मरने के बाद हमारा क्या होता है

भूत—प्रेत

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भूत प्रेत कहने से ऐसे अदृश्य मनुष्यों का बोध होता है, जिनका स्थूल शरीर भी मर चुका है। लोगों का मोटा खयाल है कि मरने के बाद आदमी भूत बन जाता है। यह बात मृतकों के ऊपर लागू नहीं, बहुत से मनुष्य मोक्ष प्राप्त करते हैं, कुछ स्वर्ग चले जाते हैं, कुछ विश्राम की मधुर निद्रा में सो जाते हैं। बहुत थोड़े प्राणी ऐसे रहते हैं जिन्हें भूत बनना पड़ता है। आर्य ग्रंथों में प्रेत शब्द निन्दा सूचक अर्थ के साथ व्यवहृत हुआ है। इसे पापयोनि माना गया है। तीन वासनाओं की उग्रता के कारण जीव परलोक यात्रा की स्वाभाविक श्रृंखला को तोड़ देती है और आगे बढ़ने की अपेक्षा पीछे लौट पड़ता है। सूक्ष्म लोक में विश्राम लेकर कृत कर्मों का फल भोगते हुए नवीन जन्म लेने के स्थान पर पिछले जन्म की ओर वापिस चलता है। पूर्व जीवन से अथवा किसी प्रियजन से अत्यधिक मोह होने के कारण या किसी ईर्ष्या, द्वेष में अनुरिक्त होने पर मृतात्मा जहां का तहां ठहर जाता है, उसकी आन्तरिक स्फुरण आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है पर वह किसी की नहीं सुनता और वहीं का वहीं अड़ा रहता है। जीवन भर की थकान, कर्मों का भार इन दोनों के कारण से वह बड़ा बेचैन रहता है। राग द्वेष की इच्छाएं, शरीरपात का लाभ, यह सब भी कुछ कम दुख नहीं देते। इसके अतिरिक्त स्थूल लोक के अधिक सम्पर्क में रहने के कारण उसकी इंद्रियों से भी स्थूलता का अधिक भाग आ जाता है, अतएव वह भाग पदार्थ की भी इच्छा करता है यह सब विषम स्थितियां मिलकर प्रेत को बड़ा बेचैन बनाये रहती हैं। वह व्याकुल, पीड़ित, आतुर और दुखित होता हुआ इधर उधर मारा मारा फिरता है।

ऐसी घटनाएं हमारे सुनने में आती हैं कि अमुक स्थान पर भूत डरा देता है, बीमार कर देता है, पत्थर फेंकता है या और उपद्रव करता है। सहायता करने की अपेक्षा भूतों द्वारा हानि पहुंचाने के समाचार अधिक सुने जाते हैं। इससे प्रतीत होता है कि भूतों को मानसिक उद्वेग अधिक रहता है। इंद्रिय लिप्सा या मोह श्रृंखला में बंधने के कारण ही वे इस दुर्गति को प्राप्त होते हैं। जिन्हें स्वादिष्ट भोजनों की चाटुकारिता और मादक द्रव्यों की आदत, नाच तमाशों में अभिरुचि, मैथुनेच्छा, विशेष रूप से होती है, जिन्होंने जीवित अवस्था में इंद्रियों को इन खराब आदतों का गुलाम बन जाने दिया है, वे विवश होकर मृत्यु के उपरांत भी इन्हीं वासनाओं में ग्रसित किन्हीं अन्य व्यक्तियों को देखते हैं, तो उनके माध्यम द्वारा अपनी तृप्ति करने के लिए उन पर अपना अड्डा जमा लेते हैं और उनकी इंद्रियों द्वारा स्वयं तृप्ति लाभ करने की चेष्टा करते हैं।

कहा जा चुका है कि भूतों की वासनाएं बहुत नीची श्रेणी की होती है, इसलिए वे वेश्यालय, मदिरालय या ऐसे ही अन्य त्याज्य स्थानों में विशेष रूप से मंडराते रहते हैं। इन स्थानों से संबंध रखने वाले लोगों के शरीर पर यह भूत गुप्त रूप से अपना अड्डा जमाते हैं। वे मनुष्य यद्यपि इनको पहचान नहीं पाते, पर इतना तो अनुभव करते ही हैं। त्याज्य स्थानों में जाते ही उनकी वासना असाधारण रूप से उत्तेजित होती है।

भूत होते तो हैं, पर बहुत ही कम संख्या में होते हैं। क्योंकि भूत योनि अस्वाभाविक योनि है। यह नियत क्रम के अनुसार नहीं मृतक के मानसिक विग्रह के कारण मिलती है। भूत कभी कभी अपना थोड़ा बहुत परिचय देते हैं, अन्यथा जन समाज से दूर किन्हीं एकांत स्थानों में अपनी वेदना छिपाये पड़े रहते हैं। विक्षिप्त दशा में होने के कारण वे कोलाहल से दूर रहना ही पसंद करते हैं। अपना परिचय प्रकट करने की इच्छा तो किसी को और विशेष स्थिति के कारण ही होती है।

फिर भूतबाधा की इतनी अधिक चर्चा जो सुनी जाती है वह क्या है? ऐसे प्रसंगों में भ्रम के भूत ही अलग रहते हैं। एक पुरानी कहावत है कि ‘‘शंका डायन, मनसा भूत’’ जिसे डर लग जाता है कि मेरे पीछे भूत पड़ा हुआ है उसके लिए घड़ा भी भूत बन जाता है। मन में भूतों की कल्पना उठी कि पेट में चूहे लोटे। शाम को भूतों की कहानी सुनी कि रात को स्वप्न में मसान छाती पर चढ़ा। एक बार दो मनुष्यों में शर्त हुई कि रात को 12 बजे अमुक मरघट में कील गाढ़ आवें तो पचास रु. मिलें। वह मनुष्य रात को मरघट में सो गया। रात अंधेरी थी, जल्दी में वह अपने कुर्ते के कोने समेत कील गाढ़ गया, जब उठा तो उसे विश्वास हो गया कि मुझे भूत ने पकड़ लिया है। उसने डर के मारे एक चीख मारी और बेहोश होकर वहीं मर गया। इसी प्रकार अनेक बार अपना भ्रम ही भूत का रूप धारण करके दुख देता रहता है। ऐसे भूतों से मन का सावधान हुए बिना छुटकारा नहीं मिलता। जिन अशिक्षित जातियों में अज्ञान और अशिक्षा घर किए हुए होती है कि उनमें भ्रम के भूत अधिक आते हैं किंतु सुशिक्षित परिवारों में प्रायः उन्हें स्थान नहीं मिलता।

मृत आत्माएं जब प्रकट होती हैं, स्वरूप दिखाती हैं तो वे शरीर निर्माण की सामग्री को उन्हीं व्यक्तियों में से खींचते हैं जिन्हें ये दिखाई दें। प्रेतों को यह शक्ति प्राप्त हो जाती है कि वे स्थूल परमाणुओं को खींच सकें। दिखाई देने की जब उनकी इच्छा होती है तो वे सामने वाले के शरीर की बहुत सी सामग्री खींच कर अपना रूप बना लेते हैं। ऐसे समय पर डाक्टरी परीक्षा करके देखा गया है कि उस मनुष्य का शरीर हलका हो जाता है, तापमान और विद्वत् प्रवाह घट जाता है, पाचन क्रिया और रक्त प्रवाह में मंदता आती है। जिन लोगों ने क्षति को पूरा करने के गुप्त अभ्यासों को सीख लिया है, उनकी बात दूसरी है, साधारण लोगों को भूतों का बार बार दिखाई देना अच्छा नहीं है। इससे उन्हें ऐसे शारीरिक झटके लगते हैं, जिनके कारण वह खतरनाक दशा को पहुंचाते हैं।

यह परमात्मा की छिपी हुई एक महती कृपा है कि मृत और जीवित मनुष्यों के मिलने में भय को यह एक बाधा खड़ी की गई है यदि वह न होती हो मृत व्यक्ति भी घरों में ऐसे ही बैठे रहते जैसे चिड़िया, चूहे, चींटियां या खटमल भरे रहते हैं।  इससे मृत और जीवितों का आगे का विकास रुक जाता और मोह बंधनों में जकड़े हुए जहां के तहां पड़े रहते। प्रभु का इच्छा है कि सांसारिक झूठे रिश्तों के मोह—पास में अधिक न बंधे और अपना कर्त्तव्य पालन करता हुआ निरंतर उन्नति के पथ पर अग्रसर होता रहे। पीछे की भूमि पर से पांव उठा लेने के बाद ही आगे कदम बढ़ा सकते हैं। हमें नीचे की ओर नहीं आगे की ओर चलना चाहिए। भूत के पांव उलटे होते हैं। इस कहावत का तात्पर्य यह है कि वह आगे के लिए नए सम्बन्ध स्थापित करने की अपेक्षा प्राचीन सम्बन्धियों के मोह जाल में बंध कर पीछे की ओर लौट रहा है।

कभी कभी मनुष्य की शारीरिक बिजली के परमाणु स्वयं एक स्वतन्त्र प्रतिमा बन जाते हैं। स्वभावतः आप किसी घर में घुसते ही वहां के निवासियों की स्थिति जान सकते हैं, क्योंकि वहां रहने वालों के मानवीय तेज उस वातावरण में मंडराते रहते हैं और आपके मानसिक नेत्र इस बात को आसानी से पहचान लेते हैं, कि यहां क्या वस्तु भरी हुई है जिन स्थानों पर कोई भयंकर कार्य हुए हों वहां मुद्दतों तक वैसा ही वातावरण बना रहता है। अग्नि काण्ड भ्रूण हत्या, कालादि ऐसे दुष्कर्म हैं जिनके कारण उस स्थान के ईंट, पत्थर भी मूक वेदना से सिसकते रहते हैं। सताये हुए प्राणी की व्यथा साकार बन जाती है और जागृत या स्वप्न अवस्था में वहां के निवासियों को डराती है। कई मकानों को भुतहा समझा जाता है। वहां रहने वालों को भूत दिखाई देते हैं। ऐसे स्थानों पर किसी के अत्यन्त हर्ष, द्वेष, क्रोध, दुख या ममता की साकार प्रतिमाएं ही प्रायः अधिक पाई जाती हैं, क्योंकि वास्तविक भूत कोलाहल के कुछ दूर और एकांत स्थानों में ही रहना अधिक पसन्द करते हैं।

छोटी श्रेणी के भूत केवल मानसिक आघात पहुंचा सकते हैं, डरा देना या बीमार कर देना यह उनके बस की बात है। निर्बल शक्ति होने के कारण वे न तो अपना स्वरूप प्रकट कर सकते हैं और न किसी की अधिक क्षति कर सकते हैं। हां, छोटे बच्चों पर इनका आघात प्रहार हो सकता है। दुर्वासनाओं का बाहुल्य रहने के कारण यह दूसरों के साथ बुराई ही कर सकते हैं भलाई नहीं। मध्यम श्रेणी के भूत जो अधिक बलवान और आतुर होते हैं, वे अपना नाना प्रकार के रूप धर कर प्रकट हो सकते हैं। वस्तुओं को इधर से उधर उठाकर ला और ले जा सकते हैं, किसी मनुष्य के शरीर पर अधिकार करके उसकी इन्द्रियों से अपनी इच्छा पूरी कर सकते हैं, तथा पागल या बीमार कर सकते हैं। ऊंचे श्रेणी के वीर ब्रह्म राक्षस, बेताल, पितर आदि कुछ सहायता भी कर सकते हैं, वे छोटे भूतों का आतंक हटा सकते हैं, वर्तमान और भूत काल की गुप्त घटनाओं को बता सकते हैं। बहुत पूछने पर भविष्य के बारे में भी थोड़ा बहुत कहते हैं, पर वे बातें कभी कभी गलत भी सिद्ध होती हैं। श्राप वरदान देना भूत के बस की बात नहीं है क्योंकि उसके लिए जितने आध्यात्मिक बल की जरूरत है, वह उसमें नहीं होता।

मनुष्य शरीर के एक एक कण में एक स्वतन्त्र सृष्टि रच डालने की शक्ति भरी पड़ी है। यदि यह कभी विशेष मनोबल के साथ निकले हों और फिर वह स्थान सूना पड़ा रहे तो बाधा रहित होने के कारण वे बीज बढ़ते पकते और पुष्ट होते रहते हैं। हजारों वर्ष पुराने खण्डहरों में किन्हीं भूत प्रेतों का परिचय मिलता है हो सकता है कि वे आत्मा अब तक अनेक जन्म ले चुकी हों और उनके पूर्वजन्म के यह कण उन भावनाओं की तस्वीर की तरह अब तक जीवित बने हुए हों। लेकिन ऐसा होता खाली मकानों में ही है, क्योंकि वह उन प्राचीन कणों को स्वतन्त्र वृद्धि करने में कोई बाधा नहीं आती जो स्थान मनुष्यों के निवास केन्द्र रहते हैं, वहां उनकी गर्मी उन प्राचीन प्रतिमाओं को हटा देती या नष्ट कर देती है।

किन्हीं तेजस्वी आत्माओं के श्राप और वरदान एक स्वतन्त्र सत्ता बन जाते हैं और वह भी जीवित मनुष्यों की तरह हानि लाभ पहुंचाते हैं। शंकर के कोप से वीरभद्र गणों का प्रकट होना, दुर्वासा के क्रोध करने पर उनकी जटाओं में से एक राक्षसी का निकल कर अम्बरीय के पीछे दौड़ना इस प्रकार के मानस पुत्र भी मूर्त रूप हो सकते हैं किसी की ‘‘हाय’’ इतनी साकार हो सकती है कि पिशाच की तरह सताने वाले का गला घोटने लगे। वरदान, आशीर्वाद, शुभकामनाएं चाहे हमें मूर्तिमान दिखाई न दें, पर वे देवता की तरह साथ रह सकती हैं और सुखद विपत्तियों में से भुजा पकड़ कर दृश्य या अदृश्य रूप से बड़ी भारी मदद मिल सकती है। कई मनुष्य कुंए में गिरने पर भी बेदाग निकल जाते हैं या ऐसी ही अन्य प्राण घातक विपत्तियों में से साफ बच आते हैं। हो सकता है कि कोई आशीर्वाद उस समय हमारे ऊपर अदृश्य कृपा प्रकट कर रहा हो। इस प्रकार दूसरों के भले बुरे विचार भी भूतों की भांति अपने अस्तित्व का साकार या निराकार परिचय दे सकते हैं।

इस प्रकार अनेक जातियों के भूत पिशाच संसार में मौजूद हैं उसी प्रकार अदृश्य लोक में भी अनेक चैतन्य सत्ताएं विद्यमान हैं। यह अकारण हम से नहीं टकराते, हमारे मानसिक विकार इन भूतों को अपनी ओर बुलाते हैं। भय, भ्रम, सन्देह आत्मिक निर्बलता, दुर्गुणों का बाहुल्य इन सब कारणों से भूतों को अधिकार करने का अवसर मिलता है, यदि आपकी आत्मा निर्बल नहीं है, आत्मा पापों के कारण भयभीत और शंकित बनी हुई नहीं हैं तो यह बेचारे भूत आपका कुछ भी अहित न करेंगे।

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