संयुक्त राष्ट्रसंघ के एक प्रतिवेदन में कहा गया है कि सन् 1970 में विश्व की समस्त जनसंख्या 3 अरब 33 करोड़ 20 लाख थी, यदि आगे यही क्रम जारी रहा तो सन् 2005 में संसार की जनसंख्या तीन गुनी बढ़ जायेगी अर्थात् 11 अरब से भी ऊपर निकल जायगी। मोटे तौर पर यह समझदारी बड़ी है कि लोग कम बच्चे पैदा करने की आवश्यकता को अनुभव करें। इसलिए जन्मदर यत्किंचित् घटी है परन्तु वह राई के बराबर है। जनसंख्या वृद्धि यदि इसी क्रम से घटती रही तो प्रति हजार ‘पीछे’ ‘हर’ साल इस समय जो 33.2 बच्चे पैदा होने का क्रम है वह घटकर 25.1 हो जायेगा।
लेकिन मृत्यु दर भी घट रही है। वह इन दिनों 12.8 प्रति हजार के कम पर है। वह भी भविष्य में घटकर 8.1 रह जायगी। इस प्रकार बढ़ोत्तरी और घटोत्तरी का हिसाब लगाने पर अन्तिम निष्कर्ष यह रहेगा कि वृद्धि फिर भी 55.5 प्रति हजार से बढ़कर 65.5 हो जायगी।
यह स्थिति विशेषज्ञों से छिपी हुई नहीं है। अतः विश्वभर के विचारशील मनीषी इस समस्या का समाधान करने के लिए—जनसंख्या विस्फोट के कारण उत्पन्न होने वाले संकट से मनुष्य जाति को बचाने के लिए चिन्तित हैं। इस दिशा में ठोस समाधान के लिए कई उपाय भी सुझाये गये हैं। जिनमें कृत्रिम साधनों के प्रयोग का सुझाव सर्वत्र दिया जा रहा है।
लेकिन कृत्रिम साधनों का प्रयोग निरापद नहीं समझा जा रहा है। डा. मेरी स्कारलेब, सर राबर्ट्स आर्मस्ट्रांग जोन्स, डा. हेक्टर तथा डा. मैकन आदि ने कृत्रिम उपकरणों द्वारा सन्तति निरोध के परिणामों का गहन अध्ययन कर उसको बुरा बताया। इस सम्बन्ध में इन सबकी सम्मिलित राय यही है—
‘‘इससे उच्छृंखलता एवं कामुकता बढ़ने का खतरा है। सामाजिक जीवन में ‘काम’ जैसे गोपनीय विषय को इस प्रकार सार्वजनिक चर्चा का विषय बनाना, किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। इससे मनुष्य का मन कामेन्द्रियों की ओर आकर्षित होता है, फलस्वरूप संयमी व्यक्तियों का मनोबल भी दुर्बल पड़ता है और वे भी कामुकता के शिकार हो जाते हैं।’’
इस दृष्टि से परिवार नियोजन के कार्यक्रमों को यह मानना चाहिये कि वे देश का नैतिक पतन करने का साधन बन गये हैं भारतवर्ष पिछले आयोजनों में परिवार नियोजन पर एक अरब रुपये व्यय कर चुका है। इस योजना काल में उसके लिये 60 करोड़ रुपये व्यय कर बजट रखा गया है। लाखों लोग इसके लिये सरकारी तौर पर नियुक्त किये गये हैं। रेडियो, समाचार-पत्रों, पत्र-पत्रिकाओं में ऐसे लेखों को प्राथमिकता दी जाती है, इन सब का तात्पर्य यह हुआ कि इतने समस्त साधन जनसंख्या वृद्धि नहीं रोक रहे वरन् चारित्रिक भ्रष्टता उत्पन्न कर रहे हैं।
परिवार नियोजन की दृष्टि से चलने वाले नसबन्दी—रबड़ थैली, लूप—गोलियां जैसे प्रयोग भी कुछ बड़ी रोकथाम नहीं कर सके क्योंकि दुनिया में पिछड़ी हुई जनता ही अधिक है। वह नियोजन का महत्व नहीं समझती और इन साधनों को प्राप्त करने एवं उपयोग करने में झिझकती है। प्रकृति दुर्बलों को सन्तान भी अधिक देती है। नियोजन के प्रचार से केवल शिक्षित और समझदार लोग प्रभावित होते हैं और वे ही आंशिक रोक-थाम करते हैं। इससे रोक-थाम तो नहीं के बराबर होती है उलटे विकसित वर्ग का संख्या सन्तुलन घटता जाता है। इस प्रकार इस आन्दोलन से जितने लाभ की आशा की गई थी वह तो नहीं मिला पर एक परिणाम अवश्य हुआ कि जहां कुछ समय पहले सन्तानोत्पादन को सौभाग्य का आधार माना जाता था वहां अब लोग उसके दुष्परिणामों के बारे में भी समझने, सोचने लगे हैं। इस तरह जो लोक-मानस बन रहा है सम्भव है उसका कुछ अच्छा परिणाम भविष्य में सामने आये और लोग आज की मान्यता से सर्वथा भिन्न प्रकार यह सोचने लगें कि प्रजनन का उत्साह व्यक्ति और समाज दोनों के लिए ही—हर दृष्टि से घातक है।
विश्व के मूर्धन्य विचारकों की इस समस्या को सुलझाने के लिए विवाह संस्था में क्रान्तिकारी परिवर्तन करने की बात समझ में आ रही है और वे सरकारों से यह अनुरोध कर रहे हैं कि प्रजनन को निरुत्साहित करने वाले कड़े कदम उठाने का दुस्साहस करें भले ही प्रचलित परम्पराओं को उनसे आघात पहुंचे और पुरातन पन्थी उसका विरोध करें। इसी प्रकार वे बुद्धिजीवियों और समाज नेताओं पर यह दबाव डाल रहे हैं कि प्रजनन पर नियन्त्रण करने वाले हर उपाय का वे समर्थन करें। वैध-अवैध और उचित-अनुचित के विचार को छोड़ने की बात वे इस आधार पर कहते हैं कि जीवन-मरण की प्रस्तुत समस्या का समाधान आपत्ति धर्म के अनुरूप खोजा जाना चाहिए। एक ओर मरण का सर्वनाश है दूसरी ओर उचित-अनुचित। वे कहते हैं ऐसी स्थिति का सामना युद्ध संकट की आपत्तिकालीन स्थिति की तरह किया जाना चाहिए।
इन विशेषज्ञों का एक सुझाव यह है कि उच्च वर्ग के लोग विवाह तो करें पर सन्तानोत्पादन बिल्कुल न करें। वे निम्न वर्ग के लोगों के बच्चे ले लें और उन्हें अपने आश्रय में रखकर पालें-पोसे। इस प्रकार उनकी सन्तान विनोद की आवश्यकता भी पूरी होती रहेगी, उनमें परोपकार की उदार वृत्ति भी पनपेगी और निम्न वर्ग में उत्पन्न हुए बालकों को उच्च वर्ग का बनने में सहायता मिलेगी।
दूसरा सुझाव यह है कि विवाह की आयु कानून बनाकर बढ़ा दी जाय। लड़कियां पच्चीस वर्ष से पहले और लड़के तीस वर्ष से पहले विवाह न करने पायें। जो करें वे कड़ा दण्ड भुगतें और वे विवाह गैर कानूनी ठहरा दिये जायें। सन्तानोत्पादन की आधी वृद्धि इसी आयु में ही हो लेती हैं। लड़कियां पच्चीस वर्ष की आयु तक आधा उत्पादन पूरा कर देती हैं। शेष सारी उम्र में जितने बच्चे पैदा होते हैं उतने बीस पच्चीस वर्ष तक की महिलायें जन चुकती हैं।
तीसरा उपाय यह है कि अल्प वयस्कों के विवाह से स्थापित हुए गर्भों को जेल में गर्भपात कराके नष्ट करने का कानून बना दिया जाय और दो या तीन बच्चे पैदा कर चुकने पर प्रत्येक नर-नारी को सरकारी दबाव से बन्ध्या कर दिया जाय। अधिक सन्तान उत्पन्न करने वालों के साथ समाजद्रोही जैसा व्यवहार किया जाय उन्हें सरकारी और सामाजिक क्षेत्र में पिछड़ा माना जाय और उपेक्षापूर्ण व्यवहार किया जाय। निर्धनों के बच्चे जब्त कर लिये जायें और उन्हें सरकार पाले ताकि घटिया नागरिकों की भरमार न होने पाये।
स्कूलों में एक अनिवार्य विषय के रूप में परिवार नियोजन पढ़ाया जाय और रेडियो, सिनेमा, अखबार आदि साधनों से जनता को इस दिशा में निरन्तर प्रशिक्षित किया जाय। सरकारी नौकरियों में बिना बच्चे वाले या कम बच्चे वालों को ही लिया जाय ताकि वे आर्थिक तंगी से विवश होकर भ्रष्टाचार अपनाने के लिये बाध्य न हों।
ब्रह्मचर्य पालन करके जनसंख्या नियन्त्रण की बात इन विचारकों की दृष्टि में आदर्शवादी चर्चा का विषय बन सकती है पर उसकी कोई व्यावहारिक उपयोगिता नहीं है। वर्तमान वातावरण साहित्य ने, कला ने, शृंगारिकता के प्रचलन ने इतना कामोत्तेजक बना दिया है कि इन दिनों ब्रह्मचर्य अपवाद ही रह सकता है सर्वसाधारण उसे हृदयंगम कर सकें और व्यावहारिक जीवन में ला सकें यह असम्भव है। इस मान्यता के आधार पर वे विवाह और प्रजनन की दो ही प्रक्रियाओं का वर्तमान ढांचा बदलना चाहते हैं। इसके लिए उनके कुछ विचित्र लगने वाले किन्तु विचारणीय सुझाव हैं।
एक सुझाव यह है कि नर-नारी के बीच विवाह भले ही होते रहें; पर वे सन्तानोत्पादन न करने की शारीरिक स्थिति उत्पन्न कर लें। वन्ध्या-करण का आपरेशन करा लें अथवा अन्य निरोधक उपाय बरतते रहें।
दूसरा उपाय बहुपति प्रथा को पुनर्जीवित करने का बताया गया है। उनका तर्क है कि प्राचीन काल में द्रौपदी और कुन्ती के उदाहरण मौजूद हैं; जिन्होंने एक साथ कई पतियों को भली प्रकार सन्तुष्ट रखा था। प्रमाण के लिए कहा जाता है कि उत्तर प्रदेश के देहरादून जिले के जौनसार बावर क्षेत्र में यह प्रथा सफलता पूर्वक चलती देखी जाती है। वहां मात्र बड़ा भाई विवाह करता है, छोटे सब भाई उसी भावज को अपनी पत्नी मानते हैं। जो बच्चे पैदा होते हैं वे चाचाजी न कहकर बड़े पिताजी, मझले, पिताजी, छोटे पिताजी आदि कहते हैं। बड़े सुखपूर्वक वे परिवार चलते हैं। सीमित घर और जमीन में कितनी ही पीढ़ियां गुजारा करती रहती हैं। कई पति कमाने वाले रहने से पत्नी को भी प्यार उपहार से लेकर घर की अर्थ व्यवस्था ठीक रखने में सहायता मिलती है। घर, खेत, सम्पत्ति के बंटवारे का कोई प्रश्न नहीं उठता। संयुक्त परिवार एक गृह स्वामिनी के खूंटे से बंधा रहता है और कभी नहीं बिखरता। उस क्षेत्र में अनेक सभ्यताभिमानी पहुंचते हैं और अलग विवाह की बात कहते हैं पर लोग अनुभव के आधार पर अपने प्रचलन को अधिक सुख-शान्ति भरा बताते हैं। उदारता, ममत्व और सामूहिकता की श्रेष्ठता की बात कहकर वे अपने को अधिक सुसंस्कृत बताते हैं। उलटे ईर्ष्या, अलगाव एवं संकीर्ण स्वार्थपरता के इल्जाम इन उपदेशकों पर लगाते हैं। तर्क यह है कि जब हर क्षेत्र में सहकारिता और मिल-जुलकर रहने की वृत्ति लाभदायक है तो विवाह ही क्यों उसका अपवाद रहे। यदि सोचने का तरीका बदल लिया जाय तो बहुपति प्रथा को अधिक सुखद, सुविधाजनक पाया जा सकता।
तीसरा उपाय इन विचारकों की दृष्टि में समलिंगी विवाहों का प्रचलन है।वे कहते हैं नर का नर से और नारी का नारी से विवाह हो सकता है और उससे भी दाम्पत्य-जीवन की आवश्यकतायें पूरी हो सकती हैं। जनखे संसार में बहुत बड़ी संख्या में हैं और वे पुरुष होते हुए भी नारी का स्थान ग्रहण करते हैं। आवश्यक नहीं कि इसके लिए एक नर एक नारी बने। दोनों ही नर की स्थिति में रहकर जीवन व्यवस्था के हर पक्ष में सहयोगी रह सकते हैं। इसी प्रकार नारियां भी स्नेह-सूत्र में बंध कर एक दूसरे की साथी सहयोगी रह सकती हैं।
इस स्तर के प्रयोग भी पाश्चात्य देशों में हो रहे हैं। उन्हें देखकर यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया जा रहा है कि प्रजनन वर्जित-बहुपति विवाह और समलिंगी विवाहों की तीनों प्रक्रियायें सहज, सरल, उपयोगी एवं व्यवहारिक हैं।
अमरीकी ‘साइन्स डाइजेस्ट’ में रोपल विश्वविद्यालय के डेन बाइन का एक लेख छपा है जिसमें उन्होंने अफ्रीका के कई ऐसे संगठनों का हवाला दिया है जो महिलाओं की परस्पर शादी कराने की कानूनी पृष्ठभूमि बनाने में सहायता करते हैं। वहां हर वर्ष ऐसे सैकड़ों बैध विवाह होते हैं जिनमें वर और वधू दोनों ही नारियां होती हैं। लेखक का कथन है कि नारियों में यह प्रवृत्ति सामाजिक और आर्थिक स्वतन्त्रता का उपभोग करने की दृष्टि से पनपी है।
नारी मुक्ति आन्दोलन अब विश्वव्यापी होता जा रहा है उसका एक नारा यह भी है कि—‘‘क्यों नर मौज उड़ाये और क्यों नारी यातना सहे?’’ वे कहती हैं दोनों को समान यातना सहने या मौज करने का अवसर मिलना चाहिए। उस आन्दोलन की सदस्याओं ने नारी समाज में प्रचलित समस्त श्रृंगार साधनों का बहिष्कार कर दिया है। वे कहती हैं कि नर-नारी के बीच वेश विन्यास, पोशाक हाव-भाव आदि की कोई भिन्नता न रहने देना चाहिए। नारी को नारी से विवाह करके जीवनयापन करने की प्रेरणा इस आंदोलन ने दी है।
जनसंख्या विचारकों की दृष्टि से इन आन्दोलन में जनसंख्या नियन्त्रण की सभी किरणें तो मौजूद हैं, परन्तु इससे वर्तमान समाज व्यवस्था में गड़बड़ी ही उत्पन्न होगी। वे कहते हैं वस्तुतः उत्पादक उसे खतरा समझने लगे तो समस्या सहज ही हल हो जाती हैं।
विलासिता अपंग बना देगी
जनसंख्या नियन्त्रण के लिए इस तरह के प्रयास भले ही सफल हो जायं परन्तु इन कारणों से जो चरित्र संकट उत्पन्न हो जायेगा वह और भी भयंकर होंगे।
मानव का आदि वंश पाश्चात्य वैज्ञानिक पिथेकेण्ट्रोपस, सिनैट्रोपस और निएन्टर थाल को मानते हैं। इनकी आकृति से आज के मानव से तुलना करने से बड़ा अन्तर दिखाई देता है। क्रोमेग्नन की तुलना में तो अब का मनुष्य पहचाना भी नहीं जा सकता। पाश्चात्यों की बात पाश्चात्य जानें पर हम अपने आपको जिस अपौरुषेय पूर्ण विकसित मनुष्य से वंश उत्पत्ति की बात मानते हैं, उनकी शक्ति शारीरिक रचना और सामर्थ्य की दृष्टि से आज के मनुष्य को तौलते हैं तो वह बिल्कुल भिन्न औद दीन-दुर्बल दिखाई देता है। इसका कारण उसकी अपनी भूलें हैं, जो उसने बिना विचारे की हैं, कर रहा है।
जीव वैज्ञानिकों के अनुसार इस प्रक्रिया सृष्टि से सब जीव प्रभावित होते हैं। उदाहरणार्थ आज का घोड़ा आरम्भ में लोमड़ी की शकल का था। तब सम्भवतः उसकी प्रकृति भी मांसाहारी थी। वह जंगलों में छिपा पड़ा रहता था। धीरे-धीरे उसने स्वभाव बदला घास खाने लगा। हिंसक प्रकृति के कारण पहले उसमें स्वाभाविक भय रहता था उसे छोड़ कर वह निर्भय मैदानों में रहने लगा। चिन्तायें छोड़ देने से जिस प्रकार दुर्बल लोगों के स्वास्थ्य भी बुलन्द हो जाते हैं, उसी प्रकार वह भी अपने डीलडौल को सुडौल बनाता चला आया। धीरे-धीरे मनुष्य उसे प्यार करने लगा और उससे अस्तबलों की शोभा बढ़ने लगी। आज उसी लोमड़ी जैसे घोड़े की सुन्दरता साधारण व्यक्तियों से लेकर राजाओं महाराजाओं को भी आकर्षित करती है, उसकी शक्ति की तुलना मशीनों से की जाती है।
इसके विपरीत लुप्त जन्तु-शास्त्र (मिसिंग लिंक) के अध्ययन से पता चलता है कि पहले किसी समय पृथ्वी पर कई सुडौल और चरम सीमा तक विकसित जीव पाये जाते थे। किन्तु इन जन्तुओं ने अपने रहने सहने में हद दर्जे की कृत्रिमता उत्पन्न की और आद्यावधि ही नष्ट हो गये। आज मनुष्य जो उत्तरोत्तर विलासी जीवन की ओर अग्रसर होता जा रहा है तथा जनसंख्या अनियन्त्रित रूप से बढ़ाता जा रहा है, उसे देखकर कुछ जीव-शास्त्रियों का यह भी मत है कि मनुष्य को सम्भवतः कार्टूनी युग तक पहुंचने का अवसर ही न मिले अर्थात् वह बीच में ही समाप्त हो जाये।
एक ओर जहां परिश्रम के अभाव और प्राकृतिक दबाव के कारण मनुष्य बिल्कुल क्षीणकाय हो जायेगा, वहां मानवीय शरीर और स्वभाव के विपरीत मांसाहार, मद्यपान आदि के कारण कुछ लोग ऐसे दैत्याकार भी हो सकते हैं, जिस तरह एक समय भूमध्य सागरीय टापुओं और चीन में भीमकाय मानव पैदा हो चुके हैं। यह लोग बड़े स्वेच्छाचारी और निर्द्वन्द विचरण करने वाले थे। पशु-पक्षियों को मार कर कच्चा ही खा जाते थे। कालान्तर में इन दैत्यों की चर्बी और मोटापे की बीमारी अनियन्त्रित हो गई और वे कुछ ही दिनों में अपने आप नष्ट हो गये। इस प्रकार की दैत्याकृतियां भी सामने आ सकती हैं।
1942 में प्रोफेसर इलियट स्मिथ ने मिश्र की 30000 ममीं (मिश्र में एक विशेष प्रकार के मसाले में शवों को सुरक्षित रखने की परम्परा है, इन शवों को ही ममी कहते हैं) का परीक्षण किया। उच्च वर्ग वाले शवों को छोड़कर अन्य लोगों के दांत का क्षय बहुत कम मिला। कुछ आर्थराइटिस, किडनी के स्टोन के तीन और एक गाल के स्टोन का रोगी मिला। रिकेट्स और कैन्सर रोग के एक भी लक्षण किसी ममी में नहीं मिले। उस समय मिश्र के लोग भी अकृत्रिम और प्राकृतिक भोजन करते थे, वे लगभग पूर्ण शाकाहारी थे, तब ऐसी स्थिति थी, किन्तु अब स्थिति इससे सर्वथा भिन्न है अकेले कैंसर में ही हजारों रोगी है, इससे रोगों की बढ़ोत्तरी और स्वास्थ्य में अवांछित परिवर्तन का पता चलता है। कुछ हजार वर्ष बाद तो सम्भवतः एक भी बच्चा शुद्ध जन्म नहीं लेगा, उनमें से अधिकांश कोई न कोई रोक लेकर जन्मेंगे कई तो ऐसे भी होंगे जो आज के वीर्य रोगों से रोगी मनुष्य की क्रमागत संतान होने के कारण नपुंसक और लिंगहीन भी होंगे। आज की बीमारियों के सारे लक्षण संस्कार रूप में पहुंचने बात विज्ञान पुष्ट ही कर चुका है, इसलिये कोई सन्देह नहीं, जो आने वाली कार्टूनी पीढ़ी अपने अनेक अंग ही खो दे। पैर की उंगलियों और बालों के बारे में तो जीव-शास्त्री आशंका व्यक्त ही करते हैं कि हाथों में केवल एक-एक उंगली होगी और सारे के सारे बालों से पुरुषों को ही नहीं, स्त्रियों को भी मुक्ति मिल जायेगी।
इसका कारण है, मानवीय मस्तिष्क के घनक्षेत्र का निरन्तर विस्तार। अब मनुष्य चलता बहुत अधिक है पर बैठे-बैठे चलता है। रेलें, मोटरें, तांगे और रिक्शे चलाते हैं, अब मनुष्य खाता बहुत है पर भूख नहीं, जीभ खिलाती है, अब मनुष्य सुनता बहुत है पर स्वाभाविक इच्छा के अनुरूप नहीं मोटरें, रेल-गाड़ियां, जहाज, मिलों-कारखानों का भौंपू, मशीनों की गड़गड़ाहट सुननी पड़ती है, अब मनुष्य देखता बहुत है पर आत्मा को बलवान और सौंदर्यवान बनाने वाले प्राकृतिक दृश्य, हरियाली और पुष्प, पौधों की शोभा नहीं, सिनेमा के दृश्य कृत्रिम पेन्सिल से रंगे हुए चित्र वह भी दूषित भाव पैदा करने वाले। पहले लोग पदयात्रायें करते थे, संगीत और लोक-गीतों का आनन्द लिया करते थे, इससे सूक्ष्म मनोजगत् को प्रफुल्लित और आत्मा को शान्ति देने वाले ‘हार्मोन्स’ का स्राव होता रहता था और मनुष्य स्वस्थ और सुडौल बना रहता था। स्वाभाविक प्रक्रियायें दब कर मस्तिष्क की भूख बन गई हैं। सोचने-विचारने की प्रक्रिया से सम्बन्ध रखने वाले केन्द्रों, स्नायु-कोषों और नस-तन्तुओं में विकास होता जा रहा है, बढ़ी हुई जनसंख्या को तो भोजन चाहिये, चाहे वह भीख मांग कर अमेरिका से मिले या समुद्र की मछलियों और अन्य जीवों को मारकर मिले। मस्तिष्क के अवयव बढ़ेंगे तो उन्हें भी चारा चाहिये। उन्हें प्रकृति ने जितना नियत किया है, उससे अधिक मिल नहीं सकता, फलस्वरूप वे भी हिंसा करते हैं, अर्थात् आंख की, कान, नाक और पेट की शक्ति चूसते हैं, इससे होगा यह कि और अंग कमजोर होते चले जायेंगे। विचार-शक्ति प्रौढ़ होती चली जायेगी और इन्द्रियों की क्षमता गिरती चली जायेगी। अर्थात् यह कार्टून की आकृति वाले लोगों में शरीर ही क्षीण न होगा वरन् वे बहरे भी हो सकते हैं, गूंगे भी, आंखों से कम दीखने और एक फर्लांग चलकर थक जाने की बीमारियां जोर पकड़ लेंगी। इनसे बचने के लिए तब श्रवण यन्त्रों, अणुवीक्षण, दूरवीक्षण यन्त्रों को लोग उसी तरह शरीर से लटकाये घूमा करेंगे, जैसे स्त्रियां तरह-तरह के जेवरों से जकड़ी रहती हैं। मनुष्य और कम्प्यूटर में तब कोई विशेष अन्तर न रह जायेगा।
मनुष्य को प्रकृति ने जो दांत दिये हैं, वह शाकाहार के लिये उपयुक्त हैं, मांसाहारी जन्तुओं के दांत बड़े और नुकीले (कैनाइन टीथ) होते हैं। उनके पंजों के नाखून भी मुड़े हुए और तीखे होते हैं, क्योंकि मांस नोंचने में उनसे सहायता मिलती है, मनुष्य का पिछला इतिहास बताता है कि उनका मुख आगे निकला हुआ और जबड़े लम्बे होते थे, क्योंकि तब उसे अधिकाधिक कच्चा खाना पड़ता था, यदि मनुष्य मांस भक्षी हुआ तो उसके दांत और उंगलियों के नाखून भालुओं, चीतों जैसे हो सकते हैं या फिर कच्चे और दांतों से चबा-चबाकर खाने वाले खाने के कम उपयोग से उसका मुख भीतर को धंसता चला जायेगा। मुख ऐसा लगेगा, जैसे किसी गुफा में घुसने के लिये ‘होल’ (छेद) बनाया गया हो।
जीव वैज्ञानिकों का यह भी मत है, आगे आने वाले लोगों के पंजे और पीठें छोटी हो जायेंगी। पीठ की मांसपेशियों का सम्बन्ध हाथ से है, हाथ से बोझा उठाने इनको ऊपर नीचे, दांये-बांये मोड़ते रहने से पीठ में हलचल होती रहती है, इसलिये वह बढ़ती और स्वस्थ भी बनी रहती है पर हाथों से परिश्रम का काम न लेने पर पैरों को पूरी तरह धरती से टिकाकर न चलने के कारण पीठ और पांव की उंगलियों में अस्वाभाविकता आ जायेगी। अधिकतर बैठे रहने के फलस्वरूप मनुष्य कमर से झुका हुआ भी हो सकता है। उसके जोड़ों में प्रायः दर्द बना रह सकता है, यह बुराइयां तो अभी दिखाई देने लगी हैं, परिश्रम और सारे शरीर को हलचल में रखने के अभाव के कारण मनुष्य दुर्बल ही न होगा, टेढ़ा-मेढ़ा भी होगा, उससे वह और भी विचित्र लगा करेगा। यद्यपि होगा यह सब आज से कई पीढ़ियों बाद पर यह लक्षण धीरे-धीरे हर अगली आने वाली पीढ़ी में उभरते चले जायेंगे, इस पाप के लिए पूरे तौर पर दोषी आज की पीढ़ी होगी, जो कृत्रिमता और यन्त्रीकरण को आभूषण समझकर गले लगाती चली जा रही है।
अस्वाभाविक जीवन और सम्भावित विकृतियों के लिये हमारा आचरण दोषी होगा पर आचरण चूंकि विचारों से पोषण पाते हैं, इसलिये हम यह मानते हैं कि सारा दोष हमारे सोचने की पद्धति का है। गलत निर्णय हमें पतन के गड्ढे में गिराते हैं, गलत इच्छायें हमारे जीवन के प्राकृतिक आनन्द को नष्ट करती हैं। इच्छाओं की विकृति ही शारीरिक विकृति बनकर परिलक्षित होगी।
उदाहरण के लिये प्राचीनकाल में अफ्रीका में पाये जाने वाले जिराफों की गर्दन और पैर छोटे ही थे। उनको ऊंचे पेड़ों की पत्तियां खाने की आवश्यकता नहीं थी, जमीन की घास से काम चल जाता था, एक समय ऐसा (ग्लेशियल पीरियड) आया कि सारी पृथ्वी बर्फ से ढक गई। तब पृथ्वी में घास न रही इसलिये जिराफ झाड़ियों के पत्तों को लपकने लगे। इसके लिये उन्हें गर्दन खींचनी पड़ती थी। आगे के पैरों को ऊंचा उठाना पड़ता था। फिर जब झाड़ियों की पत्तियां न रहीं तो और बड़े पेड़ों की पत्तियां प्राप्त करने के लिये उन्होंने अपने शरीर को और खींचा। परिणामतः उनकी गर्दन और आगे के पैर ऊंचे हो गये और वही जिराफ आज के भिन्न आकृति वाले जिराफ में बदल गया।
न चाहते हुए भी वातावरण के परिवर्तन प्रत्येक व्यक्ति को प्रभावित करते हैं। सबको आवश्यकतानुसार परिवर्तन की तीव्र इच्छा होगी, क्योंकि तब मनुष्य परिस्थितियों पर नहीं, परिस्थितियां मनुष्य पर हावी होंगी। तीव्र इच्छा के कारण बनावट में अन्तर आने से नये शरीरों के विकास की बात प्रत्येक जीव-शास्त्री मानते हैं, इसलिये अब इसमें कोई सन्देह नहीं रह गया कि यदि मनुष्य ने अपनी इच्छायें अपने वर्तमान भौतिकता की ओर बढ़ रहे कदमों में परिवर्तन न किया तो उसके शरीरों का एकदम बदलकर विलक्षण आकृति धारण कर लेने में कोई सन्देह नहीं है।
आज की बुद्धिमत्ता से यह आग्रह है कि उसे भावी पीढ़ी को इस उपहासास्पद स्थिति से बचाने के लिए अपने आपको इतना निर्बल नहीं बना लेना चाहिये कि परिस्थितियों को सम्भालना कठिन हो जाये। हमें बढ़ती हुई भौतिकता को रोककर जीवन के जो अंश अधूरे और अनियमित पड़े हैं, उन्हें ठीक करके आने वाली सन्तानों को अधूरा और अनियमित बनाने का पाप नहीं ही करना चाहिये।
मनुष्य को निर्बल बनाने वाली दुष्प्रवृत्तियों में सर्वाधिक विनाशकारी है कामुकता-अश्लीलता सन्तान की संख्या सीमित रखने के लिए फिर भी लोग किंचित संयम से काम लेते हैं। परन्तु जब संतान के जन्म की सम्भावना क्षीण हो जाती है, उसे रोकने के लिए कृत्रिम साधनों का उपयोग किया जाने लगता है कामुकता वासना लिप्त को और अधिक खुलकर खेलने का मौका मिलता है। आत्यंतिक योग से लेकर अनुचित अनैतिक सम्बन्धों की बढ़ती प्रवृत्ति या समाज के नैतिक स्तर को कहां ले लाकर छोड़ेगी—कुछ कसा नहीं जा सकता।