समग्र स्वास्थ्य संवर्धन कैसे हो ?

मानसिक सन्तुलन इस प्रकार सही रहे

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मस्तिष्कीय स्वास्थ्य को सही रखने के लिए आवश्यक है कि जीवन को खिलाड़ी की तरह जिया जाय। उस भाग-दौड़ में लगने वाली छोटी-मोटी चोट-ठोकरों, हार-जीतों को महत्व न दिया जाय। इन्हें रात-दिन के ज्वार-भाटे जैसा नियति का कौतुक-कौतुहल मात्र माना जाय। हर काम में चुस्ती और मुस्तैदी बरती जाय, पर यह आशा न रखी जाय कि इच्छित कामना के अनुरूप ही परिस्थितियां बनती चली जायेंगी। प्रतिकूलतायें भी आती रहती हैं उनका खट्टा-मीठा स्वाद तो चखते रहा जाय, पर अवसर ऐसा न आने दिया जाय कि हर्ष-शोक की इतनी असाधारण अनुभूति हो कि मानसिक सन्तुलन ही गड़बड़ा जाय। आवेश चढ़ दौड़े और उत्तेजना में ऐसा कुछ न कर बैठा जाय, जो अस्वाभाविक एवं अनावश्यक हो, जिसके लिए पीछे पछताना और लोगों का उपहास-तिरस्कार सहना पड़े।

हर काम को पूरी समझदारी, जिम्मेदारी, तत्परता और तन्मयता के साथ किया जाय। उसमें आलस्य-प्रमाद को प्रवेश न होने दिया जाय। उपेक्षा-शिथिलता का लांछन न लगने दिया जाय। इतने पर भी यह निश्चित नहीं कहा जा सकता कि जो चाहा है, वही होकर रहेगा। तैयार उसके लिए भी रहा जाय कि आंशिक सफलता मिले अथवा सर्वथा असफल रहना पड़े, तो विचलित होने की मनःस्थिति न बनने पाये। सोचा जाना चाहिए कि संसार हमारे लिए ही नहीं बना है। इसमें असंख्यों की साझेदारी है। जो अपने लिए लाभदायक समझा जाता है, उससे दूसरों की हानि भी हो सकती है। प्रकृति का सन्तुलन बनाये रखने के लिए सभी का ध्यान रखना पड़ता है। खेल में एक जीतता है, तो दूसरा हारता है। यही बात घटनाक्रमों के सम्बन्ध में भी लागू होती है। इच्छापूर्ति की आतुरता की महत्वाकांक्षा रहती है। आवश्यक नहीं कि वे हर किसी की पूरी ही होती रहें। अस्तु किसी भी विचारशील को हार-जीत के लिए, अनुकूलता-प्रतिकूलता में से कोई भी हाथ लगने की संभावना से पूर्व मानस बना लेना चाहिए। प्रतिकूलतायें ऐसी न हों, जो आवेशग्रस्त मानस बना दें और अपनी विवेक शक्ति का ही अपहरण कर लें। वही तो एक मात्र ऐसा माध्यम है, जिसके सहारे कठिनाइयों से बचना-छूटना संभव होता है। अन्य मार्ग खोजने और नया उपाय सोचने के लिए चिन्तन चेतना काम करती रह सकती है। यह स्तर सही रहे तो यह संभव है कि वर्तमान अवरोध से निपटना और नये सिरे से नया कदम उठा सकना संभव हो सके।

मन को हर स्थिति में हल्का-फुल्का रहने दिया जाय। संतोष और धैर्य को इतनी मजबूती से पकड़े रहा जाय कि वे किसी भी कारणवश छिनने न पायें। हर्ष-शोक को क्षणिक उभार समझा जाय और उन्हें जुगनू की चमक जैसा अस्थिर माना जाय। कल्पना की रंगीली उड़ानों में उड़ते हुए शेखचिल्ली का अनुसरण न किया जाय, और न आशंका से इतना भयभीत रहा जाय कि अगले दिनों कोई विपत्ति ही टूटने वाली है। नाविक रात को भी नाव चलाते हैं, पर ध्रुव तारे को देखकर दिशा ज्ञान पाते रहते हैं। उज्ज्वल भविष्य की सम्भावना पर विश्वास करना वह ध्रुवतारा है, जिस पर विश्वास रखे रहने पर लक्ष्य तक जा पहुंचने की आशा-ज्योति प्रज्ज्वलित रहती है। इसे स्वयं बुझा लेने पर तो इस तमिस्रा के माहौल में मात्र अन्धकार ही हाथ रह जाता है। निराशा एक प्रकार की मानसिक अपंगता है, जिसकी पकड़ में जकड़ जाने पर कुछ करते-धरते नहीं बन पड़ता। रुग्णता, दुर्बलता, जराजीर्णता जैसी परिस्थितियों में मनुष्य असहाय-असमर्थ बनकर रह जाता है। यही दशा उन लोगों की होती है, जो किन्हीं असफलताओं को तिल का ताड़ बनाते हैं। रस्सी का सांप बनाना और झाड़ी में से भूत निकलना ऐसा ही मानसिक विभ्रम है, जैसा कि निराशाग्रस्त, खीजते, रोते, कलपते रहने वालों के सामने निरन्तर खड़ा रहता है। विपत्ति के इस मानसिक भंवर से बचे रहने में ही भलाई है। संतुलित, शान्त, स्थिर और आशान्वित रहने का अभ्यास सतर्कतापूर्वक निरन्तर करना चाहिए।

शरीर की बलिष्ठता और सुन्दरता का महत्व सभी जानते हैं। उसके लिए इच्छा और चेष्टा भी करते हैं। इससे अधिक महत्वपूर्ण मनोबल की प्रखरता और प्रसन्न मुद्रा को समझा जाना चाहिए। आत्म-विश्वास के रहते कोई कार्य असम्भव नहीं रह जाता। गई-गुजरी परिस्थितियों में सर्वथा साधनहीन रहते हुए भी लोगों ने आत्मविश्वास के सहारे प्रगति का मार्ग स्वयं सोचा, खोजा और उस पर स्वयं अपने पैरों चलते हुए उन्नति के चरम शिखर पर पहुंचे हैं। यह सम्भावना हर किसी के साथ जुड़ी रह सकती है, शर्त एक ही है कि कठिनाई से निराश होकर हाथ-पैर फुला न बैठा जाय।

मुस्कान मनुष्य के पास एक प्रत्यक्ष दैवी वरदान है। जो हंसता-हंसाता रहता है, वह चुम्बक की तरह आकर्षण शक्ति से भरा-पूरा और कमल पुष्प जैसा सुन्दर-सुगंधित बना रहता है। यह अपना निजी उत्पादन है। यदि उसे स्वभाव का अंग बना लिया जाय और दृढ़तापूर्वक उसका अभ्यास कर लिया जाय, तो व्यक्तित्व असाधारण रूप से सुन्दर बन जाता है। उसे न तो बुढ़ापा छीन सकता है और न कठिनाइयों के बीच रहते हुए ही उस पर कोई आंच आती है। शरीर मात्र यौवन के दिनों ही बलिष्ठ रहता है। बचपन और बुढ़ापे में तो असमर्थता ही छाई रहती है। बीमारी और परेशानी ही उसे लुंज-पुंज कर देती है, पर आत्म-विश्वास के आधार पर उपार्जित किया गया मनोबल ऐसा है, जो सदा-सर्वदा साथ देता है और प्रचण्ड जीवनी शक्ति की तरह हर कठिनाई से लड़ पड़ने के लिए समुद्यत रहता है। प्रसन्न रहना उच्च-स्तरीय कला-कौशल है। जिसे मुस्काते रहने की आदत है, वह सम्पर्क में आने वालों पर अपनी एक विशिष्ट छाप छोड़ता है। उस सौन्दर्य की अपनी अतिरिक्त गरिमा है जिससे हर कोई देखने वाला प्रसन्नता और उत्साह उपलब्ध करता है। निकट आने वाले किसी फूल-फल वाले महकते वृक्ष की सघन छाया में बैठने जैसा आनन्द पाते हैं। प्रसन्नचेता के सान्निध्य में रहकर प्रसन्न रहने के कौशल में प्रवीण होने के लिए आरम्भ में दर्पण में अपनी मुस्काती छवि का सौन्दर्य अनुभव करते हुए स्वभाव का अंग बनाया जा सकता है, पर बाद में तो वह एक आदत ही बन जाती है जो व्यक्ति का अविच्छिन्न अंग बनी रहती है। बुरे दिनों में भी उसका साथ नहीं छूटता। प्रसन्न रहना प्रकारान्तर से सफल और सुखी जीवन को उपलब्ध कर लिए जाने की घोषणा करते रहना है। इस तथ्य पर विश्वास भी किया जाता है और सम्पर्क में आने वाले उस स्तर को अपनाने वाले व्यक्ति से प्रभावित भी होते हैं, सम्मान करते और सहयोग भी देने के लिए स्वयं उत्सुक रहते हैं। इसके विपरीत संकोची स्वभाव के डरे, सहमे, उदास, एकाकी प्रकृति के लोग सदा उपहासास्पद बने रहते हैं। कोई उनकी कठिनाई पूछने और सहानुभूति दर्शाने नहीं आते, जैसा कि इस प्रकार के लोग आमतौर से आशा किया करते हैं। जब हम हंसते हैं, तो दस लोग उस आनन्द में भागीदार बनने के लिए साथ लग लेते हैं, पर जब मुंह लटकाये रहने की स्थिति में होते हैं तो पुराने साथियों में से भी अधिकांश छिटकते और अलग हटते जाते हैं। दो परस्पर विरोधी परिस्थितियों में से किसी का वरण कर लेना सर्वथा अपने हाथ की बात है। परिस्थितियों की तुलना में मनःस्थिति का वर्चस्व कहीं अधिक बढ़ा-चढ़ा है। इस प्रकट रहस्य से हर किसी को अवगत रहना चाहिए।

स्वभाव की कुटिलता एक ऐसी विपत्ति है, जिसे दुर्दिनों का पूर्वाभास भी कहा जा सकता है। स्वार्थी, लालची, अहंकारी प्रकृति के व्यक्ति इच्छित बड़प्पन को सहज रीति से पा सकने में सफल नहीं हो सकते। तब उन्हें कुटिलता ही सूझती है। आतंक और छद्म यह दो ही हथियार उनके पास बने रहते हैं, जिनका वे उचित-अनुचित का विचार किए बिना समय-कुसमय इन का प्रयोग करने लगते हैं। साथ ही यह भूल जाते हैं, कि क्रिया की प्रतिक्रिया भी होती है। तुके-बेतुके जवाब भले ही न मिले, पर ऐसों का सम्मान तो निश्चित रूप से चला जाता है। अवसर आने पर उस आक्रमण से प्रभावित लोग ही नहीं, सुनने-देखने वाले भी बागी हो जाते हैं और अवसर मिलते ही नीचा दिखाने में नहीं चूकते। यह स्पष्टतः पतन का मार्ग है। उच्छृंखलता, उद्दण्डता अपनाने वालों को सहयोग से, सम्मान से वंचित रहने के कारण प्रगति की दिशा में बढ़ा सकने वाली परिस्थितियां ही हाथ नहीं लगतीं। अनुशासनहीन, उद्दण्ड, आक्रामक प्रकृति के व्यक्ति कभी कहीं तात्कालिक लाभ भले ही उठा लें, पर वस्तुतः वे अपने व्यक्तित्व को इतना हेय बना लेते हैं कि किसी महत्वपूर्ण प्रगति के साथ जुड़ने की प्रायः समस्त सम्भावनायें ही समाप्त हो जाती हैं। ऐसे लोग खीझते, कुड़कुड़ाते जिस-तिस पर दोषारोपण करते हुए ही जीवन यात्रा समाप्त करते हैं। ऐसा कुछ भी हस्तगत नहीं कर पाते, जिसे अभिनन्दनीय या अभिवन्दनीय कहा जा सके। कुटिलता का परिणाम घृणा के बोझ से अधिकाधिक लद जाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता है। सच्चे अर्थों में उनका साथी सहायक और प्रशंसक कोई रह ही नहीं जाता। श्मशान में एकाकी भ्रमण करते रहने वाले भूत-पलीतों की तरह वे मात्र डरती-डराती जिन्दगी ही व्यतीत करते हैं।

निषेधात्मक दृष्टिकोण अपना लेने पर हर किसी के दोष-दुर्गुण खोजते रहने की आदत पड़ जाती है। सदा शिकायतें ही शिकायतें बनी रहती हैं। फलतः द्वेष की मनोभूमि बनती रहती है। द्वेष की प्रतिक्रिया प्रत्याक्रमण में भी हो सकती है। वैसा न हो तो भी विद्वेषी के प्रति किसी के मन में सहानुभूति उत्पन्न नहीं होती। भले ही वह अपने को अनीति के विरुद्ध संघर्ष करने वाला शूरवीर घोषित करता रहे। सिद्धान्तों का आवरण ओढ़कर भी संचित निकृष्टता को छिपाया नहीं जा सकता वह पोटली में बंधी होने पर भी हींग की बदबू की तरह अपनी उपस्थिति की अप्रत्यक्ष घोषणा करती रहती है। किसी को सुधारने-बदलने का एक मात्र तरीका है अपने सद्भाव को बनाये रखकर प्रतिकूल समझे जाने वाले को सुधरने का अवसर देना। बुद्ध, गांधी, ईसा आदि ने यही नीति अपनायी और वे अपने अनोखे आदर्शों को सदा-सर्वदा जीवित रहने के लिए छोड़ गये। युद्ध तो अब तक असंख्यों हुए हैं। उनसे मात्र विनाश ही हुआ है। किसी प्रकार की कहीं कोई समस्या नहीं सुलझी। इसी शताब्दी के दो विश्वयुद्ध इस बात के साक्षी हैं कि संघर्ष में नहीं सहयोग की नीति अपनाने में हर दृष्टि से लाभ है। व्यक्तिगत विद्वेषों को भी पंचायत जैसे माध्यमों से बहुत हद तक हल किया जा सकता है। कानून भी किसी हद तक ऐसे प्रसंगों में सहायता कर सकता है। डाक्टरों द्वारा अपनाई जाने वाली वह नीति ही सही है, जिसमें रोग को तो मारा जाता है पर रोगी के प्रति समुचित सद्भावना रखकर उसे न बचाया जाता है। इन दिनों ऐसे मनोरोगियों की ही अधिकता है, जो अहंकारी आक्रामक, उद्दण्डता अपनाते और बदले में पग-पग पर ठोकरें खाते हैं। जिन्हें सुधारना कठिन भले ही लगता है, पर वह असम्भव नहीं है।

दूसरे गलती करते हैं, इसका दण्ड उन्हीं को भोगना चाहिए। हम स्वयं क्यों भोगें? ऐसे प्रसंगों में उपेक्षा भी बड़ा काम दे जाती है। ईंधन न पड़ने पर आग अपने बलबूते जीवित नहीं रह सकती।

लालच भी बुरी बला है। औसत नागरिक स्तर का निर्वाह अपर्याप्त मानकर जो धन कुबेर और अधिकार में इन्द्र बनने की आकुलता संजोये रहते हैं, उन्हें अनर्थ करने के अतिरिक्त और कुछ उपाय ही नहीं सूझता। विलासिता और अहमन्यता मिलकर आत्म-प्रदर्शन की प्रवृत्ति भड़काते हैं। जिन्हें औरों से बड़ा दीखने के लिए अपने आडम्बरों को बड़ा बनाने भर की युक्ति सूझती रहती है वे अपने ऊपर चित्र-विचित्र विडम्बनायें लादते और रामलीलाओं में लगाये जाने वाले कागज के पुतले रावणों जैसा दीखने के लिए कुछ ऐसे ही स्वांग रचते हैं। ठाठ-बाट, बचकाने श्रृंगार, महंगी फैशन, शेखीखोरी सस्ती वाहवाही लूटने के लिए कराई गई चमचागिरी, चारणबाजी, विज्ञापनबाजी, धूमधाम में समय और पैसा तो खर्च होता ही है, साथ ही जिन्हें इस काम को करने के लिए सहयोगी बनाया जाता है, उनका भी समय और श्रम अनुत्पादक कार्य में बर्बाद होता है। हानि इतनी ही होती तो भी उसे दर-गुजर किया जा सकता था। सस्ती वाहवाही लूटने की प्रवृत्ति चरितार्थ होती देखकर अन्य अनेकों के मन में वैसी ही नई विडम्बना रचने की फिक्र उभरती है और वे भी वैसा ही करने के लिए अपने ढंग से कुछ न कुछ कर गुजरने के लिए आतुर होते हैं। मृतक भोज, धूमधाम वाली शादियों, तीर्थयात्राओं के पीछे यह सस्ती वाहवाही लूटने की आकांक्षा ही प्रधान रूप से काम करती है।

यह दुष्प्रवृत्ति भी कामुकता की तरह ही आकर्षक, उत्तेजक और मस्तिष्क में खलबली मचाकर उसे सत्प्रयोजनों से विलग करती है। मानसिक क्षेत्र में वह गुंजाइश नहीं रहती, जिससे प्रगति की दूरगामी योजनायें शान्त चित्त से बन सकें और कोई ठोस उपलब्धि हस्तगत कर सकें। यही कारण है कि लोकेषणा, कामोत्तेजना और वित्तेषणा को गर्हित स्तर का ठहराया गया है और इन विकृत महत्वाकांक्षाओं से बचे रहने के लिए कहा गया है। मनोविकारों से ग्रस्त न होने के लिए इन तीनों अनावश्यक उत्तेजनाओं से अपने आपको भड़काने-जलाने से बचाकर ही रहना चाहिए।

चिन्ता, भय, क्रोध, आवेश, आशंका, कुकल्पना जैसी सनकों में अधिकांश कुकल्पनायें ही काम करती रहती हैं। निराशा, हीनता, दीनता जैसी प्रवृत्तियां भी मनुष्य को अपंग बनाती हैं। इससे बचना आत्मशिक्षण पर अवलम्बित है। जिस प्रकार दूसरों को कुमार्गगमन से रोका जाता है, उसी प्रकार अपने सम्बन्ध में अधिक सतर्कता और जागरूकता बरतने की आवश्यकता है।

मस्तिष्क को सदा रचनात्मक कामों में लगाये रहा जाय। इसी आधार पर प्रस्तुत विपत्तियां भी टलती हैं और प्रगति के लिए उपयुक्त राह भी मिलती है। अवांछनीयताओं को निरस्त करने के लिए रचनात्मक दूरगामी परिणाम उत्पन्न करने वाले उपाय ही अपनाने चाहिए। मात्र कमर कसकर लड़ने पर उतारू हो जाना ही परास्त करने का उपाय नहीं है। इससे तो आक्रमण-प्रत्याक्रमण का ऐसा कुचक्र भी चल सकता है, जिसका कभी अन्त ही न हो। कीचड़ कीचड़ से नहीं धोया जा सकता। अनाचार के प्रति उसी अस्त्र का उपयोग करना आवेश की स्थिति में लगता तो अच्छा ही है और आवश्यक भी, पर उसकी परिणतियों पर ध्यान देने से निष्कर्ष निकलता है कि सर्वसाधारण को तालमेल की नीति ही अपनानी चाहिए। प्रताड़ना देने का कार्य शासन के हाथ ही छोड़ना चाहिए। निजी क्षेत्र में तो असहयोग, विरोध और बहिष्कार जैसे आधार ही समस्याओं का ऐसा हल निकाल देते हैं, जिनमें कुछ समय भले ही लगे, पर और भी अधिक दुःखदायी प्रतिक्रिया उत्पन्न करने से बचा लेते हैं।

मानसिक आवेगों से बचे रहने की गीताकार ने असाधारण उपयोगिता बताई है। शारीरिक स्वास्थ्य की रक्षा को ध्यान में रखते हुए भी उस नीति को अपनाया जाना चाहिए।
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