सारे विश्व में सबसे अधिक उत्पादन यदि किसी वस्तु का बढ़ रहा है तो वह है मनुष्य का उत्पादन। घड़ी में लगी सेकेण्ड की सुई इधर टिक करती है उधर संसार में कहीं-न-कहीं तीन बच्चे जन्म लेते हैं। एक सप्ताह गुजरता है तब तक जनसंख्या के पुराने आंकड़ों में बीस लाख शिशुओं की वृद्धि हो जाती है। इसीलिये कोई भी जनसंख्या विशेषज्ञ पृथ्वी की जनसंख्या की शत-प्रतिशत जानकारी कभी दे ही नहीं सकता। जितनी देर में वह एक वाक्य बोलेगा उतनी देर में ही एक सौ बच्चों की संख्या और बढ़ जायेगी।
विश्व की जनसंख्या कितनी तेजी से बढ़ रही है इस बीसवीं शताब्दी के जो आंकड़े उपलब्ध हैं उनसे पता चलता है कि सन् 1901 की जनगणना में समस्त विश्व में 238 करोड़ मनुष्य रहते थे। वे सन् 1911 में 252 करोड़ हो गये और आबादी वृद्धि का औसत 13 प्रतिशत रहा। सन् 21 में यह आबादी लगभग उतनी ही रही। जर्मन युद्ध ने तथा उन्हीं दिनों फैली महामारियों ने संख्या बढ़ने नहीं दी। सन् 31 में शान्ति का समय आते ही यह संख्या 278 करोड़ हो गई, वृद्धि का औसत 27 हजार बढ़ा। सन् 41 में 318 करोड़ तक पहुंची और वृद्धि दर 38 प्रति हजार पहुंची। आगे इस क्रम में और तेजी आई। सन् 51 में 360 करोड़ हुई वृद्धि दर 42 प्रति हजार पहुंची। 61 में संख्या 439 करोड़ दर 78 प्रति हजार। सन् 66 में 500 करोड़ संख्या और वृद्धि दर 61 प्रतिशत। इसी चक्रवृद्धि क्रम से बढ़ती हुई गति से अनुमान है कि अगले 72 के बाद 82 में होने वाली जनगणना में यह संख्या हजार करोड़ हो जायेगी, इसका अर्थ यह हुआ कि अब की अपेक्षा अगले बीस वर्ष में विश्व की जनसंख्या दूनी होगी। अगले दिनों विश्व की आबादी कहां तक पहुंच जायेगी, इसका पता लगाने के प्रयास भी हुए हैं।
अमेरिकी जनसंख्या अध्ययन ब्यूरो द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट में कहा गया है कि विश्व की जनसंख्या प्रतिवर्ष 6 करोड़ 50 लाख बढ़ रही है। 1980 तक 4 अरब, 30 करोड़ और सन् 2000 तक वह 6 अरब अर्थात् 1960 से दुनी हो जायेगी। अकेले चीन की संख्या तब एक अरब 50 करोड़ होगी और यदि महामारी, युद्ध जैसी विभीषिका न आई और भरण-पोषण के साधन उपलब्ध होते रहे तो भारत वर्ष की ही जनसंख्या 1 अरब हो जायेगी।
ईसा से आठ हजार वर्ष पूर्व सारे संसार में कुछ लगभग 25 लाख लोग थे। उस समय न कोई अकाल का भय था, न महामारी का। पृथ्वी का वातावरण शुद्ध था, खाने को प्रकृति ही इतना दे देती थी कि कृषि आदि में व्यर्थ परिश्रम नहीं करना पड़ता था। लोग देशाटन और ज्ञानार्जन का आनन्द लेते थे। जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ी जटिलता बढ़ती गई और उसी अनुपात से स्वास्थ्य, आरोग्य, आजीविका, संरक्षण, खाद्य पदार्थ, निवास-स्थान, शिक्षा, सामाजिकता, अपराध आदि समस्यायें भी बढ़ती गईं। आज तो जनसंख्या वृद्धि के कारण सारा संसार ही एक समस्या बन गया है।
क्या धरती खिसक जायगी
ईसा जन्मे तब लगभग 30 करोड़ जनसंख्या थी। 1750 में दुगुनी से भी अधिक 75 करोड़ के लगभग हो गई। 1852 में 110 करोड़ लोग इस पृथ्वी पर आ चुके थे, 1900 ई. में 160 करोड़ की जनसंख्या थी। 1920 में 181 करोड़, 90 लाख और 1940 में 224 करोड़ 60 लाख। 1961 में यह संख्या बढ़कर 306 करोड़, 90 लाख हो गई। जनसंख्या की यह बढ़ोत्तरी कम होने का नाम नहीं लेती, पृथ्वी में अधिक से अधिक 1600 करोड़ जनसंख्या का भार उठाने की क्षमता है। इससे एक छटांक वजन भी बढ़ा तो पृथ्वी रसातल को चली जायेगी अर्थात् प्रलय हो जायेगी।
संयम न बरता गया तो यह स्थिति अधिक दूर नहीं। ‘1.9’ यह संख्या लिखने में जितना समय लगा, उतनी देर में 1.9 नये बच्चों ने जन्म लिया। एक मिनट में 225 बच्चे जन्म लेते हैं, एक घन्टे में उनकी संख्या 225×60=13500 हो जाती है। उस हिसाब से एक दिन में 13500×24=334000 होनी चाहिये पर बढ़ोत्तरी इससे भी अधिक होगी, क्योंकि अधिक से अधिक 20 वर्ष में यह बच्चे भी बच्चे पैदा करने लगते हैं अर्थात् वृद्धि का क्रम चक्रवृद्धि ब्याज की दर से बढ़ता है। पहले प्रतिदिन वृद्धि का औसत 1 लाख 36 हजार 986 था। 1 घन्टे में 5 हजार 708 और 1 मिनट में 95 आदमी बढ़ते थे, उस हिसाब से 1975 में 382 करोड़, 80 लाख, सन् 2000 में 680 करोड़, 2050 ई. में 1300 करोड़ एवं 2064 में 1600 करोड़ हो जाने को थी पर अब 225 बच्चे प्रति मिनट पैदा होते हैं, यह पहले औसत से दो गुने से भी अधिक है, अर्थात् जनसंख्या से जो विस्फोट सौ वर्ष बाद होने वाला था, वह अब इसी शताब्दी के अन्त में हो जाय तो कोई आश्चर्य नहीं।
जनसंख्या की इस तीव्रता और अभिवृद्धि के दुष्परिणामों को स्पष्ट करते हुए ऐलिनाय विश्व-विद्यालय के भौतिक-शास्त्री प्रोफेसर हीजवान फोस्टेक ने लिखा है—‘‘2026 ई. में अर्थात् अब से लगभग 50 वर्ष बाद मनुष्य जाति का अन्त हो जायेगा, क्योंकि उस समय विश्व जनसंख्या चरम सीमा तक पहुंच जायेगी।’’ कैलीफोर्निया औद्योगिक संस्थान के डा. जेम्स बोनर के अनुसार—विश्व की जनसंख्या ढाई करोड़ प्रति वर्ष के अनुपात से बढ़ रही है, यदि यह ऐसी ही बढ़ती रही तो अगली शताब्दी में जनसंख्या इतनी हो जायेगी कि प्रति व्यक्ति एक फुट पृथ्वी से अधिक न मिलेगी। इसका सोना, जागना, काम करना, खाना-पीना, टट्टी-पेशाब करना सब कुछ इतने में ही होगा। स्पष्ट है कि स्थिति आने से पूर्व ही विस्फोट हो और मनुष्य, मनुष्य को ही खा जाये।
लन्दन के प्रसिद्ध स्वास्थ्य विशेषज्ञ ने ब्लैकपूल में स्वास्थ्य कांग्रेस की रायल सोसायटी में एक निबन्ध पढ़ा जिसमें उन्होंने बताया ‘‘सन् 2050 अर्थात् अगले अस्सी वर्षों में संसार की दशा महाप्रलय जैसी हो जायेगी। उस समय अब की तीन अरब की जनसंख्या बढ़कर नौ अरब हो जायेगी।’’ भारतवर्ष में प्रति घन्टा ग्यारह सौ की जनसंख्या वृद्धि होती है। प्रतिवर्ष एक करोड़ बीस लाख लोग बढ़ जाते हैं, केरल जैसे छोटे प्रान्त में 1976 तक 24347000 हो गई है, यहां प्रतिदिन पन्द्रह सौ नये शिशु जन्म लेते हैं।’’
इन्हीं दिनों क्यों?
ऊपर उल्लेखित आंकड़ों से जनसंख्या का प्रलयंकारी विस्फोट इन्हीं दिनों होने की बात कही गयी है और बताया गया है कि पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था। इसका क्या कारण है? सन्तानें पहले भी जन्म लेती थीं पर प्रकृति से जूझने के उतने समर्थ साधन हाथ में न होने से मृत्यु-संख्या भी अधिक थी। दुर्भिक्षों, महामारियों तथा अन्य प्रकृति-प्रकोपों से असंख्य मनुष्य मरते थे। वासनात्मक प्रवृत्तियां उग्र न होने से सन्तान भी सीमित ही होती थीं। विधुर और विधवाएं निवृत्त-जीवन जीते थे। अब किशोरावस्था आने से पूर्व ही मस्तिष्क गृहस्थ-धर्म का उपभोग करने के लिए प्रशिक्षित हो जाता है। वासना भड़काने वाली फिल्में, पुस्तकें तथा तस्वीरें बे हिसाब बढ़ रही हैं। कानाफूसी में प्रायः वही चर्चाएं रहती हैं। जो देखा-सुना जाता है, उसमें कामुकता भड़काने वाली प्रेरणाओं की भरमार होती है। इन परिस्थितियों में प्रजनन का अनुपात बढ़ना स्वाभाविक है। दूसरी ओर विज्ञान की प्रगति ने ऐसी व्यवस्था बना दी है कि भूखों मरने अथवा प्रकृति-प्रकोप से दम तोड़ने की सम्भावनाएं कम ही रह गई है। बीमारियां सताती बहुत हैं, पर उनने भी मारने का उत्साह ढीला कर दिया है। दूसरी ओर बढ़ी हुई जनसंख्या द्वारा नई पीढ़ियों का उत्पादन-चक्रवृद्धि दर से हो रहा है। एक के 3, 3 के 9, 9 के 27, 27 के 81, 81 के 243, 243 के 729, 729 के 2187, 2187 के 6561।
एक व्यक्ति की तीन सन्तानें होती चलें तो सातवीं पीढ़ी पर 6561 बच्चे ही जायेंगे। यही क्रम आगे बढ़ता रहा तो संख्या न जाने कहां से कहां पहुंचेगी? इस क्रम में कुछ रोक-थाम भी होती है, पर बढ़ोत्तरी का अनुपात इतना तीव्र है कि निकट भविष्य में मनुष्यों के निवास, आहार के लिए जमीन खाली न बचेगी। पानी की कमी पड़ेगी और शिक्षा, व्यवसाय, यातायात आदि के लिए जगह न रहेगी। ऐसी दशा में स्वभावतः वर्तमान धरती के अपर्याप्त होने पर नये स्थान तैयार करने होंगे।
जनसंख्या और उत्पादन
इस बेतहाशा वृद्धि को देखकर ही माल्थस को चिन्ता हुई थी और उन्होंने जनसंख्या पर एक सुविख्यात शोध कार्य किया जो आज सारे विश्व में ‘माल्थस का जनसंख्या सिद्धान्त’ (माल्थस थ्योरी) के नाम से प्रसिद्ध है। माल्थस ने जनसंख्या वृद्धि की गम्भीरता का दिग्दर्शन कराते हुए लिखा है—‘‘जनसंख्या गुणोत्तर क्रम (ज्योमेट्रिकल प्रोग्रेशन) की दर से अर्थात् 1 से 2 । 2 से 4 । 4 से 8 । 8 से 16 । 16 से 32 । 32 से 64 । 64 से 128 के हिसाब से बढ़ती है, जबकि उत्पादन समान्तर क्रम (अरिथमेटिकल प्रोग्रेशन) अर्थात् 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7 के हिसाब से बढ़ता है। इस हिसाब से पहले वर्ष 1 व्यक्ति था तब उसके लिये 1 यूनिट अन्न की आवश्यकता थी जो उसके उदर-पोषण के लिये पर्याप्त था। तीसरे वर्ष व्यक्ति हो गये 8 पर अन्न उत्पादन की यूनिट 3 ही रही। पांच व्यक्तियों के लिये अन्न का जो दबाव पड़ेगा, उसके लिये शिक्षा, स्वास्थ्य, वस्त्र, मकान और मनोरंजन आदि के साधनों में कटौती करके भरण-पोषण की समस्या पूरी करनी पड़ेगी। प्रत्येक अगले वर्ष यह जटिलता बढ़ती ही जायेगी। 7 वर्ष बाद जहां खाने के लिये जनसंख्या 128 होगी वहां उत्पादन कुल 7 ही यूनिट होगा। तात्पर्य यह कि 121 व्यक्ति बेरोजगारी, भुखमरी, बीमारी और निरक्षरता की समस्या से जन्मजात पीड़ित होंगे। उत्पादन का यह अनुपात अन्न के क्षेत्र में ही नहीं, वस्त्र आदि आत्म-सुरक्षा और आत्म-विकास के क्षेत्र में भी होगा। इस तरह संकट प्रत्येक क्षेत्र में बढ़ेंगे। बेरोजगारी, भुखमरी, अशिक्षा और अनुशासनहीनता का वह स्वरूप आज स्पष्ट देखा जा सकता है।
सम्भवतः इन आंकड़ों के आधार पर ही डा. वी.आर. सेन (जो पहले भारत के खाद्य मन्त्रालय के सचित्र थे, सन् 1966 में जो संयुक्त राष्ट्रीय खाद्य एवम् कृषि संगठन के महानिदेशक नियुक्त हुए थे) ने कहा था—‘यह माना गया है कि संसार में तब तक स्थायी शान्ति और सुरक्षा कायम नहीं हो सकती जब तक भुखमरी और अभाव को खत्म न कर दिया जाये। वस्तुतः व्यक्तियों का स्वास्थ्य और सुख ही नहीं, वरन् स्वतन्त्र एवम् लोकतन्त्री समाज का अस्तित्व भी खतरे में है। अगले 14 वर्ष मानवीय इतिहास में अत्यधिक नाजुक होंगे। या तो हम उत्पादकता बढ़ाने और जनसंख्या न बढ़ने देने के लिये सब सम्भव प्रयत्न करलें अन्यथा हमें अभूतपूर्व रूप से विशाल विपत्ति का सामना करना होगा।’
यह कथन शेखचिल्ली के विवाह की कल्पना नहीं वरन् एक सत्य है जो हमें आगामी दिनों किसी भयंकर विस्फोट के लिये तैयार रहने को सावधान करता है। प्रकृति के कोष में सीमित सामग्री है, वह असीमित लोगों के पेट नहीं भर सकती। इसलिए उसने एक सिद्धांत बना लिया है कि जो भी जातियां दीवाली में आतिशबाजी के सांप की तरह बढ़ती हैं उनको नष्ट किया जाता रहे। मक्खी और मछलियां संसार में सबसे अधिक बच्चे पैदा करता हैं। यदि प्रकृति भी उनका संहार तेजी से न करती तो आज इन मक्खियों और मछलियों के रहने के लिये 10 करोड़ ऐसी ही धरतियों की आवश्यकता पड़ती जैसी अपनी पृथ्वी है।
फिर क्या होगा
माल्थस ने इस शताब्दी के पूर्वार्द्ध में ही यह चेतावनी दे दी थी कि जनसंख्या वृद्धि की वर्तमान दर पर अविलम्ब रोक लगाई जानी चाहिए अन्यथा मानवता भयंकर प्राकृतिक दुष्परिणामों के लिये तैयार रहे। जनसंख्या वृद्धि ज्यामितीय गणना के अनुसार अर्थात् 77 में 1, 2, 79 में 4 और 80 में 8 की दर से बढ़ती है तो अन्न उत्पादन तमाम सिंचाई साधनों के विकास रासायनिक खाद की मात्रा बढ़ाकर अधिकतम भूमि कृषि योग्य बनाकर भी यदि बढ़ाई जाती है तो उत्पादन गणितीय गणना से अर्थात् 77 में 1, 78 में 2, 79 में 3 तथा 80 में 4 मात्र इसी गति से बढ़ेगा एक स्थिति वह आयेगी जब वह विराम तक भी पहुंच जायेगा, उस समय क्या होगा?
तब प्रकृति का ‘‘संहारक सिद्धान्त’’ प्रारम्भ होगा। माल्थस ने बताया यदि मनुष्य जनसंख्या रोकने के लिए विवेक से काम नहीं लेता तो फिर प्रकृति अर्थात्—स्वयं सभूत समस्याएं स्वतः ही सर्वनाश पर उतारू हो जायेंगी। अच्छा तो यह है कि लोग संयमशील जीवन जियें पर यदि वैसा सम्भव नहीं तो जन्म निरोध के कृत्रिम साधन भी बुरे नहीं—इतने पर भी यदि मनुष्य अपनी जिद पर अड़ा रहता है तो उसे अभी से युद्ध पूर्व से युद्धाभ्यास की तरह विनाश के लिए तैयार हो जाना चाहिए।
लोम्बोक इण्डोनेशिया का एक द्वीप है। वहां 1966 में अकाल पड़ गया वहां के निवासियों ने पौधों की छाल, घोंघे, घास, शैवाल आदि खाकर जीवन रक्षा के बहुतेरे प्रयत्न किये तथापि 6 माह में दस हजार आदमी कराल भूख की ज्वाला में जलकर नष्ट हो गये। यह तब हुआ जब समस्त पृथ्वी के सम्पर्क साधन बहुत विकसित है और एक देश को दूसरे देशों से सम्वेदना, सहायता मिल जाती है, पर जब हर कोई उसी समस्या से पीड़ित होगा तो कोई किसी की सहायता नहीं करेगा। उलटे माल्थस सिद्धांत के अनुसार तब लोग एक किलो मक्की का आटा प्राप्त करने के लिए दस आदमियों की हत्या करने में भी नहीं हिचकेंगे।
भूख की समस्या पर प्रकाश डालते हुये इसी वर्ष 1966 में विश्व-संगठन (यू.एन.ओ.) के सेक्रेटरी जनरल यू थान्ट ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कि भारत वर्ष में प्रतिवर्ष 2 लाख बच्चे केवल इसलिए मर जाते हैं कि उन्हें पोषण की प्रारम्भिक सुविधाएं ही नहीं उपलब्ध हो पातीं। अन्न का उत्पादन सीमित हो और खाने वालों की संख्या बढ़ रही हो तो यह स्थिति और भी भयंकर रूप धारण कर सकती है।
अन्न में अकेले आदमी ही हकदार नहीं है डकैत भी उसे लूटते हैं यह डकैत हैं चूहे। 1966 की जनगणना के समय भारतवर्ष में 1 अरब 60 करोड़ चूहे थे प्रति चूहा प्रतिवर्ष दस पौण्ड भी अनाज चोरी करता हो तो 8 अरब कुण्टल के लगभग अनाज तो यही खाये बिना न मानेंगे तब फिर स्वभावतः मनुष्य इन पर गुस्सा उतारेगा और जंगली जानवर खाना शुरू करेगा। यों भी जंगल समाप्त होते ही जीव वैसे ही अस्तित्व हीन हो जायेंगे तब फिर आदमी, आदमी को खायेगा चाहे वह प्रत्यक्ष हो या अप्रत्यक्ष। अराजकता के रूप में उसके प्रारम्भिक चरण (1) भुखमरी, (2) बेरोजगारी, (3) आवास समस्या और (4) अराजकता के लक्षण अभी से उभरने लगे हैं। सूर्योदय से पूर्व की ऊषा जिस तरह सूर्यागमन का बोध कराती है, उसी तरह यह समस्यायें आगामी जनसंख्या विस्फोट के ही पूर्व अध्याय हैं, यदि मनुष्य अभी भी विवेक से काम नहीं लेता तो फिर प्रकृति ही कब तक चुपचाप बैठेगी?
जनसंख्या वृद्धि और वैज्ञानिक प्रगति के वर्तमान उत्साह पर अधिक नियन्त्रण अगले दिनों न हो सकेगा। हां, इतना प्रयत्न अवश्य किया जायेगा कि कम से कम सौ वर्ष तक मानव जाति को जीवित रहने के लिये मार्ग निकाल लिया जाय। इसके लिये अभी से प्रयास चल पड़े हैं और सन् दो हजार से सन् इक्कीस सौ तक की अवधि में जो किया जाना है, जो होना है, जो बनना है—आज उसकी रूपरेखा सबके सामने स्पष्ट रहे और उसे पूरा करने के लिये आवश्यक प्रयास समय रहते आरम्भ कर दिये जायें।
अर्थशास्त्री आर्थर सी. क्लार्क और प्रो. वक्र मिस्टर फुलर ने अगली शताब्दी के लिये जो विश्व-योजना बनाई है, उसमें जनसंख्या वृद्धि को प्रथम स्थान दिया गया है और उसके अनुरूप साधनों की उपलब्धि में वर्तमान तथा भावी वैज्ञानिक उपलब्धियों को पूरी तरह नियोजित करने का कार्यक्रम बनाया है। उनके कथनानुसार अगली शताब्दी में मांस का उत्पादन बन्द हो जायेगा, क्योंकि वह बहुत महंगा पड़ेगा। एक पौंड मांस तैयार करने में प्रायः 20 पौंड चारा खर्च होता है। इतनी वनस्पति खर्च करके इतना कम मांस उत्पन्न करना सरासर घाटे का सौदा है। इसके लिए उपजाऊ जमीन की इतनी शक्ति बर्बाद नहीं की जा सकती। जो चारा, भूसा, इमारती लकड़ी अथवा कागज, गत्ता जैसी चीजें बनाने के लिये काम आकर जरूरी आवश्यकताओं को पूरी करेगी, उन्हें जानवरों को खिलाना और फिर मांस उत्पन्न करना सरासर फिजूल-खर्ची है। गिनी-चुनी बहुत दूध देने वाली गायों के लिये जगह और खुराक बचाई जा सके—यही क्या कम है? यह भी तब हो सकेगा, जब मनुष्यों को स्थान तथा खुराक सम्बन्धी कटौती के लिये तैयार किया जा सके। दूध-दही तो सोयाबीन जैसी वनस्पतियां आसानी से बना दिया करेंगी। घी तो तेल की ही एक किस्म है। चिकनाई की जरूरत तेल से पूरी हो ही सकती है, फिर घी की क्या जरूरत? तेल में प्रोटीन तथा बैक्टीरिया मिलाकर कृत्रिम मांस आसानी से तैयार हो सकता है, फिर पशु-मांस के जंजाल में उलझने की लम्बी और महंगी प्रक्रिया अपनाने की कोई आवश्यकता ही न रहेगी। फ्रांस में कृत्रिम मांस बनाने में अभी भी सफलता प्राप्त करली गई है, आगे तो वह विधि और भी सरल तथा समुन्नत हो जायेगी।
सड़कें बहुत जमीन घेरती हैं और वे जहां भी पक्की हो जाती हैं, जमीन की उर्वराशक्ति नष्ट कर देती हैं। इन दिनों सड़कों ने जितनी जमीन घेर रखी है और भविष्य में घेरने जा रही हैं, उस भूमि विनाश पर गम्भीरता से विचार करना होगा। सड़कें या तो जमीन के नीचे चलेंगी या फिर सस्ते वायुयान यातायात तथा परिवहन की आवश्यकता पूरी करेंगे। सड़कों से घिरी जमीन पर पौष्टिक किस्म की बड़ी फसलें देने वाली और साल में जल्दी-जल्दी कई बार कटने वाली घासें लगाई जायेंगी। वनस्पति को पूरा ही आहार प्रयोजन के लिये काम में लाना पड़ेगा, तभी आदमी का पेट भरेगा। इन दिनों अन्न खाने की जो आदत है, वह उस समय छोड़नी ही पड़ेगी। अनाज के पौधे का आकार-विस्तार जितना होता है, उसकी तुलना में बीज का अनुपात बहुत थोड़ा रहता है। फसलों का अधिकांश भाग भूसे के रूप में चला जाता है। अभी तो भूसे-चारे को पशु भी लेते हैं, आगे पशु रहेंगे ही नहीं तो चारे की उपयोगिता भी नहीं रहेगी। ऐसी दशा में पूरी घास खाने की आदत डालनी पड़ेगी। आखिर अन्य शाकाहारी प्राणी भी तो घास खाकर ही रहते हैं, फिर मनुष्य को ही इसमें क्या ऐतराज होना चाहिये? घास में प्रोटीन तथा दूसरे जीवनोपयोगी-तत्व पर्याप्त मात्रा में मौजूद हैं। घास का चूरा आटे का काम दें सकता है। जरूरत के अनुसार उसमें दूसरी चीजें भी मिलाई जा सकती हैं, पर आटा बनेगा घास का ही। अनाज का प्रचलन भी अगले दिनों पशु-मांस की तरह ही बहिष्कृत करना पड़ेगा। नकली दूध, नकली दही, नकली घी, नकली मांस जब सभी खाद्य पदार्थ कृत्रिम बनने लगेंगे तो अनाज का आटा खाने के लिये ही कोई क्यों आग्रह करेगा? कुछ दिन में लोग घास का आटा खाने के लिये तैयार हो ही जायेंगे। न होंगे तो वैसा मजबूरी करा लेगी।
मनुष्यों को स्वच्छ सांस मिलती रहे, इसके लिये वृक्ष आवश्यक हैं। 25 वर्ग फुट जमीन में एक आदमी को सांस ले सकने के उपयुक्त वायु मिलती हैं। इसलिये खुली जगह में वृक्ष-उद्यानों का प्रबन्ध अधिक करना पड़ेगा। तब सड़कों का ही सफाया नहीं करना पड़ेगा, मकान भी कई-कई मंजिल ऊंचे बना करेंगे। एक मंजिल मकान कहीं दिखाई नहीं पड़ेंगे। निवास-आवास में घिरने वाली जमीन तो बचानी ही पड़ेगी। वनस्पति उगाने के लिये, यह आवश्यक होगा कि मकानों में उसे अधिक न घेरा जाय। यह समस्या अनेक मंजिल ऊंचे मकान बनने के प्रचलन से ही सम्भव हो सकेगी।
घास के आहार को अधिक पौष्टिक बनाने के लिए उसमें प्रोटीन के नये स्रोत सम्मिलित करने पड़ेंगे। एक कोशीय यीस्ट—जीवाणु (बैक्टीरिया), कवक (फफूंद), शैवाल इनमें प्रमुख होंगे। प्रचलित तेल प्रधान वनस्पतियों में मूंगफली, सोयाबीन, नारियल और बिनौले का सम्मिश्रण खाद्य पदार्थों में मिला दिया जाय तो घास का आटा प्रचलित गेहूं के आटे से कहीं अधिक पौष्टिक और स्वादिष्ट बन जायेगा। गेहूं में 10-12 प्रतिशत, चावल में 8-9 प्रतिशत और मांस-मछली में 20-22 प्रतिशत प्रोटीन होता है। इस दकियानूसी आहार को हटा कर प्रोटीन के नये स्रोतों का उपयोग करने से सहज ही कहीं अधिक पौष्टिकता मिल जायेगी। यीस्ट में 55 प्रतिशत, बैक्टीरिया में 80 प्रतिशत, फफूंद में 40 प्रतिशत और शैवालों में 25 प्रतिशत प्रोटीन होता है। ऐसी दशा में उनका उपयोग करने से समस्या का बहुत समाधान निकलेगा।
पेट्रोलियम के कारखानों से उप-उत्पादन के रूप में मिलने वाले सूक्ष्म जीवाणुओं से अच्छा प्रोटीन विनिर्मित करने में फ्रांसीसी-विज्ञानी चेम्पेटन ने आशाजनक सफलता प्राप्त की है। एक कोषीय प्रोटीन-मांस उत्पादन पर आने वाली लागत की तुलना में ढाई हजार गुना सस्ता पड़ता है और कम समय लेता है, ऐसी दशा में उसका आश्रय मनुष्य को लेना ही पड़ेगा। समुद्री-वनस्पति क्लोरिला का जापान में खाद्य पदार्थ के रूप में उपयोग करने का प्रचलन है। इंग्लैंड घास से प्रोटीन बनाने में लगा हुआ है। सोयाबीन का दूध गो-दूध की आवश्यकता पूरी कर सकेगा, यह विश्वास खाद्य-शोधकों में अभिनव-आशा का संचार कर रहा है। एक किलो सोयाबीन में 10 लीटर दूध बनने की सम्भावना में सस्तेपन का आकर्षण भी बहुत है। गुणों में तो उसे समान ही बताया जा रहा है।
भोजन पकाने की प्रणाली में भारी हेर-फेर करना पड़ेगा। कच्चा राशन रखने, पकाने के लिए चौका-चूल्हा बनाने, पकी हुई वस्तुओं को सुरक्षित रखने के लिए जितने स्थान की अब जरूरत पड़ती है, भविष्य में उतनी जगह की बरबादी नहीं की जा सकेगी। अन्न, शाक आदि को उत्पन्न होते ही बड़े कारखानों में तैयार भोजन के रूप में तैयार किया जायेगा और उस सूखे सार-तत्व को पैकिटों में बन्द कर दिया जायेगा। चूंकि भोजन में नब्बे प्रतिशत पानी होता है, इसलिए सूखे सार भोजन में आवश्यकतानुसार पानी मिलाकर अंगीठी पर गरम कर लिया जाया करेगा। बस दस मिनट में भोजन तैयार है। इस से स्थान की ही नहीं, बनाने और पकाने के समय की भी बचत होगी।
पहाड़ समतल बनाने पड़ेंगे। पथरीली जमीन जो कृषि योग्य नहीं बन सकेगी, वह निवास और कल-कारखानों के काम में ली जायेगी, शहर-गांव उसी पर बसेंगे। पहाड़ों का चूरा करके इमारती ईंट-पत्थर, सीमेन्ट आदि बनेगा, ताकि इन कार्यों में उपजाऊ जमीन का एक चप्पा भी बर्बाद न किया जाय। लकड़ी की जगह प्लास्टिक अथवा कृत्रिम-धातुओं का उपयोग करके मकानों की आवश्यकता पूरी की जायेगी।
अमेरिका के विज्ञान लेखक आइजक आसिमोव ने आंकड़ों सहित बताया है कि बढ़ती हुई आबादी के कारण अगले बीस वर्षों में जो संकट उत्पन्न होंगे उनमें जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं में कमी पड़ने का संकट मुख्य है। वायु, जल और आहार यह तीनों ही वस्तुयें ऐसी हैं, जिनके आधार पर मनुष्य जीवित रहता है। बढ़ती हुई आबादी के लिये अगले दिनों यह तीनों ही न तो शुद्ध मिलेंगी और न पर्याप्त मात्रा में।
इतने पर भी जनसंख्या वृद्धि के कारण उत्पन्न होने वाली समस्याओं का समाधान नहीं हो सकेगा। जनसंख्या वृद्धि का एक भयंकर दुष्परिणाम खाद्य समाप्ति के अभाव के रूप में तो सामने आयेगा ही, पीने योग्य पानी की भी कमी होने लगेगी। क्योंकि एक ओर तो जनसंख्या की वृद्धि हो रही है, दूसरी ओर कल-कारखाने भी बढ़ते रहेंगे।
जब हमें प्यासे रहना होगा
संसार में एक ओर जनसंख्या की वृद्धि हो रही है दूसरी ओर कल-कारखाने और उद्योग धन्धे बढ़ रहे हैं। इन दोनों ही अभिवृद्धियों के लिये पेयजल की आवश्यकता भी बढ़ती चली जा रही है। पीने के लिये, नहाने के लिये, कपड़े धोने के लिये, रसोई एवं सफाई के लिये हर व्यक्ति को, हर परिवार को पानी चाहिये। जैसे-जैसे स्तर ऊंचा उठता जाता है उसी अनुपात से यह पानी की आवश्यकता भी बढ़ती है। खाते-पीते आदमी अपने निवास स्थान में पेड़-पौधे, फल-फूल, घास-पात लगाते हैं, पशु पालते हैं। इस सबके लिये पानी की मांग और बढ़ती है। गर्मी के दिनों में तरावट और छिड़काव के लिये पानी चाहिये।
कल-कारखाने निरन्तर पानी मांगते हैं। जितना बड़ा कारखाना, उतनी बड़ी पानी की मांग। भाप से चलने वाली रेलगाड़ियां तथा दूसरी मशीनें पानी की अपेक्षा करती हैं। शोधन-संशोधन ढेरों पानी लेता है। शहरों में फ्लेश के पखाने, सीवर लाइनें तथा नाली आदि की सफाई के लिये अतिरिक्त पानी की जरूरत पड़ती है। कृषि और बागवानी का सारा दारोमदार ही पानी पर ठहरा हुआ है। हरियाली एवं वन सम्पदा पानी पर ही जीवित हैं। पशु पालन में चारा पानी अनिवार्य रूप से चाहिए। और भी न जाने कितने ज्ञात-अज्ञात आधार हैं जिनके लिये पानी की निरन्तर जरूरत पड़ती रहती है।
यह सारा पानी बादलों से मिला है। पहाड़ों पर जमने वाली बर्फ—जिसके पिघलने से नदियां बहती हैं वस्तुतः बादलों का ही अनुदान है। सूर्य की गर्मी से समुद्र द्वारा उड़ने वाली भाप बादलों के रूप में भ्रमण करती है। उनकी वर्षा से नदी-नाले, कुंए, तालाब, झरने सोते बनते हैं। उन्हीं से उपरोक्त आवश्यकताएं पूरी होती हैं। जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ वृक्ष वनस्पतियों की—अन्न, शाक, पशु वंश की, कल कारखानों की, जो वृद्धि होती चली जा रही है उसने पानी की मांग को पहले की अपेक्षा कहीं अधिक बढ़ा दिया है। यह मांग दिन-दिन अधिकाधिक उग्र होती जा रही है। बादलों के अनुदान से ही अब तक सारा काम चलता रहा है। सिंचाई के साधन नदी, तालाब, कुओं से ही पूरे किये जाते हैं। इनके पास जो कुछ है बादलों की ही देन है। स्पष्ट है कि बादलों के द्वारा जो कुछ दिया जा रहा है वह आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कम पड़ता है। संसार भर में पेयजल अधिक मात्रा में प्राप्त करने की चिन्ता व्याप्त है ताकि मनुष्यों की, पशुओं की, वनस्पति की, कारखानों की आवश्यकता को पूरा करते रहना सम्भव बना रहे।
बादलों पर किसी का नियन्त्रण नहीं, वे जब चाहें जितना पानी बरसायें। उन्हें आवश्यकता पूरी करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है। वे बरसते भी हैं तो अन्धाधुन्ध बेहिसाब। वर्षा में वे इतना पानी फैला देते हैं कि पृथ्वी पर उसका संग्रह कर सकना सम्भव नहीं होता और वह बहकर बड़ी मात्रा में समुद्र में जा पहुंचता है। इसके बाद शेष आठ महीने आसमान साफ रहता है। गर्मी के दिनों में तो बूंद-बूंद पानी के लिए तरसना पड़ता है। इन परिस्थितियों में मनुष्य को जल के अन्य साधन स्रोत तलाश करने के लिए विवश होना पड़ रहा है, अन्यथा कुछ ही दिनों में जल संकट के कारण जीवन दुर्लभ हो जायेगा। गन्दगी बहाने—हरियाली उगाने और स्नान रसोई के लिए भी जब पानी कम पड़ जायेगा तो काम कैसे चलेगा? कल कारखाने किसके सहारे अपनी हलचल जारी रखेंगे?
अमेरिका की आबादी बीस करोड़ है। वहां कृषि एवं पशु पालन में खर्च होने वाले पानी का खर्च प्रति मनुष्य पीछे प्रतिदिन तेरह हजार गैलन आता है। घरेलू कामों में तथा उद्योगों में खर्च होने वाला पानी भी लगभग इतना ही बैठता है। इस प्रकार वहां हर व्यक्ति पीछे 26 हजार गैलन पानी की नित्य जरूरत पड़ती है। यहां की आबादी विरल और जल स्रोत बहुत हैं, तो भी चिन्ता की जा रही कि आगामी शताब्दी में पानी की आवश्यकता एक संकट के रूप में सामने प्रस्तुत होगी।
भारत की आबादी अमेरिका की तुलना में ढाई गुनी अधिक है किन्तु जल साधन कहीं कम हैं। बड़े शहरों में अकेले बम्बई को ही लें तो वहां की जरूरत 35 करोड़ गैलन हो पाती है। यही दुर्दशा न्यूनाधिक मात्रा में अन्य शहरों की है। देहाती क्षेत्र में अधिकांश कृषि उत्पादन वर्षा पर निर्भर है। जिस साल वर्षा कम होती है, उस साल भयंकर दुर्भिक्ष का सामना करना पड़ता है। मनुष्यों और पशुओं की जान पर बन आती है। यदि इन क्षेत्रों में मानव उपार्जित जल की व्यवस्था हो सके तो खाद्य समस्या का समाधान हो सकता है।
नये जल-आधार तलाश करने में दृष्टि की ओर ही जाती है। धरती का दो तिहाई से भी अधिक भाग समुद्र से डूबा पड़ा है। किन्तु वह है खारी। जिसका उपयोग उपरोक्त आवश्यकताओं में से किसी की भी पूर्ति नहीं कर सकता। इस खारी जल को पेय किस प्रकार बनाया जाय इसी केन्द्र पर भविष्य में मनुष्य जीवन की आशा इन दिनों केन्द्रीभूत हो रही है।
इस सन्दर्भ में राष्ट्रसंघ में एक आयोग नियुक्त किया था जिसने संसार के 46 प्रमुख देशों में दौरा करके जल समस्या और उसके समाधान के सम्बन्ध में विस्तृत रिपोर्ट प्रस्तुत की है। इस रिपोर्ट का सारांश राष्ट्र संघ ने प्रगतिशील देशों में खारी पानी का शुद्धिकरण नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया है जिसमें प्रमुख सुझाव यही है कि समुद्री जल के शुद्धीकरण पर अधिकाधिक ध्यान दिया जाना चाहिए। यों वर्षा के जल को समुद्र में जाने से रोकने के लिए तथा जमीन की गहराई में बहने वाली अदृश्य नदियों का पानी ऊपर खींच जाने को भी महत्व दिया गया है और कहा गया है कि बादलों के अनुदान तथा पर्वतीय बर्फ के रूप में जो जल मिलता है उसका भी अधिक सावधानी के साथ सदुपयोग किया जाना चाहिए।
उत्तर और दक्षिण ध्रुव प्रदेशों के निकटवर्ती देशों के लिए एक योजना यह है कि उधर समुद्र में सैर करते फिरने वाले हिम पर्वतों को पकड़ कर पेय जल की आवश्यकता पूरी की जाय तो यह अपेक्षाकृत सस्ता पड़ेगा और सुगम रहेगा। संसार भर में जितना पेयजल है उसका 80 प्रतिशत भाग ध्रुव प्रदेश ऐन्टार्कटिक के हिमावरण, आइस कैप—में बंधा पड़ा है। इस क्षेत्र में बर्फ के विशालकाय खण्ड अलग होकर समुद्र में तैरने लगते हैं और अपना आकार हिम द्वीप जैसा बना लेते हैं। वे समुद्री लहरों और हवा के दबाव से इधर-उधर सैर-सपाटे करते रहते हैं। दक्षिण ध्रुव के हिम पर्वतों को गिरफ्तार करके दक्षिण अमेरिका—आस्ट्रेलिया और अफ्रीका में पानी की आवश्यकता पूरी करने के लिए खींच लाया जा सकता है। इसी प्रकार उत्तर ध्रुव के हिम पर्वत एक बड़े क्षेत्र की आवश्यकता पूरी कर सकते हैं। यद्यपि उसमें संख्या कम मिलेगी।
अमेरिका के हिम विज्ञानी डा. विलियम कैम्बेल और डा. विल्फर्ड वीकस ने इसी प्रयोजन के लिए कैम्ब्रिज इंग्लैंड में बुलाई गई एक अन्तर्राष्ट्रीय गोष्ठी इंटर नेशनल सिम्पोजियम आन दि हाइड्रोलाजी आफ ग्लेशियर्स—में अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत करते हुए कहा था—हिमपर्वतों को पकड़ने की योजना को महत्व दिया जाना चाहिए ताकि पेयजल की समस्या को एक हद तक सस्ता समाधान मिल सके।
भू उपग्रहों की सहायता से फोटो लेकर यह पता लगाया जा सकता है कि किस क्षेत्र में कैसे और कितने हिम पर्वत भ्रमण कर रहे हैं। इन पर्वतों का 83 प्रतिशत भाग पानी में डूबा रहता है और शेष 17 प्रतिशत सतह से ऊपर दिखाई पड़ता है। इन्हें पांच हजार मील तक घसीट कर लाया जा सकता है। इतना सफल करने में उन्हें चार-पांच महीने लग सकते हैं।
ढुलाई का खर्चा और सफर की अवधि में अपेक्षाकृत गर्म वातावरण में बर्फ का पिघलने लगना यह दो कारण यद्यपि चिन्ताजनक हैं तो भी कुल मिलाकर वह पानी उससे सस्ता ही पड़ेगा जितना कि हम जमीन पर रहने वालों को औसत हिसाब से उपलब्ध होता है।
हिसाब लगाया गया है कि ऐमेरी से आस्ट्रेलिया तक ढोकर लाया गया हिमपर्वत दो तिहाई गल जायेगा और एक तिहाई शेष रहेगा। रास से दक्षिण अमेरिका तक घसीटा गया हिम पर्वत 14 प्रतिशत ही शेष रहेगा। धीमी चाल से घसीटना अधिक लाभदायक समझा गया है ताकि लहरों का प्रतिरोध कम पड़ने से बर्फ की बर्बादी अधिक न होने पाये। 7-8 हजार हार्सपावर का एक टग जलयान आधा नाट की चाल से उसे आसानी के साथ घसीट सकता है। अपने बन्दरगाह से चलकर हिमपर्वत तक पहुंचने और वापिस आने में जो खर्च आवेगा और फिर उस बर्फ को पिघलाकर पेयजल बनाने में जो लागत लगेगी वह उसकी अपेक्षा सस्ती ही पड़ेगी जो म्युनिसपेलिटियां अपने परम्परागत साधनों से जल प्राप्त करने में खर्च करती हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि बर्फ का जल, डिस्टिल्डवाटर स्तर का होने के कारण स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत ही उपयोगी, स्वच्छ और हानिकार तत्वों से सर्वथा रहित होगा। उसके स्तर को देखते हुये यदि लागत कुछ अधिक हो तो भी उसे प्रसन्नता पूर्वक सहन किया जा सकता है।
दूसरा उपाय यह सोचा गया है कि समुद्र किनारे अत्यन्त विशालकाय अणु भट्टियां लगाई जायं उनकी गर्मी से कृत्रिम बादल उत्पन्न किये जायें उन्हें ठण्डा करके कृत्रिम नदियां बहाई जायं उन्हें रोक बांधकर पेयजल की समस्या हल की जाय।
तीसरा उपाय यह है कि वर्षा का जल नदियों में होकर समुद्र में पहुंचता है उसे बांधों द्वारा रोक लिया जाय और फिर उनसे पेयजल की समस्या हल की जाय।
दूसरे और तीसरे नम्बर के उपाय जोखिम भरे हैं। अत्यधिक गर्मी पाकर समुद्री जलचर मर जायेंगे, तटवर्ती क्षेत्रों का मौसम गरम हो उठेगा और ध्रुव प्रदेशों तक उस गर्मी का असर पहुंचने से जल प्रलय उत्पन्न होगी और धरती का बहुत बड़ा भाग जलमग्न हो जायेगा। इतनी बड़ी अणु भट्टियां अपने विकरण से और भी न जाने क्या क्या उपद्रव खड़े करेंगी। तीसरे उपाय से यह खतरा है कि जब समुद्रों में नदियों का पानी पहुंचेगा ही नहीं तो वे सूखने लगेंगे। खारापन बढ़ेगा और उस भारी पानी से बादल उठने ही बन्द हो जायेंगे तब नदियों का पानी रोकने से भी क्या काम चला। ध्रुवों के घुमक्कड़ हिम द्वीप भी बहुत दूर तक नहीं जा सकते उनका लाभ वे ही देश उठा सकेंगे जो वहां से बहुत ज्यादा दूर नहीं हैं।
उपरोक्त सभी उपाय अनिश्चित एवं अधूरे हैं। पर इससे क्या पेयजल की बढ़ती हुई मांग तो पूरी करनी ही पड़ेगी अन्यथा पीने के लिए, कृषि के लिए, कारखानों के लिए, सफाई के लिए भारी कमी पड़ेगी और उस अवरोध के कारण उत्पादन और सफाई की समस्या जटिल हो जाने से मनुष्य भूख, गन्दगी और बीमारी से ग्रसित होकर बेमौत मरेंगे।
यह सारी समस्याएं बढ़ती हुई आबादी पैदा कर रही है। मनुष्य में यदि दूरदर्शिता होती तो वह जनसंख्या बढ़ाने की विभीषिका अनुभव करता और उससे अपना हाथ रोकता, पर आज तो न यह होता दीखता है और न पेयजल का प्रश्न सुलझता प्रतीत होता है। मनुष्य को अपनी वज्र मूर्खता का सर्वनाशी दण्ड आज नहीं तो कल भुगतना ही पड़ेगा। अनुमान है कि यह विषम परिस्थिति अगली शताब्दी के अन्त तक संसार के सामने आ उपस्थित होगी।