सहृदयता आत्मिक प्रगति के लिए अनिवार्य

स्वास्थ्य के लिए भी प्रतिकूल मांसाहार

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मांसाहार का दुष्प्रभाव मनुष्य की आत्मिक प्रगति पर तो पड़ता ही है। स्वास्थ्य के लिए भी वह कोई लाभप्रद नहीं है। और स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद हो भी तो उसे मानवता के आधार पर उचित नहीं कहा जा सकता। कौन बीमार व्यक्ति अपने भाई बहिनों परिवारीजनों को मारकर उनका मांस खाकर स्वस्थ होना चाहेगा। स्थूल दृष्टि से भले ही जीव जंतु अपने परिवार के न दीखें परन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से तो वे एक पिता की—परमात्मा की सन्तान होने के कारण मनुष्य के सगे भाई ही हैं। इसलिए स्वास्थ्य के लिए उपयोगी होने पर भी मांसाहार का समर्थन नहीं किया जाता। किन्तु स्वास्थ्य के लिए भी मांसाहार उपयोगी कहां। अधुनातम विज्ञान की शोध से पता चला है कि मांसाहार स्वास्थ्य के लिए आवश्यक नहीं है। यही नहीं न केवल अनावश्यक वरन् हानिकारक भी है।

यद्यपि किसी भयंकर रोग से ग्रसित होकर अधिकांश रोगी जब किसी चिकित्सक के पास उपचार हेतु जाते हैं तो वे स्वास्थ्य लाभ तथा शक्ति संवर्द्धन हेतु मांस तथा अण्डा खाने के लिए परामर्श देते हैं। सामान्य बुद्धिजीवी वर्ग के मस्तिष्क में भी यह भ्रांति धारणा घर कर गई है कि स्वास्थ्य की रक्षा तथा शक्ति प्राप्त करने के लिए मांसाहार आवश्यक है, पर वास्तविकता इसके परे है।

शरीर विज्ञान के विशेषज्ञों का कहना है कि शरीर को शक्ति और स्फूर्ति उस खाद्य पदार्थ से प्राप्त होती है जिसे पाचन संस्थान ठीक से पचा लेता है। मांस का 75 प्रतिशत भाग हानिकारक तथा गन्दा पानी होता है। यह शरीर को दूषित करता है। मांस गरिष्ठ पदार्थ है जो देर में ही नहीं पचता अपितु इसका कुछ भाग बिना पचा भी रह जाता है जो आंतों में चिपक कर सड़ने लगता है शाकाहार की अपेक्षा मांसाहार को पचाने के लिए जिगर को कई गुना अधिक श्रम करना पड़ता है जिससे जिगर की कार्य क्षमता कुप्रभावित होती है। मांस में पाये जाने वाले फास्फोरस का विघटन करने के लिये जितने कैल्शियम की आवश्यकता पड़ती है उतना शरीर में नहीं होता अतः अलग से कैल्शियम के लिये विटामिन डी. की आवश्यकता होती है।

मांस, शराब और चाय की तरह एक उत्तेजक पदार्थ है; जिसके खाने के बाद एक प्रकार की स्फूर्ति अनुभव होती है, पर यह स्फूर्ति मांसाहार की नहीं, वरन् पूर्व में किये गये सुपाच्य भोजन की होती है। मांसाहार शरीर में आवश्यकता से अधिक ताप उत्पन्न करता है जिससे मनुष्य सुस्त तथा आलसी बन जाता है। उसकी बुद्धि की प्रखरता भी समाप्त हो जाती है। अधिकतर व्यक्तियों को मांस खाने के बाद चाय, कॉफी या मदिरा जैसे किसी उत्तेजक पदार्थ की आवश्यकता अनुभव होती है।

प्रसिद्ध प्राकृतिक चिकित्सक जानकीशरण वर्मा ने मांसाहार की हानियों पर प्रकाश डालते हुए कहा है—

‘‘मांस हानिकारक इसलिए है कि जानवर के शरीर के बहुत से टूटे फूटे रेशे, खून के विकार और जहरीले पदार्थ उसमें रह जाते हैं। जिस समय जानवर मारे जाते हैं उस समय मरने के डर से भी उनके खून में जहर पैदा हो जाता है। इन सब बातों के फलस्वरूप आगे चलकर मांस खाने वालों के शरीर में बहुत तरह के विकार एकत्र हो जाते हैं। मांस का सूप जिसे डॉक्टर लोग बहुत अच्छा बताते हैं अनेक प्रकार के विषों से भरा होता है। उससे रोगी को पहले शक्ति मिलती सी प्रतीत होती है किन्तु पीछे विषों के संचय के कारण अनेक भयंकर रोग पल्ले पड़ जाते हैं। यूरोप और अमेरिका में भी मांसाहार का प्रचलन कम होता जा रहा है। वहां तो सफेद डबल रोटी और बिस्कुट का रिवाज भी कम हो रहा है, पर विलायत की दुम हिन्दुस्तान में वहां की छोड़ी हुई चीजें भी बहुत दिनों तक जारी रहती हैं।’’

औषधियां भी शीघ्र प्रभावी यदि......

जर्मनी की होम्योपैथिक चिकित्सक एलिजावेथ बेगेन मांस को विलासिता की वस्तु तथा जीवन के लिए अनुपयोगी मानती हैं। उन्होंने अपने रोगियों पर यह अनुभव करके देखा है कि जिन व्यक्तियों का जीवन सात्विक, पवित्र तथा स्वास्थ्य वर्द्धक हैं और जो मांसाहार से बचे हुए हैं उन पर होम्योपैथिक औषधियां शीघ्र और स्थायी प्रभाव डालती हैं। ऐसे व्यक्तियों पर संक्रामक रोग के कीटाणु शीघ्र आक्रमण नहीं कर पाते। मांसाहारी रोगी को शक्तिशाली औषधियां सेवन हेतु देनी पड़ती है फिर भी रोग घटने के स्थान पर बढ़ने लगता है। इसीलिए पश्चिमी देशों के अस्पताल स्थायी रोगों से पीड़ित रोगियों से भरे पड़े हैं।

भारत आगमन पर जब यहां की पाठ्य पुस्तकों में श्रीमती बेगेन ने मांस और मछली की उपयोगिता पढ़ी तो वे दंग रह गईं, उस समय उनके मुंह से यही निकला कि मांस के बिना भी जीवन को स्वस्थ, मितव्ययी और श्रेष्ठ बनाया जा सकता है। जिन देशों में कसाईघरों की संख्या अधिक है वहां की युद्ध और अपराधों की संख्या में वृद्धि हो रही है। शाकाहार जीवन को स्वस्थ ही नहीं बनाता वरन् जीवधारियों की निर्मम हत्या के विरुद्ध स्वस्थ वातावरण निर्मित करता है।

आस्ट्रिया के खाद्य रसायन शास्त्री फ्लेश एण्ड्रियल से जब उनके स्वस्थ रहने का रहस्य पूछा गया तो उन्होंने बताया—‘मैं विगत 45 वर्षों से शाकाहारी हूं इस बीच मैं केवल एक दिन के लिए बीमार पड़ा हूं। जो व्यक्ति यह सोचते हैं कि मांस में पोषक तत्त्व अधिक होते हैं उन्हें अब अपनी धारणा बदल देनी चाहिए क्योंकि वैज्ञानिक विश्लेषण के बाद यह कहा जा सकता है कि पशु के मांस में 20% प्रोटीन तथा 80% पानी और चर्बी पदार्थ होता है जबकि अन्न में 10% प्रोटीन, 70% स्टार्च और शेष पानी होता है शरीर को प्रति किलोग्राम वजन के लिए केवल 0.5 ग्राम प्रोटीन की आवश्यकता पड़ती है यदि किसी का वजन 60 किलोग्राम है तो उसे 30 ग्राम प्रोटीन प्रतिदिन चाहिए। इतना प्रोटीन आसानी से अन्न, हरी सब्जी, फल तथा दूध से प्राप्त किया जा सकता है। पत्ते वाले साग और साबुत अन्न में अधिक प्रोटीन होता है। रक्त निर्माण के लिए साग और अन्न से मिलने वाला प्रोटीन मांस की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण होता है।’

कब्ज, कैंसर और अनेक मानसिक रोगों का जन्मदाता मांसाहार ही है। विश्व स्तर पर आयोजित ओलम्पिक खेलों में भाग लेने वाले खिलाड़ियों पर किये गये सर्वेक्षण से ज्ञात हुआ है कि शाकाहारी मांसाहारियों की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली होते हैं। भोजन का सम्बन्ध केवल शरीर से ही नहीं वरन् मन और मस्तिष्क से भी होता है। अधिकतर पालतू पशु शाकाहारी ही होते हैं। घोड़ा, गधा, गाय, भैंसें, बैल, ऊंट, हाथी और बकरी आदि कितने ही पशु अपने शांत स्वभाव और स्वामि भक्ति के कारण आसानी से पालतू हो जाते हैं और व्यक्ति को उत्पादन के विधि कार्यों में अपना पूरा-पूरा सहयोग देते हैं। योगशास्त्र और आयुर्वेद के सिद्धान्तों के आधार पर यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि शुद्ध, सात्विक, अन्न, फल, दूध और साग सब्जी आदि से बना भोजन करने वाले तथा मांस, अधिक मसाले, उत्तेजक पदार्थ तथा चर्बीयुक्त भोजन करने वाले व्यक्तियों की शारीरिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक क्षमताओं में अन्तर पाया जाता है। इसीलिये भोजन का सीधा सम्बन्ध शरीर से ही नहीं वरन् मन और मस्तिष्क से भी होता है। ‘जैसा खाये अन्न वैसा बने मन’ वाली कहावत गलत नहीं है। डा. हेग ने ‘खाद्यपदार्थ और भोजन’ नामक रचना में लिखा है—‘मांस भक्षण करने वाला व्यक्ति सर्वतोभावेन अपने शरीर का विनाश करता है। बुद्धि के तमोगुणी हो जाने से विवेकाविवेक का ध्यान नहीं रहता; इसी से समाज के सत्व पदार्थ भक्षी व्यक्तियों के विचारों से इनका मेल नहीं हो पाता।’

विदेशों में अनेक चिकित्सक अपनी चिकित्सा पद्धति में शाकाहारी भोजन को स्थान देकर रोगियों का उपचार करने लगे हैं। वह रोगी को संतुलित शाकाहारी भोजन देकर उसके रोग को समूल नष्ट करने का प्रयोग कर रहे हैं। ऐसे चिकित्सकों में पश्चिम जर्मनी की महिला चिकित्सक गटुई स्मदिक का नाम विशेष उल्लेखनीय है। उन्होंने 22 रोगी बच्चों पर अपने प्रयोग किये। उन्हें विभिन्न प्रकार की बीमारियां थीं वे सब शाकाहारी भोजन के सहारे स्वस्थ हो गये। एक बच्चा जो दमे का रोगी था चार दिन में ही इतना स्वस्थ हो गया कि दौरे पड़ने बन्द हो गये। इस बीच किसी को सर्दी नहीं हुई। त्वचा भी सुन्दर और चिकनी हो गई।

अर्द्ध विकसित बच्चों के भोजन में जब हेर-फेर किया गया तो उनकी अस्थियों, दांतों, बालों और मांस-पेशियों का विकास संतुलित ढंग से होने लगा। टी.बी. और मानसिक रोगियों तक ने शाकाहारी भोजन से लाभ उठाया। वृद्ध व्यक्तियों पर शाकाहारी भोजन के प्रयोग से जो परिणाम देखने को मिले वे आश्चर्यजनक थे। थोड़े ही दिनों में उनकी शारीरिक दुर्बलता दूर हो गई और उनकी नेत्र ज्योति में भी वृद्धि हुई। थोड़े ही समय में वे इतने स्वस्थ हो गये कि अपना दैनिक कार्य बिना किसी कष्ट के आसानी से कर सकते थे।

डा. स्मदिक ने शाकाहारी भोजन में सभी प्रकार के पोषक तत्वों का पूरा-पूरा ध्यान रखा था। भोजन में दुग्ध, अन्न, ताजे फल, हरी सब्जी, सलाद आदि शाकाहारी वस्तुओं को सम्मिलित किया था। उन्होंने नाश्ते में सफेद शक्कर तथा मिठाइयों को कोई स्थान नहीं दिया था।

यदि हम आर्थिक दृष्टि से भी देखें तो पता चलेगा कि मांसाहार आर्थिक खर्चीला भोजन है। मिर्च, मसालों, तेल और घी का भी काफी खर्च इसके साथ जुड़ा हुआ है। लोगों का कहना है कि घर में जिस दिन मांस बनता है उस दिन सामान्य दिनों की अपेक्षा रोटियों की संख्या में वृद्धि हो जाती है। फिर हम मांसाहार द्वारा खाद्यान्न की समस्या को कैसे सुलझा सकते हैं? अमेरिका की एक सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार यह कहा जा सकता है कि मांस भक्षण करने वाले प्रति व्यक्ति पर जितना खर्च आता है उससे शाकाहार करने वाले कम से कम तीन व्यक्तियों का भोजन हो सकता है।

मांस की उत्पत्ति किसी वनस्पति, वृक्ष या पत्थर की खान आदि से नहीं होती। इसका सीधा सम्बन्ध जीव की हत्या से है। इसलिए महाभारतकार ने मांसाहारी को महापातकी बताया है—

‘न हि मांसं तृणात् काष्ठात् उपलाद्वापि जायते । हत्व जन्तुं ततोमांसं तस्माद्वोषस्तु भक्षणें ।।’

शाकाहार और मांसाहार का तुलनात्मक अध्ययन करने में अपने जीवन का बहुत बड़ा भाग लगा देने वाले योरोपीय शोधकर्त्ताओं में डा. होग, प्रो. वेल्व, एफ.ई. निकलस, एरनाल्ड इहरिट, के नाम प्रख्यात हैं। उनने अपने निष्कर्षों में एक स्वर से स्वीकार किया है कि मांसाहार की पुष्टाई और उपयोगिता के बारे में जो अन्ध-विश्वास फैला हुआ है वह निरर्थक है। शाकाहार की तुलना में वह कहीं अधिक दुष्पाच्य है साथ ही उससे जो कुछ शरीर को प्राप्त होता है वह स्तर की दृष्टि से बहुत ही घटिया होता है और विजातीय द्रव्य में परिणत होकर नाना प्रकार से अस्वास्थ्यकर उपद्रव खड़े करता है।

कहां है जीवन तत्व?

मांसाहार के पक्ष में यह दलील दी जाती है कि उसमें प्रोटीन और चिकनाई अधिक रहने से वह शरीर के लिए अधिक पोषक सिद्ध होता है यह दोनों तत्व ऐसे हैं जो कतिपय शाकाहारी खाद्य पदार्थों में मांस से भी कहीं अधिक मात्रा में रहते हैं। वनस्पति वर्ग अपने एनीयोएसिडों के सहारे ही तो प्राणियों को प्रोटीन प्रदान करता है। वही अनुदान वह सीधा मनुष्यों को भी देता है। मांस खाकर जिन तत्वों को प्राप्त करने की बात कही जाती है वे सभी वनस्पति वर्ग से उसी प्रकार प्राप्त किये जा सकते हैं जिस प्रकार मांस के लिए मारे गये पशुओं से प्राप्त किया था।

सीधी प्रोटीन या सीधी चर्बी खाकर हम उन्हें पचा नहीं सकते हैं। उपयुक्त पाचन के लिए दो बातों की आवश्यकता है; एक तो यह कि वे आहार के साथ उचित अनुपात में घुले मिले हों दूसरे यह कि उनके साथ खनिज, विटामिन, कार्बोहाइड्रेट आदि आवश्यक रसायनों का समुचित सम्मिश्रण हो। इस स्थिति के खाद्य-पदार्थ ही पेट के पाचक रसों के साथ मिलकर पचने योग्य बनते हैं। सीधी चिकनाई लाने लगें तो अपच हो जायगा इसी प्रकार अनुपात से अधिक मात्रा में खाई गई प्रोटीन भी दुष्पाच्य होगी और उसका अनावश्यक भार पेट पर पड़ेगा। मांस में प्रोटीन और वसा की मात्रा अधिक तो अवश्य होती है पर उनका सन्तुलन मनुष्य के पेट के उपयुक्त न होने से वह लाभ नहीं मिलता जो मांसाहारी प्राणी उन्हें ठीक प्रकार पचा कर प्राप्त कर सकते हैं।

मांस एसिड वर्ग का आहार है उससे शरीर में खटाई बढ़ती है। शाकाहारी खाद्य अलक्लाइन वर्ग में आता है। मनुष्य शरीर में क्षार वर्ग अधिक होना चाहिए न कि खटाई वर्ग। ऐसिड बढ़ने से पेट में सड़न पैदा होती है और उसे कितने ही प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं।

अपनी मौत मरे हुए प्राणियों का मांस अखाद्य समझा जाता है क्योंकि उसमें सड़न उत्पन्न हो जाती है। पर यह सड़न तो वध करने के उपरान्त काटे हुए मांस में भी उत्पन्न हो जाती है। तत्काल काटे हुए मांस में सड़न न होने की बात भी कही जा सकती है पर जिसे काटे हुए कई घण्टे या कई प्रहर हो गये उसकी स्थिति और अपनी मौत मरे मांस की स्थिति में कोई खास फर्क नहीं होता। सड़न के सारे चिन्ह कसाई की दुकान में टंगे मांस में भी आसानी से देखे जा सकते हैं।

बाहर से स्वस्थ दीखने वाले मनुष्यों के शरीर में कितने ही प्रकार के रोग कीटाणु पाये जाते हैं। बाहर से मोटा दीखने वाले पशु के शरीर की आन्तरिक स्थिति सर्वथा नीरोग होगी, यह नहीं कहा जा सकता। यदि उसमें कोई रोग थे तो निश्चय ही वे मांस खाने वालों के शरीर में प्रवेश करेंगे और उसे बीमारियों से ग्रसित बना देंगे। प्राणियों के शरीर में मल-विसर्जन की क्रिया निरन्तर होती रहती है। सांस, पसीना तथा इन्द्रिय छिद्रों से निकलने वाले मल शरीर की विषाक्तता को बाहर करते रहते हैं। मोटे तौर से 60 प्रतिशत उपयोगी अंश और 40 प्रतिशत बाहर फेंकने योग्य विकृत पदार्थों की मात्रा शरीर में भरी रहती है। काटे जाते समय उतना विषाक्त अंश भरा ही रहता है जिसे काटने के बाद बाहर निकलने का अवसर नहीं मिलता। अस्तु मांस में 40 प्रतिशत विषाक्त एवं मल वर्ग का पदार्थ भी विभिन्न नस-नाड़ियों में भरा रहता है। खाने वालों को जहां 60 प्रतिशत पोषक पदार्थ मिल सकते हैं। वहां 40 प्रतिशत विकृत वर्ग का आहार भी उदरस्थ करना पड़ता है। सर्वविदित है कि पोषक पदार्थों की बड़ी मात्रा से भी सीमित लाभ ही मिलता है किन्तु विषैली वस्तुओं की तनिक सी मात्रा भी शरीर में पहुंच कर भयंकर संकट उत्पन्न कर देती है।

आहार विद्या विशेषज्ञ डा. एम.बी. गंडी का कथन है मांस में रहने वाली चर्बी ऐसे तत्वों से भरी होती है, जो मनुष्य शरीर में प्रवेश करने के बाद कितने ही प्रकार की विकृतियां खड़ी करते हैं। डॉक्टर वाल्डेन ने योरोप में बहुप्रचलित शूकर मांस के विरुद्ध चेतावनी दी है और कहा है—उसमें रहने वाले ‘ट्रिकीनोसिस कृमि’ पकाने के बाद भी जीवित रहते हैं और खाने वाले के शरीर में प्रवेश करके स्नायविक बीमारियां पैदा करते हैं।

अन्तर्राष्ट्रीय शाकाहार संघ के उपाध्यक्ष डॉक्टर बुडलेण्ड ने एक योजना बनाई थी कि स्वास्थ्य प्रदर्शनियों का संसार भर में आयोजन किया जाय और उनके दरवाजे पर हाथी खड़ा करके दर्शकों को यह बताया जाय कि यह संसार का सबसे बलिष्ठ प्राणी विशुद्ध शाकाहारी होता है।

जर्मनी के रेगन्सवर्ग और आग्सवर्ग स्थानों पर स्वास्थ्य विशेषज्ञों के दो बार हुए सम्मेलनों में उपयुक्त आहार विषयक चर्चा में इसी बात पर जोर दिया गया कि जिन्हें शारीरिक श्रम कम करना पड़ता है ऐसे बुद्धिजीवियों को चिकनाई कम मात्रा में ही सेवन करनी चाहिए।

मांस के बारे में सम्मेलनों का बहुमत इसी पक्ष में था कि उसमें पाया जाने वाला ‘कोलोस्टरेन पदार्थ रक्त में चिकनाई ही नहीं कैल्शियम की भी अनावश्यक मात्रा बढ़ा देता है। जो सन्तुलित स्वास्थ्य की दृष्टि से अहितकर है।

एलेजिन विश्व-विद्यालय बवेरिया के प्रो. हीनिंग और प्रो. स्कोइन का कथन है कि—मांस की तुलना में सोयाबीन गेहूं, काजू आदि से प्राप्त की गई चिकनाई कहीं अधिक सुपाच्य एवं निर्दोष होती है।

सर्वविदित है कि प्राणियों के शरीर में निरन्तर विष उत्पन्न होते हैं और वे सांस, स्वेद मल-मूत्र एवं अन्यान्य छिद्रों द्वारा बाहर निकलते रहते हैं। निकलने का अर्थ यह नहीं कि वे पूर्णतया बाहर निकल जाते हैं। जितना अंश निकलता है उससे कई गुना भीतर भरा रहता है जो नये उत्पन्न होने वाले मल द्वारा धकेले जाने पर समयानुसार बाहर निकलता है। आंतों में विशेषतया बड़ी आंत में जो मल रहता है उसमें सड़न की काफी अम्लता रहती है। वहीं प्रायः अनेक प्रकार के विषाणु पलते रहते हैं। मूत्राशय का भी यही हाल है। मल-मूत्र स्वयं गन्दे और विषैले रहते हैं जहां वे भरे रहते हैं वे स्थान भी मलगृह मूत्रगृह की तरह ही गंदगी और विषाक्तता से भरे रहते हैं। उनका प्रभाव शरीर के अन्य अंगों पर भी पड़ता ही है। इन सब कारणों से शरीर के भीतर उत्पन्न और संचित मलों का एक बड़ा विषाक्त भण्डार भरा रहता है। उनकी छाया मांस पर रहती ही है। मांस निर्दोष या निर्विष खाद्य-पदार्थ नहीं है, यह सर्वविदित है। मनुष्यों की तरह पशुओं के शरीर में भी रोग कीटाणु भरे रहते हैं और उनका निवास मांस में अधिक स्थायित्व के साथ रहता है। इसके खाने वाले उससे बिना प्रभावित हुए नहीं रह सकते। पशु-वध के उपरान्त तो मृत शरीर में यह सड़न और भी तीव्रता के साथ बढ़ती है। कुछ घण्टे पश्चात् ही उसमें सड़न के लक्षण प्रकट होने लगते हैं जो धीरे-धीरे बढ़ते हुए उसे पूर्णतया अखाद्य बना देते हैं। तत्काल का काटा हुआ मांस ही जब विष भंडार होता है तो वह जितनी देर रखे हुए हो जायगी उतना ही वह और भी अधिक विषैला होता चला जायगा।

डा. रोगर ने मांसाहार और शाकाहार की प्रतिक्रियाओं पर अनेक प्रयोग किये हैं। उन्होंने कुछ चूहों को अनाज पर और कुछ को मांस पर रखा। मांसाहारी चूहों का पेशाब बदबूदार, पखाना काला और गुर्दा सूजा हुआ पाया गया जबकि अन्नाहारी चूहे पूर्ण स्वस्थ थे।

शाकाहार में अधिक जीवन शक्ति

मांस में प्रोटीन तो है, पर सोयाबीन के बराबर नहीं। उसमें कैल्शियम और लोहे की मात्रा भी बहुत स्वल्प है। लोहे का अधिक भाग रक्त में रहता है जो काटने के साथ ही बहकर निकल जाता है। कैल्शियम हड्डियों में रहता है जो खाई नहीं जातीं। मांस में उतना ही लोहा है जितना उतने वजन के पालक में। खजूर, अंजीर, चोकर, किशमिश आदि में तो मांस से कहीं अधिक लोहा है। कैल्शियम अधिक से अधिक इतना होता है जितना मैदे की रोटी में।

निश्चय ही प्रोटीन शरीर मा प्रमुख पदार्थ है। मांसपेशियों के ठोस भाग में पांचवां हिस्सा प्रोटीन ही भरी हुई है। मस्तिष्क से लेकर गुर्दे, हृदय आदि तक सभी महत्वपूर्ण अवयव प्रोटीन से ही भरे हैं उसका संतुलन सही रहने से शरीर ठीक तरह सक्षम बना रहता है और कमी पड़ने पर शरीर की वृद्धि रुक जाती है, देह सूखने लगती है, रोग प्रतिरोधक क्षमता घट जाती है, अधिक परिश्रम नहीं हो पाता, तथा मृत्यु और बुढ़ापे का संदेह जल्दी ही सामने आ उपस्थित होता है। निरन्तर हमारी कोशिकाओं का क्षरण होता रहता है उसकी पूर्ति के लिए प्रोटीन की उपयुक्त मात्रा हमारे भोजन में बनी रहे यह आवश्यक है।

खाद्यों में प्रोटीन का उपयुक्त भाग रहे यह ध्यान रखना चाहिए। इस दृष्टि से उनका चयन करते हुए समुचित सावधानी बरतनी चाहिए। जिनमें प्रोटीन की उपयुक्त मात्रा है उनमें लोग भ्रमवश मांस अंडा आदि को ही सर्वोपरि मानते हैं पर बात वैसी बिलकुल भी नहीं है। मांस की अपेक्षा दालों में प्रोटीन का अंश कहीं अधिक है। वर्गीकरण के हिसाब से अंडों में 13 प्रतिशत, मछली में 16 प्रतिशत, मांस में 20 प्रतिशत, मूंग की दाल में 24 प्रतिशत, मसूर की दाल में 25 प्रतिशत और सोयाबीन में 42 प्रतिशत प्रोटीन होता है। इस प्रकार मांस की अपेक्षा दालों में ड्योढ़ा दूना प्रोटीन प्राप्त होता है जो कि सस्ता भी है और नैतिक भी।

प्रोटीन को सम्पूर्ण और अपूर्ण इन दो वर्गों में विभक्त कर सकते हैं। पूर्ण वे हैं जिनमें खनिज, लवण, वसा आदि को उपयुक्त मात्रा सम्मिलित रहती है। अपूर्ण वह जिसमें अपना वर्ग तो पर्याप्त होता है पर दूसरी उपयोगी वस्तुओं की कमी रहती है। इस कमी को पूरी करने के लिए अन्यान्य वस्तुओं का समावेश करना पड़ता है।

मांस के प्रोटीन उपापचय (मेटाबोलिज्म) पर बुरा प्रभाव डालते हैं। शरीर में आहार पहुंचने से लेकर उसके द्वारा शक्ति बनने तक की क्रिया को उपापचय (मेटाबोलिज्म) कहते हैं, यह कार्य निःस्रोत ग्रन्थियों (डक्टलेश ग्लैण्ड्म) पूरा करती है। इन ग्रन्थियों द्वारा ही मनुष्य की मनःस्थिति एवं सम्पर्क में आने वाले लोगों के साथ व्यवहार (रिएक्शन या बिहेवियर) निर्धारित होता है। प्रोटीन्स की यह जटिल (कांप्लेक्सिटी) इन ग्रन्थियों को उत्तेजित करती रहती है, इसलिये ऐसा व्यक्ति किसी भी व्यक्ति के साथ कभी भी कुछ भी बुरा कार्य चोरी, छल, अपमान, लूटपाट, उच्छृंखलता और बलात्कार कर सकता है। पाश्चात्य देशों में यह बुराइयां इतनी सामान्य (कॉमन) हो गई हैं कि लोगों का इस ओर ध्यान ही नहीं रहा कि क्या यह आहार की गड़बड़ी का परिणाम तो नहीं। जिस दिन वहां के लोग यह अनुभव कर लेंगे कि मन, आहार की ही एक सूक्ष्म शक्ति है और उनकी मानसिक अशांति का कारण मानसिक विकृति है, उस दिन सारे पाश्चात्य देश तेजी से इस दुष्प्रवृत्ति को छोड़ेंगे।

मांस में पाया जाने वाला प्रोटीन उन खनिजों और लवणों से रहित होता है जिनकी शरीर को नितान्त आवश्यकता रहती है। आमतौर से मांसाहारी लोग मांस पेशियां ही पकाकर खाते हैं उनमें खनिजों और लवणों की उपयुक्त मात्रा न होने से उस खाद्य को अपूर्ण एवं घटिया प्रोटीन वर्ग में ही सम्मिलित किया जा सकता है। मांसाहारी खाद्य विश्लेषणकर्त्ताओं ने उस प्रकार की आदत वालों को केवल गुर्दे, मूत्र यंत्र, हृदय, मस्तिष्क और क्लोम यंत्र खाने को कहा है और मांस-पेशियां न खाने की सलाह दी है। जब कि प्रचलन के अनुसार ये अवयव अस्वादिष्ट होने के कारण आमतौर से फेंक ही दिये जाते हैं।

जिन अवयवों को पुष्टिकर बताया जाता है उनमें एक और विपत्ति जुड़ी रहती है—यूरिक ऐसिड की अधिकता, यह तत्व शरीर के भीतर जमा होकर गठिया, मूत्र रोग, रक्त विकार जैसे अनेकों रोग उत्पन्न करता है। मांस अम्ल धर्मी पदार्थ है वह आंतों में जाकर सड़न पैदा करता है। कुछ समय पहले मांस का रसा बनाकर रोगियों को दिया जाता था, पर अब खाद्य विशेषज्ञों ने यह घोषित किया है कि उसमें न तो उपयुक्त मात्रा में पौष्टिक तत्व ही रहते हैं और न वह सुपाच्य ही है। उसे रोगियों को पिलाना उनके दुर्बल पेट के साथ अत्याचार करना है।

बीमारियां मनुष्यों में ही नहीं उन प्राणियों में भी होती हैं जिनका मांस खाया जाता है। बहुत बढ़िया और स्वस्थ शरीर के पशु तो कदाचित ही मांस के लिए मारे जाते हैं, आमतौर से बूढ़े, बीमार और निकम्मे पशुओं का ही वध होता है इनमें से अधिकांश की शारीरिक स्थिति अवांछनीय होती है और उनमें अनेक प्रकार के रोग कीटाणु भरे रहते हैं। स्पष्ट है कि मांस के साथ वे भी खाने वालों के शरीर में प्रवेश करेंगे और उन्हें देर सवेर में रुग्ण बनाकर छोड़ेंगे।

प्राणिज प्रोटीन की प्रशंसा उसमें पाये जाने वाले विटामिन ‘ए’ के आधार पर की जाती है। वह तत्व दूध में भी प्रचुरता पूर्वक पाया जा सकता है। मांस की तुलना में छैना, पनीर, दही आदि कहीं अच्छे हैं।

और तो और मांस से तो सोयाबीन ही कहीं अधिक बेहतर है। उसमें कैल्शियम, फास्फोरस, लोहा, विटामिन ए, बी, डी, ई, वसा आदि तत्व इतने रहते हैं जितने मांस में भी नहीं होते। उसे उबाल कर, बिना उबाले पीस कर बढ़िया दूध बन सकता है। उसमें नीबू का रस डाल दिया जाय तो छैना भी बन जायगा। उसका दही भी जमाया जा सकता है। चीन ने अपनी पौष्टिक खाद्य प्राप्त करने की समस्या का हल सोयाबीन के सहारे ही किया है। हमारे लिए भी उसका प्रचलन हर दृष्टि से उपयुक्त है। मांसाहार का स्थान सोयाबीन पूरी तरह ले सकता है। एक दिन भिगोकर फुलाया हुआ अथवा अंकुरित किया हुआ सोयाबीन तो और भी अधिक गुणकारी बन जाता है। वरन् कई दृष्टि से वह अधिक उपयुक्त भी है। दूध जन्य पदार्थों का प्रोटीन 95 प्रतिशत तक पच जाता है जबकि मांस का प्रोटीन आधा भी नहीं पच पाता है।

सामान्य दालें भी यदि फुलाकर या अंकुरित करके बिना छिलका उतारे भाप के सहारे मंदी आग पर पकाकर खाई जायें तो वे प्रोटीन की आवश्यकता पूरी करती हैं। दुष्पाच्य तो उन्हें हमारी त्रुटिपूर्ण पकाने की प्रक्रिया बनाती है जिसमें छिलके उतारना तथा तेज आग के सहारे पकाने और छोंक बघार देने; मसाले तथा घी आदि भर कर स्वादिष्ट बनाने पर अधिक ध्यान दिया जाता है।

पशुओं में सबसे बलवान हाथी है, उससे भी शक्तिशाली गैंडा माना जाता है। यह दोनों ही शाकाहारी हैं। यह जानते हुए भी न जाने क्यों लोग शाकाहार की शक्ति पर सन्देह करते हैं।

कलकत्ता विश्वविद्यालय के एप्लाइड केमिस्ट्री विभाग ने वृक्षों की पत्तियों तथा हरी घास से प्रोटीन निकाल कर दिल्ली के विश्व कृषि मेला में प्रदर्शित किया था और लोगों को बताया था कि मनुष्य की खाद्य आवश्यकता का सबसे महत्वपूर्ण भाग प्रोटीन सामान्य घास और मामूली पत्तियों में भी पर्याप्त मात्रा में प्राप्त हो सकता है और उनके आधार पर मजे में जीवित रहा जा सकता है।

हमारे पाचक रसों में वह सामर्थ्य है कि वह अपने स्वाभाविक खाद्य पदार्थों में से वह तत्व खींचलें जो उसके लिए आवश्यक हैं। इसके लिए यह आवश्यक नहीं कि जिन वस्तुओं की आवश्यकता उन्हें हो उन्हें ही खाया जाय। सुअर के शरीर में सबसे अधिक चर्बी होती है—दुम्बा मेंढ़ा की पूंछ में भी अतिरिक्त चर्बी होती है उन बेचारों को घी, दूध, मक्खन कौन खिलाता है। सामान्य घास-पात से ही वे आवश्यक मात्रा में चर्बी प्राप्त कर लेते हैं। जो आवश्यक है उसी को भोजन द्वारा पेट में ठूंसे यदि यह बात सही रही होती तो फिर अन्धों को आंखें खिलाकर लंगड़ों को टांगें खिलाकर, गूंगों को जीभ खिलाकर चिकित्सा की जा सकती है जिसकी हड्डियां कमजोर हों उसे हड्डियां पीस-पीसकर खिलाई जानी चाहिए। पर वैसा हो नहीं सकता। ठीक इसी प्रकार मांस खाकर मांस बढ़ाने और रक्त पीकर रक्त बढ़ाने की बात सोचना भी बाल बुद्धि का परिचायक है। प्रोटीन की मात्रा आवश्यक रूप से हमें चाहिए सो ठीक है, पर उसके लिए हमारा शाकाहारी भोजन ही पर्याप्त है उससे उचित मात्रा में उपयुक्त स्तर की प्रोटीन हमें मिल सकती है। बलिष्ठता के सारे तत्व मनुष्य के स्वाभाविक भोजन शाकाहार में पर्याप्त मात्रा में विद्यमान हैं, उन्हीं से हमें उपलब्ध करने चाहिए। इसके लिए मांसाहार जैसे माध्यम का अवलम्बन करने की आवश्यकता किसी भी प्रकार नहीं है।

मांसाहार रोगों का जनक भी

हावर्ड मेडिकल स्कूल अमेरिका के सुप्रसिद्ध चिकित्सक डा. ए. वाचमैन और डा. डी.एस. बर्नस्टोन को आश्चर्य था कि मांस से स्वास्थ्य में सुधार की मान्यता के बावजूद मांसाहारियों की हड्डियां कमजोर क्यों होती हैं? इस बात का निश्चित पता लगाने के लिये दोनों वैज्ञानिकों ने मांसाहारियों तथा शाकाहारियों की शारीरिक गतिविधियों का लम्बे समय तक अध्ययन किया।

जो निष्कर्ष सामने आये, वह मांसाहारियों को चौंका देने वाले थे। इन वैज्ञानिकों ने एक सम्मिलित रिपोर्ट में बताया—मांसाहारियों के मूत्र की जांच से पता चला है कि उसमें अधिकांश मात्रा तेजाब और क्षार की होती है। यह तेजाब और क्षार शरीर के शुद्ध रक्त से मांस पचाने के लिये तेज हुई शारीरिक मशीन की गर्मी के कारण उसी तरह स्खलित होता है जिस तरह कामुक चिन्तन से वीर्य। बड़ी मात्रा में पेशाब के साथ रक्त का जो क्षार और तेजाब बाहर निकल जाता है; उसे पूरा करने के लिये शरीर में हड्डियों के अतिरिक्त और कोई दूसरा स्रोत मिलता नहीं। फलस्वरूप रक्त अपना सन्तुलन बनाये रखने के लिये क्षार और तेजाब हड्डियों से चूसने लगता है। इस प्रकार मांसाहारी व्यक्ति की हड्डियां कमजोर होती चली जाती हैं।

यह तो शरीर प्रणाली में उत्पन्न हुई पहली अवस्था हुई। सच बात यह है कि इस अनपेक्षित प्रतिक्रिया का दूषित प्रभाव शरीर और मन सब पर पड़ता है। यह नहीं मानना चाहिये कि रक्त हड्डियों से आवश्यक सामग्री ले लेता है, तो उसकी अपनी तेजस्विता स्थिर हो जाती है। लन्दन के सुप्रसिद्ध डाक्टर अलेक्जेण्डर हेग एम.ए., एम.-डी. एफ.आर.सी.पी. (लन्दन) ने एक पौंड मांस के यूरिक एसिड विष का अध्ययन करने के बाद पाया कि—

काड मछली में 4 ग्रेन, पलीस मछली में 5 ग्रेन, सुअर के मांस में 6 ग्रेन, भेड़-बकरी में 6-5 ग्रेन, बछड़े के मांस में 8 ग्रेन, सुअर की कमर और रान के हिस्से वाले मांस में 8.5 ग्रेन, चूजे में 9 ग्रेन, गाय की पीठ और पुट्ठे वाले अंगों के मांस में 9 ग्रेन, बोटी जो भूनकर खाई जाती है उसमें 14 ग्रेन, जिगर में 19 ग्रेन और शोरबे में 50 ग्रेन विष पाया जाता है।

‘यह विष जब सामान्य स्थिति में रहता है, तब तक उसके दुष्परिणाम दिखाई नहीं देते। पर कुछ ही दिन के मांसाहार के बाद जब यह विष रक्त में अच्छी तरह मिल जाता है तब दिल की जलन, जिगर की खराबी, सांस रोग, रक्त अल्पता, टी.बी., गठिया, हिस्टीरिया, आलस्य, निद्रा का अधिक आना, अजीर्ण, शरीर में दर्द, मौसम के हल्के परिवर्तन से जुकाम व एन्फ्लुएन्जा हो जाना, निमोनिया व मलेरिया आदि सैकड़ों बीमारियां हो जाती हैं।’

अण्डा भी मांसाहार में ही आता है। फ्लोरिडा अमेरिका का कृषि विभाग ‘‘अण्डों का स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ता है’’ इसकी शोध और परीक्षण कर रहा है। अट्ठारह महीनों के परीक्षण के बाद 1977 की हेल्थ बुलेटिन ने बताया—अण्डों में डी.डी.टी. विष पाया जाता है जो स्वास्थ्य के लिये अत्यधिक हानिकारक है।

कैलीफोर्निया के विश्व विख्यात डा. कैथेराइन निम्मो डी.सी.आर.एन. तथा डा. जे. एमन विल्किन्ज ने एक सम्मिलित रिपोर्ट में बताया—एक अण्डे में लगभग 4 ग्रेन ‘‘केले स्टरोल’’ नामक अत्यन्त विषैला तत्व पाया जाता है। यह विष हृदय रोगों का मुख्य कारण है। इतनी सी मात्रा से ही हाई ब्लड प्रेशर, पित्ताशय में पथरी, गुर्दों की बीमारी तथा रक्त ले जाने वाली धमनियों में घाव हो जाते हैं ‘‘इस स्थिति में अण्डों से स्वास्थ्य की बात सोचना मूर्खता ही है।’’

इन डाक्टरों की यह रिपोर्ट पढ़कर विश्व भर के डॉक्टर चौके और तब सारे संसार की प्रयोगशालाओं में परीक्षण होने लगे। उन परीक्षणों में न केवल उपरोक्त तथ्य पुष्ट हुये वरन् कुछ नई जानकारियां मिलीं जो इनसे भी भयंकर थीं।

उदाहरण के लिये इंग्लैंड के डा. राबर्ट ग्रास, इंर्विग डैविडसन तथा प्रोफेसर ओकड़ा ने कुछ पेट के बीमारों का—अण्डे खाने और अण्डे खाना छोड़ देने इन, दोनों परिस्थितियों में परीक्षण किया और पाया कि जब तक वे मरीज अण्डे खाते रहे तब तक उनका पाचन बिगड़ा रहा, पेचिश हुआ और ट्यूबर कुलोसिस बैक्टीरिया (टी.बी.) जन्म लेता दिखाई दिया।’’

अमेरिका के डा. ई.वी.एम.सी. कालम ने तो इन तथ्यों का विधिवत् प्रचार किया उन्होंने अपनी पुस्तक ‘‘न्यूअर नालेज आफ न्यूट्रिन पेज 171 में लिखा है’’ अण्डों में कार्बोहाइड्रेट्स तथा कैल्शियम की कमी होती है। अतः यह पेट में सड़ांद उत्पन्न करते हैं, यह सड़न ही अपच, मन्दाग्नि और अनेक रोगों के रूप में फूटती है साथ ही स्वभाव में चिड़चिड़ापन, थोड़े में क्रुद्ध हो जाना जैसी बुराइयां उत्पन्न करता है।

‘‘दि नेचर आफ डिसीज’’ पत्रिका के द्वितीय वाल्यूम पेज 194 में चेतावनी देते हुये डा. जे.ई.आर.एम.सी. डोनाह एफ.आर.सी.पी. (इंग्लैण्ड) लिखते हैं—‘‘कैसा पागलपन है कि जो अण्डा आंतों में विष और घाव उत्पन्न करता है आज उन्हीं अण्डों की उपज में वृद्धि करने की व्यावसायिक योजनायें तैयार की जा रही हैं।’’

अण्डे के बहुत गुणगान किये जाते हैं पर यह स्पष्ट है कि उसका सफेदी वाला भाग जो 60 से 70 फीसदी तक होता है वह आमाशय और आंतों में पहुंचकर सड़न उत्पन्न करता है। आमाशय के रस स्राव को कुण्ठित करता है और पेप्सिन के प्रतिकूल, प्रतिक्रिया होती है। जर्दी वाले भाग में जिता उपयोगी पदार्थ रहता है उतना ही दूध, हरी सरसों की पत्ती, सन्तरा, सहजन, गाजर, शलजम, पालक में भी आसानी से ही पाया जा सकता है। उनके द्वारा इन वस्तुओं को प्राप्त करना अपेक्षाकृत सुपाच्य ही रहता है। प्रोटीन की दृष्टि से इन दिनों अण्डे खाने का रिवाज बढ़ रहा है। समझा जाता है कि उसमें इस तत्व की अधिकता होने से वह अधिक लाभदायक रहेगा। परन्तु लोग यह भूल जाते हैं कि वह जितना लाभदायक दीखता है वस्तुतः वह वैसा है नहीं, पाचन की दृष्टि से वह काफी कठिन पड़ता है। भारत जैसे गर्म देशों में तो पेट में जाते ही सड़ने लगता है और विष पैदा करता है। तेल में उबाले और भुने हुए अण्डों के समान दुष्पाच्य शायद ही और कोई पकवान होता हो, उसमें जितना पीलापन होता है उसी की कुछ उपयुक्तता समझी जा सकती है। सफेदी वाला अंश तो हानि के अतिरिक्त और कुछ करता ही नहीं।

रक्त में पाये जाने वाले लाल कणों को, जिनकी सघनता से ही रक्त का रंग लाल होता है, निकाल डालें तो जो शेष बचेगा वह पानी होगा। चरक संहिता के अनुसार रक्त में 8 अंजलि और मस्तिष्क में आधा अंजलि केवल जल ही होता है। शरीर के भार का 70 प्रतिशत भाग केवल जल ही होता है। यदि आप 100 पौंड वजन के हैं तो आप में 70 पौंड पानी है। रक्त में तो यह प्रतिशत 92 का होता है अर्थात् शरीर में यदि 6 लिटर रक्त है तो उसमें रक्तकणों की मात्रा कुल 48 लिटर ही होगी शेष 552 लिटर केवल जल की होगी।

प्रकृति ने मनुष्य को खनिज धातु लवण और गैसों के एक विशेष सम्मिश्रण से बनाया है। शरीर में किस वस्तु का कितना प्रतिशत रहना चाहिये, उसे प्रकृति ने शरीर बनाते समय पहले ही निश्चित कर दिया है। जब तक यह अनुपात स्थिर रहेगा तब तक शरीर स्वस्थ और मन प्रसन्न रहेगा। यदि उसमें व्यतिक्रम हुआ, गलत खाने से यह अनुपात बिगड़ा तो फिर मनुष्य का स्वस्थ रहना सम्भव नहीं, कोई न कोई बीमारी उसे अवश्य धर पकड़ेगी। यह एक वैज्ञानिक सिद्धान्त हुआ।

अन्न न मिले तो मनुष्य 60 दिन तक जीवित बना रह सकता है, पर पानी के बिना तो वह अधिक से अधिक सात ही दिन जी सकता है। पानी के बिना एक दिन बिताना भी सबसे बड़ी तितीक्षा मानी गई है—वह पानी के महत्व को ही प्रतिपादित करता है। प्रोटीन, चर्बी और ग्लाइकोजन सब मिलाकर शरीर में 40 प्रतिशत होते हैं। यह सबके सब समाप्त हो जावें तो भी मनुष्य जीवित रह सकता है पर पानी की मात्रा में 20 प्रतिशत भी कमी हो जाये तो शरीर का जीवित रहना सम्भव नहीं। शरीर में पाचन क्रिया से लेकर रक्त परिभ्रमण तक के लिये जल शरीर की प्राथमिक आवश्यकता है।

इस दृष्टि से जहां दिन में बार-बार पानी पीने की आवश्यकता है वहां यह भी आवश्यक है कि हम जो आहार ग्रहण करें उसमें भी पानी की मात्रा कम न हो। गीली सब्जी और दाल बनाकर खाने का केवल भारतवर्ष में ही रिवाज है। यह पद्धति जल की आवश्यकता देखकर ही चलाई गई थी। अब जो वैज्ञानिक आंकड़े सामने आ रहे हैं उनसे पता चलता है कि आहार में शाकों की बहुलता निर्धारित करने के पीछे भारतीय आचार्यों ने कितनी बुद्धिमता और वैज्ञानिकता से काम लिया है।

मोटे रूप से हम जो अन्न लेते हैं उसमें जल की अधिकतम 50 प्रतिशत ही मात्रा होती है, पर फल और सब्जियों में जल की मात्रा 95 प्रतिशत तक होती है, इसी से वे सुपाच्य भी होते हैं और आरोग्यवर्धक भी। सेब में 84 प्रतिशत जल होता है और केला व अंगूर में क्रमशः 75.3 प्रतिशत व 77.3 प्रतिशत आडू में 89.4 प्रतिशत तो गोभी तथा गाजर में 91.5 प्रतिशत व 88.2 प्रतिशत पालक जैसी पत्तेदार हरी सब्जियों और टमाटर में तो 92.3 तथा 94.3 प्रतिशत जल होता है। यह जल उस खनिज जल के समान होता है जो पहाड़ी नदियों में पर्वतों के अनेक सल्फर तत्व लेकर बहता है। इसलिये स्वास्थ्य के लिये जितने उपयोगी शाक हैं उतना और कोई पदार्थ हो ही नहीं सकता। मांस और भारी अन्न से कोई शरीर की स्थूलता भले ही बढ़ा ले पर जिन्हें स्वस्थ, रोगमुक्त और तेजस्वी जीवन बिताना है उन्हें जल की पर्याप्त मात्रा ग्रहण करनी ही होगी—वह केवल शाकाहार से ही मिल सकती है।

मांसाहार तो कतई उपयुक्त नहीं

स्वास्थ्य रक्षा की दृष्टि से भी मांस मनुष्य का स्वाभाविक आहार नहीं है। मांस भक्षण में सामयिक उत्तेजना और शक्ति का अनुभव हो सकता है, पर स्वास्थ्य को स्थायी रूप से सुदृढ़ और कार्यक्षम बनाने के लिये उसे कभी अधिक महत्व नहीं दिया जा सकता। इस सम्बन्ध में केवल भारतीय विद्वान् या ग्रन्थ ही पर्याप्त प्रकाश नहीं डालते अपितु वर्तमान समय में योरोप और अमेरिका के वैज्ञानिकों, शरीर-शास्त्र वेत्ताओं तथा प्रसिद्ध डाक्टरों ने भी जो खोज प्रशिक्षण एवं अनुभव किये हैं और जो निष्पत्तियां दी हैं, उनसे भी यही सिद्ध होता है कि मांसाहार स्थायी स्वास्थ्य की समस्या हल नहीं कर सकता, वरन् उससे अनेकों प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं।

इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध डा. हेनरी परडो ने लिखा है—‘‘मैं ऐसे अनेक व्यक्तियों को जानता हूं जो मांसाहार त्याग कर शाकाहारी बन जाने से पहले की अपेक्षा अधिक स्वस्थ हो गये और कब्ज, गठिया, मृगी आदि रोगों से छुटकारा पा गये। मैं निःसंकोच कह सकता हूं कि जो व्यक्ति पूर्णतया शाकाहार पर रहते हैं वे मांसाहारियों की अपेक्षा रोगों के शिकार बहुत कम होते हैं।’’

डा. रसैल ने अपनी ‘सार्वभौम भोजन’ नामक पुस्तक में लिखा है—‘‘जहां मांसाहार जितना कम होगा वहां कैंसर की बीमारी भी उतनी ही कम होगी।’’ डा. पकस ने अपने व्यक्तिगत अनुभव का उल्लेख किया है कि—‘‘मांसाहार के कारण ही वे बहुत दिनों तक सिर-दर्द, मानसिक थकावट तथा गठिया से ग्रसित रहे।’’

डा. हेग ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘‘डाइट एण्ड फूड’’ में लिखा है—‘‘शाकाहार से शक्ति उत्पन्न होती है और मांसाहार से उत्तेजना बढ़ती है, परिश्रम के अवसर पर मांसाहारी शीघ्र थक जाता है जिसे इसकी आदत पड़ जाती है, वह शराब आदि उत्तेजक पदार्थों की आवश्यकता अनुभव करता है, यदि वे न मिले तो सिर दर्द, उदासी स्नायु दुर्बलता आदि का शिकार हो जाता है। ऐसे लोग निराशा-ग्रस्त होकर आत्म-हत्या करते हैं। इंग्लैण्ड में मांस और शराब का प्रचार बहुत अधिक है, इसलिए वहां आत्म-हत्यायें भी बहुत अधिक होती हैं।’’

इसी प्रकार मेरी एस. ब्राउन, डा. शिरमेट, डा. क्लाडसन जार्ज बर्नार्ड शा., डा. लम्स शैप तथा लन्दन की ‘वेजीटेरियन ऐसोसियेशन’ आदि ने भी मांसाहार से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले बुरे प्रभाव पर काफी विस्तृत प्रकाश डाला।

डा. बारमस रक्तचाप (ब्लडप्रेशर) की बीमारी पर एक शोध-कार्य चला रहे थे। अनेक रोगियों का अध्ययन करते समय उन्होंने जो एक सामान्य बात पाई, वह यह थी कि रक्तचाप (ब्लडप्रेशर) के अधिकांश बीमार लोग मांसाहारी थे। उनके मस्तिष्क में एक विचार उठा कि कहीं मांसाहार ही तो रक्तचाप का कारण नहीं है, यदि है तो किन परिस्थितियों में? इस प्रश्न के समाधान के लिये उन्होंने प्रयोग की दिशायें ही बदल दी। अब वे मांसाहार से होने वाले शरीर पर प्रभाव का अध्ययन करने लगे। उनके प्रयोग और निष्कर्ष बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध हुये, दूसरे वैज्ञानिकों ने भी माना कि मांसाहार केवल शरीर ही नहीं, मानसिक स्थिति को भी प्रभावित करता है। दोनों पर उसकी प्रतिक्रिया दूषित और अस्वाभाविक होती है। वध किये जाते समय जानवर को जिस भयभीत और चीत्कार भरी स्थिति में होकर गुजरना पड़ता है, उसके कारण उनकी अन्तःस्रावी ग्रन्थियां तेजी से विष उगलने लगती है। उस स्थिति में तेजी से उभरते हुए हारमोन कुछ ही क्षण में समस्त रक्त में घुल जाते हैं और उसका प्रभाव मांस पर भी पड़ता है। यों पिचकारी से निकला हुआ शुद्ध रक्त उतना विषैला नहीं होता, उसे पिया और पचाया भी जा सकता है, किन्तु यदि वधकाल की कातरता में होकर गुजरे हुए रक्त को पिया जाय तो वह भयंकर विपत्ति खड़ी करेगा। यों वध करने के बाद रक्त का अधिकांश भाग बाहर बह जाता है फिर भी मांस में जो पतली रक्त नलिकायें रहती हैं, उनमें तो खून बना ही रहता है। मांस में लालिमा इसी की रहती है। अधिक त्रास देकर मारे जाने वाले जानवर का मांस अधिक स्वादिष्ट होता है, इस मान्यता में इतना ही तथ्य है कि उसमें एक अतिरिक्त विष भरा होता है जो अभ्यस्त नशेबाजों को जिस प्रकार कडुआपन भी स्वादिष्ट लगता है, उसी प्रकार प्रिय लगने लगता है, यह स्वाद निश्चित रूप से हानि को अधिक गहरी हानि बनाता चला जाता है।

आर्थिक दृष्टि से भी घाटा

कभी-कभी लोग अर्थशास्त्र को दुहाई देते हुए यह कहते हैं कि खाद्य समस्या हल करने के लिए—अन्न की बचत करने के लिए मांसाहार की उपयोगिता है, यह दलील भी नितान्त लचर हैं। मांस खाने के लिए जो पशु पाले जाते हैं वे उतनी जमीन की उपज उदरस्थ कर लेते हैं जितनी से मांस की तुलना में कहीं अधिक अनाज उत्पन्न किया जा सकता है।

प्रो. रिचार्ड वी. ग्रेक ने विस्तृत सर्वेक्षण से यह निष्कर्ष निकाला है कि शाकाहारी व्यक्ति के लिए डेढ़ एकड़ जमीन से गुजारे के लायक खाद्य सामग्री प्राप्त हो जाती है, जबकि मांसाहारी के लिए ढाई एकड़ प्रति व्यक्ति चाहिए। कारण यह है कि पशु मनुष्य की तुलना में प्रायः बीस गुना भोजन करते हैं। वे अपने जीवन काल में जितना चारा खाते हैं उसका दो हजार वां भाग ही खाने योग्य मांस दे पाते हैं। काटने पर भी उनका 65 प्रतिशत भाग तो चमड़ी, हड्डी, सींग, खुर, आंतें, रक्त, मल आदि भाग अखाद्य रहता है। खाने योग्य मांस तो प्रति पशु बीस किलों के लगभग ही पड़ता है। इस प्रकार मांस की दृष्टि से पाले गये पशु अधिक भूमि की उपज खाते हैं और स्वल्प मात्रा में खाद्य उत्पन्न करते हैं। अतएव वे खाद्य समस्या को सुलझाते नहीं वरन् उलझाते हैं।

अर्थ-शास्त्री आर्थर सी. क्लार्क और प्रो. वक्र मिस्टर फुलर ने अगली शताब्दी के लिए जो विश्व-योजना बनाई है, उसमें जनसंख्या वृद्धि को प्रथम स्थान दिया गया है और उसके अनुरूप साधनों की उपलब्धि में वर्तमान तथा भावी वैज्ञानिक उपलब्धियों को पूरी तरह नियोजित करने का कार्यक्रम बनाया है। उनके कथनानुसार अगली शताब्दी में मांस का उत्पादन बन्द हो जायगा, क्योंकि वह बहुत महंगा पड़ेगा। एक पौंड मांस तैयार करने में प्रायः 20 पौंड चारा खर्च होता है। इतनी वनस्पति खर्च करके इतना कम मांस उत्पन्न करना सरासर घाटे का सौदा है। इसके लिए उपजाऊ जमीन की इतनी शक्ति बर्बाद नहीं की जा सकती। जो चारा, भूसा, इमारती लकड़ी अथवा कागज, गत्ता जैसी चीजें बनाने के लिए काम आकर जरूरी आवश्यकताओं को पूरी करेगी, उन्हें जानवरों का खिलाना और फिर मांस उत्पन्न करना सरासर फिजूल-खर्ची है। गिनी-चुनी बहुत दूध देने वाली गायों के लिए जगह और खुराक बचाई जा सके—यही क्या कम है? यह भी तब हो सकेगा, जब मनुष्यों को स्थान तथा खुराक सम्बन्धी कटौती के लिए तैयार किया जा सके। दूध-दही तो सोयाबीन जैसी वनस्पतियां आसानी से बना दिया करेंगी। घी तो तेल की ही एक किस्म है। चिकनाई की जरूरत तेल से पूरी हो ही सकती है फिर घी की क्या जरूरत? तेल में प्रोटीन तथा बैक्टीरिया मिलाकर कृत्रिम मांस आसानी से तैयार हो सकता है, फिर पशु-मांस के जंजाल में उलझने की लम्बी और महंगी, प्रक्रिया अपनाने की कोई आवश्यकता ही न रहेगी।

भारत कृषि प्रधान देश है। यहां 80 प्रतिशत लोगों की आजीविका कृषि पर निर्भर है। कृषि के साथ पशु-पालन भी जुड़ा हुआ है। इस देश की निर्धन स्थिति तथा छोटे जीवों को देखते हुए यहां बड़े पैमाने पर मशीनों से खेती नहीं हो सकती। बैल कृषि का मूल आधार है। दूध पर मनुष्यों की स्वास्थ्य रक्षा निर्भर है। यह दोनों कार्य पशु-पालन पर निर्भर हैं। पशु धन यदि पर्याप्त मात्रा में रहे तो ही उपरोक्त दोनों प्रयोजन सिद्ध हो सकते हैं।

पशु धन में गौ ही इस देश के लिए सर्वोपरि महत्व की है। भैंस तथा भेड़-बकरियों के बच्चे कृषि के प्रयोजन को पूरा नहीं कर सकते और न उनका दूध ही गाय के दूध की तुलना में पोष्टिक एवं स्फूर्तिदायक है। गाय में सात्विकता की मात्रा अधिक रहने से गोरस का सेवन बुद्धि वृद्धि एवं सौम्य प्रकृति को लाभ भी देता है। अन्य पशुओं के दूध में यह विशेषता नहीं है। इन को देखते हुए यहां गौ को माता के सम्मान से सम्मानित किया गया है। भारतवासी गाय के अनुदानों का कृतज्ञता पूर्वक स्मरण करते हुए उसे गौ माता कहकर सम्मानित करते हैं जो सब प्रकार उचित ही है।

पशु धन की—विशेषतया—गौधन की रक्षा भारतवर्ष की कृषि-व्यवस्था तथा अर्थ-व्यवस्था को देखते हुए नितान्त आवश्यक है। मानवीय दृष्टिकोण से देखा जाय तो भी पशु हमारे छोटे भाई हैं। मनुष्य बुद्धि तथा पुरुषार्थ में बड़ा है तो उसे अपना बड़प्पन अपने से छोटे पशु-पक्षियों की रक्षा में प्रयुक्त करना चाहिए। बुद्धि के अतिरिक्त उसकी एक और मानवीय विशेषता दया है। दूसरों को कष्ट-पीड़ित देखकर स्वयं करुणा से द्रवित हो उठना, पराया कष्ट अपना कष्ट मानना और अपने स्वार्थ के लिए किसी को कष्ट न देना यह तो धर्म भावना है। जिसका हर धर्म में समर्थन किया गया है। जिस भारत ने संसार को प्रेम, करुणा और अहिंसा का सन्देश सुनाया था और भविष्य में भी मानवी करुणा का पुनर्जागरण उसी के हिस्से में आने वाला है। अपनी प्राचीन परम्पराओं और भावी जिम्मेदारियों को ध्यान में रखते हुए हम भारतीयों के लिए यह आवश्यक है कि अपने यहां पशु धन की—गौधन की रक्षा में विशेष रूप से दिलचस्पी लें। देश की कृषि-व्यवस्था और अर्थ-व्यवस्था को देखते हुए तो यह और भी अधिक आवश्यक है। दुर्भाग्य से इन दिनों अपने देश में पशु धन का ह्रास बुरी तरह हो रहा है। कृषि के लिए बैल और दूध के लिए गायों की निरन्तर कमी होती जा रही है। मांसाहार की बढ़ती हुई प्रवृत्ति जहां अर्थ व्यवस्था पर बुरा प्रभाव डाल रही वहां हमारे प्रेम, करुणा, सहृदयता जैसे उच्च गुणों को भी घटाती जा रही है। दया और न्याय केवल मनुष्यों तक ही सीमित नहीं रखे जाने चाहिए। वरन् यदि वे आदर्श सच्चे हैं तो उनका प्रयोग पशु धन तक भी व्यापक बनाया जाना चाहिए। मांसाहार का प्रचलन बढ़ने से हमारी जो भावनात्मक क्षति होगी उसका दुष्परिणाम परस्पर निर्दयता बरतने के रूप में भी सामने आवेगा। पशु वध और मांसाहार की वर्तमान स्थिति ऐसी है जिससे हमारा भविष्य अन्धकार मय ही बनेगा।

दस वर्ष पूर्व की जन गणना के अनुसार भारत की जनसंख्या 43,92,35,000 थी और देश में कुल मिला कर 17,56,71,841 गोवंश तथा 5,12,37,279 भैस वंश अर्थात् 22,68,09,120 पशु थे। देश में कुल कृषि योग्य भूमि, 42,15,21,000 एकड़ थी। खाद्य विशेष समिति की रिपोर्ट के अनुसार आठ एकड़ जमीन के लिए एक जोड़ी बैल चाहिए। इस हिसाब से वर्तमान कृषि योग्य भूमि के लिए 20,53,80,250 बैलों की आवश्यकता पड़ेगी। और तेल के कोल्हू, गाड़ियों तथा बोझा ढोने के लिए 15,65000 की और आवश्यकता पड़ेगी। इस प्रकार कृषि तथा भार वाहन के लिए 10,69,45,250 पशुओं की जरूरत हुई। इस प्रयोजन के लिए बैल, गाय और भैंसे, भैस दोनों ही जोड़ लिए जायें तो गणना के अनुसार बैलों की संख्या 6,86,01,614 तथा गायों की संख्या 21,77,169 नर भेंसे 66,05,250 तथा मादा भैंसें 4,97,534 हैं। इस प्रकार बैल, गाय, भैंसें जो कृषि और बोझ ढोने के काम में आ सकते हैं कुल मिलाकर 7,78,81,467 होते हैं। स्मरण रहे भारत में कहीं-कहीं गायें तथा मादा भैंसें भी कृषि एवं बोझ ढोने के काम में प्रयुक्त होते हैं। तब भी आज की कृषि और बोझ ढोने की आवश्यकता पूरी करने में 2,90,63,783 पशुओं की कमी रह जाती है।

असली घी और दूध का उत्पादन तेजी से गिर रहा है और नकली घी की उत्पत्ति तथा खपत जिस तेजी से बढ़ रही है उसे देखकर आश्चर्य होता है। पशु वध की वृद्धि के कारण विदेशों को चमड़ा, मांस आदि की जो वृद्धि हुई है उसके आंकड़ों को देखते हुए दुःख तथा निराशा ही हो सकती है। केवल विदेशी मुद्रा कमाने का लाभ ही ध्यान में नहीं रखा जाना चाहिये वरन् यह भी देखा जाना चाहिए कि पशु धन घटने से कृषि उत्पादन तथा दूध, घी के अभाव से स्वास्थ्य की कितनी हानि होगी।

पशु विशेषज्ञ डॉक्टर राइट ने मन्दी के दिनों में हिसाब लगाकर भारत को गोवंश से मिलने वाली आमदनी 11 अरब रुपया वार्षिक बताई थी। अब उस समय से कम से कम 8 गुनी वृद्धि हुई है। इस हिसाब से उस आय का अनुमान 88 अरब रुपया होना चाहिए। यह समस्त राष्ट्रीय आय का लगभग एक चौथाई होता है। देश के इतने बड़े उद्योग की ओर आंखें बन्द किये रहना या उपेक्षा बरतना किसी भी दृष्टि से समझदारी नहीं है।

इसके विपरीत मांस उत्पादन पर ही जोर दिया जा रहा है। पिछले दिनों की सरकारी सूचना के अनुसार देश में सरकारी 1314 और गैर सरकारी 770 अर्थात् कुल 2084 बड़े कसाई खाने हैं; जिनमें 45649 सुअर, 277970 भैसें 4234828 भेड़ें, 4502578 बकरी तथा 315512 अन्य पशु कटते हैं।

राष्ट्र-संघ की ‘फूड एण्ड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन’ और ‘वर्ल्ड हैल्थ ऑर्गनाइजेशन’ तथा मांस बाजार की रिपोर्ट तथा सिफारिशों से प्रभावित होकर भारत सरकार मांस उत्पादन बढ़ाने के लिए विशेष रूप से प्रयत्नशील है। उसके अनुसार सन् 81 तक वार्षिक गो मांस उत्पादन 192062500 मन तथा साधारण मांस 15,46,50,00 मन बढ़ाने की तजबीज है।

इस योजना के अनुसार मद्रास, दिल्ली, बम्बई और कलकत्ता में दो दो करोड़ रुपये की पूंजी से चार बड़े कसाई खाने चलाये जाते हैं। इनमें से प्रत्येक में प्रतिदिन 6000 भेड़, बकरे, 300 गाय, बैल, 200 सुअर छह घण्टे में काटे जा सकेंगे। यह एक पाली की बात हुई। जरूरत के अनुसार इसकी दूसरी पाली भी चलाई जा सकेगी और इन्हीं कारखानों में दुगुना पशु वध किया जा सकेगा।

मांसाहार के पक्ष में जितनी दलीलें दी जाती है इस एक के अतिरिक्त और सभी थोथी हैं। जो दलील सही है वह यह कि मनुष्य के भीतर रहने वाले शैतान को अपनी निर्मम क्रूरता के साथ सहनृत्य करने का अवसर मिलता है। यदि पौष्टिक आहार की बात कही जाय तो मांस में पाये जाने वाले जीवनतत्व अनाज की तुलना में कहीं घटिया है और उसके सहारे पशुओं के रोगों और उनकी आदतों को शरीर में प्रवेश कर जाने की पूरी-पूरी गुंजाइश है। शाकाहार की उत्कृष्टता स्पष्ट है। मांसाहारी जन्तु शाकाहारी जन्तुओं का ही शिकार करते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि मांसाहारी जीवों के शरीर में विषाक्तता कितनी बड़ी मात्रा में भरी रहती है। सिंह और भेड़िया एक दूसरे का मांस नहीं खाते और न बाज, चील, गिद्ध आपस में झपटते हैं, उनकी घात शाकाहारी पशु-पक्षियों पर ही रहती है। क्योंकि मांसाहारी की तुलना में शाकाहारी का शरीर कितना विशुद्ध रह सकता है, इस तथ्य को वे रक्त पायी प्राणी भी जानते हैं। मनुष्य की बुद्धि ही है जो इस सीधे साधे तर्क की अवहेलना करके मांसाहार का समर्थन करती है।

पशुओं को मारकर खाने से खाद्य-पदार्थों की कमी दूर हो सकती है या अर्थ व्यवस्था में बढ़ोतरी हो सकती है—अर्थशास्त्रियों का इस तरह समझाना मानवी बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता के साथ खिलवाड़ करना है। तथ्यों को झुठलाना भी। पशुओं के श्रम और उनके दूध, घी आदि से खाद्य-पदार्थ जितनी मात्रा में उगाये जा सकते हैं उतने को नष्ट करके उन्हें फाड़-चीरकर खा जाना बिलकुल सोने के अण्डे देने वाली मुर्गी के सारे अण्डे एक बारगी निकाल लेने के लिए उसका पेट चीर डालने के समान ही मूर्खता पूर्ण है। उनके गोबर का सदुपयोग करके उतना खाद्य पदार्थ उगाया जा सकता है जो मांस की तुलना में भार और मूल्य दोनों ही दृष्टि से कहीं अधिक होगा। अर्थशास्त्र को जिन्हें मोड़ना-मरोड़ना नहीं है, वे यह भ्रम उत्पन्न नहीं कर सकते कि पशुओं को मार-काटकर समाप्त कर देना और उनके मांस को उदरस्थ करना खाद्य समस्या अथवा अर्थ समस्या का कारगर हल है। नकली चमड़े के उत्पादन की विधियां कार्यान्वित हो रही हैं इसलिए चमड़े की आवश्यकता के बहाने पशु वध के औचित्य का कोई कारण शेष नहीं रह जाता। मांसाहार के पक्ष में दी जाने वाली सभी दलीलों का खोखलापन तर्क और तथ्य की कसौटी पर कसा जा सकता है। और उस बकवास की व्यर्थता को थोड़ी सी बुद्धिमता का प्रयोग करके सहज ही समझा जा सकता है। पर उस दलील का कोई जवाब नहीं कि मनुष्य के अन्तरंग में किसी कोने में शैतान और पिशाच भी छिपा बैठा रहता है और उसकी तृप्ति क्रूर-कर्मों के बिना नहीं हो सकती। पाप और अनाचार के लिए ही वह आतुर रहता है। फिर कानून एवं दण्ड की पकड़ से बचकर यदि नृशंसता का खेल खेलना सम्भव हो तो क्यों न खेला जाय? प्राणियों के मरण चीत्कार को—व्याकुल तड़पन को देखने, बढ़ाने का मनोरंजन लाभ क्यों न लिया जाय?

प्रश्न स्वास्थ्य का नहीं संवेदना का

मांसाहार से स्वास्थ्य की विकृति उतनी कष्टदायक नहीं है, जितना उसके द्वारा भावनाओं का अधःपतन और उसके फलस्वरूप उत्पन्न हुए दुष्परिणाम। मनुष्य परस्पर दया, करुणा और उदारता के सहारे जीवित और व्यवस्थित है। इन्हीं गुणों पर हमारी व्यक्तिगत पारिवारिक, सामाजिक और सम्पूर्ण विश्व की सुख-शांति एवं सुरक्षा बनी हुई है। भले ही जानवरों पर सही जब मनुष्य मांसाहार के लिये वध और उत्पीड़न की नृशंसता बरतेगा तो उसकी भावनाओं में कठोरता, अनुदारता और नृशंसता के बीज पड़ेंगे और फलेंगे-फूलेंगे ही। कठोरता फिर पशु-पक्षियों तक थोड़े ही सीमित रहेगी, मनुष्य-मनुष्य के बीच भी उसका आदान-प्रदान होगा।

मानवीय भावना का यह अन्त ही आज पश्चिम को दुःख-ग्रस्त, पीड़ा और अशांति-ग्रस्त कर रहा है, यहां लहर पूर्व में भी दौड़ी चली आ रही है। वहां की तरह यहां भी हत्या, लूटमार, बेईमानी, छल-कपट, दुराव, दुष्टता, व्यभिचार आदि बढ़ रहे हैं और परिस्थितियां दोषी होंगी, यह हमें नहीं मालूम पर मांसाहार का पाप तो स्पष्ट है, जो हमारी कोमल भावनाओं को नष्ट करता और हमारे जीवन को दुःखान्त बनाता चला जा रहा है। समय रहते यदि हम सावधान हो जाते हैं तो धन्यवाद अपने आपको, अन्यथा सर्वनाश की विभीषिका के लिए हम सबको तैयार रहना चाहिये। मांस के लिये जीवात्माओं के वध का अपराध मनुष्य जाति को दण्ड दिये बिना छोड़ दे, ऐसा सम्भव नहीं, कदापि सम्भव नहीं।

वैज्ञानिकों एवं चिकित्सा शास्त्रियों का मत है कि मांसाहार करने से स्वभाव क्रोधी बनता है, बुद्धि मन्द होती है और मानसिक स्थिरता पर अशुभ प्रभाव पड़ता है। क्रोध की अतिरेकता में मनुष्य उचित, अनुचित का ध्यान नहीं रख पाता, मन्दबुद्धिता के कारण उसके निर्णय ही उल्टे नहीं होने लगते, बल्कि दृष्टिकोण ही विपरीत हो जाता है। मानसिक अस्थिरता के कारण किसी का किसी छोटी-सी बात पर उत्तेजित हो उठना सहज सम्भाव्य है। मनुष्य को यह स्वभावगत न्यूनतायें सामाजिक भावना को शिथिल कर देती हैं। ऐसी दशा में विघटन, विसंगति और विस्फोट की परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं, जो सामाजिक सहजता तथा प्रगति को धक्का पहुंचाती हैं। समाज में शांति अथवा संघर्ष का जन्म मनुष्यों के दो विपरीत स्वभावों के कारण ही होता है।

इस भिन्नता के कारण कभी-कभी शांति प्रिय लोगों को भी संघर्ष में उलझ जाना पड़ता है। जो असामाजिक स्वभाव के होते हैं, उनमें उसकी शांति तथा प्रगति की चिन्ता होती ही नहीं; किन्तु इससे भी दुःखदायी बात यह होती है कि समाज के प्रति सद्भावना रखने वालों को भी कभी-कभी आत्म-सम्मान अथवा मर्यादा की रक्षा करने के लिये अन्यथा व्यक्तियों से प्रेरित संघर्ष में उलझना पड़ता है, जिससे उनके द्वारा होने वाले सामाजिक हित को हानि पहुंचती है। मांस भोजियों के कारण ही मनुष्यों का एक बड़ा वर्ग पशु-हत्या के क्रूर कर्म में नियुक्त रहता है। इस वर्ग को बधिक, व्याध अथवा कसाई कहा जाता है। इस वर्ग पर प्रायः क्रूर, निर्दयी तथा अविचारी होने का दोष लगाया जाता है। बहुत सीमा तक यह लांछन सही भी होता है। हत्या कर्म करते-करते इस वर्ग के स्वभाव से करुणा, दया, क्षमा, संवेदना, सहानुभूति, सौहार्द्र की कोमल भावनायें नष्ट हो जाती हैं और उनका स्थान निर्दयता, क्रूरता, का पुरुषता, असहनशीलता और कठोरता की वृत्तियां ले लेती हैं। जिससे वह ऐसे अनुचित काम करने में संकोच नहीं करते जो समाज के लिये अहितकर होते हैं और किसी भी सामाजिक व्यक्ति को नहीं करने चाहिये।

शिकागो, जो कि अमेरिका का एक बड़ा शहर है, अपने बड़े-बड़े कसाईखानों के लिये संसार में सबसे बढ़ा-चढ़ा माना जाता है। यहां के बूचड़ खानों में प्रतिदिन लगभग पच्चीस तीस हजार पशुओं का वध किया जाता है और काटने से लेकर खाल उतारने, मांस पहुंचाने, पशुओं को पकड़कर लाने, खत्ते पर लगाने, रक्त समेटने, ढोने और सफाई करने के साथ मांस काटने, बांटने और उसका हिसाब-किताब रखने के विभिन्न कामों में लाखों आदमी नियुक्त रहते हैं। यह सबके-सब समान रूप से अकरुणा स्वभाव के ही हो जाते हैं। पशु-वध का वह नृशंस हत्या-कांड करते, देखते और उसकी जीविका खाते-खाते उनका निर्दयी हो जाना कोई विलक्षण बात नहीं है।

शिकागो के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने अनेक वर्षों अपराधों एवं अपराधियों की जांच करने के बाद अपनी रिपोर्ट में लिखा है—‘‘अधिकतर अपराध कसाईघरों के कार्य में लगे व्यक्तियों द्वारा ही किये जाते हैं। इस घृणित पेशे को करते-करते इन लोगों की समस्त सद् वृत्तियां कुण्ठित हो जाती हैं और तब वे अक्सर अवसर आने पर मनुष्यों पर छुरी फेरने में नहीं हिचकिचाते।’’ इस प्रकार मांसाहार के कारण समाज का बड़ा वर्ग हृदयहीन होकर नृशंस बन जाता है, जिससे वह समाज का अहित ही किया करता है। जिसकी सद्वृत्तियां नष्ट हो गई हों, जो हृदयहीन होकर दारुण स्वभाव का हो गया हो, वह अशांति अपराध अथवा अपकार करने वाला न हो ऐसी आशा करना मरु-मरीचिका के समान एक विडम्बना होगी।

एक अपराध केवल एक अपराध तक ही सीमित नहीं रहता। वह शाखा, प्रशाखा में फूट फैलकर अनेक हो जाते हैं। इस प्रकार एक के द्वारा अन्य अनेक प्रकार के अपराधों को वृद्धि होते रहने से समाज की शांति और व्यवस्था को हानि पहुंचना स्वाभाविक ही है। अशांत एवं अव्यवस्थित समाज न कभी प्रगति कर पाया है और न कभी कर पायेगा। कहना न होगा कि समाज की इस अशांति अव्यवस्था का दोष उन मांस भोजियों पर ही जाता है; जिनके लिये पशु काटे जाते हैं और मनुष्य कसाई का काम करके क्रूर एवं असामाजिक बनता है।

मांसाहार अमानवीय भोजन है। उसके खाने से मनुष्य शरीर में पाशविक विकार आ जाते हैं, विभिन्न प्रकारों के रोगों की वृद्धि होती है। जिन बच्चों को बाल्यकाल से ही दया प्रेम, सहृदयता, सहानुभूति एवं सदाचार की शिक्षा दी जाती है, वे आगे चलकर समाज के हितकारी सदस्य और राष्ट्र के योग्य नागरिक बनते हैं। किन्तु जिनमें मांसाहार जैसे क्रूरतापूर्ण कृत्य के द्वारा अकरुणा एवं हृदय-हीनता की भावना जगा दी जायेगी, उनका समाज के लिये हितकारी सदस्य बन सकना शत-प्रतिशत सम्भव नहीं। मांसाहार में निरत रखते हुये यदि बच्चों को सुशील नागरिकता की शिक्षा दी भी जाये तो वह उन पर अधिक प्रभाव नहीं डालेगी। उपदेश अथवा शिक्षा के अनुरूप आचार-व्यवहार का निर्माण करने से ही किसी सदशिक्षा का वांछित प्रभाव हो सकता है। विद्वानों का मत है कि संसार में फैले दुराचार दुर्भाव, स्वार्थ और संघर्ष का अस्सी प्रतिशत उत्तरदायित्व मांसाहार पर ही है, जिसे मनुष्य चाव से ग्रहण कर अपनी नैतिक, सामाजिक और राष्ट्रीय हानि कर रहा है।

मांसाहार के कारण समाज में बढ़ने वाली विकृतियों को देखकर अमेरिका के प्रसिद्ध प्रचारक श्री ऐजल ने जो भाव व्यक्त किया है, वह ध्यान देने योग्य है। उन्होंने कहा—‘‘गरीब और अनबोल प्राणियों के वकील की हैसियत से मैं आपको बतलाना चाहता हूं कि जितनी शीघ्र बच्चों को मांस भोजन से विरत कर उनमें जीव दया और समस्त प्राणियों के प्रति सहानुभूति की भावना जगाने के लिये शिक्षण संस्थाओं में मांगलिक साहित्य का प्रचार किया जायेगा, उतनी शीघ्र नाशकारी हिंसा-भावना की जड़ कटेगी। इतना ही नहीं बल्कि सब प्रकार के अपराधों का मूल नष्ट हो जायेगा। कुकृत्य के बदले दण्ड देने और जेल में बन्द करने से जहां एक अपराध को रोका जा सकता है, वहां बच्चों को निरामिष भोजी एवं अहिंसक बनाकर आगामी समाज से सारे दुष्ट कार्यों को मिटाया जा सकता है।’’

दार्शनिक तथा मानव-मंगल के आकांक्षी महात्मा पैथागोरस ने एक स्थान पर कहा है—‘‘ऐ मौत के आड़े में उलझे हुए इन्सान! अपनी तश्तरियों को मांस से सजाने के लिये जीवों की हत्या न कर। जो पशुओं की गरदन पर छुरी चलवाता है, उनका करुण क्रन्दन सुनता है, जो पाले हुए पशु पक्षियों की हत्या में मौज मनाता है, उसे अत्यन्त तुच्छ स्तर का व्यक्ति ही समझा जाना चाहिये। जो आज पशुओं का मांस खा सकता है; वह किसी दिन मनुष्य का रक्त भी पी सकता है। ऐसी सम्भावना को असम्भव नहीं माना जा सकता।’’
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