आधुनिक भोगवाद को उपयोगितावाद भी कहा जा सकता है। उपयोगितावाद केवल ऐन्द्रिक सुख को प्रधानता देता है और कहता है कि यही सुख प्रत्यक्ष और तर्क संगत है। चूंकि सुख मनुष्य का अन्तिम लक्ष्य है, इसलिये ऐसा कोई भी साधन जो सुख की प्राप्ति में सहायक हो उसे प्राप्त करने के लिए व्यक्ति स्वच्छंद है। इस स्वच्छंदता का दुष्परिणाम जनसंख्या वृद्धि और नैतिक स्तर में आयी गिरावट के रूप में देखा जा सकता है।
उपयोगितावाद प्राणिमात्र के प्रति कर्तव्य और सहानुभूति के भाव को नहीं मानता। उनका कहना है कि किसी भी नियम का प्रतिपादन प्रकृति के गुण और स्वभाव के अनुसार होना चाहिये। इस सिद्धान्त के जनक जौन स्टुअर्ट मिल का कहना है कि जो काम जितना आनन्द की ओर ले जाता है, उतना ही अच्छा है तथा जो आनन्द से जितनी विपरीत दिशा में ले जाता है, उतना ही बुरा है।
आज का पाश्चात्य जगत् जान स्टुअर्ट मिल के ‘‘उपयोगितावाद सिद्धान्त’’ पर चल रहा है। उपयोगितावाद केवल ऐन्द्रिक सुख को प्रधानता देता है और कहता है कि यही सुख प्रत्यक्ष और तर्कसंगत है, चूंकि सुख मनुष्य का अन्तिम लक्ष्य है, इसलिये ऐसा कोई भी साधन जो सुख की प्राप्ति में सहायक हो उसे प्राप्त करने के लिये व्यक्ति स्वच्छन्द है।
उपयोगितावाद प्राणि-मात्र के प्रति कर्तव्य और सहानुभूति भाव को नहीं मानता। उनका कहना है कि ‘‘किसी भी नियम का प्रतिपादन प्रकृति के गुण और स्वभाव के अनुसार होना चाहिये। प्रकृति का सिद्धान्त यह है कि बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है। बड़े वृक्ष छोटे पौधे को पनपने नहीं देते। बड़े जीव छोटे जीवों की सत्ता और स्वतन्त्रता का अपहरण करते रहते हैं, उन्हें मार कर खाते रहते हैं। यही सिद्धान्त सभी पर लागू होता है अर्थात् सुख की पूर्ति के लिये स्वच्छंदता ही नहीं शक्तिवाद भी सही है।’’
वास्तविकता यह है कि—प्रकृति का यह नियम सनातन नहीं अपवाद है अधिकांश प्रकृति परोपकार के नियम का अनुसरण करती है। वृक्ष अपने फल आप सेवन नहीं करते, नदियां औरों के लिये बहती हैं, सूर्य भ्रमण करता है, जिससे सर्वत्र शक्ति, चेतनता विकसित होती रहे। ‘‘जियो और जीने दो—प्रयत्न करो और शाश्वत सुख की प्राप्ति करो—उसके लिये यदि भौतिक जीवन को तपोमय बनाना पड़े तो बनाना चाहिये।’’ यह विश्व का नैसर्गिक नियम है और सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति उसी पर आधारित है। इसी कारण भारतीय जीवन में आज भी अपेक्षाकृत अधिक शांति और सौहार्द्र बना हुआ है।
उपयोगितावाद सिद्धान्त के मन्त्रदृष्टा स्टुअर्ट मिल लिखते हैं—‘‘जो काम जितना आनन्द की ओर ले जाता है, उतना ही अच्छा है तथा जो आनन्द से जितनी विपरीत दिशा में ले जाता है, उतना ही बुरा है। आनन्द से अर्थात् सुख तथा कष्ट का न होना। सार्वजनिक प्रसन्नता या सुख बढ़ाने के लिये हम बाधित नहीं।’’
उपयोगितावाद का कहना है कि ‘‘पुण्य की कामना ही नहीं करनी चाहिये।’’ इस मान्यता ने मनुष्य-जीवन के आदर्श को ही उलट-पुलट कर दिया है। जबकि जीवन का वास्तविक लक्ष्य है—प्रेम, दया, भ्रातृ-भाव व आध्यात्मिकता पर तथाकथित उपयोगितावाद में इनका कोई उल्लेख नहीं भौतिकतावादी सुख की ही प्रधानता रह गई है।
परिणाम—मशीन और वासना की भीड़ का अस्तित्व समाप्त हो गया। चारों ओर भयंकर प्रतिद्वन्द्विता—सुखों में ओरों को पछाड़ने की अन्धी दौड़ चल रही है। धन की अदम्य लालसा ही जीवन का प्रधान लक्ष्य बन गया है, उसके नीचे सेवा, सद्भावना, त्याग और भलमनसाहत का जीवन दबा पड़ा है।
कहीं भी शांति दृष्टिगोचर नहीं हो रही। ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी आदि योरोपीय समृद्ध देशों में ही नहीं संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे धनी देश में भी 2 सेकिंड पर एक अपराध अर्थात् प्रतिदिन 10800 अपराध होते हैं। भारतवर्ष में जहां पाश्चात्य जीवन की हलकी लहर सी आई है, उसका कुप्रभाव स्वराष्ट्र-मन्त्रालय के यह आंकड़े बताने लगे हैं। सन् 1959 में हस्तक्षेप योग्य 6 लाख 20 हजार 326 अपराध भारतवर्ष में हुए, यह संख्या सन् 1964 में 7 लाख 59 हजार 13 तक पहुंची। 1965 में जुलाई, अगस्त, सितम्बर कुल तीन महीनों में 1 लाख 58 हजार अपराध हुए। बड़े आश्चर्य की बात यह है कि उत्तर-प्रदेश में शिक्षा प्रसार के साथ-साथ युवक-युवतियां नये-नये अपराधों की ओर प्रेरित हो रहे हैं। 1962 में उत्तर-प्रदेश में प्रति एक लाख व्यक्ति के पीछे पुलिस के ध्यान देने 17.3 अपराध सुशिक्षितों द्वारा किये गये। शिक्षितों में अपराधी मनोवृत्ति का बढ़ना मानवीय सभ्यता पर कलंक तो है पर उसे उपयोगितावाद और भौतिक सिद्धान्तों की ही देन मानना पड़ेगा।
इसका प्रत्यक्ष प्रमाण ‘हिप्पी दर्शन’ है, जो अब से कुल 35 ही वर्ष पूर्व अमेरिका में आविर्भूत हुआ। 15 से 20 वर्ष तक की कच्ची आयु के युवकों और युवतियों ने आज के जटिल और भौतिकवादी जीवन से ऊबकर एक नये दर्शन को जन्म दिया। जिसे न तो पुरातन संस्कृति कह सकते हैं, न अधुनातन। दोनों के बीच की एक दिग्भ्रान्त दिशा है, यह हिप्पी दर्शन। जिसका तात्पर्य है समाज की वर्तमान सभी मान्यताओं को तोड़-मरोड़ कर चकनाचूर कर देना।
यह अमेरिका के लिये ही नहीं, सारे सभ्य जगत के लिये एक चेतावनी है कि यदि भौतिक दिशा में इसी तरह कदम बढ़ते रहे और अध्यात्मिक के सच्चे स्वरूप को जो अन्तःकरण से प्रस्फुटित होता है न पहचाना, माना और जाना गया तो ऐसे-ऐसे अनेक दर्शन उठ पड़ेंगे और तब मानवीय सभ्यता का दृश्य ही कुछ और होगा।
भोगवाद का विद्रोह विस्फोट
हिप्पियों की जीवनचर्या अथवा कार्य पद्धति कोई सुख-सुविधा भरी नहीं है। समाज का सहयोग भी प्राप्त नहीं होता और न कमाई के प्रचुर आर्थिक स्रोत ही उनके पास हैं। निरुद्देश्य और असामाजिक रीति नीति जहां उन्हें उपहासास्पद बनाती है वहां सहानुभूति से भी वंचित करती है। ऐसा कष्ट साध्य मार्ग वे किसी भौतिक सुख-सुविधा के लिये चुन रहे हों, ऐसा नहीं लगता। धूर्तों जैसे छल-प्रपंच भी उन के क्रिया-कलाप में सम्मिलित नहीं हैं भरी जवानी में इस प्रकार अवधूतों जैसे आचरण में इतने प्रतिभाशाली जीवन क्यों लग पड़े, इस तथ्य पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाना चाहिये। सिरफिरों की सनक कहकर सस्ता समाधान नहीं ढूंढ़ा जाना चाहिए।
हिप्पीवाद का आरम्भ थोड़े से वीटल किशोरों द्वारा हुआ। उन्होंने सड़कों पर गीत गाकर समाजगत कुत्साओं और व्यक्तिगत कुण्ठाओं पर करारे व्यंग्य किये और कहा, ‘‘स्वस्थ मनुष्यता पर दुष्ट नियन्त्रण इतने अधिक हावी हो गये हैं कि जो यथार्थ है उसे ढूंढ़ निकालना अब सम्भव नहीं रहा। अस्तु हम इसे आदि से अन्त तक अस्वीकार करेंगे ताकि मनुष्यता को नये सिरे से उभरने का अवसर मिले।’’
प्रचलित परम्पराओं के विरुद्ध सुलगती आग ने इस प्रकार एक नये किस्म के विद्रोह को जन्म दिया। वह तेजी से फैला। योरोप, अमेरिका से आगे बढ़कर वह ऐसा अन्यत्र विश्व के हर कोने में फैला और अब लाखों व्यक्ति हिप्पियों के रूप में अवधूत गतिविधियां अपनाये हुए विचरण करते दीखते हैं। यह एक अनोखे किस्म का विद्रोह है। दूसरे आन्दोलनों में दबाव रहता है और विपक्ष की गतिविधियों को बदलने के लिए विवशता उत्पन्न की जाती है। पर इस आन्दोलन में व्यक्ति अपने आपको विद्रोही के रूप में प्रस्तुत करता है। स्वयं कष्ट सहता है और सर्व साधारण का ध्यान यह विचार करने के लिये आकर्षित करता है कि उनका विद्रोह सकारण है या नहीं? वीटल इसकी तुलना गांधीजी के सविनय अवज्ञा आन्दोलन से करते हैं।
हिप्पी वर्ग का कहना है कि आज शब्दों की फेर-बदल ने आदिमकाल की दुष्ट पशुता पर ऐसे रंग-बिरंगे सैद्धांतिक आवरण चढ़ा दिये हैं जिनके कारण साधारण बुद्धि के लिए उचित-अनुचित का भेद कर सकना भी सम्भव नहीं रहा। ऐसी दशा में कुछ खास प्रचलनों में सुधार कर देने से काम चलने वाला नहीं है। सुधार आमूलचूल होना चाहिये। यही हिप्पीवाद का मूल आधार है। वे धर्म के नाम पर भूतकाल के वीभत्स रक्तपात को राजनैतिक शासन के नाम पर गांधीवाद से लेकर साम्यवाद तक के लिए बरती गई क्रूरताओं को प्रस्तुत करते हैं और कहते हैं प्रजातन्त्र के परदे में चल रहा भ्रष्टाचार इससे भी गया बीता है। सामाजिक परम्पराओं में अभी भी असमानता और शोषण को पूरी मान्यता मिली हुई है। इन प्रचलित मूल्यों के रहते हुए मानवता का सही रूप में उभर सकना सम्भव नहीं। विद्रोह के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। इस मान्यता के अनुसार वे विद्रोह का आरम्भ पनपती समाज विरोधी गतिविधियों से आरंभ करते हैं और सोचते हैं कि यह बीज अन्ततः एक ऐसे समग्र विद्रोह के रूप में परिणत होगा जिनके द्वारा खण्ड-2 सुधार की अपेक्षा समग्र नव-निर्माण सम्भव हो सके।
विचारशील वर्ग द्वारा पूर्ण रूप से न सही आंशिक रूप से यह स्वीकारा गया है कि विज्ञान, बुद्धिवाद और व्यवसाय की वृद्धि के साथ अवांछनीयता की मात्रा बढ़ती ही गई है। दो महायुद्धों के समय जो छल-छद्म राजनैतिक स्तर पर सैन्य प्रयोजन के लिए अपनाये गये अब वे सर्व विदित हो गये हैं और जिस तरह सरकारों ने उस समय उन बातों को आवश्यक माना था उसी तरह जनता ने सामान्य जीवन में उन्हें आवश्यक मान लिया है। युद्धों में बर्बरता और छल-छद्मों का बोलबाला रहता है। विजयी ने जो भी तरीका अपनाया हो उस का दोष नहीं देखा जाता वरन् सफलता की सराहना की जाती है भले ही उसका आधार अवांछनीय ही क्यों न रहा हो। महायुद्धों ने इस युग के महान् धर्मोपदेशक का काम किया है। छुट-पुट लड़ाइयां भी देश देशों के बीच लड़ी जाती रही हैं। उनके साथ जुड़े हुए राजनैतिक दाव-पेचों और सैन्य चातुर्य को हर किसी ने समझा है और देखा है कि नीति-अनीति के पचड़े में कोई नहीं पड़ता। अपनी धींगा मस्ती को हर कोई सिद्धान्तों के आवरण में लपेटकर इस तरह प्रस्तुत करता है कि सत्य के असत्य और असत्य के सत्य कहने में कुछ कठिनाई अनुभव नहीं। समय ने यह सिखाया है कि सफलता का नाम ही सत्य है, फिर चाहे उसका आधार कुछ भी क्यों न रहे।
युद्ध नीति ने अब पूरी तरह व्यक्तिगत जीवन नीति का प्रामाणिक स्वरूप प्राप्त कर लिया है। हर व्यक्ति अपने निजी स्वार्थ, सुख, विनोद और वर्चस्व के लिए कुछ भी कर गुजरने को तत्पर है। मनुष्यों का समूह ही समाज है। लोग जिस स्तर के होते हैं समाज भी उसी स्तर का बन जाता है। हिप्पी वर्ग के अनुसार यही आज की ऐसी असह्य स्थिति है जिसे बदला न गया तो मनुष्य की पिशाच प्रवृत्तियां घटेगी नहीं बढ़ती ही जायेंगी।
हिप्पी वर्ग के इस मूल प्रतिपादन से निष्पक्ष विचारकता बहुत हद तक सहमत है। मतभेद का प्रधान मुद्दा यह है कि भ्रष्टता को महा भ्रष्टता से नहीं रोका जा सकता। विद्रोही को भी अपनी कुछ मान्यता और आस्था चाहिए। वह क्या चाहता है उसका लक्ष्य किस प्रकार के किस निर्माण का है इसका स्वरूप भी स्पष्ट करना चाहिये। विरोध के लिए विरोध अपूर्ण है। अमान्य को अस्वीकार तो किया जा सकता है पर साथ ही अपना पक्ष भी बताया जाना चाहिए और जो स्वरूप अपने प्रतिपादन का हो उसके अनुरूप अपना आचरण ढालना चाहिए। तभी दोनों के नवीन प्रतिपादन की अच्छाई-बुराई समझने का अवसर मिलेगा और अपनाने न अपनाने का निर्णय कर सकना संभव होगा। इस दृष्टि से हिप्पी आन्दोलन अपूर्ण एवं एकांगी है। उसमें निषेध है पर प्रतिपादन नहीं। निषेध भी कुछ विचित्र प्रकार का। समस्त प्रचलनों से इनकार करना जीवन क्रम को निराधार और निरुद्देश्य बना देता है यह ऐसा कदम है जिससे पूर्व प्रचलित अवांछनीय परम्पराओं से अधिक अस्त-व्यस्तता उत्पन्न हो सकती है। इस अपूर्णता के कारण ही हिप्पी आन्दोलन का मूल आधार विचारोत्तेजक होते हुए भी उसे वैसा समर्थन नहीं मिल सका जैसा मिलना चाहिये। कीचड़ से कीचड़ धोने की तरह ही हिप्पीवाद का यह प्रयास है कि अवांछनीयता का निराकरण अस्त-व्यस्तता द्वारा किया जाना।
धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक और दार्शनिक बन्धनों का जाल-जंजाल मनुष्य की मूलभूत विशेषता को नष्ट-भ्रष्ट किये दे रहा है। यह सिद्ध करते हुए पाल सत्रि ने सर्वतन्त्र स्वतन्त्रता की आवश्यकता की मांग की है। दार्शनिक गिंस वर्ग ने वांछनीयता के आवरण से ढके हुए अवांछनीय प्रतिबन्धों की भर्त्सना की है और कहा है कि अवैज्ञानिक प्रतिबन्धों से मनुष्य सदाचारी नहीं पाखण्डी ही बन सकता है। टामस लियरी ने सलाह दी है कि विचारशील लोग दुनिया का साथ छोड़ दें। वर्तमान ढर्रे की हर प्रथा से इन्कार करें ताकि विद्रोहियों का एक विशेष वर्ग खड़ा हो सके। कामू ने प्रचलित संस्कृति को असभ्यों की सभ्यता नाम दिया है।
यह बन्धन विद्रोह विभिन्न क्षेत्रों में फूटा है। एक्शन पेंटिंग के जन्मदाता पिकासो और जेक्सन पालाक ने चित्रकला के प्रचलित मूल्यों को उठाकर ताक पर रख दिया है। रंगमंच पर आफ ब्राडवे शैली ने पुरानी अभिनय परम्परा को उपहासास्पद बताया है। आज हैरिसन ने संगीत की ऐसी स्वतन्त्र शैली विकसित की है जिसमें गायन और वादन अनाथालय के छात्रों की प्रार्थना सभा जैसा लगता है। इन बुद्धिजीवियों के नेतृत्व ने परम्परा विरोधी विद्रोह को एक व्यवस्थित दर्शन दिया है। कहते हैं हिप्पीवाद उसी चिन्तन की देन है। विद्रोह के स्वर ऊंचे करते हुए वे कहते हैं—राजनीतिज्ञों, धर्मगुरुओं, समाज के ठेकेदारों, साहित्यकारों, कलाकारों, धनाधीशों बुद्धिवादियों और सुव्यवस्था के ठेकेदारों पर अब विश्वास नहीं किया जा सकता। ये वर्ग निरन्तर आज तक जनता के साथ विश्वासघात करते रहे हैं। मानवता और लोक कल्याण की दुहाई देकर ये लोग खोखली शब्दावली से हमें यथार्थता से विरत कर ऐसे कल्पना लोक में उड़ाते रहे हैं जिसमें भ्रमजाल में उलझे रहने के अतिरिक्त और किसी को कुछ नहीं मिला।
हिप्पी, शंकर को एक विरोधी हिप्पी के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं और बुद्ध को अपनी बिरादरी का मानते हैं और पाण्डव जाति को भी। उनका कथन है देव समाज के पाखण्ड से रुष्ट होकर शिव ने श्मशान का निवास, भस्म का परिधान, सर्पों का साथी बनाया था और नशे पीकर अपने विद्रोह की ज्वाला पर नियन्त्रण करते थे एक बार तो वे ताण्डव नृत्य करके पुरानी दुनिया को जला देने पर भी उतारू हो गये। बुद्ध ने पुत्र, पत्नी और राजपाट का त्याग कर यह सिद्ध किया था कि मनुष्य को समाज का कोई भी बंधन स्थायी रूप से स्वीकार नहीं करना चाहिए। पांच पांडवों ने एक ही सम्मिलित पत्नी से काम चलाया था और नारी के इस अधिकार को स्वीकार किया था कि एक ही समय उसका प्रणय व्यापार कई व्यक्तियों के साथ चलता रहे तो इसमें कुछ हर्ज नहीं।
निरंकुश भोगवाद की परिणति
इस स्थिति को निरंकुश भोगवाद की परिणति ही कहा जाना चाहिए। यह स्वाभाविक ही है किसी भी प्रवृत्ति में, दिशा में बुरी तरह डूबे रहने के बाद उससे विरति होगी। मीठा खाते खाते उससे भी जी ऊबने लगेगा और इसके उपरान्त भी यदि कोई मीठा खाने के लिए दबाव डाले, बाध्य करे तो विद्रोह करने का जी हो उठता है।
हिप्पीवाद, इसी निरंकुश और आत्यंतिक भौतिकता के प्रति संवेदनशील युवकों में जन्मा विद्रोह है। समाज में यह स्थिति आ पाना सम्भव नहीं है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति तो संवेदनशील होता नहीं और हुआ भी तो उस सीमा तक नहीं कि वह मान्य व्यवस्था से ही विद्रोह कर उठे।
फिर भी उसके दुष्परिणाम विभिन्न रूपों में जन्मते और उत्पन्न होते हैं। कामुकता, अश्लीलता, मुक्त यौनाचार और इसी तरह की उन्मुक्त दुष्प्रवृत्तियां निरंकुश भोगवाद के ही परिणाम हैं। इन दुष्प्रवृत्तियों के कारण कई समस्यायें भी उत्पन्न होना स्वाभाविक है। जन-संख्या की असामान्य वृद्धि उन्हीं समस्याओं में से एक है। लोग बिना सोचे समझे, आंखें मूंदकर बच्चे पैदा करते चले जा रहे हैं। बच्चे पहले भी पैदा होते थे पर 10 में से 9 बच्चे बीमारी, चिकित्सा साधनों के अभाव और अन्य कारणों से मर जाते थे। विज्ञान ने उन कारणों पर नियन्त्रण पा लिया है इसलिए अब 10 में से 9 बच्चे जीवित रहते हैं और मुश्किल से 1 बच्चा मरता है। इस प्रकार जन-संख्या वृद्धि के बढ़ते हुए दबाव से जीवनोपयोगी वस्तुओं का अभाव होने लगा है। निवास, अन्न, वस्त्र, शिक्षा, चिकित्सा, आजीविका, यातायात के साधनों के लिए किस बुरी तरह खींच-तान हो रही है, यह किसी से छिपा नहीं है। जिस चक्रवृद्धि क्रम से जनसंख्या बढ़ रही है उसके जो दुष्परिणाम निकट भविष्य में सामने आने वाले हैं उनकी कल्पना करके रोंगटे खड़े हो जाते हैं। विशेषज्ञों का अनुमान है कि अब से सौ वर्ष बाद, मनुष्यों की स्थिति मक्खी, मच्छरों जैसी हो जायेगी और वे, बेमौत काल के गाल में घुसते चले जायेंगे। जीवन निर्वाह के साधन समाप्त होने के कारण मनुष्यों को भी निर्वाह के हर क्षेत्र में गतिरोध दिखाई देगा और वे बरसाती कीड़ों की तरह चारों ओर रेंगते, गन्दगी फैलाते, मरते-खपते दिखाई पड़ेंगे।
जनसंख्या नियमन आज की खाद्य, शिक्षा, चिकित्सा, आजीविका एवं युद्ध वर्जन से भी बड़ी समस्या है। उस एक समस्या को मूल और अन्यों को पत्ते कहा जा सकता है। जड़ को सींचने, सम्भालने से काम चलेगा पत्ते पोतने से नहीं। जनसंख्या सीमित हो तो धरती के अनुदानों से प्रकृति सम्पदा से लाभान्वित रहा जा सकता है और विभिन्न प्रकार के टकरावों से बचा जा सकता है अस्तु यदि संसार के विचारशील लोग इस समस्या के—समाधान के विभिन्न उपाय सोच रहे हैं और विवेकवान वर्ग विभिन्न प्रयोग कर रहे हैं तो यह सराहनीय चेष्टा ही कही जायगी।
नैतिक, चारित्रिक और सांस्कृतिक संकटों ने इन दिनों समस्त मानव जाति को उद्विग्न एवं संत्रस्त कर रखा है। इस का कारण है मानवी दुर्बुद्धि-अदूरदर्शिता। दाम्पत्य-जीवन का उच्च-स्तरीय आनन्द लेते हुए ही जनसंख्या वृद्धि को रोका जा सकता है और वैज्ञानिक प्रगति से—संसार से दरिद्रता, रुग्णता, अशिक्षा एवं पिछड़ेपन को दूर किया जा सकता है। यदि मानवी दुर्बुद्धि को रोका जा सके और उसका स्थान सद्भावना को—विवेकशीलता को—मिल सके तो उलझी हुई गुत्थियां सुलझ सकती हैं।
माल्थस ने कहा था कि मनुष्य को पहले ही सद्बुद्धि से काम लेना चाहिये और जनसंख्या को इतना सीमित रखाना चाहिये कि ऐसी परिस्थिति ही उत्पन्न न होने पाये कि प्राकृतिक अवरोधों के कारण कष्ट उठाने पड़ें। उन्होंने जनसंख्या रोकने के दोनों ही उपाय बताये—(1) बुरे अवरोध—इसमें गर्भ क्षीण करना आपरेशन कराना एक ही स्त्री से बहुत व्यक्तियों द्वारा काम तुष्टि, छल्ले, लूप, गर्भ निरोधक औषधियां आदि। इन उपायों से देखने में भले ही लगता हो कि जनसंख्या वृद्धि का अनुपात क्रम हुआ पर उससे होने वाली हानियां समाज के लिए घातक होंगी जितनी जनसंख्या वृद्धि से भी तत्काल नहीं होगी।
ऐसी स्थिति में केवल—(2) नैतिक संयम ही उचित प्रतिबन्धक अवरोध हो सकता है। माल्थस ने इस पर बहुत जोर दिया है। इसमें ब्रह्मचारी रहना, देर से विवाह करना, सन्तानोत्पत्ति की भावना न रख नियन्त्रित जीवन बिताना आदि सम्मिलित हैं। आहार का संयम, अश्लील चित्रों और प्रसंगों से बचना आदि इसी के अन्तर्गत आते हैं। हमारे लिये उचित यही है कि हम आत्म-संयम का पालन करें और सन्तान की संख्या बढ़ने न दें।
यह किया जाय
इन दिनों प्रबुद्ध वर्ग में यह विचार दिन-दिन जोर पकड़ रहा है कि लोग अविवाहित जीवन व्यतीत करें—यदि विवाह भी करें तो सन्तानोत्पादन न करने का आरम्भ से ही निश्चय कर लें—जिनकी आर्थिक, बौद्धिक एवं शारीरिक क्षमता सन्तान को समुन्नत बनाने की है वे न्यूनतम संख्या में बच्चे पैदा करें। एक या दो पर्याप्त माने जाने चाहिए। यह विचार न केवल चिन्तन क्षेत्र में ही वरन् कार्यान्वित भी किये जा रहे हैं। इस दिशा में कई देश बहुत आगे हैं।
जापान क्षेत्रफल की दृष्टि से बहुत छोटा देश है। वहां के प्राकृतिक साधन भी स्वल्प हैं। इस वस्तुस्थिति से हर नागरिक परिचित है। वे जानते हैं कि यदि अनियन्त्रित सीमा में बच्चे पैदा किये जाने लगें तो वह छोटा-सा टापू पचास-चालीस वर्ष के भीतर ही टिड्डी दल की तरह मनुष्यों से भर जायेगा और वे बरसाती मक्खी, मच्छरों की तरह अभावग्रस्त होकर बेमौत मरेंगे। इस दयनीय दुर्दशा के खतरे को समझकर वहां का हर नागरिक इस बात के लिए सचेष्ट रहता है कि जनसंख्या बढ़ने न पाये। यही कारण है कि हजारों वर्षों से समुन्नत स्थिति का वह देश उपभोग कर रहा है और उन खतरों से बचा हुआ है जो भारत जैसे देश के सिर पर नंगी तलवार की तरह नाच रहा है।
जापान के नर-नारी विवाह से बचते हैं। उनमें से प्रायः एक तिहाई लोग आजीवन अविवाहित रहते हैं। जो विवाह करते हैं वे बच्चे न होने की आवश्यक व्यवस्था अपनाये रहते हैं। जो बच्चे पैदा करते हैं उनकी संख्या कम ही होती है। वे सभी एक दो सन्तान के बाद उस झंझट को समाप्त कर देते हैं। यह किसी से छिपा नहीं है कि पिता की आर्थिक स्थिति पर, माता के स्वास्थ्य पर, देश के विकास पर बढ़ती हुई सन्तान कितना अधिक भार डालती है। जितना बोध उठाने की कन्धों में सामर्थ्य हो उतना ही उठाना समझदारी है। उस देश में विवाह कमजोरी या मजबूरी का कारण माना जाता है और उसे उपेक्षणीय माना जाता है। वहां विवाहों की बधाई नहीं बटती क्योंकि वह एक प्रतिगामी कदम माना जाता है।
अब विवाहों की आयु बढ़ रही है। भारत जैसे देश के पागल लोग तो दूध मुंह बच्चों के विवाह भी कर सकते हैं और उस सन्तान हत्या की खुशी भी मना सकते हैं, पर प्रगतिशील देशों के लोग यह सोचते हैं तब तक व्यर्थ का अड़ंगा उत्पन्न करके अपने विकास प्रयत्नों में अवरोध क्यों खड़ा किया जाय। निश्चित रूप से विवाह के साथ इतने अधिक उत्तरदायित्व सिर पर आते हैं कि आदमी उसके बोझ से दबता, पिसता ही चला जाता है, उस गाड़ी को खींचने में उसका सारा कचूमर निकल जाता है, कोई बड़ी बात सोचना, कोई बड़े कदम उठाना, कोई प्रगति करना उसके लिए समय, शक्ति, चिन्तन और धन के अभाव में सम्भव ही नहीं हो पाता। जो कुछ है वह इसी गृहस्थ की भट्टी में जलता चला जाता है।
विवाह की आयु प्रगतिशील देशों में वह समझी जाती है जिसमें मनुष्य थकान अनुभव करने लगे और महत्वाकांक्षाओं की इतिश्री कर दे। जिन्हें विवाह करना होता है वे चालीस वर्ष के पश्चात् करते हैं ताकि अपने परिपक्व अनुभव से एक दूसरे के साथ अधिक अच्छी तरह निर्वाह कर सकें। नई उम्र के जोशीले बच्चे तो भावुकता के घोड़े पर चढ़े होते हैं। अभी प्राणाधिक प्यार, अभी उपेक्षा, अभी आवेश, अभी तलाक, अभी आत्म-हत्या यह उपद्रव नई उम्र वाले ही करते हैं। प्रकृति के अनुसार बच्चे पैदा करने का उभार भी नई उम्र में ही होता है। ढलती आयु में उस उफान से शरीर स्वयं बचता है। स्थिर बुद्धि के अनुभवी लोग अपना सहयोग भी दूरदर्शी सहिष्णु सिद्धान्तों के आधार पर शान्त चित्त से निभा लेते हैं और एक दूसरे के लिए अधिक उपयोगी—सहायक सिद्ध होते हैं।
राष्ट्र संघ द्वारा संग्रहीत आंकड़ों की पुस्तक ‘डोमोग्राफिक ईयर बुक’ के अनुसार संसार भर की औसत गणना के आधार पर महिलाएं 24 वर्ष की आयु में और पुरुष 27 वर्ष की आयु में विवाह करते हैं। आयरलैंड का अनुपात इस दृष्टि से सबसे ऊंचा है। वहां विवाह आयु 31 वर्ष है। उस देश में आमतौर से महिलाएं 45 वर्ष बाद और पुरुष 54 वर्ष बाद विवाह बन्धन में बंधना पसन्द करते हैं। आधे लोग तो आजीवन अविवाहित ही रहते हैं।
यह आंकड़े बताते हैं कि कुछ अनुभव हीन नर-नारी बीस-पच्चीस वर्ष की आयु में विवाह करते होंगे और कुछ दूरदर्शी लोग 40 के आस-पास उस बन्धन में बंधते होंगे तभी तो अनुपात औसत इतना आता होगा। संसार भर की नारियों की औसत आयु जब 24 वर्ष और पुरुषों की 27 वर्ष मानी गई है तो उसमें भारत जैसे बारह-चौदह वर्ष की आयु में ब्याह करने वाले लोगों की गणना भी सम्मिलित होगी। बुद्धिमानी का औसत फैलाया जाय तो वह 30 और 40 वर्ष के बीच ही पहुंचेगा। यह हवा यदि ठीक तरह चलने लगी और लोगों ने जनसंख्या वृद्धि के खतरे को ध्यान में रखते हुए—व्यक्तित्वों को अधिक विकसित करने की आवश्यकता समझते हुए यदि विवाह की आयु बढ़ाने का ध्यान रखा तो सामने खड़ी सर्वनाशी विपत्ति से जरूर राहत मिलेगी।
अक्सर यह दलील दी जाती है कि अविवाहित असंयमी हो जाते हैं। जहां तक शरीर निचोड़ने का सम्बन्ध है विवाहित लोग ही उस प्रकार की क्षति अधिक उठाते हैं। व्यभिचार एक मनःस्थिति है। वह विवाहितों में कम नहीं अधिक ही पनपा हुआ देखा जा सकता है। नैतिक प्रश्न मनुष्य के चिन्तन, दृष्टिकोण एवं चरित्र से जुड़ा हुआ है। यह तथ्य विवाहित और अविवाहित दोनों ही पक्षों को समान रूप से प्रभावित कर सकते हैं। संयमी, सदाचारी रहने और उच्छृंखल अनाचारी बनने में विवाह न कुछ सहायक होता है न बाधक। एक क्षण के लिए यह मान भी लिया जाय कि विवाह से यौन सदाचार होता होगा तो उससे जितना लाभ है उससे अधिक वैयक्तिक और सामाजिक हानि वे हैं जो शारीरिक, मानसिक, आर्थिक और राष्ट्रीय समस्याओं को बेतरह प्रभावित करती हैं। तुलनात्मक विवेचन करने पर—यौन सदाचार को अत्यधिक महत्व देने पर भी यह सिद्ध नहीं होता कि उतने भर से व्यक्ति अपने को, अपनी पत्नी को, अपने बच्चों को और अपने समाज को अच्छी स्थिति दे सके।
जहां तक साथी, सहचर, मित्र, घनिष्ठ या आत्मीय का सम्बन्ध है और मिल-जुलकर जीवन जीने की व्यवस्था का प्रश्न है वहां नर-नारी का कोई खास महत्व नहीं, क्या दो भाई या दो बहिन मिलकर साझीदारी की जिन्दगी नहीं काट सकते? जहां तक जीवन व्यवस्था में दो साथी सहचरों का सम्बन्ध है—दो पुरुष या दो नारियां भी इस तरह की साझीदारी बना सकती हैं। यौन आचरण की बात को यदि अलग रख दिया जाय तो विवाह का 80 प्रतिशत प्रयोजन दो घनिष्ठ मित्र मिलकर भली प्रकार पूरा कर सकते हैं। मात्र यौन आचरण के लिए विवाह करना वस्तुतः विवाह संस्था को अत्यन्त निकृष्ट स्तर पर पटक देना है, यदि ऐसा ही है तो उसे कानूनी वेश्यावृत्ति से अधिक और क्या कहा जायेगा।
आवश्यकतानुसार नर-नारी भी मिल-जुलकर रह सकते हैं और विवाह बन्धन में बंधे रह सकते हैं। यदि उनके सामने पारस्परिक उत्कृष्ट सहयोग का अथवा मिल-जुलकर समाज के लिए उपयोगी काम करने का लक्ष्य हो तो वे बिना सन्तानोत्पादन का उत्तरदायित्व कन्धे पर उठाये अपने आनन्द लक्ष्य यौनाचार से—सन्तानोत्पादन से सहज ही ऊंचा रख सकते हैं।
अब इस तरह के प्रयोग भी कम नहीं चल रहे हैं। उनकी संख्या बढ़ रही है। समान प्रकृति के पुरुष—पुरुष अथवा नर-नारी साझेदारी की जिन्दगी शान्ति और स्नेह पूर्वक जी सकते हैं और एक दूसरे के सुख-दुख में सहयोगी एवं वफादार रह सकते हैं। इससे यौनाचार के अतिरिक्त विवाह की अन्य सभी महत्वपूर्ण आवश्यकताएं पूरी हो सकती हैं। नर-नारी के बीच भी यदि विवाह होता हो तो क्या आवश्यकता है कि सन्तानोत्पादन को अनिवार्य या आवश्यक ही समझें क्या व्यक्ति और समाज का भार बढ़ाने की अपेक्षा नर-नारी का मिलन किन्हीं अन्य उपयोगी कार्यों में प्रयुक्त नहीं हो सकता?
क्या पच्चीस साल से भी कम आयु के शारीरिक और मानसिक दृष्टि से अपरिपक्व और अविकसित बच्चों का विवाह बन्धन में बंधकर अपनी प्रगति के द्वार बन्द कर देना और अनावश्यक दबाव में दबकर अपना भविष्य अन्धकारमय बना लेना उचित है इस प्रश्न पर इस तथ्य को भी ध्यान में रखकर विचार करना होगा कि बढ़ती हुई जनसंख्या की दर मानवी अस्तित्व को धरती पर से मिटा देने के लिए एक भयंकर विभीषिका के रूप में सामने खड़ी है।
माल्थस ने जनसंख्या रोकने के दो उपाय बताये हैं—(1) पॉजिटिव चेक (2) प्रिवेन्टिव चेक। पहले का आशय उपर्युक्त कथन से ही है। माल्थस कहते हैं—जनसंख्या बढ़ती है तो लोग पत्ते खाने को तरसते हैं। फिर प्रकृति अकाल, महामारी, भुखमरी आदि से उनका स्वयं संहार कर देती है।
प्रिवेन्टिव चेक का तात्पर्य यह है कि मनुष्य स्वयं निरोध कर ले। उससे वह सुरक्षित रह सकता है। इसमें प्रतिबन्धात्मक निरोध, जिसमें परिवार नियोजन के सारे साधन आते हैं, पहला उपाय है। दूसरा और सबसे अच्छा उपाय यह है कि मनुष्य संयमित जीवन बिताये पर इसके लिये उसे रचनात्मक दिशा की आवश्यकता होगी अर्थात् उसे मनोरंजन के ऐसे साधन देने होंगे जो काम-सुख की तुलना में कहीं अधिक आकर्षक हों।
प्रतिबन्धात्मक रोक-थाम को माल्थस ने भी बुरा माना है और बताया है कि कृत्रिम साधनों से परिवार-नियोजन करने वाली जातियां मनोवैज्ञानिक दृष्टि से कमजोर होती हैं। लूप, निरोध, नसबन्दी आदि की चर्चा करने से आत्म-हीनता के भाव आते हैं जबकि सरकारी