समग्र स्वास्थ्य संवर्धन कैसे हो ?

परिवार परिकर की स्वस्थता

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शारीरिक, मानसिक और सामाजिक तीनों स्वास्थ्यों के संरक्षण एवं संवर्धन का प्रयोग अनुभव-अभ्यास परिवार रूपी प्रयोगशाला में करना और इसी पाठशाला में पढ़ना-पढ़ाना होता है। यह निजी जीवन के साथ जुड़ी हुई परिवार संस्था ही है, जिसे वैयक्तिक विज्ञान और सामाजिक सुगठन का मध्य केन्द्र कहा जा सकता है। आत्म सुधार के लिए चिन्तन भर प्राप्त करते रहना पर्याप्त नहीं, वरन् उसके लिये प्रयोग करने, अनुभव में उतारने एवं जीवनचर्या का अंग बनाने की आवश्यकता होती है। उसके लिए कोई उपकरण, आधार, माध्यम चाहिए। यह परिवार ही बन सकते हैं। ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के सतयुगी सिद्धान्तों को हृदयंगम कैसे किया जाय? इसके लिए निकटवर्ती परिकर के साथ आने वाले उतार-चढ़ावों से निपटने का अभ्यास करना होता है। सामाजिक प्राणी होने का स्वभाव, मनुष्य को परिवार के साथ सहजीवन जीने की आवश्यकता अनुभव कराती है।

सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन के लिए लोकमानस का परिष्कार आवश्यक है। इसके लिए तदनुरूप प्रशिक्षण और अभ्यास की आवश्यकता है। वैज्ञानिक प्रयोग-परीक्षणों के लिये प्रयोगशालाओं की आवश्यकता रहती है। शिक्षा सम्वर्धन के लिए विद्यालयों की श्रृंखला चलानी आवश्यक होती हैं। खिलाड़ियों के लिए खेल मैदान वा अखाड़ा चाहिए। तैरना सीखने के लिए तालाब चाहिए। कृषि उत्पादन के लिए खेतों को होना जरूरी है। संगीत शिक्षा में वाद्य-यन्त्रों का सहारा लिये बिना काम नहीं चलता। युग समस्याओं के समग्र समाधान के लिए दो प्रयास आवश्यक हैं—एक व्यक्तिगत जीवन में आदर्शवादिता का समावेश और दूसरा सामूहिक-सामाजिक गतिविधियों का, सत्प्रवृत्तियों का प्रचलन किया जाना। यह दोनों ही प्रयास ऐसे हैं, जिनमें हर भावनाशील विचारवान् का उत्साह और प्रयास किसी न किसी रूप में नियोजित रहना ही चाहिए। स्वल्प सामर्थ्य वाले भले ही उसे छोटे रूप में छोटे क्षेत्र में कार्यान्वित करें, भले ही सामने सम्पर्क वाले प्रभाव क्षेत्र तक इस स्तर के प्रयासों को चरितार्थ करें, पर चेष्टा होनी तो निश्चित रूप से चाहिए। उसे आपत्तिकालीन आवश्यकता और युगधर्म के निर्वाह की तरह प्रमुखता और प्राथमिकता मिलनी चाहिये। अधिक सामर्थ्यवान इन्हीं प्रयासों को बड़े रूप में, बड़े साधनों के साथ, बड़े क्षेत्र में कार्यान्वित कर सकते हैं।

जिन्हें पूरी तरह निकृष्टता के सड़े दल-दल ने अपने में धंसा-फंसा नहीं लिया है, उन्हें नव-सृजन के लिए कुछ न कुछ करना अवश्य पड़ेगा, भले ही वह छोटी गिलहरी के बालों में बालू भर कर समुद्र पाटने के प्रयास में राम-दल की सहायता करने जैसा स्वल्प ही क्यों न हो। केवट की भावना भगवान तक को गंगा पर उतारने का श्रेय सम्पादित कर चुकी है। शबरी ने भूखे भगवान का पेट भरने के लिए कुछ दिया ही था, भले ही वह सूखे बेर जैसा नगण्य ही क्यों न हो? सुदामा ने तन्दुलों को बगल से निकालकर भगवान के समीप तक पहुंचाने का साहस किया तो उनका परिपाक सुदामापुरी की द्वारिकापुरी जैसा सुसम्पन्न बनाने में फलित हुआ। जागरूकों का चिन्तन इन दिनों तो विशेष रूप से इसी राजमार्ग पर अग्रसर होना चाहिए।

व्यक्ति निर्माण और समाज निर्माण के दोनों ही प्रयोजनों का प्रशिक्षण, अभ्यास और अभिवर्धन परिवार के क्षेत्र में सरलतापूर्वक स्वाभाविक रीति से संभव हो सकता है। यही वह धुरी है, जिसे यदि सही बनाया और रखा जा सके, तो सम्बद्ध दोनों ही पहिए अपनी राह पर द्रुतगति से लुढ़कते रह सकते हैं। परिवार को सुनियोजित बनाया जा सके, तो उसकी परिणति सर्वतोमुखी प्रगति के रूप में सामने आ सकती है। न केवल उस परिकर के लोगों को भला हो सकता है, वरन् समूचे समाज-संसार को उस प्रभाव से प्रभावित होने का सुयोग हस्तगत हो सकता है।

आमतौर से परिवार वंश के आधार पर बनते और कुटुम्ब कहलाते रहते हैं। विवाह के उपरान्त एक नये परिवार के निर्माण का शुभारम्भ होता है, पर इससे पूर्व भी जो लोग इस परिकर के साथ जुड़े हुए रहे हैं, उनके साथ पूरी तरह सम्बन्ध विच्छेद नहीं हो जाता। सच तो यह है कि जन्म के समय से लेकर स्वावलम्बी बनने तक की अवधि में जिन लोगों का सहयोग रहा है, उनके साथ जुड़े रहकर लाभ उठाने की सुविधा का कृतज्ञतापूर्वक ऋण चुकाना पड़ता है, भले ही कोई वयस्क अपना विवाह न करे, भले ही नया कुटुम्ब बनाने-बढ़ाने की उतावली न करे, पर जो पहले से ही विद्यमान हैं, उनके साथ तो अपने दायित्वों को निबाहना आवश्यक है ही।

साधारणतया भरण-पोषण का प्रबन्ध करना और सदस्यों को प्रसन्न रखने के लिए उनके इच्छित उपहार जुटाने का क्रम ही गृह संचालक चलाते रहते हैं। इसी में उनके समूचे प्रयास खप जाते हैं। किन्हीं बिरलों का ही ध्यान इस ओर जाता है कि परिवार संस्था यदि शालीनता के आधार पर सुनियोजित ढंग से चले, तो वह नर-रत्नों की खदान भी बन सकती है। इस परिवार में प्रशिक्षित हुए व्यक्ति स्वयं महामानवों जैसी भूमिका निवाहते हुए आत्म-कल्याण और लोक-मंगल का दुहरा प्रयोजन पूरा करते रहने में समर्थ-सफल हो सकते हैं। इसके विपरीत अनगढ़ परिवारों के कषैले-विषैले वातावरण में जिन्हें भी पलने-सीखने का अवसर मिला है, वे सदा मात्र अनर्थ ही करते रहेंगे। दुर्गुणों, दुर्भावों, दुर्व्यसनों और कुकृत्यों में लगे हुए लोग जीवन भर नरक भोगते और दूसरों को शोक-संताप के, पतन-पराभव के गर्त में धकेलते रहते हैं। ऐसे लोग असभ्य, अनगढ़ और धरती के भार कहलाते हैं। इस स्थिति तक पहुंचाने वाले कारणों को यदि तलाश किया जाय, तो उसमें प्रमुखता यही सामने आती है कि परिवार में उन्हें वह वातावरण नहीं मिला, जो मिलता तो वे सभ्य, सुसंस्कृत, शालीन और समुन्नत बनकर अपना और अपने सम्पर्क समुदाय का उत्थान-कल्याण कर सकने में समर्थ हुए होते। परिवार एक संयोगवश मिला हुआ परिकर है, जिसमें मानवी गरिमा के अनुरूप शालीनता का अभ्यास किया और कराया जा सकता है। इसके लिए उस परिकर के प्रतिभाशाली सदस्यों को अपना विशेष दायित्व समझना चाहिये और अपने को इस योग्य बनाना चाहिये कि वह अपनी छोटी प्रयोगशाला में सदाशयता का उद्यान लगा और विकसित कर सके। जो करना है उसके सम्बन्ध में सोचना और सर्वप्रथम अपने चरित्र और व्यवहार को ऐसा विनिर्मित करना चाहिए, जो सांचे का काम दे सके और निकट आने वालों को ऊंचे स्तर का ढालते रहने में समर्थ हो सके। धुरी को तो सही होना ही चाहिए, तभी उसके इर्दगिर्द चक्कर लगाने वाले घटक अपना कार्य सही रीति से कर सकने में सफल होते हैं। इससे कम में बात बनती नहीं। परिवार संस्था वंश के आधार पर ही विनिर्मित हो, यह तनिक भी आवश्यक नहीं। कई कुटुम्ब ऐसे कुसंस्कारी बन चुके होते हैं कि उन्हें आदर्शों की गन्ध तक नहीं सुहाती। बुराइयां छोड़ने व अच्छाइयां अपनाने की बात पर सहमत होना उन्हें अति कठिन लगता है। पूर्वाग्रह ग्रसित हठवादिता समझाने-बुझाने से अपने को तनिक भी बदलने के लिए तैयार नहीं होती। ऐसी दशा में बालू से तेल निकालने की बात बनती न देखकर निराशा ही हाथ लगती है। इन परिस्थितियों में सत्प्रवृत्ति की प्रयोगशाला ‘विचार परिवार’ का गठन करके या वैसा जहां उपस्थित हो, वहां जा पहुंचने की बात सोचनी पड़ती है। कुटुम्ब परिकर हो या विचार परिवार, वस्तुतः उसी क्षेत्र में सीखने-सिखाने का सिलसिला चलाना पड़ता है। ‘परिकर’ शब्द की चर्चा यहां विवाह करने या उसके पेट से निकले बच्चों तक अपना दायरा सीमित कर लेना नहीं और यह भी नहीं सोचा जाना चाहिये कि इस थोड़ी-सी इकाइयों तक अपना कर्तव्य सीमित हो जाता है। सच तो यह है कि इस संक्रान्ति बेला में किन्हीं विचारशीलों को विवाह-बन्धन में बंधने का दुस्साहस तभी करना चाहिए जब उन्हें लक्ष्य की दिशा में कन्धे से कन्धा मिलाकर साथ चलने वाला सहयोगी मिल जाय अन्यथा एक पैर आगे—बढ़ने, दूसरा पीछे खिंचने जैसी ऐसी मुसीबत सामने खड़ी होती है, जिसमें यदाकदा वासना तृप्ति के अतिरिक्त अन्य हजार प्रकार के संकट सामने आ खड़े होते हैं और दिन-दिन समस्याओं एवं संकटों का घटाटोप अधिकाधिक भारी विपन्न बनाता चलता है।

परिवार हर किसी के साथ अनायास ही जुड़ जाता है। चाहे वह अभिभावकों, सम्बन्धी, कुटुम्बीजनों का समुदाय हो या विवाह के बाद निजी उत्पादन से गढ़ा गया समुदाय। इसके अतिरिक्त वे लोग भी परिजन ही कहलाते हैं, जिनके साथ रहना या काम करना पड़ता है। इनमें से किसी न किसी प्रकार का परिकर हर किसी के साथ किसी न किसी रूप से जुड़ा होता है। इनमें कोई भी अपने साथ क्यों न बंधा हो, उसके हर घटक को अधिक सुयोग्य, सुसंस्कृत, सद्गुणी एवं स्वावलम्बी बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। यह सरल भी है। शरीर तो सभी का आज्ञानुवर्ती होता है। उनके साथ जुड़े हुए परिजन ही ऐसे होते हैं, जिन पर अधिक प्रभाव-दबाव रहता है। स्नेह, सद्भाव, आदान-प्रदान, सहयोगजन्य सुविधा, भविष्य की आशा संजोये रहने, दबावों के कारण इस परिवार का परामर्शों, आग्रहों या दबावों के आधार पर उन्हें सुधारना, उभारना और उछालना अपेक्षाकृत अधिक अच्छी सरलतापूर्वक बन पड़ता है। इस संभावना का पूरा-पूरा प्रयोग करना चाहिए। अनाचार थोपने के लिए तो अस्वाभाविक प्रयत्न करने पड़ते हैं, पर सदाशयता के सिद्धान्तों में अपना निज का प्रभाव होता है। उसके साथ महामानवों द्वारा प्रस्तुत किए गये अनेकों तथ्य एवं प्रमाण इतिहास के पृष्ठों पर अंकित रहते हैं। उन साक्षियों के सहारे कम से कम अपने प्रभाव क्षेत्र के लोगों को तो संभालना-सुधारना संभव हो ही सकता है। पूरी न सही, आंशिक सफलता तो मिल ही सकती है।

मेहंदी पीसने वाले के हाथ लाल रंग से रंग जाते हैं। इत्र बेचने वाले के कपड़े अनायास ही महकने लगते हैं। सत्प्रवृत्ति संवर्धन का कार्य अपने छोटे परिवार से ही आरम्भ क्यों न किया गया हो, उसका सर्वाधिक प्रभाव संयोजक पर ही पड़ता है, कारण कि उसे हर समय ध्यान रखना पड़ता है कि जो कुछ दूसरों को बताना था समझाना है, उसका अनुकरणीय उदाहरण अपने को ही प्रस्तुत करना पड़ेगा अन्यथा कथनी और करनी में अन्तर रहने पर प्रभाव तो कुछ पड़ेगा नहीं, उपहास ही उड़ेगा।

परिवार एक छोटा राष्ट्र है, उसकी सुव्यवस्था बनाने में भी उतने ही कौशल या अनुशासन की आवश्यकता पड़ती है जितनी कि किसी शासनाध्यक्ष को अपने अधिकार क्षेत्र में सुव्यवस्था बनाते रहने में। अनुशासनहीनता से अराजकता फैलती है। असभ्य, आलसी और अनगढ़ प्रजाजन राष्ट्र को दिनों-दिन अवनति की ओर घसीटते हैं। इसी प्रकार परिवार में कोई नीति-निर्धारण न हो, तो हर क्षेत्र में अशान्ति और अवनति का ही माहौल बनेगा।

परिवार के सदस्यों में से प्रत्येक को अधिकार की अपेक्षा कर्तव्य पालन पर अधिक जोर देने के लिए अभ्यास कराया जाना चाहिए। अनुशासन बना रहे, इसके लिए एक आंख प्यार की और दूसरी सुधार की रखनी आवश्यक है। हर किसी की उचित-अनुचित मांग मान लेने की कीमत पर प्रसन्न करने का प्रयत्न करना क्षणिक लाभ के लिए भविष्य को अन्धकारमय बनाना है। औचित्य को ही प्रधानता मिले, पक्षपात बरतने के लिए न तो मन बनाया जाय और न दूसरों को इस प्रकार का आग्रह करके बात मनवा लेने की छूट दी जाय। संतुलन दृढ़तापूर्वक किए बिना कुछ बनता ही नहीं। कुछ को अनावश्यक सुविधायें देने और कुछ को उनके उचित अधिकारों से वंचित करने की नीति अपनाकर कोई गृह-संचालक उस परिकर में अपनी प्रतिष्ठा और प्रभावशीलता बनाये नहीं रह सकता। स्त्री-पुत्रों के प्रति ही नहीं, समस्त परिवार के प्रति एक जैसे व्यवहार की नीति बरती जानी चाहिए।

उत्तराधिकार में इतनी सम्पदा छोड़ मरने की बात नहीं सोचनी चाहिए, जिससे पीछे वालों को उसी के ब्याज-भाड़े में गुजारा करते रहने की आकांक्षा जागे। इससे उत्तराधिकारियों को निजी पुरुषार्थ के सहारे स्वावलम्बन अपनाने की साहसिकता समाप्त हो जाती है, प्रतिभा संवर्धन से वे वंचित रह जाते हैं। परावलम्बी अनेक दुर्व्यसनों के शिकार बनते हैं। धनी परिवारों की सुविधा सम्पन्न परिस्थितियों में पले हुए लोग सुविधा के आधार खिसकते ही दीन-हीन जैसी स्थिति में आ पहुंचते हैं। विपत्ति में हुए घाटे की खाई पाटने के लिए उनमें निजी कौशल और पौरुष तो होता नहीं, ऐसी दशा में धक्का लगने पर वे इस प्रकार औंधे मुंह गिरते हैं कि स्वयं उठने या दूसरों के द्वारा उठाये जाने जैसे किसी सुयोग के बनने की सम्भावना नहीं रहती। इसलिए अभिभावकों का भरण-पोषण के अतिरिक्त यह भी कर्तव्य बन जाता है कि वे अपने प्रभाव क्षेत्र के सदस्य को आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी बनने की—पूर्वजों की कमाई पर आंख जमाने की बात स्पष्ट करते रहें। पसीने की कमाई का ही सदुपयोग बन पड़ता है। हराम की कमाई तो एक प्रकार से चोरी, बेईमानी के स्तर की समझी जानी चाहिए, भले ही वह पूर्वजों के द्वारा छोड़ी या दहेज आदि के माध्यम से ही मिली क्यों न हो। जुआ, सट्टा, लाटरी आदि जैसे माध्यमों से अचानक छप्पर फाड़कर उतर पड़ने वाली सम्पदा भी अनीति उपार्जन की तरह सत्प्रयोजनों में लग नहीं सकती। उसके बदले अनर्थ ही खरीदे जा सकते हैं।

अभिभावकों, संरक्षकों के लिए उचित है कि अपने आश्रितों में से प्रत्येक को सुसंस्कारिता और स्वावलम्बी जीवन जीने की कला सिखायें। मर्यादाओं के परिपालन और वर्जनाओं से बचे रहने के लिए सहमत करें। किसी को भी असभ्यता, उद्दण्डता, अनैतिकता अपनाने की छूट न दें। आलस्य, प्रमाद के चंगुल में फंसने से इस परिकर को उसी प्रकार रोका जाना चाहिए जैसे कि सांप-बिच्छू से, अग्नि और जहर से दूर रहने की सतर्कता विश्वास करने के स्तर तक हृदयंगम करायी जाती है।

परिवार में न तो कोई आत्महीनता की ग्रन्थि का शिकार होकर संकोची बन बैठे। ग्रन्थि के खुल न सकने पर घुटन ही अनुभव होती है और परिणाम प्रतिभा पलायन जैसा अतीव कष्टकारक होता है। साथ ही किसी को इस स्थिति तक भी न पहुंचने दिया जाय कि अशिष्ट, उद्दण्डता बरतने पर उतारू होने जैसी अवांछनीय स्थिति तक जा पहुंचे। इसलिए जहां सन्तुलित समदृष्टि अपनाये जाने की आवश्यकता है, वहां अतिरिक्त शालीनता, प्रशंसा और उजड्डता की यथा अवसर भर्त्सना भी होनी चाहिए। अनुभव होने की आवेशग्रस्तता को मनमानी करने की छूट न मिलना ही उचित-उपयुक्त है।

सहकारी और सद्गुणी बनने का स्वभाव अभ्यास की विधि-व्यवस्था और दिनचर्या के साथ जुड़ा रहना चाहिए। घर के सभी कामों को सभी समर्थ लोग मिल-जुलकर करें। बालकों, वृद्धों को भी उनके स्तर का काम देकर उन्हें गृह-व्यवस्था में सहयोगी बने रहने के लिए सहमत करें। घर का सारा भार नव-वधुओं पर छोड़ देना और हर किसी को उन्हीं से अपने-अपनी मांग पूरी कराने की मान्यता नहीं बनने देनी चाहिए। घर के काम मिल-जुलकर करने से ही सुव्यवस्था का अभ्यास सभी को होता है। इससे न तो किसी को खाली रहना पड़ता है और न किसी को असाधारण रूप से पिसने का दबाव वहन करना पड़ता है। इस आधार पर महिलाओं को भी इतना अवकाश मिल जाता है कि वे अपने निजी विकास के लिए भी कुछ कर सकें। इस न्यास से घर की महिलाओं को भी वंचित नहीं किया जाना चाहिए। इसके लिए वर्तमान प्रचलनों और मान्यताओं के असाधारण रूप से बदले जाने की आवश्यकता है।

पारिवारिक पंचशीलों को अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार सभी समझदारों को परिपालन करना चाहिए। श्रमशीलता, शिष्टता, मितव्ययिता, सुव्यवस्था, सहकारिता—यह पांच ऐसे सद्गुण हैं, जिन्हें अपनाने पर ही कोई सच्चे अर्थों में प्रगतिशील मनुष्य कहलाने की स्थिति तक पहुंच सकता है। आलसी, प्रमादी, अपव्ययी, अहंकारी, प्रदर्शन प्रिय, फिजूल खर्च, अशिष्ट, असभ्य, व्यवस्था बुद्धि से रहित, समय को बर्बाद करते रहने वाले, व्यक्तिवादी, संकीर्णता से ग्रस्त, स्वार्थ परायण, लोभी अपनी उजड्डता को बड़प्पन का चिह्न भले ही मान लें, पर वे वस्तुतः सभी की आंखों से गिर जाते हैं, ओछे, बचकाने, अनगढ़ और हेय स्तर के जाने जाते हैं, प्रामाणिकता समाप्त हो जाती है और उस सहयोग के द्वार बन्द हो जाते हैं जो किसी के उठने-उठाने का मूलभूत आधार होता है। उजड्ड दूसरों पर यह छाप छोड़ना चाहते हैं कि हमारी स्वेच्छाचारिता औरों की तुलना में अधिक समर्थतायुक्त है, पर परिणाम होता ठीक इसके विपरीत है। अनगढ़ लोग सभी की आंखों से गिर जाते हैं और भविष्य को अपने हाथों अन्धकारमय बनाते हैं।

ऐसे कुप्रचलन परिवार में जहां भी उभरते दिखाई दें, वहां उन्हें तत्काल दबाया, दबोचा जाना चाहिए। सुधार आरम्भिक स्थिति में सफल पड़ता है, पर जब कुटेव परिपक्व हो जाती है, तो उसे बदलने-सुधारने में बड़ी कठिनाई आती है। परिवार संस्था की सफलता इसी बात में है कि उस परिवार में कितनी सहकारिता, सद्भावना, और शालीनता का समावेश हो सका। ऐसे परिवार सम्पन्नता की दृष्टि से सामान्य होते हुए भी अनुकरणीय, अभिनन्दनीय, प्रतिष्ठित एवं गौरवास्पद बनने का अवसर प्राप्त करते हैं।
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