मरने के बाद हमारा क्या होता है

स्वर्ग

<<   |   <   | |   >   |   >>

जिस प्रकार पाप कर्मों का फल नरक है, उसी प्रकार शुभ कर्मों का फल स्वर्ग है। पाप क्या है और पुण्य क्या? यह प्रश्न बड़ा ही पेचीदा है, इस पर एक स्वतन्त्र पुस्तक छपी है। इस समय तो समझ लेना चाहिए कि प्रेम तथा हार्दिक पवित्रता के साथ किये हुये पुण्य एवं स्वार्थ पाखण्ड के साथ किये हुए कार्य पाप हैं। पाप पुण्य की व्याख्या बुद्धि के द्वारा ठीक न हो सके तो भी अन्तरात्मा उसे जानता है गूंगा मनुष्य यदि मिठाई और नमकीन का स्वाद न बता सके तो भी उस स्वाद को जानता है पुण्य कर्मों से तत्क्षण आत्मा में एक शांति प्राप्त होती है उसके विरुद्ध पाप कर्मों में एक जलन उठती है। मजहबी कर्म-कांड मन की पवित्रता में कुछ सहायता दे सकते हैं पर वे स्वयं कोई धर्म नहीं है, शंख फूंकने या घड़ियाल टनटनाने से कुछ धर्म नहीं होता इससे मनोभूमि को पवित्र करने में कुछ सहायता मिलती है। यदि किसी का मन ऐसा दुष्ट हो कि उसके अन्दर दुर्भावनाएं ही उठती रहें तो कोई भी कर्मकाण्ड उसे स्वर्ग नहीं पहुंचा सकता। अज्ञानी लोग मजहबी कर्मकाण्डों को स्वर्ग का साधन समझते हैं। यथार्थ में वह बहुत ही तुच्छ साधन मात्र हैं। मजहबी रीति रिवाजें धर्म नहीं हो सकती, दया, प्रेम, उदारता, सत्य परायणता धर्म के अंग हैं। आत्मा को सन्तोष देने वाली आन्तरिक सद्वृत्तियां ही पुण्य कही जा सकती हैं और उनके द्वारा ही स्वर्ग प्राप्त होना सम्भव है। अन्ध विश्वास में पड़े रहना अंधेरे में भटकने के बराबर है जैसे जीवन में अन्य अनेक निष्प्रयोजन कार्यों में हम अपना समय नष्ट करते हैं, वैसे कितनी ही मजहब परम्पराएं भी ऐसी ही हैं जिनमें बिलकुल व्यर्थ समय बरबाद होता है और परलोक उनसे रत्ती भर भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता।

शुभ कार्यों से आन्तरिक प्रसन्नता होती है, यह प्रसन्नता परलोक में स्वर्ग रूप में उसी प्रकार प्रस्फुटित होती है, जैसे पाप कर्म नरक के रूप में। नरक के विषय में जैसी कल्पना हमारी होती हैं, वे प्रायः वैसी ही उससे मिलते जुलते दिखाई देते हैं, उसी प्रकार स्वर्ग की कल्पना भी सत्य है। धर्मात्मा हिन्दू को बैकुण्ठ, इंद्रलोक का सुख मिले और सुकर्मों से मुसलमान को गिलमाओं वाली जन्नत मिले तो कुछ आश्चर्य की बात नहीं है। क्योंकि स्वर्ग नरक हमारे आज के दृष्टिकोण के अनुसार कल्पना मात्र हैं, चाहे कल्पनाएं उस समय सत्य ही प्रतीत होती हों। स्वर्ग सुख भी नियत समय तक ही रहता है स्वर्ग का आनन्द मिलने का उद्देश्य यह है कि उसकी आत्मिक योग्यता अधिक चैतन्य एवं उत्साहित होकर आगामी जीवन में अधिक सूक्ष्म बन जावे। स्वर्ग सुख के अधिकारी जो व्यक्ति होते हैं उनकी तुच्छ इन्द्रिय लिप्साएं पहले ही शांत हो जाती हैं, इसलिए जैसा कि अज्ञानी समझते हैं, स्वर्गलोक में इन्द्रिय वासनाएं तृप्त करने की सामग्री से ही भरपूर है, वैसा ही नहीं होता। इन्द्रियों के गुलाम और वासना के कीड़े स्वर्ग सुख से बहुत रहते हैं। मद्यपान, वेश्यागमन, मैथुन आदि का नाम ही यदि स्वर्ग में हो तो, ऐसे स्वर्ग के लिए इतना तप करने की कुछ आवश्यकता नहीं, वह कुछ पैसे खर्च करके यहां भी चाहे जब प्राप्त किया जा सकता है। यथार्थ में स्वर्ग सुख इन्द्रियों का सुख नहीं वरन् अन्तःकरण चतुष्टय (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) का आनन्द है। यह इन्द्रिय सुख की अपेक्षा बहुत ऊंचे दर्जे का है।

आध्यात्म तत्व के जिज्ञासु जानते होंगे, कि आत्मा में अनंत शक्ति है। ईश्वर का अंश किसी प्रकार अशक्त नहीं है। वह इच्छा मात्र से ही स्वर्ग नर्क की रचना कर लेता है इसमें आश्चर्य और अविश्वास की कुछ बात नहीं है। ईश्वर ने इच्छा की कि ‘‘एकोहं बहुस्याम’’ मैं एक हूं बहुत हो जाऊं, बस वह दृश्य जगत के रूप में प्रकट हो गया। आत्मा इच्छानुसार जागृत अवस्था, स्वप्न अवस्था और सुषुप्ति अवस्था की रचना करता है। जन्म मरण को, स्वर्ग बनाता है, उसी प्रकार स्वर्ग नरक का निर्माण कर लेता है इच्छा से बन्धन में बंधता है और इच्छा से ही मुक्त हो जाता है यह सब बातें उनकी निजी शक्ति के अन्तर्गत हैं।

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118