मित्रभाव बढ़ाने की कला

दूसरों को अपना बनाने की कला

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एक महापुरुष का कथन है—‘‘मुझे बोलने दो, मैं विश्व को विजय कर लूंगा।’’ सचमुच ‘वाणी, से अधिक कारगर हथियार और कोई इस दुनिया में नहीं है। जिस आदमी में ठीक तरह उचित रीति से बातचीत करने की क्षमता है, समझिये कि उसके पास एक मूल्यवान् खजाना है। दूसरों पर प्रभाव डालने का प्रधान साधन वाणी है। देन-लेन, व्यवहार, आचरण, विद्वता, योग्यता आदि का प्रभाव डालने के लिए समय की, अवसर की, क्रियात्मक प्रयत्न की आवश्यकता होती है, पर वार्तालाप एक ऐसा उपाय है, जिसके द्वारा बहुत ही स्वल्प समय में दूसरों को प्रभावित किया जा सकता है।

बातचीत करने की कला में जो निपुण है, वह असाधारण संपत्तिवान् हैं। योग्यता का परिचय वाणी के द्वारा प्राप्त होता है। जिस व्यक्ति का विशेष परिचय मालूम नहीं है, उससे कुछ देर बातचीत करने के उपरांत जाना जा सकता है कि वह कैसे आचरण का है, कैसे विचार रखता है, कितना योग्य है, कितना ज्ञान और अनुभव रखता है। जो दूसरों के ऊपर अपनी योग्यता प्रकट करता है, ऐसे प्रमुख मनुष्य को बहुत ही सावधानी के साथ बरता जाना चाहिए। कई ऐसे सुयोग्य व्यक्तियों को हम जानते हैं, जो परीक्षा करने पर उत्तम कोटि का मस्तिष्क, उच्च हृदय और दृढ़ चरित्र वाले साबित होंगे, परंतु उनमें बातचीत करने का ढंग न होने के कारण सर्व साधारण में मूर्ख समझे जाते हैं और उपेक्षणीय दृष्टि से देखे जाते हैं। उनकी योग्यताओं को जानते हुए भी लोग उनसे कुछ लाभ उठाने की इच्छा नहीं करते। कारण यह कि बातचीत के छिछोरपन से लोग झुंझला जाते हैं और उनसे दूर-दूर बचते रहते हैं।

अनेक व्यक्ति ऐसे भी पाये जाते हैं, जो इतने योग्य नहीं होते जितना कि सब लोग उन्हें समझते हैं। वाणी की कुशलता के द्वारा वे लोग दूसरों के मन पर अपनी ऐसी छाप बिठाते हैं कि सुनने वाले मुग्ध हो जाते हैं। कई बार योग्यता रखने वाले लोग असफल रह जाते हैं और छोटी कोटि के लोग सफल हो जाते हैं। प्रकट करने के साधन ठीक हों तो कम योग्यता को ही भली प्रकार प्रदर्शित किया जा सकता है और उनके द्वारा बहुत काम निकाला जा सकता है। विद्युत् विज्ञान के आचार्य जे0पी0 राव का कथन है कि उत्पादन केंद्र में जितनी बिजली उत्पन्न होती है, उसका दो-तिहाई भाग बिना उपयोग के ही बर्बाद हो जाता है। पावर हाउस में उत्पन्न हुई बिजली का एक-तिहाई भाग ही काम में आता है। वे कहते हैं कि अभी तक जो यंत्र बने हैं, वे अधूरे हैं; इसलिए आगे ऐसे यंत्रों का आविष्कार होना चाहिए, जो उत्पादित बिजली की बर्बादी न होने दें, जिस दिन इस प्रकार के यंत्र तैयार हो जाएंगे, तब बिजलीघरों की शक्ति तिगुनी बढ़ जाएगी, खर्च तिहाई रह जाएगा।

करीब-करीब ऐसी ही बर्बादी मानवीय योग्यताओं की होती है। अधूरे विद्युत् यंत्रों के कारण दो-तिहाई बिजली नष्ट हो जाती है, बातचीत की कला से अनभिज्ञ होने के कारण दो-तिहाई से भी अधिक योग्यताएं निकम्मी पड़ रहती हैं। यदि इस विद्या की जानकारी हो तो तिगुना कार्य संपादन किया जा सकता है। जितनी सफलता आप प्राप्त करते हैं, उतनी तो तिहाई योग्यता रखने वाला भी प्राप्त कर सकता है। आप अपनी शक्तियां बढ़ाने के लिए घोर परिश्रम करें, किंतु उनसे लाभ उठाने में असमर्थ रहें, तो वह उपार्जन किस काम का? उचित यह है कि जितना कुछ पास में है उसका ठीक ढंग से उपयोग किया जाए। जिन्हें मूर्ख कहा जाता है या मूर्ख समझा जाता है वास्तव में वे उतने अयोग्य नहीं, जितना कि ख्याल किया जाता है। उनमें भी बहुत अंशों तक बुद्धिमत्ता होती है, परंतु जिस अभाव के कारण उन्हें अपमानित होना पड़ता है—वह अभाव है—‘‘बातचीत की कला से परिचित न होना।’’

मनोगत भावों को भले प्रकार, उचित रीति से प्रकट कर सकने की योग्यता एक ऐसा आवश्यकीय गुण है, जिसके बिना जीवन विकास में भारी बाधा उपस्थित होती है। आपके मन में क्या विचार हैं, क्या इच्छा करते हैं, क्या सम्मति रखते हैं, जब तक यह प्रकट न हो, तब तक किसी को क्या पता चलेगा? मन ही मन कुड़कुड़ाने से दूसरों के संबंध में भली-बुरी कल्पनाएं करने से कुछ फायदा नहीं, आपको जो कठिनाई है, जो शिकायत है, जो संदेह है, उसे स्पष्ट रूप से कह दीजिए। जो सुधार या परिवर्तन चाहते हैं उसे भी प्रकट कर दीजिए। इस प्रकार अपनी विचारधारा को जब दूसरों के सामने रखेंगे और अपने कथन का औचित्य साबित करेंगे, तो मनोनुकूल सुधार हो जाने की बहुत कुछ आशा है।

भ्रम का, गलतफहमी का, सबसे बड़ा कारण यह है कि झूठे संकोच की झिझक के कारण लोग अपने भावों को प्रकट नहीं करते, इसलिए दूसरा यह समझता है कि आपकी कोई कठिनाई या असुविधा नहीं है, जब तक कहा न जाए तब तक दूसरा व्यक्ति कैसे जान लेगा कि आप क्या सोचते हैं और क्या चाहते हैं? अप्रत्यक्ष रूप से, सांकेतिक भाषा में विचारों को जाहिर करना केवल भावुक और संवेदनाशील लोगों पर प्रभाव डालता है, साधारण कोटि के हृदयों पर उसका बहुत ही कम असर होता है, अपनी निजी गुत्थियों में उलझे रहने के कारण, दूसरों की सांकेतिक भाषा को समझने में वे या तो समर्थ नहीं होते या फिर थोड़ा ध्यान देकर फिर उसे भूल जाते हैं। अक्सर बहुत जरूरी कामों की ओर पहले ध्यान दिया जाता है और कम जरूरी कामों को पीछे के लिए डाल दिया जाता है। संभव है आपकी कठिनाई या इच्छा को कम जरूरी समझकर पीछे डाला जाता हो, फिर कभी के लिए टाला जाता हो, यदि सांकेतिक भाषा में मनोभाव प्रकट करने से काम चलता न दिखाई पड़े, तो अपनी बात को स्पष्ट रूप से नम्र भाषा में कह दीजिए, उसे भीतर ही भीतर दबाये रहकर अपने को अधिक कठिनाई में मत डालते जाइए।

संकोच उन बातों के कहने में होता है, जिनमें दूसरों की कुछ हानि की या अपने को किसी लाभ की संभावना होती है। ऐसे प्रस्ताव को रखते हुए झिझक इसलिए होती है कि अपनी उदारता और सहनशीलता को धब्बा लगेगा, नेकनीयती पर आक्षेप किया जाएगा या क्रोध का भाजन बनना पड़ेगा। यदि आपका पक्ष उचित, सच्चा और न्यायपूर्ण है, तो इन कारणों से झिझकने की कोई आवश्यकता नहीं है, हां, अनीतियुक्त मांग कर रहे हों तो बात दूसरी है। यदि अनुचित या अन्याययुक्त आपकी मांग नहीं है, तो अधिकारों की रक्षा के लिए निर्भयतापूर्वक अपनी मांग को प्रकट करना चाहिए। हर मनुष्य का पुनीत कर्तव्य है कि मानवता के अधिकारों को प्राप्त करें, और उनकी रक्षा करें केवल व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए नहीं, वरन् इसलिए भी कि अपहरण और कायरता, इन दोनों घातक तत्त्वों का अंत हो।

षड्रिपु आध्यात्मिक संपत्तियों को दबाते चले आते हैं, असुरत्व बढ़ रहा है और सात्त्विकता न्यून होती जा रही है। आत्मा क्लेश पा रही है और शैतानियत का शासन प्रबल होता जाता है, क्या आप इस आध्यात्मिक अन्याय को सहन ही करते रहेंगे? यदि करते रहेंगे, तो निस्संदेह पतन के गहरे गर्त में जा गिरेंगे? ईश्वर ने सद्गुणों की, सात्त्विक वृत्तियों की, सद्भावनाओं की, अमानत आपको दी है और आगाह किया है कि यह पूंजी सुरक्षित रूप से अपने पास रहनी चाहिए यदि उस अमानत की रक्षा न की जा सकी और चोरों ने, पापियों ने उस पर कब्जा कर लिया तो ईश्वर के सम्मुख जवाबदेह होना पड़ेगा, अपराधी बनना पड़ेगा।

ठीक इसी तरह बाह्य जगत् में मानवीय अधिकारों की अमानत ईश्वर ने आपके सुपुर्द की है। इसको अनीतिपूर्वक किसी को मन छीनने दीजिए। गौ का दान कसाई को नहीं, वरन् ब्राह्मण को होना चाहिए। अपने जन्म सिद्धि अधिकारों को यदि बलात् छिनने देते हैं, तो यह गौ का कसाई को दान करना हुआ। यदि स्वेच्छापूर्वक सत्कार्यों में अपने अधिकारों का त्याग करते हैं, तो वह अपरिग्रह है, त्याग है, तप है। आत्मा, विश्वात्मा का एक अंश है। एक अंश में जो नीति या अनीति की वृद्धि होती है, वह संपूर्ण विश्वात्मा में पाप-पुण्य को बढ़ाती है, यदि आप संसार में पुण्य की, सदाशयता की, समानता की, वृद्धि चाहते हैं, तो इसका आरंभ अपने ऊपर से ही कीजिए। अपने अधिकारों की रक्षा के लिए जी तोड़ कोशिश करिए, इसके मार्ग में जो झूठा संकोच, बाधा उपस्थित करता है, उसे साहसपूर्वक हटा दीजिए।

दबंग रीति से, निर्भयतापूर्वक खुले मस्तिष्क से बोलने का अभ्यास करिए। सच्ची और खरी बात कहने की आदत डालिए। जहां बोलने की जरूरत है, वहां अनावश्यक चुप्पी मत साधिए, ईश्वर ने वाणी का पुनीत दान मनुष्य को इसलिए दिया है कि अपने मनोभावों को भली प्रकार प्रकट करें, भूले हुओं को समझावें, भ्रम का निवारण करें और अधिकारों की रक्षा करें। आप झेंपा मत कीजिए, अपने को हीन समझने या मुंह खोलते हुए डरने की कोई बात नहीं है। धीरे-धीरे गंभीरतापूर्वक, मुस्कराते हुए, स्पष्ट स्वर में, सद्भावना के साथ बातें किया कीजिए और खूब किया कीजिए, इससे आपकी योग्यता बढ़ेगी, दूसरों को प्रभावित करने में सफलता मिलेगी, मन हलका रहेगा और सफलता का मार्ग प्रशस्त होता जाएगा।

ज्यादा बकबक करने की कोशिश मत कीजिए। अनावश्यक, अप्रासंगिक, अरुचिकर बातें करना, अपनी के आगे किसी की सुना ही नहीं, हर घड़ी चबर-चबर जीभ चलाते रहना, बेमौके बेसुरा राम अलापना, अपनी योग्यता से बाहर की बातें करना, शेखी बघारना, वाणी के दुर्गुण हैं। ऐसे लोगों को मूर्ख, मुंहफट और असभ्य समझा जाता है, ऐसा न हो कि अधिक वाचालता के कारण आप इसी श्रेणी में पहुंच जाएं। तीक्ष्ण दृष्टि से परीक्षण करते रहा कीजिए कि आपकी बात को अधिक दिलचस्पी के साथ सुना जाता है या नहीं, सुनने में लोग ऊबते तो नहीं, उपेक्षा तो नहीं करते। यदि ऐसा होता हो तो वार्तालाप की त्रुटियों को ढूंढ़िये और उन्हें सुधारने का उद्योग कीजिए अन्यथा बक्की-झक्की समझकर लोग आपसे दूर भागने लगेंगे।

अपने लिए या दूसरों के लिए जिसमें कुछ हित साधन होता हो, ऐसी बातें करिए। किसी उद्देश्य को लेकर प्रयोजनयुक्त भाषण कीजिए अन्यथा चुप रहिये। कड़वी, हानिकारक, दुष्ट भावों को भड़काने वाली, भ्रमपूर्ण बातें मत कहिये। मधुर, नम्र, विनययुक्त, उचित और सद्भावनायुक्त बातें करिए, जिससे दूसरों पर अच्छा प्रभाव पड़े, उन्हें प्रोत्साहन मिले, ज्ञान वृद्धि हो, शांति मिले तथा सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा हो। ऐसा वार्तालाप एक प्रकार की वाणी का तप है, मौन व्रत का अर्थ चुप रहना नहीं, वरन् उत्तम बातें करना है। आप वाणी यज्ञ में प्रवृत्त हो जाइये, मधुर और हितकर भाषण करने की ओर अग्रसर होते रहिये।

किसी आदमी से क्या बात करनी चाहिए? यह सबसे पहले जानने की बात है। अपनी निजी समस्याओं के बारे में सुनने, समझने, विचार करने के लिए हर मनुष्य के पास पर्याप्त काम पड़ा हुआ है, उसे अपनी निजी समस्याएं ही बहुत अधिक मात्रा में सुलझानी हैं। किसी को इतनी फुरसत नहीं है कि अनावश्यक बातों को सुने, समझें, सिर खपाये। यदि आप चाहते हैं कि कोई व्यक्ति आपकी बात सुनें, तो पहले उसकी निजी समस्याओं और दिलचस्पी का विषय जानिये और उसी के संबंध में आरंभ कीजिये। यदि केवल मनोरंजन के लिए, समय निकालने के लिए बातें करनी हैं, तो उसकी निजी आवश्यकताओं के बारे में, निजी सफलताओं के बारे में, निजी कठिनाइयों के बारे में शुरुआत कीजिए। मनुष्य चाहता है कि हमारे ऊपर जो कष्ट हैं, जिन कठिनाइयों का मुकाबला कर रहे हैं, उनके लिए कोई सहानुभूति प्रकट करे, जो सफलताएं हमने प्राप्त की हैं, उनके लिए कोई प्रशंसा करे, जो काम हम करते हैं—उसके महत्त्व का वर्णन करे, जिस जानकारी की आवश्यकता है, उसे बताएं, जिस विषय में दिलचस्पी रखते हैं, उसे सुनाकर तृप्त करें।

यदि आप दूसरों की इच्छाओं को जानते हुए, तदनुसार वार्तालाप का विषय आरंभ करते हैं, तो उसकी दिलचस्पी बढ़ती है, अपने जरूरी काम को छोड़कर भी आपकी बातों को बहुत देर तक सुनता रह सकता है। प्रयोजन आप सिद्ध करना चाहते हैं, उसे एकदम प्रकट मत कीजिए, वरन् श्रोता के निजी विषय को छोड़कर उसे मन को तरंगित करिये, अपने प्रिय विषय सुनने वाले की ओर सुनने वाले की सद्भावना बहुत अधिक मात्रा में बढ़ जाती है। जिसकी सद्भावना आपकी ओर बढ़ रही है। जो अपने प्रिय विषय को श्रवण करके तरंगित हो रहा है, उसके सामने उचित और आकर्षक रीति से अपनी बात रखें, इस तरह उसे बहुत ही शीघ्र और सरलतापूर्वक अपने प्रस्ताव पर सहमत कर सकते हैं। अमेरिका का कुख्यात व्यभिचारी जान वीवर अनेक रूपवती और धनी महिलाओं को अपने चंगुल में फंसाने, नाम बदल-बदलकर विभिन्न स्थानों में अपने तैंतीस विवाह करने के अपराध में पकड़ा गया। अदालत में उसकी कार्य पद्धति प्रकट हुई। यह धूर्त न तो कुछ सुंदर था, न धनी, न किसी और योग्यता वाला। केवल एक ही योग्यता उसमें थी—‘मधुर वार्तालाप’। वह स्त्रियों के रूप-यौवन की खूब प्रशंसा करता था, उनके प्रिय विषय पर वार्तालाप करता था, सफलता पर बधाई देता था, कठिनाइयों में सहानुभूति प्रकट करता था। इस प्रकार लुभाने वाली वाणी से मोहित करके उन्हें अपने साथ विवाह करने पर रजामंद कर लेता था। भोली-भाली स्त्रियों को कुमार्ग में घसीट ले जाने वाले व्यभिचारी अक्सर इसी हथियार को काम में लाते हैं। पति या सास-ननद जिनके द्वारा युवती को कुछ कष्ट मिलता है, उनकी प्रशंसा तथा उसकी निर्दोषता, सरलता, भलमनसाहत की प्रशंसा करके लुभा लेते हैं। स्त्रियों में पुरुषों की अपेक्षा सहानुभूति और प्रशंसा की इच्छा अधिक होती है, वे अपेक्षाकृत अधिक आकर्षित होती हैं।

आप किसी को ठगने या कुमार्ग पर ले जाने के लिए अपनी पुनीत वाणी का उपयोग कदापि न कीजिए, शारदा माता का इस प्रकार दुरुपयोग करेंगे तो अंत में बहुत ही दुःखदायी परिणाम उपस्थित होगा। आप अपना दृष्टिकोण ऊंचा रखिये, ऊंचे और भले उद्देश्यों के लिए बातचीत कीजिए। परंतु स्मरण रखिये, वही वार्तालाप सफल हो सकता है, जिसमें सुनने वाला दिलचस्पी लेता है। यदि आपकी बातों में उसे अपने काम की कोई बात प्रतीत न होगी, तो वह अरुचिपूर्वक कुछ देर सुन भले ही ले, पर उससे प्रभावित जरा भी न होगा। ऐसे छूंछे और एकांगी प्रसंगों में कोई सार नहीं निकलता, कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। बेकार की दांता किटकिट करने का शौक हो, तब तो बात अलग है अन्यथा यदि कुछ लाभ की, कम से कम मैत्री वृद्धि की आशा से, वाणी विनिमय करना चाहते हैं, तो इसका ध्यान रखिए कि आरंभ दूसरे की दिलचस्पी के विषय को लेकर किया जाए।

बचे हुए समय को लोग गपशप में गुजारते हैं। अक्सर इस गपशप का विषय अश्लील या वीभत्स होता है या तो गंदी, कामुकतापूर्ण बातों से मनोविनोद किया जाता है या फिर किसी की बुराई करने का अवसर ढूंढ़ा जाता है। यदि कुछ ठीक आधार न मिले तो भी अश्लीलता या निंदा के मनगढ़ंत अवसर तैयार कर लेते हैं। मित्र मंडलियां अपने बहुमूल्य समय में इस प्रकार निकृष्ट कोटि के आधार पर मनोविनोद करती हैं। समय संपत्ति है, उसका इस प्रकार दुरुपयोग न होना चाहिए। मनोरंजन के लिए यात्रा के अनुभव, कौतूहलपूर्ण घटनाएं, अद्भुत वृत्तांत, रहस्योद्घाटन आदि का सहारा लिया जा सकता है, जिससे जानकारी एवं चतुरता में वृद्धि हो तथा नीच-निंदित वृत्तियों का उभार न हो।

यह युग बहस का है। बहस से सरकारें चलाई जाती हैं, अदालतों में बहस कही प्रधान है। सभा-संस्थाओं में बहस के उपरांत कुछ निर्णय होता है। प्रजातंत्र, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, स्वेच्छा सहयोग, विचार परिवर्तन एवं अधिक उचित निर्णय पर पहुंचने का एकमात्र आधार बहस है। जिस कार्य में बहुत लोगों का समावेश है, उनके बिखरे विचारों को एक स्थान पर केंद्रीभूत करने की यही एक प्रणाली है। इस युग में राज-काज से लेकर घर-गृहस्थी की व्यवस्था का संचालन बहस के आधार पर होता है या होने की अपेक्षा रखता है।

बहस के लिए जिस धैर्य की आवश्यकता है, हम लोगों में उसका बहुत ही अभाव होता है। किसी सार्वजनिक विषय पर बात-चीत करते-करते निजी प्रसंग आ जाता है और बात का बतंगड़ बनकर लड़ाई-झगड़े का वैमनस्य का, मारपीट का अवसर आ जाता है। बहुत थोड़ी देर सहिष्णुता के साथ बहस चलती है, इसके बाद आपस में एक-दूसरे के ऊपर आक्षेप होने लगते हैं, व्यक्तिगत बुराई करने लगते हैं, जिस प्रसंग पर वार्तालाप चल रहा था वह अधूरा छूट जाता है और उसके स्थान पर आपसी छिद्रान्वेषण शुरू हो जाता है। यह दिमागी कमजोरी, असहिष्णुता, कल्पना शक्ति की कमी है। इसे जितनी जल्दी हो दूर करना चाहिए। बहस करना सत्य की शोध करने के लिए बहुत ही आवश्यक है। यदि आप सत्य के पुजारी हैं और उचित नतीजे पर पहुंचने की इच्छा करते हैं, बहस करने की कला का अभ्यास कीजिए।

कोई व्यक्ति छोटी उम्र का है या कम जानकारी रखता है, तो उसे यह सोचकर चुप न रह जाना चाहिए कि बड़ों के सामने किस प्रकार मुंह खोलूं, इसमें उनका अपमान होगा या पूछने से मुझे मूर्ख-अयोग्य समझा जाएगा अथवा नेकनीयती पर कोई अविश्वास करेगा। हर मनुष्य को अपनी सम्मति प्रकट करते समय यह इत्मीनान रखना चाहिए कि मेरी सम्मति को अच्छी नियत से प्रकट किया हुआ समझा जाएगा, कोई उलटा अर्थ न लगाया जाएगा। जब तक यह विश्वास नहीं होता, तब तक मत प्रकट करने में झिझक होती है। ऐसी झिझक अनावश्यक है, उसे दूर कर देना चाहिए और जो कुछ कहना है, साफ-साफ, स्पष्ट स्वर में मध्यम आवाज से, निर्भीकतापूर्वक कह देना चाहिए। यदि आप ठीक अवसर पर तो झेंप के मारे कुछ कहते नहीं और पीछे-पीछे उस निर्णय की बुराई करते हैं, तो वह उचित नहीं। आपमें इतना साहस होना चाहिए कि ठीक अवसर पर अपनी बात को धैर्यपूर्वक रख सकें और दूसरों को उससे प्रभावित कर सकें।

ऐसा मत मान बैठिए कि सबसे बड़ा बुद्धिमान् मैं ही हूं। मूर्ख लोग दुनिया में डेढ़ अकल समझते हैं, उनका ख्याल होता है कि ईश्वर ने एक अक्ल हमें दी है और शेष आधी सारी दुनिया के हिस्से में आई है। इस प्रकार की मान्यता बड़ी ही भयंकर है और लाभदायक निर्णय तक पहुंचने में भारी बाधा उपस्थित करती है। आप अकेले ही इस संसार में बुद्धिमान नहीं हैं और लोग भी हैं। संभव है कि सी विषय में आप गलती पर हों और दूसरों की राय ठीक हो। इसलिए स्थिति की गहराई तक पहुंचने का प्रयत्न करिये, दूसरों के विचार अधिक ठोस हैं और उनके पीछे अधिक प्रामाणिकता है, तो उन्हें स्वीकार करने के लिए तैयार रहना चाहिए। अपनी भूलों को तलाश करने और उन्हें सुधारने के लिए एक विद्यार्थी की भांति, जिज्ञासु की तरह मन को खुला रखिये। हठधर्मी से अपनी ही बात पर अड़े रहना अनुचित है, इससे कोई अच्छा परिणाम नहीं निकलता, दूसरों की निगाह में आप घृणास्पद, जिद्दी ठहरते हैं और स्वयं उचित निर्णय तक पहुंचने से सत्य की शोध करने से वंचित रह जाते हैं।

दूसरे जो विचार प्रकट कर रहे हैं, उनकी नेकनीयती पर विश्वास कीजिए। यदि उनमें बदनीयती छिपी हुई दिखाई पड़े, तो भी उनकी दलील पर उसी ढंग से विवेचना कीजिये जैसे कि नेकनीयती से कही हुई बात पर की जाती है। तुनकमिजाजी, बिगड़ना, बात-बात में अपमान ख्याल करना, उचित नहीं, इससे बहस की गंभीरता नष्ट हो जाती है। दूसरों की बातचीत का ढंग कुछ अपमानजनक, दोषपूर्ण हो, तो भी उसके बाह्य रूप पर ध्यान न देकर उसके तथ्य पर विचार करना चाहिए, सहानुभूतिपूर्ण रवैया रखने से अयोग्य व्यक्तियों के बीच में भी बहस जारी रखी जा सकती है और किसी ठीक निर्णय पर पहुंचा जा सकता है। सैद्धांतिक बहस में व्यक्तिगत प्रसंगों को भूलकर भी न आने देना चाहिए अन्यथा बहस का उद्देश्य नष्ट हो जाएगा और व्यर्थ की कर्कशता उठ खड़ी होगी।

आप खुद ही बातें मत करते जाइये, दूसरों को भी कहने दीजिये। बीच में बात मत काटिये, वरन् पूरी बात सुनने तक ठहरे रहिये। दूसरा किसी प्रसंग को कह रहा है, तो उसे पूरा कह लेने दीजिए। ‘इसे तो हम जानते हैं’ ‘यह तो हमें पहले ही मालूम है’ ऐसा कहने से कहने वाले का तथा दूसरे सुनने वालों का मजा बिगड़ जाता है। अपने विचारों का विरोध होते देख धैर्य खोना उचित नहीं, यह कोई लाजमी बात नहीं है कि आपके विचार ठीक ही हों और उनके विरुद्ध मत रखने का किसी को अधिकार ही न हो। विरोधी पर बिगड़ मत खड़े होइये, वरन् धैर्यपूर्वक पूरी बात सुनिये और शांति के साथ तर्क और प्रमाणों द्वारा प्रत्युत्तर देकर पुनः अपनी बात की पुष्टि कीजिये।

जो बात आपको मालूम नहीं है, उसको गलत-सलत मत कहिए, वरन् प्रश्नकर्ता को अन्य जानकार व्यक्तियों या पुस्तकों की सहायता लेने के लिए कहिए। असमंजस में पड़ने या शरमाने की कोई बात नहीं है। कोई व्यक्ति पूर्ण ज्ञाता होने का दावा नहीं कर सकता। जो बात मालूम नहीं है उसके बारे में स्पष्ट कह देना उचित है, जिससे दूसरों को धोखा न हो और वस्तुस्थिति मालूम होने पर झूठा या बहानेबाज़ न बनना पड़ेगा।

कोई लोग प्रश्न से बहुत घबराते हैं, उन्हें लगता है मानो कोई हमारे ऊपर आक्रमण कर रहा है, कुछ इल्जाम लगा रहा है, कोई भेद मालूम कर रहा है या कुछ छीन रहा है। साधारण-सी बात के उत्तर में वे आपे से बाहर हो जाते हैं और अंट-संट बातें कहने लगते हैं। यह आशंकित, अविश्वासी और अनुदार हृदय का लक्षण है। आप उत्तर देने में बहुत उदार रहिये। जानकारी की इच्छा से, पूछे गये प्रश्नों का नेकनीयती से उत्तर दिया जाए, तो प्रश्नकर्ता का यदि कोई अनुचित उद्देश्य रहा हो तो वह भी बदल जाता है। किसी को जानकारी बढ़ाना उसके साथ में एक प्रकार का उपकार करना है। उपकारी के प्रति कुछ न कुछ कृतज्ञता का भाव होता है, जिसके द्वारा दुर्भाव की किसी न किसी अंश में सफाई होती ही है। प्रश्न का उत्तर प्रश्न में देना बेहूदापन है। कोई पूछता है कि लकड़ी की दुकान कहां है? आप उत्तर देते हैं—‘‘मैं कोई उसका नौकर हूं?’’ ऐसे उत्तर अनुदारता और घमंडीपऩ प्रकट करते हैं। सरलता से ‘हां’ या ‘ना’ में उत्तर दिया जा सकता है। पूछे गये प्रश्न के बारे में जितना जानते हैं उतना बता दीजिये, अन्यथा कह दीजिये—‘मुझे मालूम नहीं।’ सरलता और मधुरता से जो बात कही जा सकती है, उसके लिए प्रश्नवाचक उत्तर देकर कटुता उत्पन्न करने में कुछ अच्छाई थोड़े ही है।

अपरिचित व्यक्ति से वार्तालाप आरंभ करते हुए प्रश्नों की झड़ी लगा देना अनुचित है। आपका क्या नाम है? कहां रहते हैं? कौन जाति है? क्या पेशा करते हैं? कहां से आये हैं? कहां जा रहे हैं? यह बातें अपरिचित होने की दशा में अचानक पूछना सभ्यता के विरुद्ध है। इसमें उत्तर देने वाले को बुरा लग सकता है, वह उपेक्षा कर सकता है या अंट-संट उत्तर दे सकता है। जब तक किसी के स्वभाव के बारे में कुछ जानकारी न हो तब तक अदालत जैसे गवाह पर प्रश्नों की झड़ी लगा देती है वैसा व्यवहार करना उचित नहीं। यदि किसी का परिचय प्राप्त करना है या स्तब्धता भंग करके वार्तालाप का सिलसिला चलाना है, तो किसी आम प्रसंग को लेकर शुरू करना चाहिए। वर्तमान मौसम, फसल, व्यापार, तात्कालिक परिस्थिति, कोई अखबारी खबर, सामने का कोई दृश्य आदि का आधार लेकर बातचीत आरंभ की जा सकती है और फिर स्वभाव संबंधी जानकारी होने पर निजी पूछताछ तक बढ़ा जा सकता है।

कौन आदमी इस समय किस मनोदशा में है, इसको भांपकर जो आदमी तदनुसार वार्तालाप की तैयारी करते हैं, वे अपना प्रयोजन सिद्ध करने में बहुत कुछ सफल होते हैं। अफसरों से मुलाकात करके काम निकालने वाले लोग पहले अर्दली से यह मालूम कर लेते हैं कि इस समय ‘साहब’ का मिज़ाज कैसा है? यदि मिज़ाज अनुकूल देखते हैं, तो प्रयोजन प्रकट करते है अन्यथा किसी दूसरे अवसर की प्रतीक्षा तक अपनी बात को स्थगित रखते हैं। यह बात बड़े आदमियों या अफसरों के बारे में ही नहीं है, वरन् सर्वसाधारण के बारे में भी है। निजी कारणों से जब मनुष्य का चित्त डांवाडोल हो रहा हो, शोक, चिंता, क्रोध या बेचैनी में निमग्न हो, तो उस समय कोई अप्रिय, भारी या उसकी दृष्टि में अनावश्यक जंचने वाला प्रस्ताव न रखना चाहिए, क्योंकि डांवाडोल मनोदशा के कारण वह आपकी बात को न तो ठीक तरह समझ सकेगा और न उस पर उचित फैसला कर सकेगा, ऐसी दशा में प्रयास विफल ही रहेगा। यदि उसी दशा में अपनी बात कहना आवश्यक हो, तो पहले उसकी विषम मनोस्थिति के प्रति सहानुभूति प्रकट कीजिए और ऐसे अवसर पर इच्छा न रहते हुए भी कहने की मजबूती प्रकट करने के उपरांत अपनी बात को कहिए। इस प्रकार के डांवाडोल स्वभाव के बारे में जब आप परोक्ष रूप से सावधान करा देते हैं, तो वह सजग हो जाता है और अपनी मनःस्थिति पर काबू रखकर आपकी बात को सुनता-समझता है। ऐसी दशा में किसी कंदर अच्छे परिणाम की आशा की जा सकती है।

अपनी निजी बातें सब किसी के सामने प्रकट मत करिये। जिनके कहने से अपनी मूर्खता, गलती, गुप्त जानकारी का पता चलता हो, वह बातें केवल निजी और विश्वसनीय मित्रों से ही कहने योग्य हैं। अनधिकारी और साधारण परिचय वाले व्यक्तियों तक वे बातें पहुंचे, तो अपनी महत्ता घटाती हैं, लघुता प्रकट करती हैं। आप अधिक कष्ट में हैं, अपमानित हुए हैं, घरेलू अनिष्टों से ग्रसित हैं, रुग्ण हैं, चिंतित हैं, तो उन बातों को उनके सामने न कहिए, जो निवारण तो कर नहीं सकते, वरन् मजाक बनाते हैं। जिस प्रकार गढ़े धन को प्रसिद्ध कर देना ठीक नहीं, उसकी प्रकार भावी योजनाओं को, गुप्त रहस्यों को, न कहने योग्य बातों को भी छिपा रखना चाहिए। जिसके पेट में बात नहीं पचती उसे पोले बांस को छिछोरा समझकर गंभीर वार्तालाप में कोई शामिल नहीं करता।

किसी कार्य व्यस्त आदमी से भेंट करनी हो, तो अपने प्रयोजन को संक्षेप में कह दीजिए और उसी मर्यादा में बहस करके थोड़े समय में किसी निष्कर्ष पर पहुंच जाइये। संसार के कार्य व्यस्त महापुरुषों का समय बहुत मूल्यवान् होता है। ये मुलाकात करने वालों को कुछ मिनटें ही दें सकते हैं। यदि सिलसिले से आवश्यक बातों को न करके, बीच-बीच में अप्रासंगिक और बेतरतीब बातें की जाएं, तो समय की बहुत बर्बादी होती है। समय निरर्थक बातों में चला जाता है और आवश्यक बातें अधूरी छूट जाती हैं, इसलिए कार्य व्यस्त आदमियों के पास मिलने जावें तो जो बातें कहनी हैं, उनको क्रमबद्ध एक छोटे कागज पर नोट कर लीजिए और उन्हें उचित विस्तार के साथ जहां तक संभव हो संक्षेप में कह दीजिए। ऐसा करने से उनका बहुमूल्य समय व्यर्थ नष्ट न होगा और आपको भी अधिक देर न लगानी पड़ेगा। समय बचाने का सदैव ध्यान रखिए, क्योंकि समय ही संपत्ति है। यदि आपके पास फालतू वक्त है, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि दूसरों के पास भी वैसी ही फुरसत है, आप ठलुए हैं, तो दूसरों को ठलुआ मत समझिए। दूसरों का खासकर कार्य व्यस्त लोगों का कम से कम समय बर्बाद कीजिए, उनका उतना ही समय लीजिए जितने में वे अनखने न लगें, उठ जाने के लिए संकेत न करने लगें। पत्र-व्यवहार में भी ऐसा ही कीजिए, बहुत लंबी, बेकार की बातों से भरी हुई चिट्ठियां उन लोगों को मत लिखिए, जिनके पास बहुत काम रहता है। संक्षिप्त में प्रयोजन प्रकट करना, यही लाभदायक तरीका है अन्यथा बेकार के खर्चे बिना पढ़े मुद्दतों पड़े रहेंगे और उनका उत्तर न मिलने या विलंब से मिलने की अधिक संभावना रहेगी।

मुस्कराकर, प्रसन्नता प्रकट करते हुए बातचीत करना एक बहुत ही आकर्षक ढंग है, जिसके द्वारा सुनने वाले का अनायास ही आपकी ओर खिंचाव होता है। जब आप मुस्कराते हुए आनंदित होकर अपना कथन आरंभ करते हैं, तो उसके दो तात्पर्य निकलते हैं, पहला यह कि आप मनस्वी हैं, दृढ़ निश्चयी हैं और सुलझे हुए विचारों के हैं। दूसरा यह कि सुनने वाले से मिलकर आप प्रसन्न हुए हैं, उसके प्रति प्रेम भाव रखते हैं। मुस्कराहट मन की दृढ़ स्थिति को सूचित करती है। जिसके विचार संदिग्ध हैं, नाना प्रकार के भावों का उतार-चढ़ाव चेहरे पर प्रदर्शित करता है, उसे अविश्वास की दृष्टि से देखा जाता है। ऐसे आदमी के व्यक्तित्व की कोई अच्छी छाप दूसरे पर नहीं लगती। किंतु यदि प्रसन्नता चेहरे पर खेल रही है, तो उसका तात्पर्य दृढ़ता, गंभीरता और पूर्णता है। उसे सुलझा हुआ सुस्थिर समझकर स्वभावतः विश्वास करने की इच्छा होती है। मुस्कराहट में दूसरा तात्पर्य है—सुनने वाले के आगमन से खुशी प्रकट होना, यह भी असाधारण बात है। जहां उपेक्षा होती है, वहां संबंध रखना लोग पसंद नहीं करते, पर जहां प्रेम और सत्कार का भाव टपकता है, वहां बार-बार जाने की इच्छा होती है। थोड़ी असुविधा उठाकर भी वहां पहुंचने का प्रयत्न किया जाता है, क्योंकि वहां दुहरा लाभ है, साधारण काम तो पूरा होता ही है, साथ में प्रेम और आदर की आत्मिक खुराक मुफ्त में मिल जाती है। प्रसन्नता के साथ वार्तालाप करने के दोनों ही पहलू एक से एक जोरदार हैं। विश्वासी आदमी से व्यवहार में धोखा होने का अंदेशा नहीं रहता। उसकी मानसिक स्थिरता से अन्य लाभ प्राप्त होने की आशा रहती है, अतएव उससे संबंध रखना वैसे भी लाभ दायक ठहरता है।

आप जिन लोगों का संबंध अपने साथ अधिक समय तक रखना उचित समझते हैं, उनसे मुस्कराकर बोला कीजिए, प्रसन्नता प्रकट करते हुए बातचीत किया कीजिए। यह ऐसा बे-पूंजी का व्यापार है, जिसमें खर्च बिल्कुल नहीं और आमदनी बहुत है। जब आप थोड़ा हंसते हैं तो खिलते हुए पुष्प की भांति अपनी सुगंधि चारों ओर बिखेर देते हैं। उसकी सुगंधि से दर्शकों और श्रोताओं का मन लुभायामन हो जाता है। पुष्प में रूप और गंध है, मुस्कराहट में सौंदर्य और मिठास है। भौंरे और मधुमक्खियों का जमघट फूल पर रहता है। आपकी मुस्कराहट पर मुग्ध होकर संबंधियों का समूह पीछे-पीछे लगा फिरेगा।

आत्मीयता प्रकट करने का अच्छा तरीका यह है कि बराबर वालों का और छोटों का आदरपूर्वक नाम लेकर पुकारिए। नाम के पहले पंडित, बाबू या लाला आदि विशेषण लगायें, पीछे शर्मा, वर्मा या गुप्ता आदि गोत्र सूचक पदवी लगाने से नाम आदरयुक्त हो जाता है। वार्तालाप के सिलसिले में बराबर वालों का नाम बीच-बीच में कई बार लिया कीजिए। इस तथ्य को समझ लीजिए कि—‘‘मनुष्य का नाम उसकी भाषा में उसके लिए सबसे मधुर और सबसे महत्त्वपूर्ण शब्द है।’’ अपना नाम लिया जाते सुनकर मन में एक गुदगुदी-सी उत्पन्न होती है, क्योंकि उसमें अपनेपन का भाव है, आत्मीयता का सम्मिश्रण है। महाशय जी, महानुभाव, श्रीमान् जी आदि शब्द छूंछे और आडंबरमय हैं। इनसे अपनापन प्रकट नहीं होता, इसलिए सुनने वाले को कोई विशेष आकर्षण नहीं दिखाई पड़ता, किंतु आदरपूर्वक नाम लेकर पुकारने से सुनने वाले का हृदय हुलस आता है।

बड़ों को उनकी आरंभिक पदवी के साथ ‘जी’ लगाकर पुकारा कीजिए, जैसे पंडित जी, ठाकुर साहब आदि। यदि उनका कोई और विशेषण है, जैसे—नंबरदार, वैद्य जी, डॉक्टर साहब, खजांची साहब, तो उसे कहिए। यदि अधिक निकट का परिचय है, तो रिश्तेदारी सूचक संबोधनों का प्रयोग करिए, जैसे चाचा जी, बाबा साहब, भैया जी, ताऊ जी आदि। कुछ रिश्ते जो लघुता सूचक हैं उन्हें कहना उचित नहीं, जैसे साला, भतीजा, भाभी, साली आदि। छोटों को बेटा, नानी कहकर नहीं पुकारना चाहिए, वरन् लल्लू, कुंवर साहब जैसे प्रिय शब्दों को काम में लाना चाहिए। स्त्रियों को बेटी, बहनजी या माताजी शब्द ही आमतौर पर काम में लाने चाहिए। खास रिश्ते की बात अलग है, जिनसे दूर का रिश्ता है उन्हें इन्हीं तीन रिश्तों के अंतर्गत आना चाहिए।

इस प्रकार रिश्तेदारी, पदवी मात्र नाम तथा आदरपूर्वक नाम लेकर लोगों को संबोधन किया करें, तो आप निश्चय ही दूसरों पर अपनी आत्मीयता की छाप जमाने में समर्थ होंगे और बदले में उनकी आत्मीयता प्राप्त करेंगे। बोलने में यह बहुत मधुर साधन है कि दूसरे को यथोचित रीति से नाम के निजीपन के साथ पुकारा जाए। आप प्रेम संबंधों की वृद्धि करना चाहते हैं, परायों को अपना बनाना चाहते हैं, घनिष्ठता बढ़ाना चाहते हैं, तो उनके कानों में रस टपकाइये। अपना नाम सबसे मधुर शब्द है, इस शब्द को एक से अधिक बार कहिए, संबोधन की आवश्यकता पड़ने पर उसी का उपयोग करिए।

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