सहृदयता आत्मिक प्रगति के लिए अनिवार्य

आत्मिक प्रगति पर आत्मा का प्रभाव

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मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। इस नाते उसे समाज के दूसरे सदस्यों को भी सहना और उनके साथ निर्वाह करना पड़ता है। सहन करना इस अर्थ में कि प्रत्येक मनुष्य का स्वभाव भिन्न-भिन्न होता है। परमात्मा ने किन्हीं भी दो मनुष्यों अथवा दो प्राणियों का स्वभाव एक जैसा नहीं बनाया इसलिए किसी के स्वभाव का कोई गुण, कोई प्रवृत्ति अपने प्रतिकूल जान पड़ने पर भी उसे सहने की, निभाने की रीति नीति मानवता का पहला पाठ कहीं जा सकती है।

इस कसौटी पर वर्तमान समाज और उसके सदस्यों की रीति नीति को परखा जाय तो विदित होगा कि आज का मनुष्य दूसरे को सहने के लिए जरा भी तैयार नहीं है और अपने को छोड़ कर प्रत्येक व्यक्ति को अपने मनोनुकूल बनने की अपेक्षा रखता है। स्वार्थपूर्ण संघर्ष का आरम्भ यहीं से होता है और जो दूसरों को अपने मनोनुकूल बनाने में जितना सफल हो जाता है स्वयं को उतना ही गौरवान्वित समझता है। स्वार्थों के संघर्ष से ही आपसी सम्बन्ध बिगड़ते हैं और महायुद्धों के मूल में भी यही कारण विद्यमान रहता है। कहने को सामाजिक सुव्यवस्था, सुख-शांति की आवश्यकता सभी अनुभव करते हैं। उसकी उपयोगिता भी एक दूसरों को बताते समझाते हैं पर स्थिति को उपलब्धि की दृष्टि से परखा जाय तो यही कहना पड़ेगा कि सच्चे हृदय से ऐसा कोई नहीं चाहता।

कारण? उच्च आदर्शों की चर्चा-परिचर्चा सभी करते हैं परन्तु आम व्यक्तियों का भावनात्मक स्तर जितना ऊंचा और जिस तरह का है उससे ‘‘बोए पेड़ ‘बबूल’ का आम कहां से खाये’’ वाली उक्ति ही चरितार्थ होती है। प्रश्न उठता है कि वर्तमान युग की क्लेश, कलह, विग्रह, अशांति और उद्वेगों को मिटाया नहीं जा सकता है। मिटाया जा सकता है पर उसके लिए पहले व्यक्ति का भावनात्मक स्तर ऊंचा उठाना आवश्यक है। पशु−पक्षियों के उत्पीड़न से लेकर मानवी समाज व्याप्त अशांति जैसी जितनी भी विकृतियां इस युग में बढ़ रही हैं उनका प्रमुख कारण मनुष्य की भावनाओं में आयी गिरावट ही है मनुष्य का भावनात्मक स्तर दिनों दिन गिरता जा रहा है और उसके अंतःकरण में प्रेम, विश्वास, त्याग, क्षमा, उदारता, दया, मैत्री और समानता का स्थान स्वार्थ और छल-कपट ने ले लिया है। बुद्धिवाद ने बताया कि कर्मफल कोई वस्तु नहीं, इसलिये कुछ भी करने से डरना नहीं चाहिये, पर तथ्य यह बताते हैं, कि न तो एक व्यक्ति का पाप उसे छोड़ सकता है और न सामूहिक अपराध समाज को बख्श सकते हैं। पाप और अत्याचार का दण्ड प्रकृति का एक सनातन सत्य और अटल सिद्धान्त है, उससे कोई बच नहीं सकता। उसकी कृपा तो नैतिक आदर्शों और मानवीय भावनाओं से ही मिल सकती है, इसके लिये विज्ञान और तद्जन्य साधन आवश्यक नहीं। एक प्रयोग ऋषि करके दिखा गये हैं कि मनुष्य साधनों के अभाव में त्याग-तपस्या का जीवन जीकर भी अधिक सुखी रह सकता है, यदि वह भावनाओं की दृष्टि से उत्कृष्ट हो, यदि भावनायें और आकांक्षायें निकृष्ट और अधोगामी हों तो स्वर्ग में रहकर भी मनुष्य सुखी नहीं रह सकता। दुःख के बीज हमीं ने बोये

भावनाओं की निकृष्टता और अधोगामिता जहां कहीं भी हो अपना दुष्परिणाम बताती है। यही पाप है और पाप की विभीषिकायें कहीं भी हों मनुष्य समाज को चैन नहीं लेने देती और विज्ञान ने पाप और विभीषिकाओं को बढ़ाया ही है। अमेरिका आदि देशों से आत्म-हत्या की प्रवृत्ति का विश्लेषण करते हुए, अंग्रेजी के विद्वान् ग्रेगरी कार्सो ने लिखा है कि—‘‘आस्ट्रिया, डेन्मार्क, फिनलैण्ड, पश्चिम जर्मनी, हंगरी, स्वीडन, स्विट्जरलैण्ड, जापान आदि में अमेरिका से भी दुगनी आत्म-हत्यायें होती हैं। फ्रांस में कुछ कम हैं, पर इंग्लैण्ड और वेल्स उस कमी को पूर्ण कर देते हैं। कनाडा, आइसलैण्ड, इटली नीदरलैण्ड, नार्वे, पुर्तगाल, स्काटलैण्ड और स्पेन में भी आत्म-हत्याओं का जोर है और उसका कारण युद्ध और उसके प्रभाव से उत्पन्न वायु-मंडल पर भयंकर परिस्थितियों के सूक्ष्म कम्पन और भौतिक विज्ञान के द्वारा उत्पन्न दूषित वातावरण अधिक है। सन् 1952 में अमेरिका में 15400 आत्म-हत्यायें हुईं। एक लाख लोगों के पीछे 10 व्यक्ति केवल आत्म हत्या से मरते हैं।

कुकृत्यों का लेखा-जोखा हमारा अचेतन मस्तिष्क भी नोट करता रहता है। वहां ऐसी स्वसंचालित प्रक्रिया स्थापित है। जो उन पाप अंकनों के आधार पर दुख दण्ड की व्यवस्थाएं यथावत् बनाती हैं। शारीरिक और मानसिक रोगों के रूप में—स्वभाव की विकृति के कारण स्वजनों से मनोमालिन्य के रूप में—अपने ही मनोविकारों से उत्पन्न विक्षेपों के रूप में अन्तःसंस्थान बेतरह खिन्न उद्विग्न रहता है। बाहर के लोगों को प्रतीत भले ही न हो पर वह स्वयं अशान्त और बेचैन ही बना रहता है। नींद न आने से लेकर घबराहट भरी मनःस्थिति किसी नारकीय दण्ड से कम नहीं। जेलखानों में भी उतना शारीरिक कष्ट नहीं होता जितना मानसिक विक्षोभ। अपराधी प्रवृत्तियां अपने ही अचेतन मन के माध्यम से शारीरिक और मानसिक आधि-व्याधियों से घेर देती हैं और कुकर्मी उस स्वसंचालित विधि विधान के आधार पर स्वयं ही दण्ड का भागी बनता रहता है। क्रोध, आवेश, चिन्ता, भय हर्षातिरेक, कामोत्तेजना आदि के अवसर पर नाड़ी संस्थान उत्तेजित हो उठता है। रक्तचाप बढ़ जाता है। श्वास की गति तीव्र हो जाती है। त्वचा की उष्णता में बढ़ोत्तरी होती है। यह सर्वविदित है।

चतुर्दिक बढ़ी हुई क्रूरता, हिंसा की प्रवृत्ति, द्वेष दुर्भावना, अशांति और उद्वेगों के कारण तलाशें तो यांत्रिक सभ्यता से लेकर मानवीय दृष्टि कोण के दूषण तक अनेक कारण उभरते हैं। उसके लिये मनोवैज्ञानिकों के तरह-तरह के विश्लेषण और सुझाव हैं जिनका सीधा अर्थ यह है कि मानवीय मन—को संतुलित, पवित्र, स्थिर विवेकपूर्ण अनुत्तेजनशील बनाया जाये। उसके लिये अनेक तरह के उपाय भी सुझाये जाते हैं पर वे सब इस तरह हैं जिस तरह पौधे के विकास के लिये पत्तियों में जल छिड़कना और तने को खाद देना। जड़ को सींचे और बल प्रदान किये बिना पेड़ के विकास और उससे सुन्दर फल पाने की कल्पना हास्यास्पद है। उसी प्रकार मन की अपवित्रता और दुर्गुणी होने का कारण क्या है। उसे जाने और उसके निवारण के उपाय अपनाए बिना अन्य सभी प्रयत्न प्रभाव हीन ही बने रहेंगे भारतीय तत्वदर्शियों की इस सम्बन्ध में हुई गवेषणाएं न केवल, महत्वपूर्ण हैं। अपितु आगे चलकर विज्ञान की शोध का विषय भी बन सकती हैं कि मन का अपना अच्छा बुरा अस्तित्व पूर्व संस्कारों के आधार पर थोड़ा ही हो सकता है। इस जीवन में उस की उत्पत्ति आहार से होती है आहार के अच्छे बुरे गुण ही मन के अच्छे बुरे बनने का कारण बनते हैं। वातावरण का प्रभाव, लोगों की संगति, अभिभावकों का संरक्षण और शिक्षा दीक्षा भी एक अंश तक प्रभावित करते हैं। किन्तु मूलतः स्वभाव की जिम्मेदारी उस अन्न पर आती है जो शरीर के पोषण के नाम पर ग्रहण किया जाता है।

जैसा अन्न वैसा मन

अध्यात्म-विद्या के वैज्ञानिक ऋषियों ने आहार के सूक्ष्म गुणों का अत्यन्त गम्भीरतापूर्वक अध्ययन किया था और यह पाया था कि प्रत्येक खाद्य पदार्थ अपने में सात्विक, राजसिक, तामसिक गुण धारण किये हुए हैं। और उनके खाने से मनोभूमि का निर्माण भी वैसा ही होता है। साथ ही यह भी शोध की गई थी कि आहार में निकटवर्ती स्थिति का प्रभाव ग्रहण करने का भी एक विशेष गुण है। दुष्ट, दुराचारी दुर्भावनायुक्त या हीन मनोवृत्ति के लोग यदि भोजन पकावें या परोसे तो उनके वे दुर्गुण आहार के साथ सम्मिलित होकर खाने वाले पर अपना प्रभाव अवश्य डालेंगे। न्याय और अन्याय से, पाप और पुण्य से कमाये हुए पैसे से जो आहार खरीदा गया है उससे भी वह प्रभावित रहेगा। अनीति की कमाई से जो आहार बनेगा वह भी अवश्य ही उसके उपभोक्ता को अपनी बुरी प्रकृति से प्रभावित करेगा।

इन बातों पर भली प्रकार विचार करके उपनिषदों के ऋषियों ने साधक को सतोगुणी आहार ही अपनाने पर बहुत जोर दिया है। मद्य, मांस, प्याज, लहसुन, मसाले, चटपटे, उत्तेजक, नशीले, गरिष्ठ, बासी, बुसे, तमोगुणी प्रकृति के पदार्थ त्याग देने ही योग्य हैं। इसी प्रकार दुष्ट प्रकृति के लोगों द्वारा बनाया हुआ अथवा अनीति से कमाया हुआ आहार भी सर्वथा त्याज्य है। इन बातों का ध्यान रखते हुए स्वाद के लिये या जीवन रक्षा के लिये जो अन्न औषधि रूप समझकर, भगवान् का प्रसाद मानकर ग्रहण किया जायगा वह शरीर और मन में सतोगुणी स्थिति पैदा करेगा। और उसी के आधार पर जीवन में प्रसन्नता व शान्ति मिलनी सम्भव होगी।

उपनिषदों में इस सम्बन्ध में अनेकों आदेश भरे पड़े हैं जैसे—

‘‘खाया हुआ अन्न तीन प्रकार का होता है। उसका जो स्थूल भाग है वह मल बनता है, जो मध्यम भाग है वह मांस बनता है और जो सूक्ष्म भाग है वह मन बन जाता है। पीया हुआ जल तीन प्रकार का हो जाता है। उसका जो स्थूल भाग है वह मूत्र बन जाता है, जो मध्यम भाग है वह रक्त हो जाता है जो सूक्ष्म भाग है वह प्राण हो जाता है......हे सौम्य, मन अन्नमय है। प्राण जलमय है। वाक् तेजोमय है।’’ —छान्दोग्य, अध्याय 6 खण्ड 5

‘‘अन्न ही बल से बढ़कर है। इसी से यदि दस दिन भोजन न मिले तो प्राणी की समस्त शक्तियां क्षीण हो जाती हैं और वे फिर तभी लौटती हैं जब वह पुनः भोजन करने लगे। तुम अन्न की उपासना करो। यह अन्न ही ब्रह्म है।’’ —छान्दोग्य, अध्याय 6 खण्ड 9

‘‘आहार में अभक्ष्य त्याग देने से चित्त, शुद्ध हो जाता है। आहार शुद्धि से चित्त की शुद्धि स्वयमेव हो जाती है। जब चित्त शुद्ध हो जाता है तो क्रम से ज्ञान होता है। और अज्ञान की ग्रन्थियां टूटती जाती हैं।’’ —पाशुपत ब्रह्मोपनिषद्

‘‘आहार शुद्ध होने से अन्तःकरण की शुद्धि होती है। अन्तःकरण शुद्ध होने से भावना दृढ़ हो जाती है और भावना की स्थिरता से हृदय की समस्त गांठें खुल जाती हैं।’’ —छान्दोग्य

तैत्तरीय उपनिषद् में इस सम्बन्ध में अधिक प्रकाश डाला गया है और आत्म-कल्याण के इच्छुकों को आहार-शुद्धि का विशेष रूप से ध्यान रखने का निर्देश किया गया है। अन्नाद्वै प्रजाः प्रजायन्ते । याः काश्च पृथ्वीश्रिताः । अथो अन्ने नैव जीवन्ति । अथैनदपियन्त्यन्ततः । अन्नंहि भूतानां जेष्ठम् । तस्पात्सवौंधयमुज्यते । सर्व र्वे तेऽन्नमाप्नुवन्ति येऽन्न ब्रह्मोपासते ।

‘‘इस पृथ्वी पर रहने वाले समस्त प्राणी अन्न से ही उत्पन्न होते हैं। फिर अन्न से ही जीते हैं। अन्त में अन्न में ही विलीन हो जाते हैं। अन्न ही सबसे श्रेष्ठ है। इसलिए वह औषधि रूप कहा जाता है। जो साधक अन्न की ब्रह्म रूप में उपासना करते हैं वे उसे प्राप्त कर लेते हैं।’’
तस्माद्वा एतस्मादन्नरस मयादन्योऽन्तर प्राणमयः । तेनेष पूर्ण सवा एष पुरुष विध एव । —तैत्तरीय 2/2

‘‘इस अन्न-रसमय शरीर के भीतर जो प्राणमय पुरुष है वह अन्न से व्याप्त है। यह प्राणमय पुरुष ही आत्मा है।’’

अर्न्ननः निन्द्यात् । तद् व्रतम् । प्राणो वा अन्नम् । शरीरमन्नादम् । प्राणे शरीरं प्रतिष्ठितम् । शरीरे प्राणः प्रतिष्ठितः । तदेतदन्नमन्ने प्रतिष्ठितम् । साय एतदन्नमन्न प्रतिष्ठितं वेद प्रतितिष्ठिति । अन्नवानन्नादो भवति । महान भवति । प्रजया पशुमिब्रह्मवर्चसेन । महान कीर्त्या । —तैत्तरीय 3/7

‘‘अन्न की निन्दा न करे, यह व्रत है। प्राण ही अन्न है। शरीर प्राण पर आधारित है। इसलिये वह अन्न में ही स्थित है। जो मनुष्य यह जान लेता है कि मैं अन्न में प्रतिष्ठित हूं वह प्रतिष्ठावान् हो जाता है। अन्नवान् हो जाता है। प्रजावान् हो जाता है, पशुवान् भी। वह ब्रह्मतेज से सम्पन्न होकर महान् बनता है। कीर्ति से सम्पन्न होकर भी महान् बनता है।’’

आगे चलकर अष्टम अनुवाक में और भी निर्देश है—

अन्नं न परिचक्षीत । तद व्रतम ।......... अन्न बहु कुर्वीत तद् व्रतम् । ‘‘अन्न की अवहेलना न करे। यह व्रत है। अन्न को बहुत बढ़ावे। यह व्रत है।’’

आहार शुद्धौ सत्वशुद्धिः सत्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः स्मृतिलभ्ये सर्व ग्रन्थीनां विप्र मोक्ष स्तस्यै मृदित कषायाय तमसस्पादर्शयति भगवान् सनत्कुमारः ।

‘‘जब आहार शुद्ध होता है तब सत्व यानी अन्तःकरण शुद्ध होता है। अन्तःकरण शुद्ध होने पर विवेक बुद्धि ठीक काम करती है। उस विवेक से अज्ञानजन्य बन्धन-ग्रन्थियां खुलती हैं। फिर परम-तत्व का साक्षात्कार हो जाता है। यह ज्ञान नारद को भगवान् सनत्कुमार ने दिया।’’

कुधान्य खाकर साधना करने से साधन का इष्ट भी भ्रष्ट हो जाता है और उससे जिस प्रतिफल की आशा की गई थी वह प्रायः नहीं ही प्राप्त होता। आत्म विद्या के ज्ञाता सदा से यह कहते आये हैं कि आत्मोन्नति की साधना तक प्रक्रिया में आहार शुद्धि का अति महत्वपूर्ण स्थान है। यदि उस ओर ध्यान नहीं दिया जाय और प्राणायाम, प्रत्याहार, चेति, घोति आदि आगे के क्रिया-कलापों में उलझा जाए तो वह समय पूर्व की बात होगी। अक्षर ज्ञान सीखे बिना किसी बच्चे को ज्यामिति के कठिन प्रश्न हल करने को कहा जाय तो यह अनुपयुक्त ही होगा। आहार में मस्तिष्क और भाव स्तर को सात्विकता की दिशा में अग्रगामी बना सकने वाले तत्वों से संयुक्त न बनाया जा सके तो भूखे पेट फुटबाल खेलने जैसा उपहासास्पद होगा। आत्मिक प्रगति के लिये आहार शुद्धि पर पूरा-पूरा ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है।

रसायन शास्त्री मानव शरीर को एक रासायनिक पिंड मानते हैं। मुख की लार से लेकर, पाचन संस्थान में स्रवित होने वाले रसों और हारमोनों तक विविध स्राव रासायनिक प्रक्रिया ही उत्पन्न करते हैं। स्नायु संस्थान, तन्त्रिका जाल और कोशिका समूह में जहां विद्युत धाराएं अपना काम करती हैं वहां रासायनिक प्रक्रियाएं भी चलती रहती हैं। अन्न की रक्त के रूप में और रक्त को मांस मज्जा के रूप में बदलने का काम यही रासायनिक पद्धति करती है जिसके आधार पर जीवन-क्रम के अन्यान्य सारे क्रिया-कलाप निर्भर हैं। श्वास के माध्यम से ऑक्सीजन का शरीर में प्रवेश, रक्त में उसका घुलना और ऊर्जा उत्पन्न करना इसे रासायनिक प्रक्रिया के अतिरिक्त और क्या कहें।

औषधि शास्त्र मनुष्य की रुग्णता और बलिष्ठता के पीछे रासायनिक हलचलों का कारण ही मानता है। मल परीक्षा, मूत्र परीक्षा, रक्त परीक्षा आदि में यही तो देखा जाता है कि भीतर कौन सा रसायन घट या बढ़ रहा है। औषधियां क्या हैं? विशुद्ध रूप से रसायन हैं जो पदार्थ भीतर कम पड़ रहा है या बढ़ रहा है उसे सन्तुलित करने के लिये ही तो विभिन्न प्रकार के खनिज, क्षार, विटामिन, प्रोटीन आदि शरीर में पहुंचाये जाते हैं। ईंट चूने से बने मकान की टूट-फूट भी तो आखिर ईंट चूने से ही सुधारी जाती है। फिर शरीर में आई अव्यवस्था को व्यवस्थित करने के लिये रसायनों के अतिरिक्त और क्या माध्यम हो सकता है। इसी मान्यता पर समस्त औषधि शास्त्र का निर्माण हुआ है। अध्यात्म शास्त्र भी मानवी चेतना को परिष्कृत करने के लिये रसायनों का प्रयोग करता है। उसकी मान्यता है कि वस्तुओं में स्थूल, सूक्ष्म और कारण यही तीन शक्ति होती हैं। अन्न का स्थूल स्वरूप रक्त मांस बनता है। उसके सूक्ष्म रूप से—मस्तिष्क एवं विचार बनते हैं और कारण रूप भावनाओं को विनिर्मित करता है। यदि सड़ा, बुसा, विषाक्त अन्न होगा तो उससे पोषण तो दूर उलटे रोग उत्पन्न होंगे। यदि दुष्प्रवृत्तियों के साथ कमाया हुआ और दुष्ट मनुष्यों के हाथों बना, परोसा अन्न होगा तो उससे मस्तिष्क में दुर्बुद्धि उत्पन्न होगी। इसी प्रकार यदि उसे प्रसाद भावना से पकाया और औषधि भावना से खाया न गया होगा; बनाने और खिलाने वाले की स्नेहसिक्त सद्भावनाओं का समन्वय न होगा तो उससे खाने वाले का अन्तःकरण विकसित न होगा—उसकी भावनाओं में उच्च स्तरीय उभार न आयेगा। आहार केवल स्थूल दृष्टि से पौष्टिक एवं स्वल्प होना चाहिये वरन् उसके पीछे न्यायानुकूल उपार्जन और सद्भावनाओं के समन्वय का भी तारतम्य जुड़ा रहना चाहिये तभी वह अन्न मनुष्य के तीनों आवरणों का समुचित पोषण कर सकेगा और तभी उसे शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक दृष्टि से सर्वांगीण विकास का अवसर प्राप्त होगा।

आहार के साथ जुड़े हुये कुछ तत्व शरीर भूमिका से आगे बढ़कर मनः क्षेत्र को प्रभावित करते हैं इसका प्रमाण वे वस्तुएं देती हैं जिन्हें नशीली कहते हैं। नशा, पदार्थ का सूक्ष्म गुण है। वह रक्त मांस पर तो प्रभाव डालता ही है साथ ही मस्तिष्क को—मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार को भी प्रभावित करता है। नशे का प्रभाव होते ही मनुष्य का मस्तिष्क बेकाबू हो जाता है और वह कुछ का कुछ सोचने देखने, समझने लगता है। इतना ही नहीं—धीरे-धीरे उस नशेबाजी का प्रभाव सेवनकर्ता के गुण, कर्म, स्वभाव पर पड़ता चला जाता है और उसका चरित्र, दृष्टिकोण, स्वभाव आदि का स्तर निरन्तर गिरता चला जाता है। यह तथ्य बताते हैं कि आहार का प्रभाव केवल शरीर तक सीमित नहीं है यह केवल भूख बुझाने, स्वाद देने और रक्त मांस बनाने की स्थूल शारीरिक क्रिया तक सीमित नहीं रहता वरन् उसके सूक्ष्म प्रभाव मस्तिष्क को ही नहीं अन्तःकरण को भी प्रभावित करते हैं।
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