विचारों की सृजनात्मक शक्ति

सफलता आपका जन्म-सिद्ध अधिकार है!

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मनुष्य की असफलता के कारणों में एक कारण अयोग्यता भी है। जिसने किसी काम को करने का सही ढंग सीखने में प्रमाद किया है, उसकी रीति-नीति के सम्बन्ध में ज्ञान अर्जित का कष्ट नहीं उठाया है, वह उस काम को ठीक से अन्जाम दे सकने की आशा अपने से नहीं रख सकता। यदि वह हठ अथवा लोभ के वशीभूत उस काम को हाथ में ले भी लेगा तो दूसरों के साथ अपनी दृष्टि में भी उपहासास्पद बन जायेगा। किसी काम को सफलतापूर्वक करने के लिए तत्संबन्धी योग्यता का होना अत्यंत आवश्यक है। योग्यता किसी दैवी वरदान के रूप में नहीं मिलती। वह एक ऐसा सुफल है जिसकी प्राप्ति परिश्रम एवं पुरुषार्थ के पुरस्कार स्वरूप ही होती है। जो आलसी हैं अकर्मण्य हैं, काम करने में जिनका जी नहीं लगता, परिश्रम के नाम से जिनको पसीना आ जाता है, वे किसी विषय में समुचित योग्यता प्राप्त कर सकेंगे, ऐसी आशा दिवा-स्वप्न के समान ही मिथ्या सिद्ध होगी। योग्यता की उपलब्धि परिश्रम एवं पुरुषार्थ द्वारा ही सम्भव है।

किसी विषय में सफलता हस्तगत करने के लिए, उस विषय की पर्याप्त योग्यता का होना आवश्यक है और योग्यता की उपलब्धि परिश्रम एवं पुरुषार्थ पर निर्भर है। इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि सफलता का मूलभूत हेतु परिश्रम ही है।

जिनको संसार में कुछ सराहनीय दिखाने की इच्छा है अथवा जो चाहते हैं कि सफलतायें उनके जीवन का श्रृंगार करें उन्हें चाहिए कि वे पूरे तन-मन और पूरी सच्चाई के साथ अपने में परिश्रम तथा पुरुषार्थ का स्वभाव विकसित करें। एक बार ध्येयपूर्वक परिश्रमी स्वभाव का विकास कर लेने पर फिर वह ऐसा सहज स्वभाव बन जाता है कि किसी के लिए अकर्मण्य रहकर कुछ क्षण बिता सकना ही पहाड़ हो जाता है।

कर्मण्य स्वभाव वाला व्यक्ति इतना कर्मशील बन जाता है कि यदि विवशतावश उसे एक-आध दिन निकम्मा होकर बैठना पड़े तो उसके लिए वह समय कारावास की दुःखदायी स्थिति से कम नहीं बैठ सकता। परिश्रमी स्वभाव वाला व्यक्ति एक क्षण के लिए भी बेकार नहीं बैठ सकता। उसे काम करने की आवश्यकता उसी प्रकार अनुभव होती है जिस प्रकार भूख लगने पर खाने की आवश्यकता। भूख लगने पर जब तक कुछ खा न लिया जाय तब तक चैन नहीं पड़ता उसी प्रकार परिश्रमी स्वभाव वाला व्यक्ति काम के अभाव में तब तक बेचैन बना रहता है, जब तक कि उसे मनमाना काम करने के लिए नहीं मिल जाता। जिसने अपने स्वभाव को इस सीमा तक परिश्रमी एवं पुरुषार्थी बना लिया है, मानना होगा कि उसने अपने भाग्य का निर्माण कर लिया है और सफलता की जयमाला लेकर विचरण करने वाले देवदूतों को अपनी ओर आकर्षित करने की योग्यता उपलब्ध कर ली है।

जिन सुविधाजनक परिस्थितियों को प्रारब्ध की संज्ञा दी जाती है, जिन साधनों और उपादानों को मानव जीवन की सफलता का सहायक माना जाता है और जो सौभाग्य फलों के रूप में जन-जन को स्पृहणीय होते हैं, वे सब परिश्रम एवं पुरुषार्थ के पुरस्कार के सिवाय और कुछ नहीं होते। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है—इस सूक्ति-वाक्य को कर्मठ व्यक्तियों ने पुरुषार्थ द्वारा, असंभव को संभव सिद्ध करके, विचारकों को, संसार के सम्मुख एक सिद्ध मंत्र के रूप में प्रस्तुत करने के लिए विवश कर दिया।

सुख-दुःख, हानि-लाभ, सफलता-असफलता दैवाधीन हैं, इनमें मनुष्य की गति नहीं है। इस प्रकार की भावना आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में भले ही अर्थ रखती हो किन्तु भौतिक धरातल पर इसका अधिक महत्व नहीं माना जा सकता। यदि इस दार्शनिक भावना को देश, काल और परिस्थितियों का विचार किए बिना सामान्य जीवन में प्रवृत्त कर दिया जाय तो निश्चय ही संसार का विकास अवरुद्ध हो जाये और इस कर्म-लोक में अकर्मण्यता का साम्राज्य स्थापित होते देर न लगे। लोग असमय में अकारण ही उक्त भावना का बहाना लेकर कंधा डाल दें और तब सारे संसार का यह सक्रिय स्वरूप वैसे ही समाप्त हो जाय जैसे पक्षाघात का आक्रमण होने पर चलते-फिरते मनुष्य की गति स्थगित हो जाती है।

कभी-कभी देखा जाता है कि प्रयत्न करने पर भी कुछ लोग वांछित सफलता प्राप्त नहीं कर पाते और तब दृष्टिकोण में इस भ्रम की संभावना हो उठती है कि प्रयत्न और पुरुषार्थ व्यर्थ है, मनुष्य का भाग्य ही प्रबल होता है। किन्तु यह भ्रम सर्वथा भ्रम ही है, सत्य का इससे दूर का भी सम्बन्ध नहीं होता। ऐसे प्रयत्नशील व्यक्ति की असफलता को लेकर भाग्यवाद में आस्था की स्थापना करने लगना मानसिक निर्बलता का लक्षण है। निश्चय ही उस असफल व्यक्ति के प्रयत्न में कुछ न कुछ खोट अथवा कमी रही होगी जिससे कि उसे उस समय असफलता का मुंह देखना पड़ा। यदि प्रयत्न पूरा और सावधानी के साथ किया जाय तो किसी के सम्मुख असफलता के आने का अवसर ही शेष नहीं रह जाता। पूरा और सुचारु प्रयत्न सफलता की एक ऐसी गारण्टी है जो कभी असिद्ध नहीं हो सकता।

किसी एक प्रयत्न से कोई निश्चित सफलता मिल ही जाये, यह आवश्यक नहीं। सफलता के लिए कभी-कभी प्रयत्नों की परंपरा लगा देनी होती है। परिश्रम एवं पुरुषार्थ के रूप में उसका उतना मूल्य चुका ही देना होता है, जितना चुकाना उसके लिए अनिवार्य है। एक बार असफलता का सामना हो जाने पर किसी को असफल मान लेना उसके साथ अन्याय करने के समान है। संसार में लिंकन जैसे हजारों व्यक्ति हुए हैं जिन्होंने सैकड़ों बार असफल होकर भी, अन्त में अभीष्ट सफलता का वरण कर ही लिया। सच्चा पुरुषार्थी वास्तव में वही है जो बार-बार असफलता को देखकर भी अपने प्रयत्न में शिथिलता न आने दे और हर असफलता के बाद एक नये उत्साह से सफलता के लिए निरन्तर उद्योग करता रहे। जो पत्थर एक आघात से नहीं टूटता उसे बार-बार के आघात से तोड़ा ही जा सकता है।

असफलता को अंगीकार करने का अर्थ है निराशा को निमंत्रण देना। निराशा के दुष्परिणामों के विषय में अधिक कुछ कहना व्यर्थ है। निराशा की भावना को यदि नागपाश की भांति कह दिया जाये तो कुछ अनुचित न होगा। निराशा मनुष्य की क्रियाशीलता पर सर्प की भांति लिपटकर न केवल उसकी गति ही अवरुद्ध कर देती है प्रत्युत अपने विषैले प्रभाव से उसके जीवन तत्व को भी नष्ट कर देती है।

यह अधिक अस्वाभाविक नहीं है कि असफलता की स्थिति में कभी-कभी निराशा मनुष्य के विचारों पर अपनी काली छाया डालने का साहस कर ही जाती है। किन्तु उस छाया को देर तक ठहरने न देना चाहिए। यदि यह गलती की जायेगी, तो सच मानिए, आपके वर्तमान पर ही नहीं भविष्य पर भी उसका दूरगामी कुप्रभाव पड़े बिना रह न सकेगा। वे सारे स्वप्न, सारी स्वर्ण-कल्पनायें, जिनको मूर्तिमान करने की आकांक्षा लेकर आपने कर्म क्षेत्र में कदम बढ़ाया है, सहसा धूमिल पड़ जायेंगी। आपका आत्म-विश्वास, उत्साह और साहस धीरे-धीरे साथ छोड़ने लगेगा, विचारों के माध्यम से जीवन-क्षितिज पर अन्धकार घनीभूत हो उठेगा और तब कुण्ठा और कायरता के सिवाय आपके पास कुछ भी तो शेष न बचेगा। इसीलिये बुद्धिमानी इसी में है कि असफलता के साथ निराशा को जोड़कर ऐसी हानि न की जाये जो कभी भी पूरी न हो सके।

इस अनुभव सिद्ध सत्य को स्वीकार कर लेने में सब प्रकार से हित ही हित है कि निरन्तर काम में जुटा रहना निराशा का सर्वश्रेष्ठ और सृजनात्मक उपचार है। काम में संलग्न रहने से मन की सारी वृत्तियां एकाग्रता के साथ उस काम की ओर ही प्रवृत्त रहती हैं। विचारों का प्रवाह कार्य के साथ चलता रहता है। इस संलग्नता के कारण विचारों में ऐसा कोई स्थान रिक्त नहीं रहता जहां आकर निराशा अपना अधिकार जमा सके। जहां अकर्मण्यता की स्थिति में निराशा के विचार मस्तिष्क को घेरने लगते हैं, वहां इसके विपरीत सक्रियता की स्थिति में सृजनता के कारण आशापूर्ण विचारों का उदय होता चलता है।

जीवन में सफलता की आशा रखने वालों को चाहिए कि सामयिक असफलता को चुनौती की भांति स्वीकार करे और अपनी सृजन शक्ति के बल पर असफलता की पोषक निराशा को पास न फटकने दें। जिसने निराशा से दूर रहकर असफलता को सफलता में बदल देने का दृढ़ निश्चय किया होता है, उसने मानो दूर तक अपनी मंजिल का मार्ग निरापद बना लिया होता है।

सफलता के मार्ग में कठिनाइयों का आना असंभव नहीं, उनका आना स्वाभाविक है। जिस मार्ग में कठिनाई नहीं, जिस पर विरोध अथवा अवरोध की संभावना नहीं, वह मार्ग किसी महान ध्येय की ओर जा रहा है—ऐसा मान लेने में जल्दी नहीं करनी चाहिए। आज तक के प्रत्येक महापुरुष का जीवन बतलाता है कि महानता की ओर जाने वाला आज तक ऐसा कोई मार्ग अन्वेषण नहीं किया जा सका जिस पर कठिनाइयों का सामना न करना पड़े बीच-बीच में आने वाली कठिनाइयां इस बात की साक्षी हैं कि अमुक मार्ग किसी असामान्य ध्येय की ओर जाता है।

अपने ध्येय मार्ग पर विघ्न-बाधाओं को देखकर अनेक लोग हतोत्साहित हो उठते हैं। ऐसे व्यक्तियों को यह मान लेने में संकोच न करना चाहिए कि किसी महान सफलता को वरण करने की उनकी आकांक्षा परिपक्व नहीं है। इस प्रकार की आकांक्षा जिनके हृदय में लगन बनकर लगी होती है वे हंसते-खेलते विघ्न-बाधाओं से टक्कर लेते हुए साहसपूर्वक अपने ध्येय मार्ग पर बढ़ते चले जाते हैं। मार्ग की कठिनाइयों से टकराने में जिस आत्मिक-आनन्द की उपलब्धि होती है, उसे पाने के अधिकारी ऐसे पुरुषार्थी पुरुषों के सिवाय और कौन हो सकता है?

ध्येय मार्ग का कोई भी सच्चा पथिक इस सत्य के समर्थन में उत्साह प्रकट किए बिना नहीं रह सकता कि मार्ग में यदि कठिनाइयों से टकराने का अवसर न मिले तो असहनीय नीरसता का समावेश हो जाये और वह नीरसता लक्ष्य पर पहुंचकर दूर नहीं हो सकती। उस नीरसता के साथ मंजिल पर पहुंचने पर कौन-सी नवीनता, कौन-सा संतोष और कौन-सा हर्ष उपलब्ध हो सकता है? यह मार्ग की बाधायें दूर करने में किये गये संघर्ष की ही विशेषता है जो मंजिल पर पहुंच कर विश्राम संतोष और आनन्द के रूप में अनुभव होती है। प्रगति का वास्तविक आनन्द इसी में है कि कठिनाइयों का संयोग आता रहे और उन पर विजय प्राप्त की जाती रहे। हलचल के बिना जीवन सूना और नीरस हो जाता है।

कठिनाइयों से भय मानना अंतर में छिपी कायरता का द्योतक है। अपनी इस कायरता के कारण ही मार्ग में आई कठिनाई पहाड़ के समान दुरूह मालूम होती है। किन्तु जब उस कठिनाई को दूर करने के लिए साहसपूर्वक जुट पड़ा जाता है तो यह विदित होते देर नहीं लगती कि जिस कठिनाई को हम पर्वत के समान दुर्गम समझ रहे थे वह उस बादल के समान हीन अस्तित्व थी जो थोड़ी हवा लगने पर टुकड़े-टुकड़े होकर छितरा जाता है।

सफलता को आसान समझकर उसकी कामना करने वाले व्यक्ति प्रौढ़ बुद्धि के नहीं माने जा सकते। सफलता की उपलब्धि सरलता से नहीं कठोर संघर्ष से सम्भव होती है। अध्ययन, अध्यवसाय एवं अनुभव की साधना किए बिना अभीष्ट सफलता को पा सकने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। अपने को योग्य बनाकर पूरे संकल्प के साथ लक्ष्य की ओर बढ़ना होगा। मार्ग में आने वाली बाधाओं का, यह मानकर स्वागत करना होगा कि वे हमारे साहस, निश्चय और संकल्प की परीक्षा लेने आयीं हैं। कठिनाइयों को देखकर भयभीत होने के स्थान पर उन्हें दूर करने के लिए जी जान से जुट जाना होगा। इस प्रकार पूरे समारोह और साहस के साथ लक्ष्य की ओर अभियान करने पर सफलता की आशा की जा सकती है। इसमें संदेह नहीं कि ऐसा अदम्य उद्योग और उत्साह की क्षमता प्रकट करने वाले पुरुषार्थी पुरुषों के गले में जयमाला पड़ती ही है और वे समाज द्वारा अभिवंदिन होकर उन्नति के उच्च सिंहासन पर अभिषेक के अधिकारी बनते हैं।

सफलता की सिद्धि मनुष्य का जन्म सिद्ध अधिकार है। जो व्यक्ति अपने इस अधिकार की उपेक्षा करके यथा-तथा जी लेने में ही संतोष मानते हैं वे इस महामूल्य मानव-जीवन का अवमूल्यन कर एक ऐसे सुअवसर को खो देते हैं जिसका दुबारा मिल सकना संदिग्ध है।
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