सतयुग की वापसी

दानव का नहीं देव का वरण करें

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सृजन और विनाश की, उत्थान और पतन की शक्तियाँ इस संसार में निरन्तर अपने- अपने काम कराती रहती हैं। इन्हीं को देव और दानव के नाम से जाना और उनकी प्रतिक्रियाओं को स्वर्ग- नरक भी कहा जाता है। मनुष्य को यह छूट है कि दोनों में से किसी का भी वरण अपनी समझदारी के आधार पर कर ले और तदनुरूप उत्पन्न होने वाली सुख- शान्ति अथवा पतन- पराभव की प्रतिक्रिया सहन करे। उठने या गिरने का निश्चय कर लेने पर तदनुरूप सहायता- सुविधा भी इसी संसार में यत्र- तत्र बिखरी मिल जाती है, इच्छानुसार उन्हें बीना- बटोरा अथवा धकेला- भगाया भी जा सकता है। इसी विभूति के कारण मनुष्य को अपने भाग्य का निर्माता एवं भविष्य का अधिष्ठाता भी कहा जाता है। अपने या अपने समुदाय, संसार के लिए विपन्नता अथवा सुसम्पन्नता अर्जित कर लेना उसकी अपनी इच्छा- आकांक्षा पर निर्भर है।

    आम आदत पाई जाती है कि मनुष्य सफलताओं का श्रेय स्वयं ले, किन्तु हानि या अपयश का दोषारोपण किन्हीं दूसरों पर मढ़ दे। इतने पर भी यथार्थता तो अपनी जगह पर अटल ही रहती है। यह आत्म प्रवंचना भर कहला सकती है, पर सुधार- परिवर्तन कर सकने जैसी क्षमता उसमें है नहीं।

    प्रसंग इन दिनों की परिस्थितियों के सन्दर्भ में उनका कारण जानना और समाधान निकालने का है। गहरी खोजबीन इसी निष्कर्ष पर पहुँचाती है कि जनमानस ही है जो अपने लिए इच्छित स्तर की परिस्थितियाँ न्यौत बुलाता है। कोई क्या कर सकता है, यदि हानि को लाभ और लाभ को हानि समझ बैठने की मान्यता बना ली जाए? कुरूप चेहरा दर्शाने के लिए दर्पण को आक्रोश का भाजन बनाया जा सकता है, पर इससे चेहरे पर छाई कुरूपता या कालिख को भगाया नहीं जा सकता। अच्छा हो, हम कठिनाइयों के कारण- समाधान अपने भीतर खोजें और यदि उत्कर्ष अभीष्ट हो, तो इसकी तैयारी के रूप में आत्मसत्ता को तदनुरूप बनाने के लिए अपने पुरुषार्थ नियोजित करें।

    क्रियाएँ, शरीर के माध्यम से बन पड़ती हैं। उनके सम्बन्ध में सोचने की खिचड़ी मस्तिष्क में पकती है किन्तु इन दोनों को आवश्यक प्रेरणा देने, ऊर्जा प्रदान करने की प्रक्रिया अन्तराल की गहराई से आरम्भ होती है। ज्वालामुखी फूटने, धरती हिलने जैसी घटनाओं का उद्गम स्रोत वस्तुतः: भूगर्भ की गहराई में ही कहीं होता है। बादल बरसते तो अपने खेत या आँगन में ही हैं, पर वस्तुतः: उनका उद्गम समुद्र से उठने वाली भाप है।

    भली- बुरी परिस्थितियों के सम्बन्ध में भी ऐसा ही सोचा जा सकता है। क्रिया करने और योजना बनाने में शरीर एवं मस्तिष्क को बहुत कुछ करते देखा जा सकता है, पर यह सारा तन्त्र कहाँ से खड़ा हुआ, यह जानने की उत्कण्ठा हो तो अन्तःचेतना में अवस्थित आकांक्षाओं को ही सूत्रधार मानना पड़ेगा।

    विज्ञान ने प्रदूषण उगलने वाले विशालतम कारखाने बनाए सो ठीक है, पर उसके द्वारा उत्पन्न होने वाली विषाक्तता और बेरोजगारी के सम्बन्ध में भी तो विचार किया जाना चाहिए था। यह प्रश्न उभरा न हो, सो बात नहीं, पर उस योजना को कार्यान्वित करने वालों के अन्तराल में अधिक कमाने की ललक ही प्रधान रही होगी। हानिकारक प्रतिक्रिया के विचार उठने पर उन्हें यह कहकर दुत्कार दिया गया होगा कि सर्वसाधारण से हमें क्या लेना- देना अपने लाभ को ही सब कुछ मान लेने में ही भलाई है।

जिन्होंने साहित्य सृजा और फिल्में बनाईं, उनको अपना लाभ प्रधान दीखा होगा अन्यथा प्रचार साधनों में अवांछनीयता का समावेश करते समय हजार बार विचार करना पड़ता है कि निजी लाभ कमाने के अत्युत्साह से लोकमानस को विकृत करने का खतरा उत्पन्न नहीं किया जाना चाहिए।

    युद्धोन्माद का वातावरण बनाने और सरंजाम जुटाने में किसी वर्ग विशेष को लाभ- ही सूझा होगा अन्यथा उस आक्रमण- प्रत्याक्रमण के माहौल से असंख्यों मनुष्यों की, परिवारों की भयंकर बरबादी सूझ ही न पड़ती, ऐसी बात नहीं है। अपने को सर्वसमर्थ, सर्वसम्पन्न बनाने के लिए उभरे उन्माद ने शोषण से लेकर आक्रमण तक के अनेकों कुचक्र रचे हैं। इतना दुस्साहस तभी बन पड़ा, जब उसने अपनी चेतना को इतना निष्ठुर बना लिया। अन्यान्यों को इस त्रास से भारी कष्ट सहना पड़ सकता है, इसको दरगुजर करने के उपरान्त ही अपराधी, आक्रामक एवं आतंकवादी बना जा सकता है।

    नशों के उत्पादक एवं व्यवसायी, तस्कर आदि यदि अनुमान लगा सके होते कि उनका व्यक्तिगत लाभ किस प्रकार असंख्य अनजानों का विनाश करेगा, यदि संवेदना उनके अन्तराल में उमगी होती तो निश्चय ही वे इस अनर्थ से हाथ खींच लेते और गुजारे के लिए हजार साधन खोज लेते।

    पशु- पक्षियों को उदरस्थ करते रहने वालों के मन में यदि ऐसा कुछ सूझ पड़ा होता कि उन निरीहों की तरह हम इतनी भयंकर पीड़ा सहते हुए जान गँवाने के लिए बाधित किए गए होते, तो कैसी बीतती? उस छटपटाहट को निजी अनुभूति से जोड़ सकने वाला कदाचित् ही छुरी का निर्दय प्रयोग कर पाता।

    नारी पर प्रजनन का असाधारण भार लादने वाले तथाकथित पति महोदय, यदि अपनी सहचरी के प्रति किए जा रहे उत्पीड़न को भी ध्यान में रख सके होते, तो उन्हें अपने इस स्वेच्छाचार पर अंकुश लगाना ही पड़ता। निजी मस्ती उतारने से पूर्व उसका भावी परिणाम क्या होगा, यह भी विचारना पड़ता। अपनी आर्थिक बरबादी और बच्चों की अनगढ़ जिन्दगी के लिए भी अपने को उत्तरदायी ठहराते हुए स्वेच्छाचार पर अंकुश लगाने के लिए सहमत होते।

    दोष- घटनाओं को ही देखकर निश्चिंत नहीं हो जाना चाहिए। सोचना यह भी चाहिए कि यह अवांछनीयताओं का प्रवाह प्रचलन, जिस भावना क्षेत्र की विकृति के कारण उत्पन्न होता है, उस पर रोक थाम के लिए भी कुछ कारगर प्रयत्न किया जाए।

    संवेदनाओं में करुणा का समावेश होने पर दूसरे भी अपने जैसे दीखने लगते हैं। कोई समझदारी के रहते, अपनों पर आक्रमण नहीं करता, अपनी हानि सहन नहीं करता। इसी प्रकार यदि वह आत्मभाव समूचे समाज तक विस्तृत हो सके तो किसी को भी हानि पहुँचाने, सताने की बात सोचते ही हाथ- पैर काँपने लगेंगे। अपने आपे को दैत्य स्तर का निष्ठुर बनाने के लिए ऐसा कोई व्यक्ति तैयार न होगा, जिसकी छाती में हृदय नाम की कोई चीज है। जिसने अपनी क्रिया को, विचारणा को मात्र मशीन नहीं बनाया होता, वरन् उनके साथ उस आत्मसत्ता का भी समावेश किया होता; तो आत्मीयता करुणा, सहकारिता और सेवा- साधना के लिए निरन्तर आकुल- व्याकुल रहती।

    समस्याओं का तात्कालिक समाधान तो नशा पीकर बेसुध हो जाने पर भी हो सकता है। जब होश- हवास ही दुरुस्त नहीं, तो समस्या क्या? और उसका समाधान खोजने का क्या मतलब? पर जब मानवी गरिमा की गहराई तक उतरने की स्थिति बन पड़े तो फिर माता जैसा वात्सल्य हर आत्मा में उभर सकता है और हितसाधना के अतिरिक्त और कुछ सोचते बन ही नहीं पड़ता। तब उन उलझनों में से एक भी बच नहीं सकेगी, जो आज हर किसी को उद्विग्न- आतंकित किए हुए हैं।

 
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