समग्र स्वास्थ्य संवर्धन कैसे हो ?

स्वास्थ्य रक्षा की छोटी, किन्तु महत्वपूर्ण बातें

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स्वास्थ्य ईश्वर की महती अनुकम्पा है। वह जन्मजात रूप से हर किसी को सहज उपलब्ध है। उसे सुरक्षित रखने के लिए किसी बड़ी समझदारी या रहस्य भरी शिक्षा की आवश्यकता नहीं है। यह प्रयोजन तो प्रकृति संकेतों का अनुसरण करने भर से पूरा होता रहता है। सृष्टि के सभी प्राणी इस मर्यादा को अन्तःप्रेरणा के आधार पर अनुभव करते हैं और उसे निर्बाध रूप से अपनाये रहते हैं। उनके लिए किन नियमावलियों का परिपालन आवश्यक है, इसे सीखने के लिए उन्हें किसी विद्यालय का भारी-भरकम कोर्स नहीं पढ़ना पड़ता है, न किसी हकीम-डॉक्टर की सलाह लेने जाना पड़ता है और न स्वास्थ्य रक्षा के नाम पर किन्हीं टॉनिकों-बहुमूल्य पौष्टिक पदार्थों को खोजने की आवश्यकता पड़ती है। इतना कार्य तो संचित स्वभाव संस्कारों के आधार पर चलने, जीवन सत्ता के साथ गुंथी हुई प्रकृति प्रेरणाओं का अनुसरण करने भर से चल जाता है। इस मर्यादा चक्र को स्वेच्छापूर्वक स्वीकार करके सृष्टि के सभी प्राणी अपने आरोग्य को अक्षुण्ण बनाये रहते हैं। रुग्णता से उनमें से किसी का पाला नहीं पड़ता है। समय आने पर वे मरते तो अवश्य हैं, दुर्घटनाग्रस्त भी होते हैं, पर उस तरह रोगों की पीड़ा से व्यथित नहीं होते, जैसे कि मनुष्यों में से इस कारण अधिकांशों को रोते-कलपते देखा जाता है। यह और कुछ नहीं बुद्धिमान कहे जाने वाले मनुष्यों की परले सिरे की मूर्खता भर है, जो आदत में शुमार हो जाने के कारण अखरती-खटकती भले ही न हो, पर वह अपना काम करती है। दुष्टता की तरह भ्रम-ग्रस्तता भी अपनी कड़ाई प्रतिक्रिया उपस्थित किये बिना नहीं रहती है। कहते हैं पापीजनों को परलोक में यमदूत नरक में घसीटकर ले जाते हैं और वहां प्राणी को तरह-तरह के त्रास देते हैं। यह कथन सत्य है या कल्पित—यह बात विवादास्पद हो सकती है, किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि प्रकृति मर्यादाओं के साथ जुड़ी संयमशीलता और सुव्यवस्था का व्यतिरेक करने वालों को नकद धर्म की तरह अपने कुकृत्यों का दण्ड सहन करना पड़ता है। रोग इसी का सहज स्वाभाविक विधि-विधान है। यदि कोई चाहे, तो नियम-संयम की रीति-नीति अपनाकर निरोग, समर्थ, दीर्घजीवन का वरदान प्राप्त कर सकता है। इसके लिए किसी दूसरे से अनुग्रह मांगने की आवश्यकता नहीं। यह सब तो पूरी तरह अपने हाथ की बात है। निरोगता स्वाभाविक है और रुग्णता सर्वथा अस्वाभाविक। इस तथ्य को लोग तब समझ पाते हैं, जब समय गुजर चुका होता है और चिड़ियों ने खेत चुगकर उसे खोखला कर दिया होता है।

आहार संयम को स्वास्थ्य रक्षा का प्रथम अनुशासन कह सकते हैं। मिर्च, मसाले, मिठाई, खटाई, भूनने-तलने से उत्पन्न होने वाला सोंधापन, चित्र-विचित्र पकवानों, मिष्ठानों, आचार-मुरब्बों के आधार पर जो चटोरापन जीभ को सिखाया जाता है, आगे चल कर पेट को और उसके सहारे चलने वाले अंग-अवयवों को अपनी स्वाभाविक शक्ति सामर्थ्य गंवा बैठने के लिए बाध्य करता है। अत्याचार से पीड़ित होकर वे अपनी स्वाभाविक क्षमता गंवा बैठते हैं और विषाक्तता से ग्रसित होकर बीमारियों के चक्र में फंस जाते हैं।।

इन दिनों आहार चुनने से लेकर, पकाने और खाने तक का सारा तन्त्र अवांछनीयता से घिर गया है। यदि हरी स्थिति में शाक, ऋतुफल, अंकुरित अन्न आदि भाप से पका कर लिए जाते रहें, तो इतने भर से शरीर की समस्त आवश्यकतायें सहज ही पूरी होती रह सकती हैं। आहार को श्रृंगार से सजाकर उसे वेश्या स्तर का भड़कीला बनाने में कुछ आकर्षक भले ही लगता हो, पर उनके सम्पर्क में आने—घनिष्ठता जोड़ने में मात्र अहित-ही-अहित है। ठीक इसी प्रकार स्वादिष्टता के नाम पर पेट पर लादा गया अनावश्यक भार अन्ततः कष्टकारक ही सिद्ध होता है। खाद्य-पदार्थों का जो स्वाभाविक स्वाद है, उसी में रस लिया जाय, तो वह भी कम सन्तोषप्रद नहीं है। सृष्टि के समस्त प्राणी अपना आहार बिना मिलावट किये, तले-भुने, अपने प्राकृतिक स्वरूप में ही खाते-पचाते हैं, फिर मनुष्य ही अपनी कारिस्तानी जोड़कर जायके के नाम पर अभक्ष्य खाये और क्यों विषाक्तताजन्य हानि उठाये। भाप से उबालना भर पर्याप्त होना चाहिए। जायके के नाम पर नींबू, नारंगी, टमाटर, अदरक, सौंफ, धनिया, जीरा आदि कुछ मिलाया जा सकता है। काम न चले तो थोड़ा नमक और उसमें डाला जा सकता है। सफेद चीनी के स्थान पर शहद या गुड़ का प्रयोग हो सकता है। अन्न कम और शाक अधिक का अनुपात रखना अच्छा है। इस संदर्भ में रसोई बनाने की प्रक्रिया में असाधारण परिवर्तन करने की आवश्यकता है। खाने में इन दिनों अन्न की अधिकता और शाक की न्यूनता रहती है। यह आदत उलट देने की आवश्यकता है। शाक-भाजियों की अधिकता रहनी चाहिए। वे अपेक्षाकृत लाभदायक भी होती हैं, सस्ती भी पड़ती हैं और एक वर्ष में कई उत्पादन देने, अधिक फलने के कारण उनका परिमाण भी अधिक रहता है। अन्नों में ज्वार, बाजरा, मक्का जैसे धान्य कम समय में पकते हैं, वर्ष में कई फसल देते हैं और भावों में सस्ते पड़ते हैं। चावल सबसे अधिक सिंचाई मांगता है। पानी की अगले दिनों कमी पड़ेगी। फिर उन धान्यों से काम नहीं चल सकता, जो पूरे वर्ष में एक ही फसल देते हैं। गेहूं इसी प्रकार का है। खाद्य की बढ़ती आवश्यकता, महंगाई, सुपाच्य, पकाने में सरल होने का दृष्टिकोण रखकर आहार का निर्धारण होना चाहिए। बदली हुई परिस्थितियों को देखते हुए हमारे खाने सम्बन्धी आदतें भी बदली जानी चाहिए। पकाने में अधिक ईंधन की विशेषतया लकड़ी-गोबर की आवश्यकता न पड़े, ऐसी नई रीति-नीति सोचनी चाहिए। प्रेशर कुकर इस दृष्टि से हर रसोईघर की सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण आवश्यकता है। चूल्हे के धुंए से पकाने वालों की आंखें खराब न हों, फेफड़ों में कालिख न जमे, इस दृष्टि से जहां उपलब्ध है, वहां गैस का—गोबर गैस का निर्धूम चूल्हों का प्रयोग करना चाहिए। भाप पर उबालकर जो बन सके, उसी भोजन को अभिरुचि में सम्मिलित करना चाहिए। अधिक ठण्डे, अधिक गरम पदार्थों से बचा जाय। एक समय भोजन पकाकर उसे दोनों समय प्रयुक्त करने की आदत डाली जाय। इससे महिला समुदाय का समय बचेगा और वे उसे शिक्षा, का, स्वास्थ्य का, स्वावलम्बन का लाभ उठाने में लगा सकेंगी। गरम भोजन ही खाना चाहिए यह बिल्कुल भी आवश्यक नहीं। दोपहर का भोजन रात को काम दे सके, इसमें किसी प्रकार की हानि नहीं है। चिकनाई, मसाले, चीनी आदि की भरमार करके भोजन को दुष्पाच्य नहीं बनाया जाना चाहिए। भूख से कम खाया जाय। अधिक चबाया जाय। दो बार के खाने को पर्याप्त माना जाय। तीसरे प्रहर या प्रातः कुछ आवश्यकता प्रतीत हो, तो दूध, छाछ, शाकों का रसा जैसी पतली चीजों से ही काम चलाया जाय। अधिक मात्रा में अधिक बार भोजन करना हर दृष्टि से हर किसी के लिए हानिकारक है।।

पानी भी आहार की तरह ही आवश्यक, पोषक एवं आन्तरिक सफाई की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण है। उसकी शुद्धता का पूरा ध्यान रखा जाय। छानकर या कोई खतरा हो तो उबालकर पिया जाय। भोजन के एक घण्टे बाद तक पानी न पियें। शेष पूरे दिन में आठ-दस गिलास पानी तो पी ही लेना चाहिए।।

जिन मकानों में हवा का आवागमन नहीं है, सीलन, घुटन है, उन्हें बदल ही देना चाहिए। खपरैल की झोंपड़ियां इस दृष्टि से सबसे उपयुक्त हैं। उनमें हवा आर-पार जाने के लिए दरवाजे, जंगले खिड़कियां बड़ी संख्या में होने चाहिए। जमीन का फर्श पक्का रहे, तो ही ठीक है। चोर आदि से डरकर बन्द घरों में रहने से हानि अधिक और लाभ कम है। निवास और वस्त्र जहां तक हों हवा के आवागमन के लिए खुले ही रखे जाने चाहिए। कपड़े भी इतने भारी व कसे हुए न हों, जो सर्दी-गर्मी सहने की स्वाभाविक आवश्यकता में ही अड़चन उत्पन्न कर दें।।

स्वास्थ्य के लिए सफाई की अत्यधिक आवश्यकता है। रसोई घर और शौचालय आमतौर से गन्दगी के भण्डार बने रहते हैं। इन दोनों की सफाई पर निरन्तर ध्यान रखा जाय। बर्तन, उपकरण पुस्तकें, वस्तुयें सीमित मात्रा में इतनी व्यवस्थित रीति से रखनी चाहिए कि उनके पीछे गन्दगी न इकट्ठी होने पाये। कीड़े-मकोड़े अवसर पाते ही बढ़ने लगते हैं और गन्दगी बढ़ाने के साथ-साथ स्वास्थ्य को भी आघात पहुंचाते हैं। जुंयें, चीलर, खटमल, पिस्सू, तिलचट्टे, मकड़ी, चूहे, छछूंदर आदि घर के किसी कोने में पलने या बढ़ने न पायें, इसका पूरा ध्यान रखा जाय। कपड़ों को बार-बार धूप लगाते रहने की सतर्कता बरतनी चाहिए।।

शारीरिक श्रम स्वस्थ रहने के लिए नितान्त आवश्यक है। हल्के काम करने भर से काम चलाते रहने में आराम तो मिलता है, पर शरीर के कल-पुर्जे जंग लगे औजारों की तरह निकम्मे हो जाते हैं। जिन्हें किसान-मजदूरों की तरह दिन भर कड़ा शारीरिक परिश्रम करने के अवसर नहीं हैं, उन्हें व्यायाम को अनिवार्य रूप से दिनचर्या का अंग बनाना चाहिए। किसके लिए क्या और कितना व्यायाम उपयुक्त रहेगा, इसका निर्धारण किसी जानकार के परामर्श से निश्चित कर लेना चाहिए। अंग संचालन के व्यायाम तो बूढ़े, बच्चे, दुर्बल भी कर सकते हैं। उन्हें रुग्णता की स्थिति में भी किसी न किसी रूप में अपनाये ही रहना चाहिए।।

कामुकता शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को नष्ट करने में विघातक ही सिद्ध होती है। यथासंभव अधिक से अधिक समय ब्रह्मचर्य से ही रहना चाहिए। बाल विवाह मात्र हानि-ही-हानि का संकट खड़ा करता है। अधिक संख्या में जल्दी-जल्दी बच्चे पैदा करने का जननी के स्वास्थ्य पर भयंकर दुष्प्रभाव पड़ता है। इन परिस्थितियों में वे खोखली हो जाती हैं, जीवनी शक्ति गंवा बैठती हैं और अनेक रोगों की शिकार बनती हैं। बढ़ी हुई संतानों से खर्च बढ़ता है, परिवार के वर्तमान सदस्यों की सुविधा में कटौती होती है और देश पर बढ़ती जनसंख्या के कारण असंख्य समस्याओं और कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। दरिद्रता के वातावरण में पले घिचपिच में रहने वाले, उपेक्षित बालकों का भविष्य तो निश्चित रूप से अंधकारमय बनता है। इन सब बातों पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाना चाहिए और महिलाओं की जीवनी शक्ति उपयोगी कामों में लग सके, इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए अतिवादी यौनाचार और आवश्यक संतान उत्पन्न करने के लिए बाधित करके अत्याचार का शिकार नहीं बनाना चाहिए।।

बाजार में अधिकाधिक खाद्य पदार्थों में हानिकारक मिलावट पाई जाती है। इनसे पेट भरते रहने पर स्वास्थ्य के लिए संकट खड़ा होता है, पैसा तो अधिक लगता ही है, इसलिए अच्छा यह है कि आटा, दाल, मसाले आदि की शुद्ध व्यवस्था घर पर ही बनाई जाय। आटा-चक्की घर में रह सके, तो उससे अच्छा व्यायाम हो जाता है और आटा-दाल भी मिलता है। नकली दूध लेने की अपेक्षा तिल-मूंगफली या सोयाबीन को भिगोकर पीस लेने से उससे दूध का प्रयोजन पूरा कर लेना कहीं अच्छा है। जिनके यहां पशु पलते हैं और सारा दूध बेच देते हैं उनके लिए अच्छा है कि घी या मक्खन निकाल कर बेच दें और बची हुई छाछ या मक्खन निकले दूध से घर का काम चलायें इतना अंश चिकनाई का हर किसी को मिलना चाहिए। घरेलू शाक-वाटिका लगा लेने से जहां शुद्ध भाजी मिलती है, वहां पैसे की भी बचत होती है। कपड़े घर पर धोने से जहां शारीरिक व्यायाम होता है, वहां बाजार में तेजाब से धुले कपड़ों के जल्दी फट जाने जैसी आर्थिक हानि सहनी पड़ती है, उपरोक्त सभी काम मिल-जुलकर किये जा सकें, उनमें घर के हर सदस्य को सहभागी बनाया जा सके, तो यह एक अच्छा प्रचलन होगा। इसमें सहकारिता और श्रमशीलता को अपनाना पड़ेगा। स्त्रियों को ही इस कम महत्व के समझे जाने वाले काम में ही मरते-खपते न रहने दिया जाय। पुरुष वर्ग का अहंकार भी सिर पर न चढ़ेगा। महिलाओं को छोटे काम के लिए रखी गयी दासी जैसी हीनता की अनुभूति भी न होगी। गृह-व्यवस्था में परिवार के हर सदस्य की साझीदारी होनी चाहिए। उसमें छोटे बच्चों या रोगी, अबोध, असमर्थों को ही छूट दी जा सकती है। वैसे अपने हाथों अपना काम करने की आदत तो हर किसी में रहनी चाहिए। परावलंबन की प्रवृत्ति को निरस्त ही किया जाना चाहिए।।

‘‘सादा जीवन उच्च विचार’’ का सिद्धान्त परिवार के हर सदस्य के गले उतारा जाय। तड़क-भड़क का—दूसरों को आकर्षित करने की दृष्टि से किया गया श्रृंगार शालीनता के निर्वाह में बाधक समझा जाना चाहिए। अनावश्यक ठाट-बाट बनाने के लिए जेवर, बहुमूल्य कपड़ों में एवं फैशन बनाने के लिए हुए धन खर्च को अपव्यय ही समझा और उसे रोका जाना चाहिए, क्योंकि उसके कारण जो पैसा खर्च होता है उससे परिवार के स्वास्थ्य, शिक्षा, स्वावलम्बन जैसे आवश्यक साधन जुटाने में कटौती करनी पड़ती है। सादगी और स्वच्छता मिलकर सुरुचि का ऐसा वातावरण बना देते हैं, जिस पर अहंकारी शान-शौकत को निछावर किया जा सकता है। विचारशीलों की दृष्टि में हर अपव्यय, ओछेपन और बचकानेपन का ही प्रतीक माना जाता है और उस उच्छृंखलता के रहते आर्थिक या नैतिक सदाचार खो बैठने का खतरा निश्चित रूप से बढ़ता है। प्रामाणिकता और शालीनता बनाये रहने के लिए हर किसी को मितव्ययी होना चाहिए। परिवार के हर पक्ष में सादगी और सुरुचि का समावेश रहना चाहिए। इसी में दूरदर्शी समझदारी का समावेश है।।

बीमारियां गन्दगी से, असंयम से, अस्त-व्यस्तता से उत्पन्न होती हैं। नशेबाजी, आवारागर्दी भी घटियापन भरती, उसे गया-गुजरा बनाती है। समय को दिनचर्या के व्यस्त शिकंजे में कसे रहना चाहिए। खाली समय बिताने की किसी को भी छूट नहीं रहनी चाहिए, तथाकथित रिटायरों को भी नहीं। व्यस्त लोग अपेक्षाकृत अधिक स्वस्थ रहते हैं। नशेबाजी जैसे दुर्व्यसनों से बचे रहकर स्वास्थ्य रक्षा के क्षेत्र में उठने वाले संकटों से बहुत हद तक बचा जा सकता है।।

बीमार पड़ने पर तीव्र मारक दवायें लेने की अपेक्षा यह कहीं अधिक अच्छा है कि आस-पास के क्षेत्र में उगने वाली किन्हीं जड़ी-बूटियों से जानकारों का परामर्श लेकर घरेलू उपचार कर लिया जाय। मसाले के रूप में प्रयुक्त होने वाली वस्तुयें भी एक प्रकार से औषधियां ही हैं। उसका उपयोग थोड़ा प्रयत्न करने पर ही जाना जा सकता है और साधारण रुग्णता से अपने बलबूते निपटा जा सकता है। जड़ी-बूटी चिकित्सा की जानकारी सर्वसाधारण को उपलब्ध कराने में शान्तिकुंज के उत्साह भरे प्रयत्न चलते ही रहते हैं। इस आधार पर थोड़ी खाली जगह में ही अपने काम आने योग्य जड़ी-बूटी वाटिका लगाई जा सकती है। वह पुष्पोद्यान से कहीं अधिक सुविधाजनक और स्वास्थ्य संरक्षक सिद्ध हो सकती है।
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