उतावली न करें उद्विग्न न हों

धैर्य रखिये—उतावली मत कीजिये—

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धैर्य हमारे संकट-काल का मित्र है। इसी से हमें सान्त्वना मिलती है। कैसी भी हानि या क्षति हो जाय, धैर्य उसे भुलाने का प्रयत्न करता है।
धैर्य न हो तो मानसिक दौर्बल्य के कारण मन सदा भयभीत रहेगा। जब मनुष्य के मन में शंका बढ़ जाती है तब दुःख के मिट जाने पर भी उसका आभास रहा करता है। जो व्यक्ति धीरजवान् होते हैं, वे संकट के समय अपने विवेक को नष्ट नहीं होने देते। उनके आत्मबल के कारण ही उस समय भी शान्ति मिलती है और दूसरे लोग भी उनका अनुकरण करने को बाध्य होते हैं। तब वह संकट उतना व्यथित नहीं करता, जितना कि धीरज के अभाव में।
धैर्यवान् मनुष्य के अन्तःकरण से अत्यन्त शान्ति, भविष्य की सुखद आशा और उदारता की प्रबलता रहती है। वह कुदिन के फेर में पड़कर घबराता नहीं, बल्कि उन दिनों को हंसते हुए टालने की चेष्टा करता रहता है।
इसके विपरीत जिसके मन में धैर्य नहीं होता, उसके मन में जो आशा-निराशा की तरंगें उठती हैं, वे वैसी ही हैं जैसे कोई बालू की दीवार खड़ी होकर भी ढह पड़े। संकट के समय उसकी मानसिक वेदना बढ़ जाती है और वह अपने भावों पर नियन्त्रण रखने में समर्थ नहीं होता। ऐसे लोगों की दशा बहुत खराब होती देखी गई है और उनमें भी कुछ अत्यन्त दुर्बल प्रवृत्ति के मनुष्यों का मानसिक सन्तुलन तो यहां तक बिगड़ जाता है कि वे आत्महत्या तक कर बैठते हैं।
सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने के लिए ही नहीं बल्कि अपने कर्तव्य पालनार्थ भी कर्मों को सुव्यवस्थित करने के लिए धैर्य आवश्यक है। मान लीजिए कि आप किसी मुकदमे में फंसे हैं, परन्तु उसके निर्णय में विलम्ब है, इस बीच में कोई अधिकारी व्यक्ति उस मुकदमे की जांच के समय आपको किसी बात पर डांटता है तो उससे आपका विचलित हो उठना ही आपकी हार का कारण बन सकता है। यदि आप उसमें धैर्य से काम लें तो विजय प्राप्त कर सकते हैं।
धैर्य के लिए दोष-रहित मनोवृत्ति और अपने कर्म के उचित होने का विश्वास होना चाहिए। यदि आपका कार्य न्याययुक्त नहीं है तो आप कितने भी साहस से काम लें, मन में शंका भरी रहेगी और धैर्य आपका साथ नहीं देगा। इसके विपरीत यदि आप यह समझते हैं कि आप जो कार्य कर रहे हैं, वह न्याययुक्त होते हुए भी बिगड़ रहा है, तो भी आपका मन निर्भीक रहेगा और अपने धैर्य-बल से ही सफलता प्राप्त कर सकेंगे। इसे मत भूलिए कि संसार में धन और प्रतिष्ठा ही सब कुछ नहीं है। धनवान् तो मूर्ख भी हो जाते हैं, और कभी-कभी निम्न स्तर के लोग भी ऊंची से ऊंची प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेते हैं, परन्तु उनमें से जिसमें भी अहंकार उत्पन्न हुआ, वही पतित हो गया। वह ‘अहं’ ही उन्हें नष्ट करने में कारण बनता है, फिर न आत्मबल साथ रहता है और न धैर्य ही।
धीरजवान् पुरुष वही कहलाता है जिसे अपने पर पूर्ण भरोसा हो। जो व्यक्ति अपनी योग्यता पर विश्वास करता हुआ सम्बल ग्रहण करता है, वह कष्ट पाता हुआ भी प्रसन्नचित्त रहता है। क्योंकि वह कठिनाइयों से घबराता नहीं।
एक बार निश्चय हो जाने पर कार्य को पूर्ण करने में सचेष्ट रहे और उससे पीछे न हटे। मन की निराशा को दूर कर दे और विघ्नों को दूर करने का प्रयत्न करे। अपनी कार्य-शक्ति पर विश्वास और परमात्मा पर भरोसा रखने से मझधार में पड़ी हुई नौका भी तर जाती है।
धैर्य के समान मूल्यवान् और कोई सम्पत्ति मनुष्य के पास नहीं है। जब तक वह उससे दूर नहीं होता, तब तक उसकी विजय को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। हमारा धैर्य शत्रुओं को भी विचलित कर देता है और हम सर्वत्र प्रशंसा के पात्र समझे जाते हैं।
धैर्य की उपयोगिता तो असीम है। कोई रासायनिक प्रयोग है, उसकी सिद्धि का समय चार घंटे का है और आप चाहें कि दो घण्टे में ही सिद्ध हो जाय, तो कैसे होगा? उसके लिए तो आपको प्रयोग काल में धैर्य से काम लेना पड़ेगा। न लेंगे तो कुछ होने वाला नहीं है।
बहुत से लोग हैं जो समाज में अपनी ख्याति चाहते हैं। परन्तु, ख्याति ऐसा काम किये बिना हो नहीं सकती, जिसमें कुछ न कुछ विशेषता हो। ख्याति प्राप्त करने के लिए जन-सेवा का कार्य करना पड़ेगा। इन कार्यों में परिश्रम एवं समय दोनों की ही आवश्यकता होगी और ख्याति होने में जितना समय लगेगा, उतने समय तक धैर्य भी रखना ही होगा।
सब कार्यों का परिणाम धैर्य से ही देखा जा सकता है। वैसे धैर्य अलभ्य वस्तु नहीं है। अपने मन को थोड़ा नियन्त्रित कीजिए, उसकी चंचलता को रोकिये और किसी भी कार्य में उतावली न करने का निश्चय कर लीजिए। जहां आपने अपने असंयम पर विजय प्राप्त की, वहीं धैर्य की प्राप्ति हो गई समझिये।
हमारा यह अभिप्राय नहीं है कि जो कार्य शीघ्र हो सकता हो, उसके करने में देर लगाई जाय अथवा जो कार्य होने जा रहा है उसमें धैर्य के बहाने आलस्य से काम लिया जाय। जो कार्य शीघ्रतापूर्वक हो सकता है, उसकी पूर्ति में विलम्ब करना तो सचमुच ही मूर्खता है।
धैर्य का मन्त्र तो उनके लिए लाभदायक है, जिनके कार्यों में विघ्न बाधाएं उपस्थित होती हैं और वे निराश होकर अपने विचार को ही बदल डालते हैं। यह निराशा तो मनुष्य के लिए मृत्यु के समान है। इससे जीवन की धारा का प्रवाह मंद पड़ जाता है और वह किसी काम का नहीं रहता। यदि निराशा को त्याग कर विघ्नों का धैर्य पूर्वक सामना किया जाय तो विश्वास करिये कि आपको असफलता का मुख नहीं देखना पड़ेगा।
निराशाजनक भावों को रोकना आवश्यक है और संयम का कार्य है। हम जैसे-जैसे अपनी शारीरिक, बौद्धिक और मानसिक शक्तियों का विकास कर सकेंगे, वैसे-वैसे ही हम में धैर्य रखने की शक्ति भी बढ़ती जायगी। इन सभी शक्तियों के सम्मिलन से हम उच्च ध्येय को प्राप्त कर सकते हैं। मान लीजिए हम किसी कार को चलाना जानते हैं, मार्ग भी हमारा देखा हुआ है, परन्तु यह सब ज्ञान, हमारे अभीष्ट स्थान में पहुंचने में जितना समय लगना चाहिए, उसमें तो कमी नहीं कर सकेगा। हमें उतने समय तो धैर्य का सहारा लेना ही होगा।

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