आदर्शों की अवहेलना करने की दिशा में बढ़ते हुए कदम, स्वेच्छाचारी निर्ममता को अपनाकर कैसे कुकृत्य कर सकते हैं ऐसे अगणित उदाहरणों में से इतिहास में एक पृष्ठ ‘स्वेनेवीन’ का भी है।
पन्द्रहवीं शताब्दी के अन्त में इंग्लैंड में एक अपराधी बहुत ही घृणित और भयंकर किस्म का समझा गया था और हर मंच से उसे घृणित और निन्द्रित किया गया था।
जेम्स प्रथम के शासनकाल में इंग्लैंड के एडिनवरा नगर से कुछ ही दूर एक गांव में स्वेनेवीन नामक लड़का जन्मा उसे बचपन से ही चोरी की आदत पड़ गई। पीछे उसे क्रूरता में आनन्द लेने की आदत पड़ गई। पक्षियों की गर्दन मरोड़ कर उनका खून पी जाना। अकेला दुकेला कहीं कोई कुत्ता, बिल्ली पाये तो उसे एक ही डण्डे में धराशायी कर देना, मेढ़कों को पैरों तले कुचल डालना, मधुमक्खियों के छत्ते जलाना उसे प्रिय मनोरंजन लगने लगे। चोरी चमारी से ही उसका गुजर होता। ऐसी ही प्रकृति की एक दैत्याकार औरत से उसकी पटरी जम गई और दोनों पति-पत्नी की तरह रह कर परस्पर सहयोग से एक से एक बड़े क्रूर कर्म करने लगे। उनकी आजीविका का यही स्रोत था।
पीछे इस दम्पत्ति को नृशंस हत्यायें करने और उनका आनन्द लेने के लिए एक निर्द्वन्द स्थान पसन्द आया, समुद्र तट का वीरान क्षेत्र गालोंबे उन्हें उपयुक्त लगा और वे वहीं एक गुफा में बस गये और पूरे पच्चीस वर्ष जमकर वहीं रहे। उस क्षेत्र से निकलने वाला कोई भी यात्री उनकी मार से बच न सका। इस चतुरता से वे बेखबर यात्री पर हमला करते कि बच निकलने की बात सोचने से पहले ही उसका दम निकल जाता। अकेले दुकेले ही नहीं आठ-दस आदमियों के काफिले भी इनके द्वारा सहज ही शिकार बना लिये जाते। बहकावा, विष, आक्रमण आदि ऐसे सभी उपायों में वे पारंगत हो गये थे, जिससे हत्या का प्रयोजन पूरा हो सके। मृतकों की लाशों से खिलवाड़ करना, फिर उन्हें समुद्र में बहा देना, उसने मिले हुए धन से गुजारा करना यही उनकी दिनचर्या बन गई थी।
उस क्षेत्र में यात्रा करने वाले प्रत्येक यात्री का गुम हो जाना, समुद्र की लहरों पर लाशों का तैरते पाया जाना, पुलिस के लिए सिर दर्द था। खोजबीन भी की जाती पर इन आदिवासी एवं विक्षिप्त जैसे लगने वालों पर किसी को सन्देह न होता। लम्बी खोज के बाद गुप्तचर पुलिस ने उन्हें यात्रियों का वध करते और गरम-गरम रक्त पीते आंखों से देख लिया तब उन्हें पकड़ा जा सका। वे पच्चीस वर्ष इस क्षेत्र में रहे इस बीच कोई तीन हजार नर हत्यायें उन्होंने कीं।
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अन्ततः यह पूरा परिवार पकड़ा गया। जिस मांद में वे रहते थे वहां सब कुछ हड्डियों का ही बना लेते थे। बर्तन, औजार, खिलौने वे हड्डियों से ही बना लेते थे। आदमी की चर्बी उनके लिए दीपक जलाने और पकवान बनाने का काम देती थी। हजारों पौण्ड की धनराशि—सोना, चांदी तथा कीमती आभूषण पुलिस ने छापा मार कर बरामद किये।
क्रुद्ध जनता ने इस पूरे परिवार के टुकड़े टुकड़े कर डाले और ऐडीनवरा की सड़कें रक्त से लाल हो गई। इन घृणित लोगों के इस प्रकार के वध पर किसी ने आंसू नहीं बहाये।
क्रूर कर्मों में आनन्द लेने की वृत्ति को पैशाचिकता कहा जाता है और वह जब-तब ऐसे लोगों में भी उभरती रहती है जिन्हें सभ्य या सुशिक्षित कहा जाता है।
जर्मनी के विषाणु शोधकर्त्ता फिजराफ को पुलिस ने पकड़ा और पाया कि वह छोटे बच्चों को चुरा कर उनको तड़फा-तड़फा कर मारने के कितने ही कुकृत्य कर चुका है। लोग आश्चर्य चकित रह गये जब उन्होंने यह सुना कि मानवतावादी विचारों का इतना अधिक समर्थन करने वाला व्यक्ति अकारण ऐसे क्रूर कर्म करने में संलग्न रहा है।
हिटलर के दांये हाथ मार्शल गोरिंग की क्रूरता प्रसिद्ध थी। इन दोनों ने मिलकर शत्रु पक्ष की सेना का जितना संहार रचा था उससे दस गुने अधिक जर्मन नागरिक-अपने ही देश वासी गाजर मूली की तरह काट कर फेंक दिये थे। जिन कारणों से इतने मनुष्यों के प्राण हरण किये गये, वे इतने बड़े नहीं थे जिनके लिए मौत आवश्यक ही होती। थोड़ा डरा धमका देने से भी लोग चुप हो सकते या बदल सकते थे, पर इससे उन क्रूर कर्माओं की अहंता तृप्त कैसे होती। उनके सामने भिन्न मत वालों को मजा चखाने के लिए गोली ही एक मात्र शामक उपाय था।
सामान्य नागरिकों को जिस प्रकार तड़फा-तड़फा कर इन लोगों ने मारा, उससे वे हत्याएं और भी अधिक वीमत्स हो जाती हैं। मारना ही ठहरा तो वह कार्य बन्दूक, बिजली आदि से सैकिण्डों में पूरा हो सकता था उसके लिए इतनी नृशंस पीड़ा देने की क्या जरूरत थी; पर नहीं, इससे कम में उनके भीतर का पिशाच तृप्त ही नहीं हो सका और लाखों हत्याएं इस प्रकार इतनी प्रताड़नाओं के साथ की गई, जिन्हें लिखना इसलिए अनुपयुक्त है कि पढ़ने वाले भयाक्रान्त हो जायेंगे।
इतिहास में अनेक नृशंस शासक हुए हैं, जिन्होंने निरीह लोगों का नृशंस रक्तपात करने में भरपूर मजा उठाया। वे लोग कसाई और जल्लाद की भूमिका निभाने में न जाने अपना क्या-क्या गौरव मानते रहे। मिस्र के पिरामिड, चीन की दीवार आदि बनाने में जितना चूना लगा होगा, उससे अधिक जीवित मनुष्यों की हड्डियां पिसी हैं। अमेरिका के गोरे अफ्रीकी कालों का न केवल शोषण करने में वरन् उनके शरीरों से रक्त की धाराएं उछालने में भी फव्वारों का आनन्द लेते रहे हैं। मध्य काल में कैदियों को सजा देने के विधान तो कितने ही थे, पर वह भिन्नता वध करने के समय बरती जाने वाली क्रूरता के स्तर का ही भान कराते हैं। जिसमें कैदी के प्राण जल्दी निकल जायं, वह अधिक दयापूर्ण और अधिक हलकी सजा है। जिससे जितनी देर तक जितना तड़फा-तड़फा कर, एक-एक अंग काटते हुए—अधिक चित्र विचित्र प्रकार की चीत्कारें निकलवाते हुए प्राण हरण किया जाय वह कड़ी सजा मानी जाती थी। मध्य कालीन दण्ड विधान वस्तुतः सामन्तों के हलके भारी मनोरंजन के ही साधन थे। इस बहाने किसी न किसी बहाने विनोद स्थल पर कोई न कोई अभागे नर-नारी, बाल वृद्ध पकड़ कर खड़े कर ही दिये जाते थे। आखिर दैनिक विनोद का आधार भी तो जारी रखा ही जाना था। इसलिए किसी न किसी को तो अपराधी बनाया ही जाता था। न जांच पड़ताल का किसी को समय था और न अपराधी को सफाई देने की सुविधा थी। शासक का मुंह ही अदालत था, जो निकल गया सो ठीक।
क्रूरता में आनन्द लेने की वृत्ति ‘सैडिज्म’ कहलाती है। प्राचीन काल में सरकार, समाज जैसे तत्व विकसित नहीं हुए थे, इसलिए उसकी तृप्ति समर्थ लोग बिना किसी प्रतिरोध के करते रहते थे। सामन्त लोग अपने सा डाकुओं के गिरोह बना कर रखते थे, और उन्हें लेकर किसी भी ठिकाने पर चढ़ाई कर देते थे। एक जगह संग्रहीत सम्पदा तो इस चढ़ाई में हाथ लगती ही थी, उस देश की प्रजा को भी पूरी तरह खसोट लिया जाता था, इस भगदड़ में सैनिक और असैनिक अपने हाथ खून से चाहे जितने गहरे रंग लेने के लिए स्वतंत्र रहते थे। अब वैसी सुविधा नहीं रही। पुलिस, जेल, कचहरी, कानून आदि का सिलसिला चल पड़ा है और समाज भी उस तरह की नृशंसता सहन नहीं करता, दूसरे मनुष्यों ने सभ्यता की चादर भी ओढ़ ली है। तीसरे ऐसे कृत्यों से प्रतिक्रिया, प्रतिशोध, प्रतिरोध आदि का भी झंझट हैं, इसलिए सस्ते और सरल तरीके ढूंढ़ लिये गये हैं। अब शोषण के परोक्ष तरीके सैकड़ों निकल आये हैं। ठगी, जालसाजी, फुसलाना फंसाना अब एक कला के रूप में विकसित हो गया है।
कैलीफोर्निया विश्व विद्यालय में मानव विज्ञान के प्राध्यापक डा. शेर वुड वांशवर्च का कथन है—आक्रमण एक छुतहा उन्माद है, जो एक की देखा-देखी दूसरे पर चढ़ता है। भीड़ में हिंसा फूट पड़े तो उस समूह के अन्य लोग भी अकारण गदर मचा देते हैं चाहे उसका परिणाम किसी के लिए कुछ भी क्यों न हो। विजय में उन्मत्त सेनाएं पिछले दिनों किस कदर निरीह प्रजा का उत्पीड़न करती रही हैं, इसका इतिहास बहुत ही कालिमापूर्ण है। युद्धों में सेना—सेना से ही लड़ती हो, ऐसी बात नहीं। लड़ाकुओं को जन विनाश में भी मजा आता है उन्माद का नशा उतर जाने पर सोचते हैं—आक्रमण से किसी का कुछ भला नहीं होता यहां तक कि आक्रमणकारी स्वयं भी बहुत घाटे में रहता है।
कैलीफोर्निया के स्टेनफोर्ड विश्व विद्यालय में मनोविज्ञान विभाग के अध्यक्ष डा. डेविड हाम्वुर्ग का कथन है—आक्रमण को सर्वत्र क्रियान्वित होते देखा जा रहा है, इस पर भी उसकी उपयोगिता सिद्ध नहीं हो सकी। अपराधों की रोकथाम में दण्ड नीति को कानूनी समर्थन मिल सकता है, पर लोग एक दूसरे पर चढ़ दौड़ने की नीति अपनायें तो, उसकी क्रिया प्रतिक्रिया का कुचक्र अमुक व्यक्तियों तक ही सीमित न रहेगा वरन् पूरी सामाजिक शान्ति को अपनी चपेट में ले लेगा।
एक विद्वान का कथन है—भूखे लोग भोजन मांगते हैं—थके लोग विश्राम चाहते हैं और जब पागलपन सवार होता है तो लोग लड़ने पर उतारू हो जाते हैं।
युद्ध कितने महंगे, कष्टकर, विनाशकारी एवं अगणित समस्याएं उत्पन्न करने वाले होते हैं यह अब अधिक अच्छी तरह समझा जाने लगा है। किसी जमाने में यह समझा जाता था कि शान्ति-रक्षा एवं आत्म-रक्षा के लिये युद्ध की तैयारी करना आवश्यक है, पर पदार्थ विज्ञान और मनोविज्ञान के गहन निष्कर्षों ने हमें इस नतीजे पर पहुंचाया है कि लड़ाई से कोई समस्या हल नहीं होती। द्वेष प्रतिशोध का कुचक्र परस्पर आक्रमण के दावघातों का ताना-बाना बुनता है, समयानुसार दोनों पक्ष एक दूसरे को अपनी-अपनी दुरभिसंधियों का निशाना बनाते हैं और उस श्रृंखला का अन्त तब होता है जब दोनों पक्ष लगभग अपनी क्षमता नष्ट कर चुके होते हैं। विजेता और पराजित दोनों ही लगभग समान रूप से क्षतिग्रस्त होते हैं। इसलिए उनकी निरर्थकता स्पष्ट है। अब विचार विनिमय, न्याय, तर्क, औचित्य आदि के आधार पर ऐसे निष्पक्ष व्यक्तियों द्वारा निर्णय कराने और उसे दोनों पक्षों द्वारा स्वीकार किये जाने को मान्यता देकर मतभेदों को दूर करने की बात ही उचित मानी जानी चाहिए।
लड़ाई अब दिन व दिन इतनी महंगी होती जा रही है कि उसका भार उठाना सामान्य स्तर के देशों या लोगों के लिए सम्भव नहीं रह गया है।
जूलियस सीजर के समय लड़ाई में एक सैनिक मारने के लिए 75 सेन्ट खर्च पड़ता था। पीछे नेपोलियन के जमाने में वह बढ़कर 21 डालर हो गया। दूसरे विश्व युद्ध में उसकी दर और बढ़ी और एक सैनिक मारने के लिए 50 हजार डालर खर्च करने पड़े। वियतनाम की लड़ाई में वह सात गुना बढ़ गया है। एक सैनिक मारने पर अमेरिका को 3,44,827 डालर खर्च करना पड़ा। दूसरे युद्ध में विश्व की अपार सम्पत्ति युद्ध के लिए खर्च हुई। छोटे से वियतनाम युद्ध में ही इतना धन लग गया जिससे उस छोटे से देश को जापान को बराबर समृद्ध और समुन्नत बनाया जा सकता था।
इतना सब होते हुए भी राष्ट्रीय स्तर पर बड़े युद्ध होते हैं और व्यक्तिगत स्तर पर अथवा दलबन्दी के आधार पर छोटे लड़ाई-झगड़े। इनके पीछे कुछ व्यक्तियों की ‘युयुत्सा’ ही काम कर रही होती है। वे तनिक से कारणों को लेकर युद्धोन्माद पैदा करते हैं और धन-जन की अपार हानि खड़ी कर देते हैं।
घरों में जरा-जरा सी बात पर विग्रह खड़े होते हैं। पुरुषों द्वारा स्त्रियों को पीटा जाना—स्त्रियों द्वारा बच्चों को पिटाई—पालतू पशुओं को धुन डालना, कीड़े-मकोड़ों को कुचल डालना, पक्षियों का अन्धाधुन्ध शिकार जैसे क्रूर कृत्य किसी को कोई बड़ा लाभ नहीं देते तो भी लोग उन्हें करते हैं और प्रसन्न होते हैं। यह क्रूरता एक मानसिक आवेश है जो धन लोभ के साथ मिलकर सामान्य लोगों को दुर्दान्त दस्यु बना देता है।
हत्याओं और आत्म-हत्याओं का दौर अब क्रमशः बढ़ता ही जाता है। मृत्यु दंडों, दुर्घटनाओं और युद्धों में जितने आदमी मरते हैं, उससे कहीं अधिक आत्म हत्याओं और हत्याओं से मरते हैं। इनके कारण ढूंढ़ने पर आश्चर्य होता है कि इतनी छोटी बात के लिए इतना बड़ा कुकृत्य कैसे बना पड़ा। ऐसे कारण तो अक्सर आते रहते हैं—सम्भवतः उस हत्या करने वाले के जीवन में भी न्यूनाधिक मात्रा में आते रहे होंगे। पहले जब अवसर चुका दिये गये तो इसी बार क्या आफत आ गई कि उतना बड़ा कुकृत्य बन पड़ा, जिसके लिए अनन्त पश्चात्ताप ही हाथ रह गया?
यह आवेश ही है जो मनुष्य के सिर पर कभी-कभी उन्माद की तरह हावी हो जाता है। उस समय उसे जो कुछ भी सूझ पड़े वह कर गुजरता है। इस आवेश का दबाव इतना असह्य हो जाता है कि वह उससे पीछा छुड़ाने के लिए हत्या—आत्म हत्या या और भी जो कुछ उसे सूझ पड़े वह कर गुजर सकता है। वस्तुतः वह प्रयास अपने ऊपर छाये तनाव से पीछा छुड़ाने के लिए किया गया भौंड़ा उपचार मात्र होता है; जिसे न्याय संहिता एवं समाज के अनुसार जघन्य अपराध ही गिना जायगा।
अपराधियों को दुष्ट, पापी समझा जाता है यह आरोप एक हद तक ही सही है। अपराध करने की क्रमबद्ध योजना बनाना और उसके लिए बुद्धिमत्ता पूर्ण ताना बाना बुनना भी कम नहीं होता। इसमें आवेश नहीं मनुष्य का भ्रष्ट जीवन दर्शन ही काम कर रहा होता है। उसे नीति, निष्ठा, आदर्शवादिता एवं मानवी शालीनता पर विश्वास नहीं होता। अपने आपको हेय, नीच, निकृष्ट, पतित स्थिति में रख लेने पर फिर संसार का कोई काम घृणित नहीं रह जाता। जिस प्रकार भी स्वार्थ सिद्ध हो वह सब कुछ उचित लगता है। बुद्धि को उचित अनुचित का ज्ञान न होता हो ऐसी बात नहीं है। पर बुद्धि सदा से आस्थाओं की अनुगामिनी रही है। विश्वासों के आधार पर जीवन की दिशा बनती है और उसी राह पर बुद्धि एवं क्रिया के कदम उठने लगते हैं। मूल में इच्छा शक्ति ही होती है जिसे श्रद्धा, भावना, आस्था के रूप में परिपक्व देखा जा सकता है। आस्थाएं यदि निष्कृष्ट हैं तो मनुष्य की मानसिक और शारीरिक गतिविधियां उसी स्तर के प्रयत्नों में संलग्न रहेंगी। अपराधी की हरकतें करते रहने वालों में से कितने ही अपना अन्तःकरण निकृष्ट स्तर का बना चुके होते हैं और वे उसी प्रकार का ताना-बाना बुनते रहते हैं। उनकी अपराध श्रृंखला में नई-नई कड़ियां जुड़ती जाती हैं।