मित्रभाव बढ़ाने की कला

दूसरों को अपने मत का बनाने का उपाय

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सबकी बुद्धि एक समान नहीं है। आत्म निरीक्षण करने की, अपने आपको जांचने की योग्यता सब किसी में नहीं होती। स्वर्गीय डान टॉमस कहा करते थे कि—‘‘इस दुनिया में नब्बे प्रतिशत आधे पागल रहते हैं’’ आधे पागल न भी हों, तो भी इतना तो निश्चय ही मानना पड़ेगा कि आत्मपरीक्षण करने और वस्तुस्थिति को समझने की योग्यता बहुत कम लोगों में होती है। वे भावावेश, कल्पना की उड़ान और स्वतंत्र धारण के अनुसार अपने-अपने मत निर्धारित करते हैं, इस मत निर्माण में विचारशीलता की नहीं, वरन् अंध विश्वास की प्रधानता होती है। जहां विचारशीलता की प्रधानता है, वहां गलती समझने और स्वीकार करने की क्षमता होगी, किंतु ऐसे सौभाग्यशाली स्त्री-पुरुष अभी इस भूतल में उंगलियों पर गिनने लायक हैं, अधिकांश तो असंस्कृत मस्तिष्क के ही पड़े हुए हैं, व्यवहार उन्हीं से पड़ता है। ऐसी दशा में नीति और कुशलता से काम न लिया जाए तो अच्छे परिणाम की आशा नहीं की जा सकती।

जब आपको किसी की गलती बतानी है, तो पहले उसके साथ सहानुभूति प्रकट करिए। जिस स्थिति में वह गलती हुई, उस स्थिति की पेचीदगी के कारण वह वैसा करने को मजबूर हुआ ऐसा प्रकट करिए, क्योंकि यदि जान-बूझकर भी उसने गलती की है, तो वैसा कहकर उसकी लोक-लज्जा को नष्ट करना उचित नहीं, क्योंकि अपने को मूर्ख सिद्ध न होने देने के लिए वह दुराग्रह करेगा और गलती को गलती ही साबित न होने देगा, उलटा दुराग्रहपूर्वक उसका समर्थन करेगा। लड़-झगड़कर आप अधिक से अधिक किसी को चुप कर सकते हैं, पर इससे वह उस बात को मानने के लिए मजबूर न हो जाएगा, वरन् अपने अपमान का बदला लेने के लिए उसी पर अड़ बैठेगा।

उस समय की परिस्थिति से मजबूर होकर, दबाव से या अन्य कारणवश वैसा करना पड़ा होगा, ऐसा कहने से गलती को स्वीकार करना सरल हो जाता है। ‘गलती बताकर अपनी बुद्धिमानी साबित की जा रही है’ ऐसी आशंका भी उसके मन में मत उपजने दीजिए। जिस प्रकार की भूल उस आदमी से हुई है वैसी ही अन्य लोग भी करते हैं या कर चुके हैं, ऐसे उदाहरण बताने से गलती स्वीकार करने में उसे विशेष हिचकिचाहट नहीं होती। यदि आपसे स्वयं वैसी ही या उससे मिलती-जुलती कोई भूल हुई है, तो उसका उदाहरण देकर सुनने वाले को निश्चिंत कर सकते हैं कि उसको नीचा साबित करने के लिए वह बात नहीं कही जा रही है। आम लोगों के सामने इस प्रकार के वार्तालाप करने की अपेक्षा एकांत में करना अधिक उपयोगी है, क्योंकि वहां प्रतिष्ठा घटने की अधिक आशंका उसे नहीं रहती और सच्चाई की तह तक पहुंचने में किसी हद तक मार्ग सुगम हो जाता है।

जिसने गलती की है उसे अपराधी या पापी कहा जा सकता है, पर ऐसा कहना हानिकर है, क्योंकि इससे उसके तामस स्वभावों को प्रोत्साहन मिलेगा। जब अपराधी, पापी, दुष्ट, दुरात्मा, मूर्ख, नालायक उसे साबित किया जा रहा है, तो हो सकता है कि अपने सद्गुणों और सात्त्विक स्वभावों की संभावना पर अविश्वास करने लगे और निर्लज्जतापूर्वक दुर्बुद्धिग्रस्त लोगों की श्रेणी में खड़ा होकर अधिक नीचता पर उतर आये। इसलिए गलती को भूल के नाम से ही पुकारिये, पाप या अपराध का कण कटु नाम प्रयोग मत कीजिए। भूल को सुधारना आसान बताइये, त्रुटिरहित जीवन की महत्ता बताइए और उसे फिर से सुधारने के लिए प्रोत्साहित कीजिए। जिसने गलती की है वह अपने को पवित्रता से रहित और सुधरने में असमर्थ समझने लगता है, इस धारणा को धैर्य बंधाकर, गलती को छोटी बताकर, प्रोत्साहन देकर, जैसे भी बन सके दूर करना चाहिए। कटु वचन कहकर किसी का दिल तोड़ देना आसान है, ऐसा तो एक बेवकूफ भी कर सकता है। आपका कार्यक्रम ऊंचा होना चाहिए, दिल बढ़ाने का, सही मार्ग पर लाने का प्रयास कठिन है। आपकी बुद्धि को यह चुनौती दी जाती है कि वह कठिन प्रयास द्वारा उपयोगी कार्य संपादन करके अपनी महत्ता साबित करे।

किसी को हुक्म मत दीजिए कि तुम यह करो, तुम वह करो, हुक्म देने का तरीका सेना में अच्छा समझा जाता है, परंतु समाजिक जीवन को हम लोग सैनिकों की तरह नहीं, वरन् सहयोग के साथ, भाई-चारे के आधार पर व्यतीत करते हैं। इसमें हुक्म देने की पद्धति कारगर नहीं होती। वेतनभोगी नौकर भी यह चाहता है कि मुझे केवल मशीन का जड़ पुर्जा न माना जाए। जिस कार्य में अपना विचार समन्वित नहीं होता, जिस कार्य में अपनी निजी दिलचस्पी नहीं जोड़ता, वह कार्य आधे मन करने से, बेगार की तरह किया जाता है। ‘पराया-जराया’ यह कहावत मशहूर है। दूसरे के काम को ऐसे किया जाता है, मानो जराया हुआ हो; जला दिया गया हो। साधारणतः हुक्म बजाने में अपनी लघुता साबित होती है और लघुता, परवशता के विरुद्ध विद्रोह की इच्छा उठा करती है। आपने देखा होगा कि छोटे बालक जिन्हें आज्ञापालन से हानि का भय नहीं होता अक्सर हुकुम उदूली किया करते हैं, उन्हें यह पसंद नहीं होता कि पराधीन की तरह आज्ञापालन के लिए मजबूर होना पड़े। बड़ा होने पर मनुष्य लोभ या भय के कारण हुक्म बजाता है, पर आंतरिक इच्छा उसकी वैसी नहीं होती। विश्व में आजकल स्वतंत्रता की तीव्र मांग है। स्वतंत्रता के लिए मानव जाति घोर संघर्ष कर रही है, बड़ी-बड़ी कुर्बानी कर रही है, अध्यात्मवादी भी मुक्ति चाहते हैं—मुक्ति या स्वतंत्रता एक ही वस्तु के दो नाम हैं। सब कोई पराधीनता से छुटकारा पाना चाहते हैं, उसे कतई पसंद नहीं करते।

आप अपना हुक्म देने की भाषा में सुधार कीजिए। जो कुछ कहना हो प्रभाव के रूप में कहिए, सलाह देने के रूप में कहिए, फैसला उसे स्वयं करने दीजिए। अपनी बात को इस तरह रखिए, जिससे निर्णय खुद उसे ही करना पड़े और वह निर्णय वही हो जो आप चाहते हैं। ‘मुझे पानी पिलाओ’ ऐसा आज्ञा सूचक वाक्य कहने की अपेक्षा ऐसा कहिए कि ‘‘क्या आप मुझे पानी पिला सकते हैं?’’ या ‘‘क्या आप मुझे पानी पिलाने की कृपा कर सकते हैं?’’ यह वाक्य प्रस्ताव के रूप में है। निश्चय ही इसका अच्छा परिणाम निकलेगा। वह उत्तर देगा—‘‘हां, पिला सकता हूं, लीजिए अभी पिलाता हूं।’’ प्रस्ताव पर निर्णय की छाप उसने खुद लगाई है, इसलिए निश्चय ही अपनी बात को पूरा करने के लिए वह उस काम को शीघ्र और अच्छे ढंग से करेगा। यदि हुक्म की तरह वह बात कही होती, तो अनिच्छापूर्वक वह काम होता, विलंब से होता, दिलचस्पी के अभाव में उसका सौंदर्य नष्ट हो जाता। इसलिए आप अपनी बात को हुक्म की भाषा में नहीं, प्रस्ताव की तरह दूसरों के सन्मुख उपस्थित किया कीजिए, निर्णय करने का अवसर उसे ही दिया कीजिए। यदि निर्णय आपकी रुचि का न हो तो उसमें संशोधन कीजिए, परंतु उसमें भी प्रस्ताव की ही भाषा काम में लाइये, अंततः उससे वही निर्णय करा लीजिये, जो बात आप चाहते हैं। इस तरीके में आज्ञा देने की अपेक्षा कुछ शब्दों का अधिक उच्चारण करना पड़ेगा, पर स्मरण रखिए, यह कष्ट आपके लिए कई गुना सुफल उत्पन्न करेगा।

आप जिस कार्यक्रम की ओर दूसरों को खींचना चाहते हैं, उसकी तीव्र चाह उत्पन्न करिये। उसे यह बताइये कि नवीन कार्य पुराने कार्य की अपेक्षा अधिक लाभदायक है। ‘इंद्रिय असंयम बुरा है, इतना कह देने मात्र से काम न चलेगा। यदि किसी को ब्रह्मचर्य के पथ पर अग्रसर करना चाहते हैं, तो स्वस्थ और सुंदर ब्रह्मचारियों का उदाहरण सामने उपस्थित करिये और स्पर्धा उत्पन्न कीजिए कि वह भी ऐसा ही भरे हुए गुलाब से चेहरे को सौंदर्य प्राप्त करे, शरीर को सुडौल, बलवान् और निरोग बनावें। इन लाभों की ओर जितना ही आकर्षित किया जा सकता है, उतना ही वह ब्रह्मचर्य पर दृढ़तापूर्वक आरूढ़ हो जायेगा। काम करना कोई पसंद नहीं करता, सब चाहते हैं; बैठे-ठाले बिना मेहनत किये चैन से गुजरती रहे। परिश्रम का अप्रिय काम करने के लिए तब प्रेरणा मिलती है, जब उससे कच्चा फल मिलने की आशा होती है। जोखिम से भरे हुए, खतरनाक और दुस्साध्य कामों का भार विशेष लाभ की आशा से उठाया जाता है। इसलिए आप जिस कार्य के लिए दूसरों को तैयार करना चाहते हैं, उसे समझाइये कि इसमें कौन-कौन लाभ मिल सकते हैं? निकृष्ट कोटि के चोरी, व्यभिचार, ठगी आदि कामों के लाभ बहुत ही निकृष्ट और प्रत्यक्ष रूप से हानिकर होते हैं, इसलिए उनकी ओर लोग आसानी से ढल जाते हैं। उच्च कोटि के, सात्त्विक, ईमानदारी, सच्चाई, प्रेम, न्याययुक्त कार्यों के लाभ उतने निकट या प्रत्यक्ष नहीं होते तथा उनमें श्रम भी अधिक पड़ता है। यदि दूसरों को इस प्रकार के कष्टसाध्य कार्यों में प्रवृत्त करना है, तो उन कार्यों के द्वारा प्राप्त होने वाले सुखों, लाभों और उत्तम परिणामों को विस्तारपूर्वक वर्णन करिये। उदाहरण, अनुभव, तर्क और परिणाम द्वारा इन लाभों को इस प्रकार उपस्थित करिये कि सिनेमा के चित्र की तरह वह सब बातें उसके नेत्रों में घूम जायें, हृदय के अंतःपटल पर भली-भांति अंकित हो जायें।

तीव्र चाह उत्पन्न करना, किसी कार्य की ओर आकर्षित करने का सबसे प्रभावशाली तरीका है। अमुक कार्य भला है, अमुक बुरा है, अमुक पुण्य है, अमुक पाप है, इतना कह देने मात्र से कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। साधारण बुद्धि के मनुष्य को भय और लोभ इन दो ही तत्त्वों के कारण कार्य करने की प्रेरणा मिलती है। लाभ के लोभ से प्रवृत्ति होती है और भय से निवृत्ति होती है। जिस काम को करने से दूसरे को रोकना चाहते हैं, उसके करने में जो भय, आपत्ति, हानि, अनिष्ट उत्पन्न होने की आशंका है, उसे भली प्रकार हृदयंगम कराइये। वेश्यागमन की ओर जिसकी प्रवृत्ति है उसे उपदंश होने के भय से भली-भांति भयभीत कर देने पर उस कुकर्म से रोका जा सकता है। उपदंशजनित कष्ट, बदनामी, क्रियाशीलता का अंत, भोगों से बिल्कुल वंचित हो जाना, धन नाश आदि, यह सब भय और आशंकाएं उस व्यक्ति के मन में बिठाई जा सकें, तो निस्संदेह उसका कुमार्ग गमन रुक जाएगा। दंड देकर, प्रतिबंध लगाकर या बलपूर्वक रोकने की अपेक्षा यह उत्तम है कि जिस मार्ग से किसी को रोकना चाहते हैं उसके मन में तत्संबंधी हानि और आशंकाओं का मूर्तिमान् चित्र खड़ा करें और उसे स्वयं ही वह कार्य बंद करने का निर्णय करने दें। किसी को एक कार्य से हटाकर दूसरे कार्य पर लगाने का प्रश्न यदि कभी आपके सामने आये, तो नये काम के लाभों का विषद वर्णन करके उस ओर दिलचस्पी पैदा कर तथा पुराने कार्य की हानियों का मूर्तिमान् चित्र बनाकर भयभीत करने का प्रयत्न किया कीजिये। जो लोग विवेक और विनय से नहीं समझते, उनकी चेतना अभी निर्बल है, उस पर लोभ एवं भय द्वारा प्रभाव डालना ही संभव है। पशु को घास दिखाकर या लाठी का भय दिखाकर ही कहीं ले जाया जा सकता है, अल्प विवेक वाले लोगों को आप भी इन्हीं साधनों से प्रभावित करके उत्तम और उचित मार्ग पर ले चलने का प्रयत्न किया कीजिए।

मानव मनोवृत्तियों के सुयोग्य अन्वेषक डेल कारनेगी ने एक बहुत ही उत्तम शिक्षा दी है। वे कहते हैं—‘‘यदि आप मधु इकट्ठा करना चाहते हैं, तो मक्खियों के छत्ते को ठोकर मत मारिए।’’ जिन लोगों से संबंध जारी रखे बिना काम नहीं चल सकता। जिनके द्वारा आपकी आजीविका चलती है, ऐसे संबंधी तथा ग्राहकों को अकारण क्रुद्ध मत कीजिए। एकांत में अत्यंत शांतिपूर्वक, हानि-लाभ का दिग्दर्शन कराते हुए गलती करने वाले को आसानी से समझाया जा सकता है, इसमें सुधरने की बहुत कुछ संभावना रहती है। इसके विपरीत सबके सामने हुई आलोचना करने से बुराइयों में सुधार होना तो दूर उलटे बैर-विरोध तथा दुराग्रह की जड़ जम जाती है।

आप जो कार्य करने के लिए दूसरों से कहें उसे आसान बताइये। लोगों को यह विश्वास कराइये कि इसमें अधिक सरलता रहेगी और कठिनाई कम हो जाएगी। अपने कार्यक्रम पर किसी को सहमत करने के लिए उसे यह विश्वास कराना आवश्यक है कि यह असंभव, दुसाध्य बिरले शूरवीरों के करने योग्य नहीं, वरन् बहुत ही सरल, पूर्णतया संभव और साधारण मनुष्य से पूरा हो सकने योग्य है। अनेक व्यक्ति उस मार्ग पर चल चुके हैं और चल रहे हैं, उन्हें कोई ऐसी कठिनाई नहीं उठानी पड़ी, जो असाधारण हो। स्मरण रखिए, सरलता को टटोलकर उधर ही लोग झुकते हैं। आप अपने कार्य की आसानी प्रकट कीजिए और बताइये कि वह बिना विशेष झंझट के स्वल्प श्रम, स्वल्पकाल और स्वल्प-साधनों से पूरा हो सकता है। यदि आप पहले कार्य को ‘तलवार की धार पर चलना’ बतायेंगे, उसमें आने वाली विघ्न-बाधाओं को दुस्तर बतायेंगे, तो आरंभ में ही हिम्मत टूट जाने के कारण उस पथ पर चलने के लिए कोई मनुष्य मुश्किल से ही तैयार होगा।

स्वयं कम बोलिए और दूसरों को अधिक बोलने दीजिए। आप एक घंटे अपनी बात कहकर किसी का मन उतना अपनी ओर आकर्षित नहीं कर सकते, जितना कि आधा घंटा उसे अपनी बात कहने देकर कर सकते हैं। अच्छा वक्ता होने का प्रधान लक्षण यह है कि अच्छा श्रोता बनना चाहिए।

आप अपने को प्रशंसित बना लीजिए। दूसरों में जिन सद्गुणों को देखें, जिन सद्वृत्तियों का विकसित होता हुआ पावें उन्हें और अधिक उन्नत करने के लिए प्रोत्साहित करें। मुरझाकर सूख जाने की तैयारी में खड़े हुए पौधे जल से सिंचित होते ही दूसरे ढंग के हो जाते हैं। उनकी गतिविधि तुरंत ही बदल जाती है। कुम्हलाये हुए पत्ते भी सतेज दिखाई पड़ने लगते हैं। प्रशंसा का जल ऐसा ही जीवनदाता है। सूखे हुए अंतःकरणों में वह आशा और उत्साह का संचार करता है। वर्षाऋतु में पौधे बल्लियों बढ़ जाते हैं, मेघों का स्नेह बूंद पीकर वनस्पति जगत् का रोम-रोम तरंगित होने लगता है। वर्षाऋतु में मखमल की-सी हरियाली चारों ओर छा जाती है, ऊसर भूमि भी सुशोभित दीखती है। चट्टानों का मैल धुल जाने से उनकी स्वच्छता निखर जाती है। आप यदि प्रशंसा द्वारा दूसरों के मुरझाये हुए हृदयों को सींचना आरंभ कर दें, कानों की राह आत्माओं को अमृत पिलाये, तो ठीक वैसा ही कार्य करेंगे जैसा कि परोपकारी मेघ किया करते हैं। तवे के समान जलता हुआ भूतल मेघमाला का स्नेह पीकर तृप्त होता है और वनस्पतियों का हरा-भरा आशीर्वाद उगलता है। परोपकार और आशीर्वाद के सम्मिश्रण से बड़ी ही शांतिदायक हरियाली उपज पड़ती है और विश्व की असाधारण सौंदर्य वृद्धि करती है। क्या आपको यह कार्य पद्धति पसंद है? यदि है तो अपने चारों ओर बिखरे पड़े हुए असंख्य, अतृप्त और अविकसित हृदयों को अपनी प्रोत्साहनमयि मधुर वाणी से सींचना आरंभ कर दीजिए, वे हरे-भरे स्वच्छ उत्फुल्ल हो जायें। उनके सद्गुण, वर्षा की वनस्पति की तरह तीव्रगति से बढ़ने और फैलने-फूटने लगें।

यह बहुत ही उच्च कोटि का पुनीत धर्म कार्य है। अंतःकरण की चिर तृषा इससे तप्त होती है, उन्नति के रुद्ध स्रोत खुलते हैं, अविकसित सद्वृत्तियां प्रस्फुटित होती हैं, छिपी हुई योग्यताएं जाग्रत होती हैं और निराशा के अंधकार में आशा का दीपक एक बार पुनः जगमगाने लगता है। निंदा और भर्त्सना ने अनेक उन्नतमना लोगों को निराश, कायर, भयभीत और निकम्मा बना दिया। हम ऐसे लोगों को जानते हैं, जो व्यक्तिगत रूप से उन्नतिशील थे, उनमें अच्छी योग्यताओं के अंकुर मौजूद थे, पर उनका संपर्क बड़े दुर्बुद्धिग्रस्त संरक्षकों के साथ में रहा। जरा-जरा-सी बात पर झिड़कना, मूर्ख बताना, नालायकी साबित करना, अयोग्यता का फतवा देना—यह ऐसे कार्य हैं जिनके द्वारा माता-पिता अपने बालकों की, मालिक अपने नौकरों की, गुरुजन अपने शिष्यों की आशा कली को बेदर्दी के साथ कुचल डालते हैं। निरंतर भर्त्सना करते रहने से न तो कुछ सुधार होता है और न कोई उन्नति होती है, केवल इतना ही परिणाम निकलता है कि वह अपने बारे में निराशाजनक भावनाएं धारण करता है, अपने को अयोग्य मानने लगता है, उसका दिल बैठ जाता है और धीरे-धीरे निर्लज्ज होकर उसी अवनति के ढांचे में ढलता जाता है।

जिस व्यक्ति में दूसरों को निराश करने की, जरा-जरा से दोषों को बढ़ा-चढ़ाकर कहने की, झिड़कने की, निंदा करने की, निरुत्साहित करने की आदत है—वह सचमुच बड़ा भयंकर है। व्याघ्र आदि हिंसक-जंतु जिस पर आक्रमण करते हैं, उसे क्षण भर में फाड़कर खा जाते हैं, परंतु गिराने वाले निंदा सूचक शब्दों का प्रयोग करने का जिसे अभ्यास हो गया है, उसकी भयंकरता व्याघ्र से अधिक है। सूख मसान बालकों का कलेजा चूसकर उसे ठठरी बना देता है। इस प्रकार निंदा सूचक वाक्य प्रहारों से भीतर ही भीतर दूसरे का कलेजा खाली हो जाता है। यदि आप प्रशंसा करने और प्रोत्साहन देने की नीति को अपना लेते हैं, तो इसके द्वारा अनेकों व्यक्तियों को ऊंचा उठाने में, आगे बढ़ाने में, सहायक होते हैं। हो सकता है कि कोई क्रियाशील व्यक्ति आपके द्वारा प्रोत्साहन पाकर उन्नति के प्रकाशपूर्ण पथ पर चल निकले और एक दिन ऊंची चोटी पर जा पहुंचे। क्या आपको उसका श्रेय न मिलेगा? क्या उस महान् कर्म साधना में आप पुण्य के भागी न होंगे?

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