विचारों की सृजनात्मक शक्ति

न आत्म-विश्वास खोयें, न भयाक्रान्त रहें

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अपने ऊपर से विश्वास खो बैठने की मनःस्थिति को ‘आत्महीनता’ ‘इन्फीरियॉरिटी कॉम्पलेक्स’ कहते हैं। इसमें कोई मस्तिष्कीय विकृति नहीं होती। इसे कोई रोग भी नहीं कहा जा सकता। यह किसी कारण से आरम्भ होते-होते—आत्म-विश्वास गंवा बैठने की आदत भर है।

इस आदत का प्रमुख लक्षण अपने आपको तुच्छ, हीन, असमर्थ, उपेक्षित एवं पराजित मानना है। ऐसी दशा में व्यक्ति दूसरों से शर्माता है और उनसे पीछा छुड़ाने को मन होता है। कहीं ऐसी जगह छुपने का मन करता है जहां दूसरे लोग देखें नहीं। देखें तो वार्तालाप न करें। उसे एक प्रकार का डर-सा लगता है। यह डर किस बात का? कोई मारेगा या त्रास देगा ऐसा भय तो नहीं होता? पर इतना जरूर होता है कि अपने ऊपर से भरोसा उठ जाता है और लगता है कि दूसरों से सम्बन्ध साधने पर या तो निन्दा होगी या कुछ ऐसा बन पड़ेगा जिसका अर्थ होता है पराजित या अपमानित होना।

वस्तुतः ऐसी कोई बात नहीं होती कि दूसरे लोग बुरा इरादा रखते हों। द्वेष मानते हों या गिराने, डराने के लिए मिले हों पर दूसरों के साथ मिलने-जुलने आत्मीयता विकसित करने की सामर्थ्य भीतर से टूट जाती है तो मन की बात किसी के सामने प्रकट करने की हिम्मत नहीं रहती। हौसला पस्त हो जाता है और मिलने पर यही डर बना रहता है कि न जाने कोई क्या पूछ बैठे? उसका उत्तर अपने से बने या नहीं? कुछ उत्तर दिया जाय तो उपहास या विरोध तो न होने लगे?

यों अकारण कोई किसी से लड़ता नहीं और न तिरस्कार की दृष्टि से मिलता-जुलता ही है। सभी को विचारों का आदान-प्रदान करने की—अपनी कहने दूसरे की सुनने की इच्छा होती है क्योंकि वह मनोरंजन का सुगम और अच्छा तरीका है, पर साथ ही यह भी आवश्यक है कि सामने वाले भी मिलनसार हों। वह अकारण दोषी की तरह झेंपता-झिझकता न हो। अन्यथा उपेक्षा दिखाने पर, दबे-दबे, धीमे-धीमे शब्दों में कुछ उत्तर देने में अपनी ओर से वार्तालाप न करने से दूसरों आदमी भी खीझता नहीं तो कम से कम इतना तो करता ही है कि लोकाचार की सामान्य वार्ता करने के उपरान्त अपना मुख मोड़ ले और किसी से बात करने लगे। यह स्वाभाविक भी है, पर वह झेंपू व्यक्ति इसे भी अपने उपेक्षा या पराजय मानता है और इस मिलन पर कोई प्रसन्नता व्यक्त नहीं करता।

देहाती परम्परा के अनुसार नव वधुओं को कई दिन तक घूंघट निकाल कर चुपचाप किसी कोने में पीठ फेर कर बैठा रहना पड़ता है। कुछ कहना हो तो इतने धीमे शब्दों में अति संक्षेप में या इशारे से अपनी बात कहती हैं। पुरातन पंथी वृद्धायें इस संकोचशीलता को सराहती भी हैं और ऊंचे कुल खानदान की बात कर उसे सराहती है। कई पुरुष भी ऐसी ही मनःस्थिति के होते हैं संकोचशील या डरपोक। इससे सर्वत्र अजनबी वातावरण ही दिखते और परिचित भी अपरिचित जैसे लगते हैं और खुलकर वार्तालाप करते हुए उन्हें संकोच सताता है। अपनी व्यथा एवं समस्या तक मुंह खोलकर कह नहीं पाते फिर दूसरों का परामर्श या समाधान प्राप्त करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। आमतौर से अशिक्षित महिलाओं में यह दोष उन क्षेत्रों में अधिक पाया जाता है जहां घूंघट-पर्दे का रिवाज अधिक होता है। वे घुटती रहती हैं, पर अपनी कठिनाइयों को कह नहीं पातीं। लगाये गये दोषारोपणों को भी निर्दोष होते हुए सुनती रहती हैं। उत्पीड़न शोषण भी सहती हैं, पर आंसू बहाने के और चुप रहने के अतिरिक्त और कुछ कह नहीं पातीं। चुप रहना भी अर्ध स्वीकृति मानी जाती है जहां दोषारोपण पर सर्वथा चुप रहना—शालीनता का चिह्न माना जाता है। वहां उससे यह भी प्रकट होता है कि आक्षेप सही है अन्यथा सफाई क्यों नहीं दी गई। ऐसी महिलाओं पर गुण्डे बदमाश भी घात लगाते और छेड़खानी करने में नहीं चूकते क्योंकि उन्हें यह भय नहीं रहता कि विरोध का सामना करना पड़ेगा। असहाय भेड़ बकरियों की तरह हर कोई उन्हें सताने को बैठा रहता है।

ठीक यही बात पुरुषों के सम्बन्ध में भी है। कोई चापलूस उन्हें आध्यात्मिक, दार्शनिक सज्जन, गम्भीर आदी भी कह सकते हैं, पर असल में उन्हें मूर्ख, प्रतिभाहीन और अयोग्य ही समझा जाता है। निरर्थक वाचालता अपनाने वाले भी अपना मूल्य महत्वपूर्ण व्यक्तियों की आंखों में गिरा लेते हैं पर यह भी स्पष्ट है कि डरपोक और अनावश्यक संकोचशील अपनी योग्यता में कमी होने का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं और जहां जाते हैं वहीं घटा उठाते हैं। असामाजिक, गैर मिलनसार व्यक्तियों से कोई प्रसन्न नहीं रहता। उन पर दुराव या दोष लगता है और चाहते हुए भी कुछ परामर्श या सहयोग दे सकने की स्थिति तक नहीं पहुंच पाता। इस प्रकार यह आदत मनुष्य को पग-पग पर नीचा दिखाने वाली ही सिद्ध होती है। ऐसे लोग जीवन में कभी महत्वपूर्ण सफलता अर्जित नहीं कर सकते। भले ही वे भाग्य को, समय को या सम्बन्धियों को इसके लिए दोषी ठहराते रहें। अस्तु जिन्हें भी इस व्यथा ने घेर लिया हो, उन्हें इसके दुष्परिणाम समझने चाहिए और धीरे-धीरे मिलनसारी की, वार्तालाप की और हंसने-हंसाने की आदत डालनी चाहिए। अपनी कहने और दूसरे की सुनने वाले सहज ही अपने मित्र बढ़ा लेते हैं और शत्रुता की लकीरों को धोकर सहज ही साफ कर देते हैं।

उससे अगला चरण है—भयाक्रान्त रहने का। इसकी मानसिक रोगों में भी गणना होती है और उपचार के लिए चिकित्सकों मनोविज्ञानियों एवं भूत झाड़ने वाले ओझाओं का दरवाजा खटखटाना पड़ता है। इस भयाक्रान्त मनःस्थिति को चिकित्सकों की भाषा में ‘फोबिया’ कहते हैं। सनक की तुलना अधिक कष्टप्रद मानते हैं। सनकी व्यक्ति कल्पना करता है और बिना प्रमाण की-खोजबीन की आवश्यकता समझे अशुभ मान्यतायें गढ़ लेता है और उसी दुराग्रह के कारण अपना और दूसरों का अनर्थ करता है। उन पर किसी के समझाने का भी असर नहीं पड़ता। ऐसे लोगों की अर्ध-विक्षिप्तों में गणना होती है। सनकी लोग उन्मादियों की तरह बिना बात पर ऐसा भरोसा भी कर सकते है जैसा कि अन्ध-विश्वासी करते हैं। आवेश उतरने पर उन्हें पछताते, सिर धुनते देखा गया है।

‘फोबिया’ भयाक्रान्त मनःस्थिति के रोगी हर समय डरते-रहते हैं और कारण न होने पर भी कल्पना के सहारे गढ़ लेते हैं। ऐसे लोग वयस्क होते हुए भी अन्धेरे में उठकर पेशाब तक नहीं जा सकते। चूहों की खट-खट उन्हें चोरों की सेंध लगाने जैसी प्रतीत होती है। झुरमुट या पेड़ की हिलती डालियां भूत-चुड़ैलों जैसी लगती हैं। ऐसे लोग ज्योतिषियों के चंगुल में आसानी से फंस जाते हैं। डर का लाभ उठाकर ग्रह शान्ति करने वाले या भूत भगाने वाले उनकी उलटे उस्तरे से हजामत बनाते रहते हैं। भयाक्रान्त के मन में निरन्तर आक्रमण, प्रतिशोध और विश्वासघात छाया रहता है। वे अकारण अपना जीवन भार बना लेते हैं और मित्रों पर भी शत्रुओं जैसे आरोप लगाते हैं। भविष्य उन्हें कठिनाइयों और विपत्तियों से भरा हुआ दीखता है।

इस मनःस्थिति को अपने भीतर विवेकशीलता, यथार्थवादिता साहसिकता अपनाकर दूर किया जा सकता है। यह कार्य भले ही स्वयं कर लिया जाय या किसी विचारशील का आश्वासन प्रोत्साहन उपलब्ध कर लिया जाय।

आत्म-विश्वास ही सफलता का मूल-मन्त्र :

स्वामी रामतीर्थ कहते थे—‘‘धरती को हिलाने के लिये धरती से बाहर खड़े होने की आवश्यकता नहीं है, आवश्यकता है आत्मा की शक्ति को जानने-जगाने की।’’ इस उक्ति में आत्मा की शक्ति की उस महत्ता का प्रतिपादन किया गया है, जिसका दूसरा नाम आत्म-विश्वास है। जिसका साक्षात्कार करके कोई भी व्यक्ति अपने परिवार में तथा अपने में आशातीत परिवर्तन कर सकता है। विवेकानन्द, बुद्ध, ईसा, सुकरात और गांधी की प्रचण्ड आत्म-शक्ति ने युग के प्रवाह को मोड़ दिया। अभी हाल के स्वतंत्रता संग्राम में महात्मा गांधी ने सशक्त ब्रिटिश साम्राज्य की नींव उखाड़ दी। उन्होंने अपनी दृढ़ संकल्प शक्ति तथा आत्म-विश्वास के सहारे अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर विवश किया। स्वामी विवेकानन्द एवं रामतीर्थ जब संन्यासी का वेश धारण कर अमेरिका गये तो उपहास के पात्र बने किन्तु बाद में उन्होंने आत्म-विश्वास के सहारे विश्व को जो कुछ दिया वह अद्वितीय है।

आत्म-विश्वास के समक्ष विश्व की बड़ी से बड़ी शक्ति झुकती रहेगी। इसी आत्म-विश्वास के सहारे आत्मा ओर परमात्मा के बीच तादात्म्य उत्पन्न होता है तथा अजस्र शक्ति के स्रोत का द्वार खुल जाता है। कठिन परिस्थितियों एवं हजारों विपत्तियों के बीच भी मनुष्य आत्म-विश्वास के सहारे आगे बढ़ता जाता है तथा अपनी मंजिल पर पहुंच कर रहता है।

मानव जाति की उन्नति के इतिहास में महापुरुषों के आत्म-विश्वास का असीम योगदान रहा है। भौतिक दृष्टि से तात्कालिक असफलताओं को शिरोधार्य करते हुए भी उन्होंने विश्वास न छोड़ा और अभीष्ट सफलता प्राप्त की। आत्म-विश्वास का जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। लौकिक एवं अलौकिक सफलताओं का आधार यही है। उसके सहारे ही निराशा में आशा की झलक दीखती है। दुःख में भी सुख का आभास होता है। इससे बड़े-बड़े कार्य सम्पन्न किए जा सकते हैं, किए गये हैं। चीन की दीवार मिस्र के पिरामिड, पनामा नहर एवं दुर्गम पर्वतों पर विनिर्मित सड़कें व भवन इसका प्रत्यक्ष प्रमाण देते हैं।

वस्तुतः समस्त शारीरिक एवं मानसिक शक्तियों का आधार आत्म विश्वास ही है। इसके अभाव में अन्य सारी शक्तियां सुप्तावस्था में पड़ी रहती हैं। जैसे ही आत्म-विश्वास जागृत होता है अन्य शक्तियां भी उठ खड़ी होती हैं और आत्म-विश्वास के सहारे असंभव समझे जाने वाले कार्य भी आसानी से पूरे हो जाते हैं। वैयक्तिक जीवन में भी आत्म-विश्वास ही संपूर्ण सफलताओं का आधार है। विश्वास के अभाव में ही श्रेष्ठतम उपलब्धियों से लोग वंचित रह जाते हैं। असफलताओं का कारण है अपनी क्षमता को न पहचान पाना और अपने को अयोग्य समझना। जब तक अपने को अयोग्य, हीन, असमर्थ समझा जायेगा, तब तक सौभाग्य एवं सफलता का द्वार बन्द ही रहेगा।

व्यक्ति जब अपने अन्दर छिपी हुई शक्तियों के स्रोत को जान लेता है तो वह भी देव तुल्य बन जाता है। विश्वास के जागृत होते ही आत्मा में छुपी हुई शक्तियां प्रस्फुटित हो उठती हैं। हमारे अन्दर के श्रेष्ठ विचार महत्वपूर्ण कार्य के रूप में परिणत हो जाते हैं। इसके विपरीत अपने प्रति अविश्वास से तो शक्ति के स्रोत सूख जाते हैं और लोग भण्डार के होते हुए भी दीन तथा दरिद्र ही बने रहते हैं।

अपने विषय में जैसी मान्यता बनायी जाती है, इसके द्वारा भी वैसा ही व्यवहार किया जाता है। जो व्यक्ति अपने को मिट्टी समझता है, अवश्य कुचला जाता है। धूल पर सभी पांव रखते हैं किंतु अंगारों पर कोई नहीं रखता। जो व्यक्ति कठिनतम कार्यों को भी अपने करने योग्य समझते हैं, अपनी शक्ति पर विश्वास करते हैं, वे चारों ओर अपने अनुकूल परिस्थितियां उत्पन्न कर लेते हैं। जिस क्षण व्यक्ति दृढ़तापूर्वक किसी कार्य को करने का निश्चय कर लेता है तो समझना चाहिए कि आधा कार्य पहले ही पूर्ण हो गया। दुर्बल प्रकृति के व्यक्ति शेखचिल्ली के समान कोरी कल्पनायें मात्र किया करते हैं किन्तु मनस्वी व्यक्ति अपने संकल्पों को कार्य रूप में परिणत कर दिखाते हैं। विराट् वृक्ष की शक्ति छोटे से बीच में छिपी रहती है। यही बीज खेत में पड़कर उपयोगी खाद-पानी प्राप्त करके बड़े वृक्ष के रूप में प्रस्फुटित होता है उसी प्रकार मनुष्य के अन्दर भी समस्त संभावनायें एवं शक्तियां बीज रूप में छिपी हुई हैं जिनको विवेक के जल से अभिसिंचित कर तथा श्रेष्ठ विचारों को उर्वरा खाद देकर जागृत किया जा सकता है। यदि व्यक्ति अपने अन्दर की अमूल्य शक्ति एवं सामर्थ्य को जान लेने में सफल हो जाय तो वह सामान्य से असामान्य और असामान्य से महान हो सकता है। मनुष्यों की संगठित शक्ति यदि श्रेष्ठ मार्ग पर चल पड़े तो विश्व का काया-कल्प ही हो सकता है। शक्ति के उदित होते ही असम्भव समझे जाने वाले कार्य भी सम्भव हो जाते हैं जिनको पूर्ण हुए देखकर आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहता।

मानव जीवन ईश्वर का दिया हुआ सर्वोपरि उपहार है। इसका महत्व एवं गरिमा तभी है जब व्यक्ति इन पंगु विचारों को अपने मन में स्थान न दे। उनसे शक्ति का प्रवाह बन्द हो जाता है। ईश्वरीय अनुदान एवं दी हुई शक्ति का महत्व जीवन के सदुपयोग में है। अपने को उठाना तथा दूसरों को भी उठाने में सहयोग करने में ही मानव जीवन की सार्थकता है।

जब तक हम किसी कार्य में अपनी समस्त शक्तियां लगा नहीं पाते, मन एकाग्र नहीं करते तब तक वह कार्य पूर्ण नहीं हो सकता। कार्य जितना कठिन होता है उसके लिए उतने ही दृढ़ विश्वास एवं योगी की तरह तन्मय होकर निरन्तर प्रयत्न करने की आवश्यकता होती है। ईश्वरीय सत्ता भी उन्हीं की सहायता करती है जो स्वयं प्रयत्नशील हैं। आत्म-विश्वास, सतत् परिश्रम एवं दृढ़ निश्चय के समक्ष कुछ भी असम्भव नहीं है। इन्हीं गुणों के प्रकाश में ऐतिहासिक कार्य संसार में सम्पन्न हुए हैं। विद्वानों, महापुरुषों, धर्म-प्रवर्तकों, योद्धाओं, सृजेताओं, शोधकर्त्ताओं के ज्वलन्त उदाहरण इस बात के साक्षी हैं कि उन्होंने आत्म-विश्वास के आधार पर क्या नहीं कर दिखाया? छोटी-छोटी बैटरियों की शक्ति शीघ्र ही समाप्त हो जाती है किन्तु जिन बत्तियों का संबंध पावर हाउस से होता है वह निरन्तर जलती रहती हैं। आत्म-विश्वास वह संपर्क माध्यम है जिसके सहारे अकूत शक्ति के भण्डार परमात्मा के साथ संबंध स्थापित किया जा सकता है। मनुष्य को चाहिए कि वह अपने विचारों को कार्य रूप में परिणत करे। स्वार्थ से दूर रहकर अपनी दृष्टि का विकास करे। सद्गुणों को धारण कर इसी जीवन में गौरवान्वित एवं सम्मानास्पद बना जा सकता है।

श्रेष्ठ मार्ग पर नियोजित व्यक्तियों की शक्तियां श्रेयस्कर परिणाम उपस्थित करती हैं, जिसे लोग भाग्य चमत्कार समझते हैं। वास्तव में वे व्यक्ति की दृढ़ निष्ठा एवं आत्म-विश्वास का परिणाम ही होती हैं।

विधेयात्मक ही सोचें, रचनात्मक ही विचारें : मनोवैज्ञानिक डॉ. नारमन विन्सेण्ट पीले के अनुसार मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास उसके चिन्तन और चरित्र पर निर्भर करता है। निषेधात्मक या विधेयात्मक चिन्तन एक प्रकार की विचार शैली है जिसमें व्यक्ति विषम या प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपना मनोबल ऊंचा बनाये रहता है और अच्छे परिणामों की आशा रखता है। विपन्न परिस्थितियां, प्रतिकूलतायें एक नया स्वर्णिम सुअवसर लेकर आती हैं जिनसे वह सबक सीखना और अपने व्यक्तित्व को निखारना, प्रखर बनाना अनिवार्य समझता है। विधेयात्मक पक्ष की ओर देखना, सोचना, संकल्प युक्त विवेकशील मन की एक प्रक्रिया है जो व्यक्ति के चयन पर निर्भर करती है।

अच्छाइयों में आस्था रखने वाले आत्मविश्वासी उत्साही व्यक्ति के मन-मस्तिष्क में यह बात सदैव जीवन्त बनी रहती है कि ‘प्रगति का एक दरवाजा बन्द हो जाने पर सुनिश्चित रूप से दूसरे अनेक रास्ते खुलेंगे ही।’ विधेयात्मक दृष्टिकोण अपनाने वाले सदैव बुराइयों से अपना पीछा छुड़ाने और अच्छाइयों को अपनाने का प्रयत्न करते हैं। फलतः अच्छाइयां उनके जीवन और दृष्टिकोण का अंग बन जाती हैं। ऐसे व्यक्ति उज्ज्वल भविष्य की ओर देखते हैं और अन्धकारमय क्षणों—प्रतिकूल परिस्थितियों में अधिक प्रफुल्ल, उत्पादक और रचनात्मक दिशाधारा अपनाते हैं। यह मनोदशा ही उन्हें द्रुतगति से सफलता की ओर ले जाती है। उत्साही व्यक्ति ही इन विघ्न-बाधाओं से लोहा लेते और उन्हें निरस्त करते हुए प्रगति पथ पर आगे बढ़ते हैं।

प्रख्यात विचारक एवं मनीषी विलियम जेम्स के अनुसार संसार में दो तरह के व्यक्ति पाये जाते हैं। पहले हैं—टफ माइण्डेड (नरम स्वभाव वाले संवेदनशील) व्यक्ति। नरम स्वभाव वाले व्यक्ति कठिनाइयों विघ्न-बाधाओं के उपस्थित हो जाने पर विचलित हो उठते हैं। आलोचना किए जाने पर तो उनका दिल ही बैठ जाता है। वे ऐसे व्यक्ति होते हैं जो रिरियाते चीखते-चिल्लाते भर हैं और कुछ न कर पाने के कारण असफलता ही उनके हाथ लगती है। सख्त मिज़ाज वालों की स्थिति इनसे भिन्न होती है। जीवन के हर क्षेत्र में वे सक्रिय और सफल होते देखे हैं। कैसी ही विषम कठिनाई या प्रतिकूलता क्यों न हो उससे वे हार नहीं मानते। प्रतिकूलता को ईश्वर का वरदान समझकर नई सूझबूझ के साथ उसका सामना करते हैं। विश्व प्रख्यात लेखक स्काट निवासी थामस कार्लायल ऐसे ही थे जिन्हें अपनी सारी जिन्दगी फाका-मस्ती में काटनी पड़ी थी फिर अध्यवसाय के बलबूते वे सफलता की चरम सीमा तक पहुंचे थे। उनकी समाधि पर बने चबूतरे के एक ओर खुदी उनकी कुछ प्रेरक पंक्तियां आज भी स्काटवासियों के लिए ही नहीं वरन् समस्त विश्व वासियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी हुई हैं। प्रेरक पंक्तियों का निष्कर्ष है ‘‘न तो कभी निराश हो और न कभी हार मानो—उठो, खड़े हो जाओ और संघर्ष करो। जब तक विजयी न हो जाओ। ईश्वर तुम्हारी सहायता करेगा।’’ कार्लायल कहते हैं—‘जीवन हममें से प्रत्येक से यही पूछता है कि क्या तुम बहादुर बनोगे? अथवा कायर बनना पसंद करोगे? निश्चय ही हमें मजबूत निर्भय और उत्साही बनना होगा। विधेयात्मक चिन्तन करने वाला व्यक्ति कायर नहीं हो सकता। वह स्वयं के जीवन में, मानवता और ईश्वर में विश्वास रखता है, अपनी योग्यता और क्षमता को पहचानता है। वह निर्भीक एवं अपराजेय होता है। जो कुछ सामने आता है उसी से अपने उपयोग की अच्छाइयां छांट लेता है।’

भली-बुरी परिस्थितियों का निर्माण करना, बहादुर या कायर बनना व्यक्ति के अपने दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। विधेयात्मक पक्ष अपनाने पर कायर व्यक्ति भी धीरे-धीरे निडर और हिम्मत वाला बन जाता है उसकी सारी परिस्थितियां पलट जाती हैं। अपनी त्रुटियों को पहचानना, उन्हें सुधारना, किये पर पश्चात्ताप करना, दण्ड पाना और भविष्य में वैसा न होने देने को कृत-संकल्पित होना अनिवार्य है। मन में सद्विचारों, सत्कर्मों और दृढ़-संकल्पों की त्रिवेगी जहां सदैव हिलोरें मारती रहती हैं वहां प्रगति का रुका हुआ अवरुद्ध मार्ग अपने आप ढह जाता है। सद्विचारों में असीम शक्ति होती है। विचार गत्यात्मक, जीवन्त और रचनात्मक हों तो व्यक्ति परिस्थितियों को बदल सकता है, उन पर नियंत्रण कर सकता है और अपना भविष्य सुखमय बना लेता है। लेकिन यदि विचार हेय स्तर के घृणा, बेईमानी और असफलता से भरे हुए हैं तो वे व्यक्ति तथा समाज के लिए विनाशकारी परिस्थितियां उत्पन्न करते हैं।

डिजरायली कहा करते थे कि हमें अपने मस्तिष्क को महान विचारों से भर लेना चाहिए तभी हम महान कार्य सम्पादित कर सकते हैं। लोग क्षुद्र विचारों को अपने बारे में, अपने बीवी-बच्चों, परिवार, व्यापार आदि के सम्बन्ध में ही सोचते और मरते-खपते रहते हैं। परिणामतः उसी स्तर के प्रतिफल भी उन्हें हाथ लगते हैं। यह एक तथ्य है कि जितना महान दृष्टिकोण और ऊंचे विचार होंगे उसी अनुपात में हमारे व्यक्तित्व का निर्माण होता जायेगा। मनोवैज्ञानिकों की अवधारणा है कि मन-मस्तिष्क या अन्तःकरण में उठने वाली वैचारिक तरंगें, कल्पनायें या भावनायें हमारे व्यक्तित्व को प्रकाशित करती हैं।
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