विचारों की सृजनात्मक शक्ति

प्रतिकूलताओं से जूझें, सन्तुलन बनाये रखें

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जीवन जीते समय खिलाड़ी द्वारा खेले जाने जैसी मनःस्थिति होनी चाहिए। आये दिन घटित होने वाले घटनाक्रमों को संसार में निरन्तर चलने वाली अनुकूल-प्रतिकूल लहरों में से एक मानना चाहिए। समुद्र में ज्वार-भाटे आते रहते हैं, तालाबों में लहरें उठती रहती हैं, पर इससे उनके अन्तराल में स्थिरता ही बनी रहती है। कोई विक्षेप नहीं होता। उसी प्रकार समय-समय पर आती-जाती रहने वाली अनुकूलताओं और प्रतिकूलताओं के सम्बन्ध में भी मन को संयमित-संतुलित बनाये रहना चाहिए। यह तभी सम्भव हो सकता है जब बदलती परिस्थितियों की क्रमबद्धता को सामान्य माना जाये, उन्हें असामान्य होने का महत्व न दिया जाये।

मनोवैज्ञानिक जैम्स का कथन है कि ‘यह सम्भव नहीं कि सदा अनुकूलता ही बनी रहे, कभी प्रतिकूलता न आये।’ दिनमान की कितनी ही महत्ता क्यों न हो, पर उसका भी संध्याकाल में अवसान होता ही है। दिन के समय जो प्रकाश था, ऊष्मा का जैसा प्रवाह था उस सबका रात्रि का आगमन होते ही अन्त हो जाता है। परिस्थिति सर्वथा विपरीत बन जाती है, सघन अन्धकार छा जाता है—इस परिवर्तन को रोका नहीं जा सकता। अन्धकार से कितना ही डरा जाय और कोसा जाय वह नियतिक्रम के अनुरूप आना ही है। उस आगमन को रोकने के लिए सिर खपाने की अपेक्षा यही उचित है कि अपनी गतिविधियों में ऐसा हेर-फेर कर लिया जाय जो परिवर्तित परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठा सके।

रात्रि को आमतौर से सभी सो जाते हैं, इस विवशता के पीछे एक लाभ भी है कि दिनभर के किये हुए श्रम की थकान मिटती है। दूसरे दिन नई स्फूर्ति के साथ काम करने का अवसर मिलता है। दिन छिपने पर सभी घर लौट आते हैं और परिवार के साथ रहने, मौज मनाने का अवसर प्राप्त करते हैं। रात्रि निरर्थक असुविधाजनक और डरावनी प्रतीत होती है तो भी विचार करने पर प्रतीत होता है कि उसकी भी अपनी उपयोगिता और आवश्यकता थी। प्रकृति ने इसी आधार पर उसका अहर्निश चलते रहने वाला चक्र घुमाया है।

ऋतु परिवर्तन में एक दूसरे से सर्वथा भिन्नता रहती है। वर्षा के दिनों वाली स्थिति सर्दी में नहीं रहती, जो दृश्य सर्दी के दिनों में दृष्टिगोचर होता है वह गर्मी में नहीं रहता। बसन्त और शरद की परिस्थितियां अपने ढंग की अनोखी हैं। उस समय जैसी परिस्थितियां अन्य किसी ऋतु के साथ नहीं बनती। हो सकता है किसी को कोई ऋतु अनुकूल पड़ती हो किसी को प्रतिकूल। बुवाई के दिनों में वर्षा उपयोगी लगती है और कटाई के दिनों गरम मौसम सुहाता है। कुम्हार पूरे साल सूखा पसंद करता है और माली का उद्यान तब उमंगता है जब बदली छाई रहे, बूंदा–बांदी होती रहे। भावुकों की उमंग बसंत में इतराती है। काँस फूलने से शरद में समूचा क्षेत्र सुहावना लगता है। यह पसंदगियाँ किन्हीं को कितनी ही प्रिय क्यों न लगती हों, पर उनका सदा बने रहना सम्भव नहीं। थोड़े-थोड़े समय के लिए वे अपनी छटा दिखाती हैं और फिर दूसरे दौर में बदल जाती हैं। उन्हें इस बात की परवाह नहीं रहती कि उनका आगमन-पलायन किन को प्रिय लगता है और किनको अप्रिय। नियति का क्रम नहीं बदला जा सकता, अपने को ही उस परिवर्तन के अनुरूप ढालना बदलना पड़ता है।

खेल-खिलाड़ी निरन्तर हारते-जीतते रहते हैं। ताश-शतरंज में भी हार-जीत होती रहती है, किन्तु खेलने वाले उसकी परवाह नहीं करते। चेहरे पर शिकन तक नहीं आने देते, जो इतना कर पाते हैं, उन्हीं को खेल का आनन्द आता है। जो हर हार पर उदास होते हैं और जीत पर इतराते हैं उनका खिलाड़ी होना व्यर्थ है।

मध्यवर्ती सन्तुलन स्वाभाविक स्थिति है। तापमान बढ़ जाने से ज्वर माना जाता है। शरीर ठण्डा रहे तो वह भी शीत प्रकोप माना और चिन्ताजनक समझा जाता है। रक्तचाप बढ़ने की ही तरह उसका घटना भी रुग्णता का चिन्ह है। किसी अनुकूलता से लाभान्वित होने पर हर्षातिरेक में उछलने लगना भी असंगत है और असफलता की प्रतिकूलता का सामना करने पर विषाद में डूब जाना और सिर धुनना भी अविकसित अनगढ़ व्यक्तित्व का चिन्ह है। इस असंतुलनों से बचा ही जाना चाहिए।

सभी व्यक्ति इच्छानुकूल आचरण करेंगे—यह आशा रखना व्यर्थ है। सभी अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व रखते हैं। जन्म-जन्मान्तरों के संचित भले-बुरे संस्कार साथ लेकर आते हैं। पलने और विकसित होने की परिस्थितियों में भिन्नता रहती है। किसी पेड़ के पत्तों का गठन आपस में मिलता-जुलता है, उप उनमें भिन्नता अवश्य रहती है। हर आदमी के अंगूठे के निशानों में अन्तर होता है। एक आकृति-प्रकृति के दो मनुष्य कहीं नहीं देखे गये। भिन्नता ही इस संसार की विशेषता है। उसके आधार पर बहुत तरह से सोचने और स्थिति के अनुरूप बदलने, व्यवहार करने की कुशलता आती है। मनुष्य बहुज्ञ, बहुश्रुत, बहुकौशल सम्पन्न इसी आधार पर बनता है। उतार-चढ़ावों का सामना करते रहने से ही व्यावहारिकता में निखार आता है।

हल्के बर्तन चूल्हे पर चढ़ते ही आग-बबूला हो जाते हैं और उसमें डाले गये पदार्थ उफनने लगते हैं, पर भारी-भरकम बर्तनों में जो पकता है उसकी गति तो धीमी होती है, पर परिपाक उन्हीं में ठीक से बन पड़ता है। हमें बबूले की तरह फूलना, फुदकना और इतराना नहीं चाहिए रीति-नीति स्थिर नहीं रहती, वह कुछ क्षण में टूट-फूट जाती है। प्रवाह झरने जैसा होना चाहिए जो नियत क्रम से नियत दिशा में प्रवाहमान रहे। तभी वह अपने स्वरूप को सही बनाये रह सकता है, सही रीति-नीति से सही काम कर सकता है। चंचलता व्यग्रता की मनःस्थिति में सही निर्धारण और सही प्रयास करते-धरते नहीं बन पड़ता। असंतुष्ट और उद्विग्न व्यक्ति जो सोचता है एक पक्षीय होता है और जो करता है, उसमें हड़बड़ी का समावेश रहता है। ऐसी मनःस्थिति में किये गये निर्धारण या प्रयास प्रायः असफल ही होते हैं, उन्हें यशस्वी बनने का अवसर नहीं मिलता। आवेश या अवसाद दोनों ही व्यक्ति को लड़खड़ाती स्थिति में धकेल देते हैं। ऐसी दशा में निर्धारित कार्यों को पूरा कर सकना, साथियों के साथ उपयुक्त तालमेल बिठाये रह सकना कठिन जान पड़ता है। प्रतिकूलतायें बाह्य परिस्थितियों के कारण जितनी आती हैं उससे कहीं अधिक निज का असन्तुलन काम को बिगाड़ता है। व्यक्ति को उपहासास्पद, अस्थिर, अप्रामाणिक बनाता है।

सबसे बड़ी बात यह है कि उत्तेजना शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालती है। आक्रोश में भरे हुए उद्विग्न व्यक्ति न चैन से रहते है, न दूसरों को रहने देते हैं। रक्त उबलता रहता है, विचार क्षेत्र में तूफान उठता रहता है। फलतः जो व्यवस्थित था वह भी यथास्थान नहीं रह पाता। पाचन तन्त्र बिगड़ता है, रक्त प्रवाह में व्यतिरेक उत्पन्न होता है, असंतुलित मस्तिष्क अनिद्रा, अर्द्धविक्षिप्तता जैसे रोगों से घिरकर स्वास्थ्य सन्तुलन को गड़बड़ाता है। हमें हंसती-हंसाती स्थिति में ही रहना चाहिए एवं हर परिस्थिति के लिए स्वयं को तैयार रखना चाहिए।

स्वयं को दुर्भाग्यग्रस्त मन मानिए

प्रकृति के नियमों में एक रहस्य बड़ा ही विचित्र, अद्भुत एवं रहस्यपूर्ण है। वह यह है कि हर विपत्ति के बाद उसकी विरोधी सुविधा प्राप्त होती है। जब मनुष्य बीमारी से उठता है तो बड़े जोरों की भूख लगती है, निरोगता शक्ति बड़ी तीव्रता से जागृत होती है और जितनी थकान बीमारी के दिनों आई थी वह तेजी के साथ पूरी हो जाती है। ग्रीष्म की जलन को चुनौती देती हुई वर्षा की मेघ मालायें आती हैं और धरती को शीतल, शान्तिमय हरियाली से ढक देती हैं। हाथ-पैरों को अकड़ा देने वाली ठण्ड जब उग्र रूप से अपना जौहर दिखा चुकती है तो उसकी प्रतिक्रिया से एक ऐसा मौसम आता है जिसके द्वारा यह शीत सर्वथा नष्ट हो जाता है। रात्रि के बाद दिन का आना सुनिश्चित है, अन्धकार के बाद प्रकाश का दर्शन भी अवश्य ही होता है। मृत्यु के बाद जन्म भी होता ही है। रोग, घाटा, शोक आदि विपत्तियां चिरस्थायी नहीं हैं, वे आंधी की तरह आती हैं और तूफान की तरह चली जाती हैं। उनके चले जाने के पश्चात् एक दैवी प्रतिक्रिया होती है, जिसके द्वारा उस क्षति की पूर्ति के लिए ऐसा विचित्र मार्ग निकल आता है, जिस बड़ी तेजी से उस क्षति की किसी न किसी प्रकार पूर्ति हो जाती है जो आपत्ति के कारण हुई थी।

एक बार नष्ट हुई वस्तु फिर ज्यों की त्यों उसी रूप में नहीं आ सकती यह सत्य है, परन्तु यह भी सत्य है कि मनुष्य को सुसम्पन्न, सुखी बनाने वाले और भी कितने ही साधन है और उन नये साधनों में से कई एक उस क्षतिग्रस्त व्यक्ति को प्राप्त होते हैं—हो सकते हैं। जब घास को हम बार-बार हरी होते हुए देखते हैं, जब अन्धकार को हम बार-बार नष्ट होते देखते हैं, जब रोगियों को पुनः आरोग्य लाभ करते देखते हैं तो कोई कारण नहीं कि विपत्ति के बाद पुनः सम्पत्ति प्राप्त होने की आशा न की जाय। जो उज्ज्वल भविष्य की आशा नहीं करता, जिसे यह विश्वास नहीं कि मुझे पुनः अच्छी स्थिति प्राप्त होगी—वह नास्तिक है। जिसे ईश्वर की दयालुता पर विश्वास न होगा वही ऐसा सोच सकता है कि मेरा भविष्य सदा के लिए अन्धकार में पड़ गया। जो पर्वत को राई कर सकता है उसकी शक्ति पर यह भी भरोसा करना चाहिए कि वह राई को पर्वत भी कर सकता है। जो आज रो रहा है, उसे यह न सोचना चाहिए कि उसे सदा ही रोता रहना पड़ेगा। निराशा परमात्मा के परमप्रिय पुत्र को किसी प्रकार शोभा नहीं देती। जब किसी की एक टांग टूट जाती है उस समय ऐसा प्रतीत होता है कि एक टांग से चलना तो दूर, खड़ा रहना भी मुश्किल है—अब उससे किसी प्रकार चला-फिरा न जा सकेगा। पर जब अधीरता छोड़कर विवेक से काम लिया जाता है तो कामचलाऊ तरकीब निकल आती है। लकड़ी का पैर लगाकर वह लंगड़ा आदमी अपना काम करने लगता है—इसी प्रकार अन्य कोई अंग भंग हो जाने पर भी उसकी क्षतिपूर्ति किसी अन्य प्रकार हो जाती है और फिर कुछ दिन बाद उस अभाव का खटकना बन्द हो जाता है। ‘मैं पहले इतनी अच्छी दशा में था, अब इतनी खराब दशा में आ गया’—यह सोचकर रोते रहना और अपने चित्त को क्लेशान्वित बनाये रहना कोई लाभदायक तरीका नहीं। इससे लाभ कुछ नहीं होता, हानि अधिक होती है। दुर्भाग्य का रोना रोने से, अपने भाग्य को कोसने से मन में एक प्रकार की आत्महीनता का भाव उत्पन्न होता है। मेरे ऊपर ईश्वर का कोप है, देवता रूठ गये हैं, भाग्य फूट गया है—इस प्रकार का भाव मन में आने से मस्तिष्क की शिरायें शिथिल हो जाती हैं। शरीर की नाड़ियां ढीली पड़ जाती हैं, आशा और प्रसन्नता की कमी के कारण नेत्रों की चमक मन्द पड़ जाती है। निराश व्यक्ति चाहे किसी भी आयु का क्यों न हो उसमें बूढ़ों के से लक्षण प्रकट होने लगते हैं, मुंह लटक जाता है, चेहरे पर रूखापन और उदासी छाई रहती है, निराशा और नीरसता उसकी हर एक चेष्टा से टपकती है। इससे आदमी अपने शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार के स्वास्थ्य को खो बैठते हैं। मन्दाग्नि, दस्त साफ न होना, दांत का दर्द, मुंह के छाले या सोते समय मुंह से लार बहना, सिर दर्द, जुकाम, बाल पकना, नींद कम आना, डरावने स्वप्न दीखना, पेशाब में पीलापन व गंदलापन, मुंह या बगलों से अधिक बदबू आना, हाथ-पैरों में हड़फूटन, दृष्टि कम होना, कान में सनसन होना—जैसे रोगों के उपद्रव आये दिन खड़े रहते हैं। निराशा के कारण शरीर की अग्नि मन्द हो जाती है, अग्नि की मन्दता से उपरोक्त प्रकार के रोग उत्पन्न होने लगते हैं। शनैः-शनैः स्वास्थ्य को घुलाता हुआ वह व्यक्ति अल्पायु में ही मृत्यु के मुख में चला जाता है।

जो व्यक्ति अपने आपको दुर्भाग्यग्रस्त मान लेते हैं, उनमें मानसिक शिथिलता भी आ जाती है। कपाल की भूरी मज्जा कुम्हला जाती है, उसमें से चिकनाई कम हो जाती है, विचार शक्तियों का संचालन करने वाले नाड़ी तन्तु कठोर और शुष्क हो जाते हैं, उनमें से जो विद्युत धारा बहा करती है, उसका प्रवाह नाममात्र का रहा जाता है। स्फुरण कम्पन, संकुचन, प्रसारण सरीखी, वे क्रियायें जिनके द्वारा मानसिक शक्तियों में स्थिरता एवं वृद्धि होती है, बहुत ही धीमी पड़ जाती हैं। फल यह होता है कि अच्छा भला मस्तिष्क कुछ ही दिन में अपना काम छोड़ बैठता है, उसकी क्रियाशक्ति लुप्त हो जाती है।

कहते हैं कि विपत्ति अकेली नहीं आती, वह अपने साथ और भी अनेक विपत्तियों का जंजाल लाती है। एक के बाद दूसरी आपत्ति सिर पर चढ़ती है—यह बात असत्य नहीं है। निस्संदेह एक कष्ट के बाद दूसरे कष्टों का भी सामना करना पड़ता है। इसका कारण यह है कि विपत्ति के कारण मनुष्य निराश, दुःखी और शिथिल हो जाता है। भूतकाल का स्मरण करने, रोने-धोने और भविष्य का अन्धकारमय कल्पना चित्र तैयार करने में ही उसका मस्तिष्क लगा रहता है, समय और शक्ति का अधिकांश भाग इसी कार्य में नष्ट होता रहता है। जिससे पुनः सुस्थिति प्राप्त करने की दिशा में सोचने और साहसपूर्ण मजबूत कदम उठाने की व्यवस्था नहीं बनती। उधर शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य चौपट होने लगता है। एक ओर स्वभाव के बिगड़ जाने के कारण विरोधी बढ़ जाते हैं और मित्रों में कमी हो जाती है, सब ओर असावधानी पर असावधानी होने लगती है। दुष्टता की सत्ता का ऐसे ही अवसरों पर दांव लगता है, मौका देखकर उनके बाण भी चलने लगते हैं। निर्बल एवं अव्यवस्थिति-मनोस्थिति का होना—मानो विपत्तियों को खुला निमन्त्रण देना है, मरे हुए पशु की लाश पड़ी देखकर दूर आकाश में उड़ते हुए चील-कौवे उसके ऊपर टूट पड़ते हैं। इसी प्रकार निराशा से शिथिल और चतुर्मुखी अव्यवस्था से ग्रस्त उस अर्धमृत मनुष्य पर आपत्ति और कष्टों के चील-कौए टूट पड़ते हैं और इस उक्ति को चरितार्थ करते हैं कि विपत्ति अकेली नहीं आती।

आकस्मिक विपत्ति का सिर पर आ पड़ना मनुष्य के लिए सचमुच बड़ा दुःखदायी है। इससे उसकी बड़ी हानि होती है किन्तु उस विपत्ति की हानि से अनेकों गुनी हानि करने वाला एक और कारण है, वह है—‘विपत्ति की घबराहट।’ विपत्ति कही जाने वाली घटना—चाहे वह कैसी ही बड़ी क्यों न हो किसी का अत्यधिक अनिष्ट नहीं कर सकती, वह अधिक समय ठहरती भी नहीं, एक प्रहार करके चली जाती है, परन्तु ‘विपत्ति की घबराहट’ ऐसी दुष्टा पिशाचिनी है कि वह जिसके पीछे पड़ती है उसके गले से खून की प्यासी जौंक की तरह चिपक जाती है और जब तक उस मनुष्य को पूर्णतया निःसत्व नहीं कर देती तब तक उसका पीछा नहीं छोड़ती। विपत्ति के पश्चात् आने वाले अनेकानेक जंजाल इस घबराहट के कारण ही आते हैं। शारीरिक, मानसिक और सामाजिक सुस्थिति का सत्यानाश करके वह मनुष्य की जीवन शक्ति को चूस जाती है। आकस्मिक विपत्तियों से मनुष्य नहीं बच सकता। राम, कृष्ण, हरिश्चन्द्र, नल, पाण्डव, प्रताप, शिवाजी, गुरु गोविन्दसिंह जैसी आत्माओं को विपत्ति ने नहीं छोड़ा तो अन्य कोई उसकी चपेटों से बच जायेगा—ऐसा आशा न करनी चाहिए। इस सृष्टि का विधि-विधान कुछ ऐसा ही है कि हानि-लाभ का चक्र हर एक के ऊपर चलता रहता है, फिर भी सृष्टि का क्रम रुकता नहीं। प्रतिकूलतायें आती हैं, जाती हैं। उनसे न घबराकर सामंजस्यपूर्ण जीवन जीना ही बुद्धिमत्ता है।

प्रतिकूलतायें कभी बाधक नहीं बनतीं

अल्फ्रेड एडलर के अनुसार मानवी व्यक्तित्व विकास में कठिनाइयों, प्रतिकूल परिस्थितियों का होना आवश्यक है। अपनी प्रसिद्ध पुस्तक—‘ह्वाट लाइफ शुड मीन टू यू’ में उन्होंने लिखा है कि—‘यदि हम किसी एक ऐसे व्यक्ति अथवा मानव समाज के विषय में यह कल्पना करें के वे इस स्थिति में पहुंच गये हैं जहां अब कोई कठिनाइयां नहीं रहीं तो हमारे विचार से ऐसे वातावरण में मनुष्य का विकास रुक जायेगा और जीवन आकर्षणहीन रह जायेगा। ऐसी स्थिति में भविष्य में प्रतीक्षा योग्य उत्साहवर्धक कोई बात नहीं रह जायेगी। सब कुछ पूर्व निश्चित होने से तत्परता का, प्रयास का स्थान जड़ता ले लेगी। ऐसी दशा में न तो ज्ञान का विकास होगा और न ही विज्ञान का। कला और धर्म जो अप्राप्य ध्येयों की कल्पना हमारे सामने रखकर हमें प्रफुल्लित रखते हैं, सब अर्थहीन हो जायेंगे। वस्तुतः हम सौभाग्यशाली हैं कि हमारा जीवन कष्ट कठिनाइयों से भरा है, उतना सरल नहीं है।’

बहुत से लोग कठिनाइयों से बचने के लिए दूसरों को अपनी ओर आकृष्ट करने और अपना काम बनाने के अनेकानेक तरीके अपनाते हैं, पर प्रायः देखा यही जाता है कि अन्ततः उन्हें निराशा ही हाथ लगती है। प्रख्यात मनोवैज्ञानिक ग्रीनवी ने अपनी पुस्तक ‘सुपर पर्सनालिटी’ में लिखा है कि ‘यह मान्यता सही नहीं है कि लोगों को प्रभावित करने के लिए आकर्षक शरीर संरचना, बढ़ी-चढ़ी विद्वता, प्रचुर सम्पदा, ठाठ-बाट की साज-सज्जा या किसी विशेष प्रकार की कला कुशलता अनिवार्य रूप से आवश्यक है। यह विशेषतायें दूसरों का ध्यान भर आकर्षित करती हैं, बहुत हुआ तो कोई इनसे किसी प्रकार लाभान्वित होने के लिए पीछे लग सकता है, पर जब वैसा कुछ हाथ लगते दीखता नहीं तो निराश होते ही मुंह मोड़ लिया जाता है। वैभव से अपना ही स्वार्थ सिद्ध हो सकता है, दूसरे जिन्हें उनसे कोई लाभ मिलने वाला नहीं है—देर तक आकर्षित नहीं रह सकते।’

वस्तुतः जिसका दूसरों पर प्रभाव पड़ता है, वे सद्गुणों एवं सत्प्रवृत्तियों से युक्त विभूतियां होती हैं। उन्हें जहां भी पाया जाता है, उनके प्रति अन्तःकरण में सहज श्रद्धा उमड़ पड़ती है। सज्जनता, नम्रता, उदारता और शिष्टता का अर्थ है—परिपक्व व्यक्तित्व। खिला हुआ फूल अपनी सुन्दरता और सुगन्ध से दर्शकों को सहज प्रसन्नता प्रदान करता है। सद्गुणों की विभूतियों से भरे-पूरे व्यक्ति भी इसी प्रकार सहज श्रद्धा के पात्र बनते हैं। सही तरीके से प्राप्त की गई सफलता सर्वत्र सराही जाती है क्योंकि इनसे प्राप्त करने वाले की लगन और तत्परता का परिचय मिलता है। इनकी शालीनता देखकर भी यही अनुमान लगता है कि यहां आत्म परिष्कार के लिए दूरदर्शिता से भरी-पूरी सतत् साधना की गई है।

विभिन्न स्तर की सफलताओं में सर्वोपरि हैं—सामान्य स्तर के अनगढ़ व्यक्तित्व को उच्चस्तरीय बना सकना। मूर्तिकार पत्थर को गढ़ते और प्रतिमा बनाते हैं, चित्रकार कागज और कलम की सहायता से हृदयग्राही चित्र विनिर्मित करते हैं। वादक बांसुरी से राग-रागनियों की स्वर लहरी बहाते हैं। कलाकारिता के क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावोत्पादक कला है, पेट-प्रजनन भर में व्यतीत होते रहने वाले जीवन को उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श गतिविधियों का अभ्यस्त कर लेना। इस सफलता के श्रेयाधिकारियों को जन-जन का सहज सम्मान मिलना ही चाहिए।

पेड़ की शीतल छाया और सुषमा में बैठने वालों को ही नहीं, उसे देखने वालों को भी प्रसन्नता होती है और शान्ति मिलती है। इसी प्रकार सहृदयता, नीतिमत्ता, साहसिकता, सज्जनता, नम्रता, उदारता, सुरुचि, सुव्यवस्था जैसे सद्गुणों का जहां भी विस्तार दीखता है वहां सम्पर्क में आने वाले हर किसी की सहज श्रद्धा उमगने लगती है।

एल.एच. स्नीडर अपने ग्रन्थ ‘बिहेवियोरल साइकॉलाजी’ में लिखते हैं कि—‘विचारों और कार्यों का स्तर सुनिश्चित होना चाहिए, तभी उन्हें निजी पुरुषार्थ का, उपलब्ध साधनों का परिपोषण मिलेगा और सफलता का द्वार खुलेगा। दूसरों का समर्थन-सहयोग भी प्रायः उन्हीं को मिलता है जिन्हें दृढ़ निश्चयी और प्रयास में समग्र तत्परता जुटा सकने वाला समझा जाता है।’

चंचल, उथले और अधूरे मन से किये जाने वाले काम ही प्रायः असफल होते हैं। ऐसा क्यों होता है? अस्थिरता का कारण क्या है? यह खोजने पर प्रतीत होता है कि सैद्धांतिक अपरिपक्वता ही चंचलता का प्रमुख कारण है। दृढ़ता उन निर्णयों में नहीं हो सकती जो उथली स्वार्थ पूर्ति पर अवलम्बित हैं। लाभ की न्यूनाधिकता का प्रसंग सामने आते ही मन डगमगाने लगता है और एक काम को छोड़कर दूसरे को अपनाने लगता है।

आदर्शवादिता का आधार लोभ या लाभ नहीं, आत्म संतोष एवं आत्म कल्याण होता है। ऐसी दशा में एक बार पकड़े हुए काम को इसलिए छोड़ने की आवश्यकता नहीं पड़ती कि उसे हटाकर दूसरा करने लगे तो अधिक लाभ मिलेगा। कोई काम न तो छोटा है न बड़ा, हर कार्य की गरिमा उसके पीछे काम करने वाली निष्ठा के साथ जुड़ी होती है। इस प्रकार छोटे दीखने वाले काम भी सन्निहित सदाशयता को सुविस्तृत करने में सहायक हो सकते हैं और बड़े दीखने वाले काम भी अन्तःक्षेत्र की निकृष्टता से प्रेरित होने पर सदाशयता के संवर्धन में सर्वथा निष्फल रह सकते हैं। उच्चस्तरीय सिद्धांत अपनाकर किसी काम में हाथ डालने पर उसमें आत्म-संतोष का रसास्वादन होता है। फिर प्रतिक्रिया में शिथिलता रहने पर भी उत्साह गिरने या मनोयोग घटने जैसी कोई बात नहीं होती।

आत्म विश्वास और आत्मानुशासन ही उच्चस्तरीय कामों में अन्त तक निष्ठा बनाये रहने में समर्थ होते हैं। आत्म विश्वास श्रेष्ठ कामों की सफलता में ही सुनिश्चित रह सकता है। ओछे और खोटे काम अन्तःकरण में ऐसा विश्वास जगने ही नहीं देते कि कार्य की सफलता एवं उपयोगिता मिल ही जायेगी या मिलने पर सराही ही जायेगी। यही कारण है कि ओछे मनोरथों से प्रेरित कार्य सदा कर्त्ता को अविश्वासी बनाये रहते हैं। उस अस्थिरता में पूरे मनोयोग से काम नहीं हो पाता और न केवल सफलता संदिग्ध रहती है वरन् उसमें उदासी, निराशा एवं ऊब तक उत्पन्न हो सकती है। आये दिन काम बदलते रहने वालों में अधिकांश आदर्श विहीन ही होते हैं। जिन्हें परिस्थितियों ने काम बदलने के लिए विवश बाधित कर दिया, ऐसे अपवाद तो कम ही देखने को मिलते हैं।

दरबारी-बगीचों में लगे कोमल पौधे तनिक सी गर्मी-सर्दी पाते ही हिचकियां भरने लगते और दम तोड़ने लगते हैं। छुई-मुई किसी की उंगली छू जाने से ही सकुचाती, सिकुड़ती और मुरझाई दीखती है। किन्तु पर्वतों और रेगिस्तानों में उगने वाले पौधे ऋतु प्रभावों की कठोरता को धैर्यपूर्वक सहन करते हुए अपना अस्तित्व सुरक्षित रखे रहते हैं। इसके विपरीत जिन्हें अभावों प्रतिकूलताओं का सामना करना पड़ता है, वे अपने भीतर ऐसी क्षमता विकसित करते हैं जो आगत कठिनाइयों का सामना करते हुए अस्तित्व की रक्षा कर सकने में समर्थ हो सके। हिमाच्छादित पर्वतों पर उगने वाले पेड़ों को उस तरह पाला नहीं मारता जैसे कि मध्यम ताप वाले प्रदेशों में तनिक-सी ठंड बढ़ते ही उनका सिकुड़ना-सूखना आरम्भ हो जाता है। रेगिस्तानी सूखे इलाकों की तपती बालू और पानी की कमी में भी कैक्टस आदि पौधे भली प्रकार हरे-भरे बने रहते हैं। उत्तरी ध्रुव पर रहने वाले ‘एस्किमो’ बर्फ की मोटी परतों पर ही समूचा जीवनयापन करते हैं। कठोर श्रम से आहार प्राप्त करने वाले वनवासी स्थिति के अनुरूप सुदृढ़ भी रहते हैं और अभ्यस्त तथा प्रसन्न भी।

कठिनाइयों से प्रतिकूलताओं से घिरे होने पर भी जीवन का वास्तविक प्रयोजन समझने वाले व्यक्ति कभी निराश नहीं होते, वे हर प्रकार की परिस्थितियों में अपने लक्ष्य से ही प्रेरणा प्राप्त करते तथा श्रेष्ठता के पथ पर क्रमशः आगे बढ़ते जाते हैं। वे संसार को संतुलित दृष्टि से देखते हैं व जीवन नौका खेते हुए इस सागर को पार कर जाते हैं।

दृष्टिकोण बदला तो सब कुछ बदल गया

यह संसार जिन तत्वों से बना है उनमें भलाई, बुराई, नेकी-बदी, कुरूपता, सुन्दरता, अनुकूलता-प्रतिकूलता के परस्पर विरोधी स्तरों का समावेश है। इन दोनों ही परिस्थितियों से कोई बच नहीं सकता। समुद्र की बनावट ही ऐसी है कि उसमें ज्वार-भाटे आते रहते और हर वस्तु हिलती रहती है। परमाणुओं से लेकर सौर मण्डल और ब्रह्माण्ड में कहीं स्थिरता नहीं। सर्वत्र हलचल की धूम है, इतना ही नहीं उसके साथ ही प्रिय-अप्रिय भी जुड़ा है। यदि अपने चिन्तन को मात्र अप्रिय निषेधात्मक पक्ष के साथ जोड़ा जाये तो दुःखदायी घटनायें ही स्मरण रहेंगी और उन्हीं का स्मरण बाद में भी बना रहेगा। जो प्रिय एवं अनुकूल है वह सरसरी नजर से देखने पर आंखों के आगे से निकल जायेगा, उसकी विशेषता और स्थिति भी अनुभव में न आ सकेगी। निषेधात्मक चिन्तन के कारण जो श्रेष्ठ है वह भी निकृष्ट प्रतीत होगा। रंगीन कांच का चश्मा पहन लेने पर सभी वस्तुयें उसी रंग में रंगी हुई दिखाई पड़ती हैं।

यदि अपना चुनाव अशुभ के पक्ष में हो तो असंख्य लोगों में से असंख्यों प्रकार की बुराइयां दीख पड़ेगी। अपने साथ किसने क्या और कैसा दुर्व्यवहार किया है? यदि इसकी स्मृति दौड़ाई जाय तो प्रतीत होगा कि संसार में दानव स्तर के लोग ही रहते हैं और अनीतिपूर्ण अनाचार करने में ही निरत रहते हैं। अपने को कब, कितने दुःख भुगतने पड़े और दूसरों में से किसको कितने दुःख दिये इसकी गणना करने पर प्रतीत होता है कि यह संसार सचमुच ही नरक है—भवसागर है। यहां से जितनी जल्दी, जिस प्रकार भी सम्भव हो छुटकारा पाना चाहिए। ऐसी मनःस्थिति में जीवन भार रूप बन जाता है और उसका प्रभाव उद्विग्न-अशान्त बने रहने के रूप में ही सामने आता है। यहां तक कि इस ऊबड़-खाबड़ दुनिया को बनाने वाले के प्रति भी आक्रोश उत्पन्न होता और भरपेट गाली देने को मन करता है। प्रतिकूलतायें ही सर्वत्र छाई देखकर मनुष्य नास्तिक स्तर का बन जाता है, उसे कोई भी विश्वसनीय नहीं जंचता, सबके प्रति अविश्वास रहता है।

इसके विपरीत एक दूसरा दृष्टिकोण भी है, उसके अनुरूप अपनी दृष्टि बदल लेने पर समूचा दृश्य ही बदल जाता है और सुन्दरता, सज्जनता एवं सदाशयता का माहौल इतना बड़ा दीखता है जिसे देखते हुए लगता है कि भलाई की भी कहीं कमी नहीं। ईश्वर ने ऐसी अद्भुत विशेषताओं वाला शरीर दिया, साथ ही जादू की पिटारी जैसा मनःसंस्थान भी। अभिभावकों और कुटुम्बियों की दुलार भरी उदारता की एक घटना का स्मरण किया जाय तो प्रतीत होगा कि वे औरों के लिए कैसे भी क्यों न हों, अपने लिए तो देवता तुल्य ही रहे हैं। मित्र, सहपाठियों का स्नेह-सौजन्य, अध्यापकों का ज्ञानदान ऐसे पक्ष हैं जिनकी उपलब्धि बिना वह स्थिति न आ पाती जो आज है।

पत्नी का सौजन्य और सेवाभाव यदि उदार दृष्टि से देखा जाय तो प्रतीत होगा कि वह किसी भी प्रकार ऐसा नहीं है जिसे देवोपम न माना जाय। घर को खुशी और किलकारियों से भर देने वाले बच्चों को, परिवार के अन्यान्य आश्रितजनों को सभी की सद्भावना मिलती है। समाज का ऐसा सुगठन है जिसमें आजीविका के साधन सहज ही उपलब्ध हो जाते हैं। दैनिक उपयोग की इतनी, इतने प्रकार की वस्तुयें मिलती रहती हैं जिनके सहारे प्रसन्नता और तृप्ति ही मिलती रहती है।

प्रकृति की ओर दृष्टि उठाकर देखा जाय तो चलते-फिरते खिलौनों जैसे पशु-पक्षी, जीव-जन्तु, सरिता-सरोवर, पहाड़-वन, सूर्य-चन्द्र और तारागण, बादलों वाला आकाश, वृक्ष-वनस्पतियां सभी कुछ ऐसा है जिसका मनोरम सौन्दर्य देखते-देखते मन नहीं भरता।

सत्प्रयोजनों में संलग्न, चरित्रवान, उदारमना मनीषियों की खोज की जाय तो उनकी गाथाओं से इतिहास भरा पड़ा मिलेगा। आज भी उनकी कमी नहीं है, संख्या भले ही कम हो और वे निकट नहीं दूर रहते हों, किन्तु उनका अस्तित्व इतना अवश्य है कि प्रसन्नता व्यक्त की जा सके और सन्तोष की सांस ली जा सके। तथ्य एक ही है कि अपना दृष्टिकोण किस स्तर का है? उद्यान में भौंरे को सुगन्ध की मस्ती और मधुमक्खियों को शहद की मंजूषाएं लटकती दीखती हैं, पर गुबरीला कीड़ा पौधों की जड़ों में लगे हुए सड़े गोबर तक जा पहुंचता है और सर्वत्र दुर्गन्ध ही दुर्गन्ध पाता है। एक बार गुरु ने दुर्योधन और युधिष्ठिर को एक ही गांव में भले और बुरे लोगों की सूची बना लेने के लिए भेजा। दुर्योधन को सभी दुष्ट और युधिष्ठिर को सभी सज्जन दीखे। वहां थे दोनों ही प्रकार के लोग, पर अपने दृष्टिकोण के अनुरूप उनने उसी नजर से देखा तो उन्हें बहुलता अपनी खोजबीन के अनुरूप ही दिखाई दी।

संसार में बुराइयां न हों सो बात नहीं है, पर वे ऐसी हैं कि उन्हें सुधारने के माध्यम से हम अपना पुरुषार्थ जगा सकें, प्रगतिशीलता का परिचय दे सकें। अनीति न हो तो संघर्ष किससे किया जाय? शौर्य-साहस प्रकट कर सकने का अवसर किस प्रकार आये?

दुष्टता की उपेक्षा की जाय या उसे सहते रहा जाय, बढ़ने दिया जाय—यह कोई नहीं कहता। उन्हें सुधारने-बदलने के लिए भी भरपूर प्रयास करना चाहिए, पर इसमें खीजने की, असन्तुलित होने की आवश्यकता नहीं है। डॉक्टर को सारे दिन उन्हीं के बीच रहना पड़ता है जिनने असंयम बरतकर अपने स्वास्थ्य को बिगाड़ लिया है। वे उनके घाव धोते, मरहम लगाते और आवश्यकतानुसार चीर-फाड़ भी करते हैं। वे रोग को मारते और रोगी को बचाते हैं, इस रीति-नीति को अपनाकर कुरूपता को सुन्दरता और दुष्टता को सज्जनता में बदला जा सकता है। प्रेम-सौजन्य से काम न चलता हो तो आवश्यकतानुसार दण्ड नीति भी अपनाई जा सकती है और प्रताड़ना का प्रयोग भी किया जा सकता है, पर इसमें भी अपनी सुधार परायण सज्जनता की भाव संवेदना का ही अनुभव प्रयुक्त किया जा सकता है।

फिर अपनी निज की सद्भावना ही अपने लिए कम आनन्ददायक नहीं होती। वस्तुतः उद्विग्न अपने दृष्टिकोण के कारण ही होता है। ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, छिद्रान्वेषण, असन्तोष, असंयम आदि के कारण ही ऐसी मनःस्थिति बनती है जिसमें खीज, खिन्नता और विद्वेष से मन भरा रहता है। कभी स्वल्प कारण होने पर भी तिल का ताड़ बनता है और चिन्ता, भय, निराशा, आशंका, अविश्वास आदि मनोविकारों का समूह चढ़ दौड़ता है और स्थिति ऐसी पैदा कर देता है जिसमें चैन से रहना और सम्पर्क वालों को चैन से रहने देना बन ही नहीं पड़ता।

स्मरण रखने योग्य यह है कि अन्धकार कितना ही विस्तृत क्यों न हो, पर वह प्रकाश से अधिक मात्रा में नहीं हो सकता। संसार में अशुभ कितना ही क्यों न हो, पर वह शुभ से अधिक नहीं है। गन्दगी और स्वच्छता का अनुपात लगाया जाय तो स्वच्छता ही अधिक मिलेगी। यदि ऐसा न होता तो आत्मा इस संसार में आने और रहने की इच्छा न करती। कठिनाई अपना दृष्टिकोण उलझा लेने भर की है और वह ऐसा नहीं है जिसे सुधारा-बदला न जा सके।
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