मन का शान्त और संतुलित होना व्यक्ति की महानता का चिह्न है। मनु भगवान् ने धर्म के 10 लक्षणों की चर्चा करते हुए मनुष्य का सबसे पहला धर्म ‘घृति’ अर्थात् धैर्य बतलाया है। सामने उपस्थित उत्तेजनात्मक परिस्थिति की भी वस्तुस्थिति को यदि ठीक प्रकार समझने की कोशिश की जाय तो वह मामूली सी बात प्रतीत होगी। जिन छोटी-छोटी बातों को लेकर लोग सुख में हर्षोन्मत्त और दुःख में करुणा कातर हो जाते हैं वस्तुतः वे बहुत साधारण बातें होती हैं। मनुष्य की मानसिक दुर्बलता ही है जो उसे उन छोटी-छोटी बातों में उत्तेजित करके मानसिक सन्तुलन को बिगाड़ देती है। इस स्थिति से बचना ही धैर्य है। धैर्यवान् व्यक्ति ही विवेकशील और बुद्धिमान् कहे जा सकते हैं जो बात-बात में उत्तेजित और अधीर होते हैं वे चाहे कितने ही विद्वान या प्रतिष्ठित क्यों न हों वस्तुतः ओछे ही कहे जायेंगे।
एक व्यक्ति के घर में पुत्र जन्म होता है, उसके हर्ष का ठिकाना नहीं रहता। इस हर्ष में पागल होने पर उसे यह नहीं सूझता कि इस प्राप्त लाभ के अवसर पर क्या करे—क्या न करे? जो खुशी उसके भीतर से फूटी पड़ती है उसे बाहर प्रकट करने के लिए वह उन्मत्तों जैसे आचरण करता है। दरवाजे पर नौबत नफीरी बजवाना आरम्भ करता है। बड़े विशाल प्रीतिभोज की तैयारी करता है, नाच रंग का सरंजाम जुटाता है। बधाई बटवाने के लिए अपने समाज में थाल गिलास मिठाई आदि बंटवाता है और भी न जाने क्या क्या करता है। ढेरों पैसा उसमें फूंक देता है।
यह स्थिति एक प्रकार के पागलपन का चिह्न है। पुत्र जन्म होना उसे अपने लिए एक अलभ्य लाभ मालूम पड़ता है, पर व्यापक दृष्टि से देखा जाय तो प्रकृति की एक अत्यन्त साधारण घटना है। प्राणि मात्र में प्रणय की इच्छा काम कर रही है और संयोग के फलस्वरूप बाल-बच्चे भी सभी जीव-जन्तुओं के होते रहते हैं। सन्तान में पुत्र और कन्या यही दो भेद हैं। इस सृष्टि में करोड़ों बालक नित्य पैदा होते हैं। जिस प्रकार घास पात पेड़ पौधे रोज ही उगते सूखते हैं उसी प्रकार मनुष्यों में भी सन्तानोत्पादन की क्रिया चलती रहती है। प्रकृति प्रवाह की इस अत्यन्त तुच्छ प्रक्रिया को इतना महत्त्व देना कि खुशी का ठिकाना न रहे और उसके लिए वह उपयोगी धन जो किसी आवश्यक कार्य में लगाकर उससे महत्त्वपूर्ण लाभ उठाया जा सकता था—इस प्रकार हर्षोन्मत्त होकर लुटा देना किसी प्रकार बुद्धिमत्ता पूर्ण नहीं कहा जा सकता।
यदि वह व्यक्ति जिस के घर पुत्र जन्मा है वस्तुतः बुद्धिमान् रहा होता तो उसके सोचने का तरीका भिन्न ही रहा होता। वह हर्षोन्मत्त न होकर गम्भीरता से सोचता कि घर में नया बालक जन्मने से उसके ऊपर क्या-क्या जिम्मेदारी आई है और उन्हें किस किस प्रकार पूरा करना चाहिए। वह सोचता कि मेरी जिस धर्म पत्नी ने बालक को जन्म दिया है वह दुर्बल हो गई होगी, उसे अधिक विश्राम देने, तेल मालिश आदि के उपायों से उसके दुर्बल शरीर को पुष्ट करने, शीघ्र पचने वाले पौष्टिक खाद्य पदार्थों को जुटाने, नवजात शिशु की देखभाल के लिए कोई सहायिका नियुक्त करने, बालक को यदि माता का दूध पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं है तो उसकी व्यवस्था करने में उसे क्या क्या प्रयत्न करना चाहिए। इन प्रयत्नों में यदि पैसा खर्च किया जाता तो उसे धर्म पत्नी तथा बालक के स्वास्थ्य को सम्हालने में सहायक होता है। पर यदि इन बातों पर ध्यान न देकर नफीरी बजवाने और दावतें उड़ाने में धन फूंका गया है तो यही मानना पड़ेगा कि वह व्यक्ति समझदार नहीं वरन् उत्तेजना के आवेश में बहने वाला व्यक्ति है।
यदि फालतू पैसा भी किसी आदमी के पास हो तो उसे इस प्रकार लुटाने की जरूरत नहीं है। उस नवजात शिशु के बड़े होने पर उसकी शिक्षा विवाह आजीविका आदि के लिये जिस धन राशि की आवश्यकता पड़ेगी उसे जुटाने के लिए उसके नाम बैंक में या बीमे में पैसा जमा किया जा सकता है। यदि दान पुण्य करना है तो किन्हीं लोकोपयोगी कार्यों में या दीन-दुखियों में, उपयोगी संस्थाओं में इसे दिया जा सकता है। पर यह समझ तभी उत्पन्न हो सकती है जब मनुष्य भावावेश में न बह रहा हो, हर्षोन्मत्त होने की दशा में भी मस्तिष्क विक्षिप्त सरीखा हो जाता है और उस स्थिति में कोई ठीक बात सोच सकना सम्भव नहीं होता।
‘‘हमारी विवेक शीलता स्थिर रहे’’ यह तथ्य जीवन को सुविकसित बनाने के लिए बड़ा आवश्यक है और यह तभी सम्भव है जब वह धैर्यवान् हो, अधीरता से बचें। थोड़ी सफलताएं, इच्छानुकूल परिस्थितियां प्राप्त होने पर सत्ता अधिकार सम्पत्ति मिलने पर बड़े अहंकारी बन जाते हैं। उनका व्यवहार, बातचीत का ढंग, सोचने का तरीका, शान शौकत, अकड़, शेखीखोरी सभी कुछ बातें ऐसी हो जाती हैं कि उसे आधा पागल ही कहा जा सकता है। कुछ दिन पूर्व इस देश में राजे, नवाब, ताल्लुकेदार, जमींदार, साहूकार बहुत थे। उनके पास धन और सत्ता का बाहुल्य था फलस्वरूप उनके पहनाव उढ़ाव, बोलचाल, उठन-बैठक सभी कुछ विचित्र प्रकार बन गये थे। क्षण-क्षण में विचित्र प्रकार की सनकें उठा करती थीं और चापलूस लोग उन सनकों से भरपूर स्वार्थ साधन किया करते थे। सत्ता और धन का बाहुल्य उन अमीरों को ऐसी अर्द्धविक्षिप्त स्थिति में पहुंचा देता था कि वे उचित अनुचित का निर्णय करने में प्रायः असफल रहते थे। अभी भी जिनके पास ऐसे साधन मौजूद हैं उन अमीरों एवं अधिकारियों की भयंकर स्थिति प्रायः उन राजा नवाबों जैसी हो जाती है।
इसमें दोष साधनों का नहीं, मनुष्य की मानसिक दुर्बलता का है। रामायण में एक चौपाई आती है—
क्षुद्र नदी भरि चलि इतराईं । जिमि थोरहि धन खल बौराईं ।।
छोटे नदी नाले जिस प्रकार वर्षा के थोड़े से ही पानी को पाकर अपनी मर्यादाओं को छोड़कर उफनने इतराने लगते हैं। उसी प्रकार क्षुद्र पुरुष भी थोड़े सुख-साधनों के प्राप्त होने पर बावले हो जाते हैं। इसमें वर्षा या जल का दोष नहीं—नाले की क्षुद्रता ही कारण है। क्योंकि समुद्र और विशाल नदी सरोवर विशाल क्षेत्र की भारी वर्षा का विपुल जल प्राप्त होने पर भी अपनी मर्यादाओं को नहीं छोड़ते। धैर्यवान् और गम्भीर मानसिक स्तर के लोग भी विपुल सत्ता, शक्ति, विद्या, कीर्ति एवं सम्पदा प्राप्त होने पर भी इतराते नहीं वरन् अपने ऊपर आये हुए उत्तरदायित्वों की गम्भीरता को समझ कर और भी अधिक विवेक, धैर्य, दूरदर्शिता एवं नम्रता से काम लेते हैं। यदि धन या सत्ता का दोष रहा होता तो सभी पर उसका प्रभाव पड़ता, पर हम देखते हैं कि संसार में ऐसे असंख्य व्यक्ति हैं जो विपुल साधनों के हस्तगत होते हुए भी अत्यधिक जिम्मेदारी और सज्जनता की स्थिति में बने रहते हैं।
जिस प्रकार सफलता और सम्पदा को पाकर क्षुद्र प्रकृति के मनुष्य मानसिक संतुलन खो बैठते हैं उसी प्रकार थोड़ा सी असुविधा, असफलता, आपत्ति एवं प्रतिकूल परिस्थिति सामने आने पर अत्यन्त कातर हो जाते हैं, घाटा, चोरी, धन-हानि आदि कोई अर्थ-विग्रह अवसर आने पर उन्हें लगता है मानों उनका सर्वस्व चला गया। अब वे सब प्रकार से दीन हीन हो गये। अब सदा उनको ऐसी ही विपन्न स्थिति में रहना पड़ेगा एवं आगे चल कर और भी गरीबी में प्रवेश करना पड़ेगा।
किसी परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाने पर उन्हें लगता है कि हमारा जीवन ही अन्धकारमय हो गया। असफलता की भयंकर प्रतिमूर्ति उन्हें अपने चारों ओर नाचती दिखाई पड़ती है। उनके दुःख का ठिकाना नहीं रहता। मस्तिष्क ऐसा निष्क्रिय हो जाता है जिसमें यह विचार नहीं उठ पाते कि अगले एक वर्ष बाद फिर परीक्षा का अवसर मिलेगा और उन्हें थोड़े दिन बाद अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण होने का अवसर मिल जायगा।
किसी से थोड़ी कहन सुनन हो जाय तो लगता है मानो मेरा सारा सम्मान चला गया, जिसने कटु वचन कह दिया उसने कलेजे में छेद कर दिया जो जन्म भर न भरेगा। ये लोग उस छोटी सी बात को भुला सकने में प्रायः जीवन भर समर्थ नहीं होते, जब भी अवसर आता है उस छोटी-सी बात को याद करके अपने द्वेष और घाव को हरा कर लेते हैं।
कोई मामूली-सा मुकदमा लग जाय तो प्रतीत होता है मानों अब जेल या फांसी ही भुगतनी पड़ेगी। कोई चोर डाकुओं का भय दिला दे तो लगता है कि डकैती, लूट या चढ़ाई आज ही हमारे ऊपर होने वाली है। अपने घर में भूत रहता है ऐसा भय कोई ओझा दिलादे तो रात भर नींद नहीं आती और चूहे खटपट करते हों तो लगता है कि भूत जिन्द घर में नाच रहे हैं। शनिश्चर, राहु केतु के ग्रह-दशा का मार्केश का भय दिला कर चतुर ज्योतिषी लोग ऐसे लोगों को खूब डराते हैं और उनकी पूजा-पत्री के नाम पर काफी पैसे ऐंठ लेते हैं।
कन्या विवाह योग्य हो जाय और लड़के ढूंढ़ने के लिए जाने पर सफलता न मिले। दहेज आदि का प्रश्न उठे तो उन्हें लगता है कि अब कन्या का विवाह न हो सकेगा। योग्य लड़का मिलेगा ही नहीं। इतनी बड़ी रकम दहेज में दिये बिना अब कोई लड़का मिलेगा ही नहीं। कन्या पर्वत के समान भारी लगती है और रात-दिन भाग्य को कोसते हुए, कन्या को अभागिनी बताते हुए चिन्ता में सिर धुनते रहते हैं। इस प्रकार अपना मनःक्षेत्र दुःखित कर लेने पर उन्हें यह नहीं सूझता कि जो दो चार लड़के उनने ढूंढ़े हैं इनके अतिरिक्त सज्जन और सुन्दर लड़के वाले भी इस दुनिया में मौजूद हैं और थोड़ी दौड़-धूप करके उन्हें ढूंढ़ा जा सकता है एवं विवाह की समस्या को सरल बनाया जा सकता है।
किसी प्रिय जन का वियोग या देहावसान हो जाय तो उनकी आंखों से आंसू ही बन्द नहीं होते। दिन रात पेट में से हूक उठती रहती है। सारा संसार अंधकारमय दीखता है इसके बिना जीवन कैसे सम्भव होगा? इस शोक-वियोग से कितने ही व्यक्ति अपना प्राणान्त कर लेते हैं। ऐसी ही शीलयुक्त कई भावुक स्त्रियां पति की चिता पर जल मरती देखी जाती हैं। ऐसे लोगों की मनोभूमि एक ही प्रकार के शोक संकुचित विकारों से ऐसी आच्छादित हो जाती हैं कि वे विवेक पूर्ण विचार उठ ही नहीं पाते जिनके आधार पर यह सोचा जा सकता है कि प्रत्येक व्यक्ति स्वतः में एक पूर्ण इकाई है और किसी दूसरे के साथ रहने न रहने पर भी अपनी जीवन यात्रा अपने पांवों पर खड़े होकर चला सकता है।
जीवों का आपसी मिलन और बिछुड़न समुद्र की लहरों की तरह क्षण-क्षण में होती रहने वाली एक ऐसी साधारण प्रक्रिया है जिस पर सीमित शोक ही मनाया जाना चाहिये यह विचार भी उसके मन में नहीं उठते क्योंकि शोकाकुल मस्तिष्क भी अर्ध विक्षिप्त स्थिति में ही होता है।
ऐसे दुर्बल मस्तिष्कों में भविष्य में किन्हीं आपत्तियों के आने की आशंकाएं निरन्तर उठती रहती हैं। अपने ऊपर ऐसी ऐसी-ऐसी टिप्पणियों के आने की बातें सोच-सोच कर अपना चित्त परेशान किया करते हैं जो वस्तुतः उनके जीवन में कभी नहीं आती।
यह अधीरता एवं मानसिक दुर्बलता मनुष्य के लिए कायरता का कलंक लगाने वाली, इसके पुरुषार्थ को कलंकित करने वाली है। पौरुष का प्रधान लक्षण यह है कि मनुष्य को आपत्तियों में न डरने वाला और हर प्रतिकूल परिस्थिति में अपने धैर्य को स्थिर रखने वाला होना चाहिए।