, मोह और अहंकार के साथ जुड़े व्यक्तिपाद उद्दत्तता के रूप में की जा सकती है। विज्ञानमय कोष की साधना मनुष्य को दयालु, उदार, सज्जन, सुहृदय, संयमी एवं शालीन बनाती है। उसे दूसरों को दुखी देखकर स्वयं को उस स्थिति स्थिति में रखकर व्यथित होने की सहानुभूति का अभ्यास होता है। अपनी उपलब्धियों का उपभोग एकाकी करा सकना उसके लिए संभव ही नहीं होता। बांट कर खाओ उनकी सहज प्रकृति बन जाती है। जिओ और जीने दो की उदार दृष्टि उन्हें इस बात के लिए विवश करती है कि अपनी उन्नति और समृद्धि की तरह ही दूसरों को समुन्नत बनाने के लिए भी प्रयत्न किये जायं। अपने ऊपर खर्च होने वाले श्रम, समय, चिंतन, प्रभाव एवं धन की मात्रा उन्हें न्यूनतम स्तर तक ले जानी पड़ती है ताकि दूसरों के लिए अधिक से अधिक कर गुजरने के लिए कुछ कहने लायक बचत हो सके। वासना और तृष्णा पर संयम करके सादगी भरी मितव्ययी दिनचर्या बनाना और अपनी उपलब्धियों से संसार में संन्यास पीड़ा लक्ष पतन का भार हटाना ही विज्ञानमय कोश के परिष्कार की भाव साधना है। किसका विज्ञानमय कोश किस स्तर का है इसका पता लगाने के लिए इसी कसौटी को सक्रिय करना पड़ता है।

आनन्दमय कोश का विकास यह देख कर परखा जा सकता है कि मनुष्य क्षुब्ध, उद्विग्न, चिन्तित, खिन्न, रुष्ट, असंतुष्ट रहता है अथवा हंसती, मुस्कराती, हलकी फुलकी, सुखी, सन्तुष्ट जिन्दगी जीता है। मोटी मान्यता यह है कि वस्तुओं व्यक्तियों अथवा परिस्थितियों के कारण मनुष्य सुखी दुखी रहते हैं पर गहराई से विचार करने पर यह मान्यता सर्वथा निरर्थक सिद्ध होती है। एक ही बात पर सोचने के अनेक दृष्टिकोण होते हैं। सोचने का तरीका किस स्तर का अपनाया गया—यही है मनुष्य के खिन्न अथवा प्रसन्न रहने का कारण।

अपने स्वरूप का, संसार की वास्तविकता का बोध होने पर सर्वत्र आनन्द ही आनन्द है। दुख तो अपने आपे को भूल जाने का, संसार को कुछ से कुछ समझ बैठने के अज्ञान का है। यह अज्ञान ही भव बन्धन है, इसे ही माया कहते हैं। प्राणी विविध नाप इसी नरक की आग में जलने से सहता है। सच्चिदानन्द परमात्मा के इस सुरभ्य नन्दन वन जैसे उद्यान में दुख का एक कण भी नहीं, दुखी तो हम केवल अपने दृष्टि दोष के कारण वस्तु, व्यक्ति और परिस्थिति का विकृत रूप देख कर ही डरते और भयभीत होते हैं। यदि यह दृष्टि दोष सुधर जाय तो मिथ्या आभास के कारण उत्पन्न हुई भ्रान्ति का निवारण होने में देर न लगे और आत्मा की निरन्तर आनन्द उल्लास से परिपूर्ण परितृप्त रहने की स्थिति बनी रहे।

इस तत्व दर्शन को समझने वाला व्यक्ति जादूगर की कलाकारिता को देखकर हंसता रहता है और अपना पेट फाड़ने से लेकर हाथ में से रुपया बरसाने तक कि चित्र विचित्र खेलों को तटस्थ भाव से देखता रहता है। कर्म प्राणी का कर्तव्य है। कर्त्तव्य को दोष न लगे इसलिए वह पूर्ण उत्तरदायी और कर्मनिष्ठ की तरह अपना हर कार्य पूरी कुशलता, तन्मयता एवं कलाकारिता के साथ सम्पन्न करता है और अपने उत्कृष्ट चिन्तन एवं आदर्श कर्तृत्व मात्र से सन्तुष्ट तथा प्रसन्न बना रहता है। उसे आनन्दित रहने के लिए किसी बाहरी वस्तु व्यक्ति या परिस्थिति की आवश्यकता नहीं पड़ती। कोई घटना-क्रम कोई परिवर्तन उसकी स्थिर आनन्दानुभूति में व्यवधान डाल सकने में समर्थ नहीं होता। उसे अनुकूल प्रतिकूल हर स्थिति में हंसता, मुसकराता—हलका फुलका देखा जा सकता है। नाटक के पात्रों की तरह वह अपनी भूमिका भर निवाहता रहता है। इतने पर भी उसे पानी में रहने वाली नाव की तरह—कीचड़ में उसे कमल की तरह अपनी स्वतन्त्र स्थिति बनाये रहने में कोई कठिनाई नहीं होती।

पांच कोशों की भावनात्मक पृष्ठ भूमि यही है। इन्हीं कसौटियों पर कस कर किसी व्यक्ति की आन्तरिक स्थिति के बारे में जाना जा सकता है कि वह आत्मिक दृष्टि से कितना गिरा पिछड़ा है अथवा उठने विकसित होने में सफल हुआ है।

पंचकोशों की साधना में जप, तप, ध्यान, प्राणायाम, बंध, मुद्रा आदि का प्रयोग करना पड़ता है। इसके राजयोग, हठयोग, लययोग, प्राणयोग, ऋतुयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग, तत्त्वयोग आदि 84 योगों के आधार पर अनेकानेक व्यायाम क्रम बताए गए हैं। साधक उन्हें अपनी परम्परा एवं पात्रता के अनुसार अपनाते हैं इन सब साधनाओं में ज्ञान और कर्म से सम्मिश्रित तत्त्वयोग की साधना है जिसमें स्वाध्याय, सत्संग और चिन्तन-मनन के माध्यम से आत्म-शोधन करते हुए आदर्श कर्मनिष्ठा का अवलम्बन लिया जाता है और सरलतापूर्वक लक्ष्यपूर्ति की दिशा में आगे बढ़ा जाता है।
<<   |   <  | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118