सतयुग की वापसी

समस्याओं की गहराई में उतरें

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इन दिनों की सबसे बड़ी तात्कालिक समस्या यह है कि समाज परिकर में छाई विपन्नताओं से किस प्रकार छुटकारा पाया जाए और उज्ज्वल भविष्य की संरचना के लिए क्या किया जाए, जिससे निरापद और सुविकसित जीवन जी सकना सम्भव हो सके?

    समाज विज्ञानियों द्वारा प्रस्तुत कठिनाइयों का कारण अभावग्रस्तता को मान लिया गया है। इसी मान्यता के आधार पर यह सोचा जा रहा है कि साधन- सुविधाओं वाली सम्पन्नता की अधिकाधिक वृद्धि की जाए, जिससे अभीष्ट सुख- साधन उपलब्ध होने पर प्रसन्नतापूर्वक रहा जा सके। मोटे तौर पर अशिक्षा, दरिद्रता एवं अस्वस्थता को प्रमुख कारणों में गिना जाता है और इनके निवारण के लिए कुछ नए नीति निर्धारण का औचित्य भी है, पर देखना यह है कि वस्तुस्थिति समझे बिना और वास्तविक व्यवधानों की तह तक पहुँचे बिना जो प्रबल प्रयत्न किए जा रहे हैं या किए जाने वाले हैं वे कारगर हो भी सकेंगे या नहीं ??

    दरिद्रता को ही लें। मनुष्य की शारीरिक, मानसिक समर्थता इतनी अधिक है कि उसके सहारे अपना ही नहीं, परिकर के अनेकों का भली प्रकार गुजारा किया जा सके और बचत को सामयिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकने वाले पुण्य परमार्थ में भी लगाया जा सके। प्रगतिशील जनों में से असंख्यों ऐसे हैं, जिनके पास न तो कोई पैतृक संपदा थी और न बाहर वालों की ही कोई कहने लायक सहायता मिली, फिर भी वे अपने मनोबल और पुरुषार्थ के आधार पर आगे बढ़ते और ऊँचे उठते चले गए, सफलता के उस उच्च शिखर पर जा पहुँचे जो जादुई जैसा लगता है।

    वस्तुत: उन सफलताओं के पीछे एक रहस्य काम कर रहा होता है कि उनने अपनी उपलब्धियों का सुनियोजन किया और बिना भटके, नियत उपक्रम अपनाए रहे। जनसहयोग भी उन्हीं के पीछे लग लेता है, जिनमें सद्गुणों का, सत्प्रवृत्तियों का बाहुल्य होता है। इसी विधा का अनुकरण करने के लिए यदि तथाकथित दरिद्रों को भी सहमत किया जा सके, तो वे आलस्य- प्रमाद की, दीनता- हीनता की केंचुली उतारकर, अभीष्ट दिशा में अपने बलबूते ही इतना कुछ कर सकते हैं, जिसे सराहनीय और सन्तोषप्रद कहा जा सके।

    इसके विपरीत यदि बाहरी अनुदानों पर ही निर्भर रहा जाए तो जो मिलता रहेगा, वह फूटे घड़े में पानी भरते जाने की तरह व्यर्थ रहेगा और कुछ पल्ले पड़ेगा नहीं। दुर्व्यसनों के रहते, आसमान से बरसने वाली कुबेर की सम्पदा भी अनगढ़ व्यक्तियों के पास ठहर न सकेगी। अनुदानों का वांछित लाभ न मिल सकेगा।

    अशिक्षा का कारण यह नहीं है कि पुस्तकें, कापियाँ, कलमें मिलना बन्द हो गई हैं या इतनी निष्ठुरता भर गई है कि पूछने पर कुछ बता देने के लिए कोई तैयार नहीं होता, वरन् वास्तविक कारण यह है कि शिक्षा का महत्त्व ही अपनी समझ में नहीं आता और उसके लिए उत्साह ही नहीं उमगता। पिछड़े क्षेत्रों में खोले गए स्कूल प्राय: छात्रों के अभाव में खाली पड़े रहते हैं और नियुक्त अध्यापक रजिस्टरों में झूठी हाजिरी लगाकर, खाली हाथ वापस लौट जाते हैं। यदि उत्साह उमगे तो जेल में लोहे के तसले को पट्टी और कंकड़ को कलम बनाकर विद्वान् बन जाने वालों का उदाहरण हर किसी के लिए वैसा ही चमत्कार प्रस्तुत कर सकता है। उत्कण्ठा की मनःस्थिति रहते, सहायकों की सहायता की कमी भी रहने वाली नहीं हैं।

     समर्थता, व्यायामशालाओं में या टॉनिक बेचने वालों की दुकानों में नहीं पाई जा सकती। उसके लिए संयम, साधना और सुनियोजित दिनचर्या अपनाने से ही अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति हो सकती है। दूसरों का रक्त अपने शरीर में प्रवेश करा लेने पर भी उस उपलब्धि का अन्त थोड़े ही समय में हो जाता है। अपने निजी रक्त उत्पादन के सुव्यवस्थित हो जाने पर ही काम चलता है।
अधिक उत्पादन, अधिक वितरण के लिए किए गए बाहरी प्रयास तब तक सफल न हो सकेंगे, जब तक कि मनुष्य का विश्वास ऊँचे स्तर तक उभारा न जाए। भूल यही होती रहती है कि मनुष्य को दीन, दुर्बल, असहाय, असमर्थ मान लिया जाता है और उसकी अनगढ़ आदतों को सुधारने की अपेक्षा, अधिक साधन उपलब्ध कराने की योजनाएँ बनती और चलती रहती हैं। लम्बा समय बीत जाने पर भी जब स्थिति यथावत् बनी रहती है, तब प्रतीत होता है कि कहीं कोई मौलिक भूल हो रही है।

    एक भ्रम यह भी जनसाधारण पर हावी हो गया है कि सम्पदा के आधार पर ही प्रगति हो सकती है। यह भ्रम इसलिए भी पनपता और बढ़ता गया है कि धनियों को ठाठ- बाट से रहते, गुलछर्रे उड़ाते देखकर यह अनुमान लगा लिया जाता है कि वह सुखी और समुन्नत भी हैं। पर लबादा उतारकर जब इस वर्ग को नंगा किया जाता है तो पता चलता है कि उसके भीतर एक अस्थिपञ्जर ही किसी प्रकार साँसें चला रहा है। प्रसन्नता के नाम पर उन्हें चिन्ताएँ ही खाए जा रही हैं। ईर्ष्या आशंका से लेकर अपने एवं अपनों के दुर्गुण- दुर्व्यसन स्थिति को पूरी तरह उलटकर रख दे रहे हैं। यह स्थिति उन्हें औसत नागरिक की तुलना में कहीं अधिक उद्विग्न, रुग्ण और चिन्तित बनाए रहती है। जीवन के आनन्द का बुरी तरह अपहरण कर लेती है।

    मुड़कर देखने पर प्रतीत होता है कि जब तथाकथित शिक्षा का, सम्पदा का, विज्ञान स्तर की चतुरता का इतना अधिक विकास नहीं हुआ था, तब मनुष्य अपेक्षाकृत अधिक स्वस्थ, सुखी, सन्तुष्ट और हिल- मिलकर मोद मनाने की स्थिति में था। बढ़ी हुई समृद्धि ने तो वह सब भी छीन लिया, जिसे मनुष्य ने लाखों वर्षों के अध्यवसाय के सहारे, सभ्यता और सुसंस्कारिता के उच्चस्तरीय संयोग से दूरदर्शिता के साथ अर्जित किया था।

    यहाँ सुविधा- साधनों को दुर्गति का कारण नहीं बताया जा रहा है, वरन् यह कहा जा रहा है कि यदि उनका सदुपयोग बन पड़ा होता, तो स्थिति उस समय की अपेक्षा कहीं अधिक अच्छी होती, जिस समय साधन कम थे। तब विकसित भावचेतना के आधार पर स्वल्प उपलब्धियों का भी श्रेष्ठतम उपयोग कर लिया जाता था और अपने साथ समूचे समुदाय को, वातावरण को, सच्चे अर्थों में समृद्ध- समुन्नत बनाए रहने में सफलता मिल जाती थी। ऐसे ही वातावरण को सतयुग कहा जाता रहा है।

    तथाकथित प्रगति का विशालकाय सरंजाम जुट जाने पर भी, भयानक स्तर की अवगति का वातावरण क्यों कर बन गया? इसका उत्तर यदि गम्भीरता से सोचा जाए तो तथ्य एक ही हाथ लगेगा कि बुद्धि भ्रम ने ही यह अनर्थ सँजोए हैं। फिर क्या बुद्धि को कोसा जाए? नहीं, उसका निर्धारण तो भाव- संवेदनाओं के आधार पर होता है। भावनाओं में नीरसता, निष्ठुरता जैसी निकृष्टताएँ घुल जाए तो फिर तेजाबी तालाब में जो कुछ गिरेगा, देखते- देखते अपनी स्वतन्त्र सत्ता को उसी में जला- घुला देगा। उस क्षेत्र में विकृतियों का जखीरा जम जाना ही एकमात्र ऐसा कारण है, जिसके रहते समृद्धि और चतुरता का विकास- विस्तार होते हुए भी, उल्टी सर्वतोमुखी विपन्नता ही हाथ लग रही है। सुधार तलहटी का करना पड़ेगा। सड़ी कीचड़ के ऊपर तैरने वाला पानी भी अपेय होता है। दुर्भावनाओं के रहते दुर्बुद्धि ही पनपेगी और उसके आधार पर दुर्गति के अतिरिक्त और कुछ हाथ लगेगा नहीं।

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