सतयुग की वापसी

संवेदना का सरोवर सूखने न दें

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संग्रह और उपभोग की ललक- व्याकुलता इन दिनों ऐसे उन्माद के रूप में लोकमानस पर छाई हुई है कि उसके कारण धन ही स्वार्थ सिद्धि का आधार प्रतीत होता है। ऐसी दशा में यदि उलटा मार्ग अपनाने का निर्णय करते बन पड़े तो इसमें आश्चर्य ही क्या?

    मानवी दिव्य चेतना के लिए इस प्रचलन को अपनाना सर्वथा अवांछनीय है। ऐसा कुछ तो कृमि- कीटक और पशु- पक्षी भी नहीं करते। वे शरीरचर्या के लिए आवश्यक सामग्री प्राप्त करने के उपरान्त, प्रकृति के सुझाए उन कार्यों में लग जाते हैं जिसमें उनका स्वार्थ भले ही न सधता हो, पर विश्व व्यवस्था के सुनियोजन में कुछ तो योगदान मिलता ही है। संग्रह किसी को भी अभीष्ट नहीं, उपभोग में अति कोई नहीं बरतता। सिंह, व्याघ्र तक जब भरे पेट होते हैं तो समीप में ही चरने वाले छोटे जानवरों के साथ भी छेड़खानी नहीं करते ।।

    मनुष्य का दरजा इसलिए नहीं है कि वह अपनी विशिष्टता को साधनों के संग्रह एवं उपभोग की आतुरता पर विसर्जित करता रहे। उसके लिए कुछ बड़े कर्तव्य निर्धारित हैं। उसे संयम साधना द्वारा ऐसा आत्म परिष्कार करना होता है, जिसके आधार पर विश्व उद्यान का माली बनकर वह सर्वत्र शोभा- सुषमा का वातावरण विनिर्मित कर सके। जब सभी प्राणी अपनी प्रकृति के अनुरूप अपनी गतिविधियाँ अपनाते हैं तो मनुष्य के लिए ऐसी क्या विवशता आ पड़ी है, जिसके कारण उसे अनावश्यक संग्रह और उच्छृंखल उपभोग के लिए आकुल- व्याकुल होकर पग- पग पर अनर्थ सम्पादित करते फिरना पड़े।

    गहरी डुबकी लगाने पर इस उलटी रीति का निमित्त कारण भी समझ में आ जाता है। भाव- संवेदनाओं का स्रोत सूख जाने पर सूखे तालाब जैसी शुष्कता ही शेष बचती है। इसे चेतना क्षेत्र की निष्ठुरता या नीरसता भी कह सकते हैं। इस प्रकार उत्पन्न संकीर्ण स्वार्थपरता के कारण मात्र अपना ही वैभव और उपभोग सब कुछ प्रतीत होता है। उससे आगे भी कुछ हो सकता है, यह सूझता ही नहीं। दूसरों की सेवा- सहायता करने में भी आत्मसन्तोष और लोकसम्मान जैसी उपलब्धियाँ संग्रहित हो सकती हैं, इसका अनुमान लगाना, आभास पाना तक कठिन हो जाता है। आँख खराब हो जाने पर दिन में भी मात्र अन्धकार ही दीख पड़ता है। कान के परदे जवाब दे जाएँ तो कहीं से कोई आवाज आती सुनाई नहीं पड़ती। ऐसी ही स्थिति उनकी बन पड़ती है, जिनके लिए अनर्थ स्तर की स्वार्थ पूर्ति ही सब कुछ बनकर रह जाती है।

    शरीर से चेतना निकल जाने पर मात्र लाश ही पड़ी रह जाती है, जिसे ठिकाने न लगाया जाए तो स्वयं सड़ने लगेगी, घिनौना वातावरण उत्पन्न करेगी। जब तक कि शरीर में चेतना विद्यमान थी, वह जीवित शरीर को समर्थ एवं सुन्दर बनाए हुए थी। निर्जीव तो नीरस और निष्ठुर ही हो सकता है। मुरदा तो समीप बैठे आश्रितों या स्वजनों का विलाप भी नहीं सुनता, उस पर कुछ ध्यान भी नहीं देता। मानो उन सबसे उसका कभी दूर का सम्बन्ध भी न रहा हो। भाव- संवेदनाओं का स्रोत सूख जाने पर मनुष्य भी ऐसा ही घिनौना हो जाता है। अपना हित- अनहित तक उसे नहीं सूझता, तो दूसरों की सेवा- सहायता करने की उत्कण्ठा उठने का तो प्रश्न ही नहीं उठता है।

    जीवितों और मृतकों की अलग- अलग दुनिया है। मुरदे श्मशान, कब्रिस्तान में जगह घेरकर जा बैठते हैं और उधर से निकलने वालों को भूत- प्रेतों की तरह डराते- भगाते रहते हैं। जीवितों में से भला कोई ऐसी हरकत करता है? उन्हें तो आवश्यक प्रयासों में ही निरत देखा जाता है। इन दिनों संवेदनाहीनों को प्रेतों जैसी और संवेदनशीलों को जीवितों जैसी गतिविधियाँ अपनाए हुए प्रत्यक्ष देखा जा सकता है।

    करुणा उभरे बिना दूसरों की स्थिति और आवश्यकता का भान ही नहीं होता। इस अभाव की स्थिति में लकड़ी चीरना और किसी निरपराध की बोटी- बोटी नोंच लेना प्राय: एक जैसा ही लगता है। किसी के साथ अन्याय बरतने में, सताने- शोषण करने में कुछ भी अनुचित प्रतीत नहीं होता। भावना के अभाव में मनुष्य का अन्तराल चट्टान की तरह नीरस- निष्ठुर हो जाता है। संवेदना शून्यों को नर- पशु भी तो नहीं कहा जा सकता, क्योंकि पशुओं की भी अपनी मर्यादाएँ होती हैं, जो प्राकृतिक अनुशासन के विपरीत एक कदम भी नहीं उठाते, भले ही मनुष्य की तुलना में उन्हें असमर्थ- अविकसित माना जाता रहे।


लगता है भाव-श्रद्धाविहीनों के लिए नर-पिशाच ब्रह्म राक्षस, मृत्युदूत, दुर्दांत दैत्य जैसे नामों में से ही किसी का चयन करना पड़ेगा, क्योंकि उन्हीं की आपा-धापी उस स्तर तक पहुँचती है, जिनमें दूसरों के विकास-विनाश से, उत्पीड़न एवं अभिवर्धन से कोई वास्ता नहीं रहता। उनके लिए ‘स्व’ ही सब कुछ बनकर रह जाता है। बस चले तो वे हिरण्याक्ष दैत्य की तरह दुनिया की समूची सम्पदा समेटकर ले उड़ें, भले ही उसे समुद्र में छिपाकर निरर्थक बनाना पड़े। जिनके लिए सभी विराने हैं, वे किसी का कुछ भी अनर्थ कर सकते हैं। ऐसा ही पिछले दिनों होता भी रहा है। स्वार्थान्धों से इतना भी सोचते न बन पड़ा कि इस सृष्टि में दूसरे भी रहते हैं और उन्हें भी जीवित रहने दिया जाना चाहिए। सब कुछ अपने लिए समेट लेने, हड़प जाने को ही विशिष्टता का फलितार्थ नहीं मान बैठना चाहिए।

    प्रस्तुत समस्याएँ अगणित हैं। उलझनों, संकटों, विग्रहों का कोई अन्त नहीं। यह सब कहाँ से उत्पन्न होते हैं और क्यों कर निपट सकते हैं? इसकी विवेचना करने पर इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि मात्र अपने आपे तक, गिने-चुने अपनों तक सीमित रहने वाला किन्हीं अन्यों की चिन्ता नहीं कर सकता और न उदार न्यायनिष्ठा का ही परिचय दे सकता है। ऐसी दशा में अनाचार के अतिरिक्त और कुछ बन ही न पड़ेगा और उसका प्रतिफल अनेकानेक विग्रहों के रूप में ही आकर रहेगा। यही दुष्प्रवृत्ति जब बहुसंख्यक लोगों द्वारा अपनाई जाती है, तो उसका परिणाम वातावरण को विक्षुब्ध किए बिना नहीं रहता ।

    संवेदना, आत्मीयता के रूप में विकसित होती है। तब मनुष्य दूसरों के दु:ख को अपना दु:ख, अन्यों के सुख को अपना सुख मानने लगता है। सहानुभूति के रहते ऐसा व्यवहार करना सम्भव नहीं होता है, जिनसे किसी के अधिकारों का अपहरण होता हो अथवा किसी को शोषण का शिकार बनना पड़ता हो। जब प्रचलन इसी प्रकार का रहेगा तो न दुर्व्यवहार ही बन पड़ेगा और न किन्हीं को अकारण त्रास सहना पड़ेगा।

    आमतौर से अपना, अपनों का हितसाधन ही अभीष्ट रहता है। यदि यह आत्मभाव सुविस्तृत होता चला जाए, जनसमुदाय को अपने अंचल में लपेट ले, अन्य प्राणियों को भी अपने कुटुम्बी जैसा माने, अपने जैसा समझे; फिर वैसा ही सोचते रहते बन पड़ेगा, जिससे सुख-शान्ति का पथ प्रशस्त होता हो। मात्र आतुरता और निष्ठुरता ही ऐसी दुष्प्रवृत्ति है जो अनाचार के लिए उकसाती है और उसके फलस्वरूप अगणित संकटों का परिकर विनिर्मित करती है। यदि भाव-संवेदना जीवन्त और सक्रिय बनी रहे तो सृजन और सहयोग के आधार पर उत्थान और कल्याण का सुयोग सर्वत्र ही बन पड़ेगा।


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