परलोक में रहने की अवधि के पहले भाग में विश्राम दूसरे में स्वर्ग नरक होते हैं। तीसरा भाग पुनर्जन्म की तैयारी में व्यतीत होता है। स्वर्ग नरक भोगने के बाद आगामी जन्म के लिए जीव को विशेष प्रोत्साहन मिलता है। नरक भोगने वालों के साधारण पाप तो प्रायः नष्ट हो जाते हैं, किन्तु आदतें शेष रह जाती हैं। इन आदतों को अध्यात्मिक भाषा में संस्कार के नाम से पुकारा जाता है। यह आदतें तब तक नहीं छूटतीं जब तक कि जीव उन्हें ज्ञानपूर्वक पहचान कर छुड़ाने का वास्तविक प्रयत्न न करे। बंधन के कारण यही संस्कार हैं। जीव स्वतंत्र है, वह अपनी इच्छानुसार संस्कार बनाता है और उन्हीं में जकड़ा रहता है। यह माया और कुछ नहीं अज्ञान का एक पर्यायवाची शब्द है। अपने आपको खुद अपने ही अज्ञान के बंधन में उलझा कर दुखी होना बड़ी विचित्र बात है। इसी गोरखधंधे को दुस्तर माया के नाम से पुकारा गया है।
शुभाशुभ कर्मों का फल भोगने के बाद भी उसके पूर्व संस्कार नहीं मिटते। जैसे एक जुआरी धन सम्पत्ति हार जाने पर भी जुआ खेलने की इच्छा करता है, शराबी अनेक कष्ट सह कर भी मद्यपान की ओर लालायित रहता है, उसी प्रकार पिछली आदतों के कारण जीव पुनर्जन्म के लिए स्थान तलाश करता है। यह मध्यम श्रेणी के व्यक्ति प्रायः पूर्वजन्म जैसी स्थिति के वातावरण में आकर्षित होते हैं। मान लीजिए एक व्यक्ति इस जन्म में किसान है सारी उम्र उसके मन पर खेती के संस्कार जमते रहे अब वह अगले जन्म में भी दुकानदार होने की अपेक्षा किसानी ही पसंद करेगा। ऐसा नहीं समझना चाहिए कि कोई अन्य शक्ति बलात् जन्म दे देती है जीव स्वयं अपनी इच्छा से संस्कारों के वशीभूत होकर जन्म ग्रहण करता है। ऊपर उड़ता हुआ गिद्ध जैसे, तीक्ष्ण दृष्टि से मृत पशु को तलाश करता फिरता है उसी प्रकार जीव निखिल आकाश में अपना रुचिकर वातावरण ढूंढ़ता फिरता है। पहले यह बताया जा चुका है कि तर्क, बहस वा चुनाव करने वाली भौतिक बुद्धि परलोक में नहीं रहती इस लिए वह चालाकियां नहीं जानता और अपने स्वभाव के विपरीत ऊंची या नीची स्थिति की ओर नहीं खिंचता। छोटा बालक राज महल की अपेक्षा अपनी झोंपड़ी को पसन्द करता है उसी प्रकार किसी व्यापारी संस्कारों का जीव राजघर में जन्म लेने की अपेक्षा व्यापारी परिवार में शामिल होना पसन्द करता है। आधे से अधिक मनुष्य प्रायः अपने पूर्व घर या परिवार में ही जन्म लेते हैं यदि पूर्व घर में उसे अपमानित, लांछित या बहिष्कृत न किया गया हो तो वह उसी में या उसके आस पास जन्म लेना चाहता है। दूरी के सम्बन्ध में भी यही बात है। पूर्व जन्म के प्रदेश में रहना ही सब पसन्द करते हैं, क्योंकि भाषा, भेष, भाव की गहरी छाप उनके मन पर अंकित होती है। इटली का मनुष्य भारतवर्ष में या भारतवर्ष का टर्की में जन्म लेना पसन्द न करेगा। कोई विशेष ही कारण हो तो बात दूसरी है।
हमारी स्थूल इन्द्रियों के लिए यह पहचानना कठिन है कि किन स्थानों में कैसी मानसिक स्थिति और आन्तरिक वातावरण है पर परलोकवासी इस बात को बड़ी आसानी से पहचान लेते हैं। वे जहां ठीक स्थिति देखते हैं उसी परिवार के आसपास डेरा डालकर बैठ जाते हैं। परलोक वासियों को पिछले कई जन्मों का भी स्मरण हो आता है यदि वे पुराने घरों में अधिक स्नेह रखते हैं तो उनकी ओर खिंच जाते हैं। बहुत समय व्यतीत हो जाने पर उन परिवारों की ओर अपनी मनोवृत्ति में अन्तर आ जाता है तो भी वे कभी कभी खिंच जाते हैं। किसी विद्वान् कुल में एक मूढ़ का जन्म लेना या असुर कुल में महात्मा का पैदा होना, दो कारणों को प्रकट करता है—(1) या तो वह कुछ पीढ़ियों के उपरांत बदल गया है और जीव के संस्कार पुराने ही मौजूद हैं (2) या वह जीव दूसरे ढांचे में ढल गया है और केवल व्यक्तिगत स्नेह के कारण उस कुल में खिंच आया है। हम बार बार दुहरा चुके हैं कि जीव स्वतंत्र है वह अपने आचरणों से संस्कारों में आसानी से परिवर्तन कर सकता है। जब किसी परिवार में कोई विपरीत स्वभाव की सन्तान पैदा हो तो समझना चाहिए कि या तो यह कुल बदल गया या वह जीव प्राचीन मोह के कारण ही यह बेमेल संयोग में मिला है।
जिस परिवार में जन्म लेना जीव पसंद कर लेता है उसके आस पास मंडराने लगता है, अवसर की प्रतीक्षा करता है। जब किसी स्त्री के पेट में गर्भ की स्थापना होती है तो वह उसमें अपनी सत्ता को प्रवेश करता है। और नौ मास गर्भ में रह कर संसार में प्रकट हो जाता है। कई तत्वज्ञों का मत है कि यह गर्भ पर अपनी सत्ता जमाता है और पूरी तरह शरीर में तब प्रवृत्त होता है जब बालक पेट से बाहर आ जाता है। हमारा मत है कि संभोग के समय रज वीर्य का सम्मिलन होकर यदि गर्भ कलल बन जाय तो उसमें कुछ ही क्षण उपरांत जीव अपना अधिकार कर लेता है और गर्भ में रहने लगता है। यह समझना ठीक नहीं कि गर्भ में बालक को बड़ा कष्ट होता है। क्योंकि उस समय तक गर्भ का मस्तिष्क और इन्द्रियां अविकसित होने के कारण जीव को पूरी तरह बन्धित नहीं करते और जीव का कुछ का विशेष बंधन नहीं होता। वह उदर में घोंसला रखता है पर अपनी चेतना से चारों ओर पर भ्रमण कर सकता है। जन्म लेने के कुछ ही समय पूर्व जब गर्भ की इन्द्रियां पूर्णतः परिपक्व हो जाती हैं तो जीव की स्वतन्त्रता नष्ट हो जाती है। तब वह तुरन्त ही बाहर निकलने का प्रयत्न करता है, इसी समय को प्रसव काल कहा जाता है।
कभी कभी एक परिवार में जन्म लेने के लिए कई जीव इच्छुक होते हैं। उन्हें क्रम से आना होता है। अमुक के गर्भ में जन्म लेने की इच्छा रखते हुए भी यदि उसका क्रम न हो या वह गर्भ धारण करने में असमर्थ हो तो फिर काम चलाऊ उपाय ढूंढ़ना पड़ता है। एक स्थान पर दूसरे को पसन्द करना पड़ता है, कई बार जीव अमुक परिवार में जन्म लेने की इच्छा से बहुत दिनों तक प्रतीक्षा में बैठा रहता है पर यदि उचित अवसर न आवे और परलोक का नियत काल समाप्त हो जाय तो उसे बहुत जल्दी कहीं जन्म लेने का प्रयत्न करना पड़ता है जैसे कुछ देर का मल पेट में जमा हो जाने पर उनके निकलने का काल आ जावे और बहुत जोर की टट्टी लगे तो मनुष्य को कहीं न कहीं उचित या अनुचित स्थान पर मल त्यागने के लिए मजबूर होना पड़ता है, उसी प्रकार यदि नियत काल समाप्त हो रहा हो वह जल्दी में कहीं न कहीं जन्म ले लेता है। ऐसे अवसरों पर वह मनचाही स्थिति को प्राप्त नहीं कर पाता।
गर्भ का शरीर और उसके अवयव यह पूर्णतः जीव की ही इच्छा से नहीं बनते। वह साझे का कार्य माता पिता का रज वीर्य और जीव की इच्छा इन सबके मिलने से ही नवीन शरीर बनता है। कुम्हार और मिट्टी इन दोनों में से एक भी दोष पूर्ण होगा तो इच्छित फल की प्राप्ति न होगी। माता पिता का रज वीर्य मिट्टी है और जीव कुम्हार। अनाड़ी कुम्हार अच्छी मिट्टी से भी खराब बर्तन बनाता है और अच्छे कुम्हार का प्रयत्न खराब मिट्टी के कारण बेकार रहता है। जीव यदि उत्तम संस्कार वाला हो तो रज वीर्य के भौतिक संस्कारों पर अपना उत्तम प्रभाव डालता है और कुछ न कुछ सुधार कर लेता है, इसके विपरीत कुसंस्कारी जीव उत्तम रज वीर्य में भी कुछ न कुछ दोष मिला देता है। फिर भी माता पिता के संस्कारपूर्ण रूप से मिट नहीं जाते उनका बहुत बड़ा प्रभाव होता है। माता पिता की भावनाओं का प्रभाव गर्भ शरीर पर पड़ता है, यदि जीव ऊंचे दर्जे का न हो तो उसे उन शारीरिक संस्कारों के क्षेत्र में ही रहना पड़ता है। देखा गया है कि व्यभिचार द्वारा उत्पन्न हुई सन्तान बहुधा दुष्ट होती है, क्योंकि गर्भाधान के समय माता पिता का अन्तरात्मा पाप कर्म के कारण बड़ा व्यग्र रहता है, वही संस्कार गर्भ पर उतर जाते हैं।
कुछ जीव किन्हीं खास दुष्ट आदतों में बुरी तरह प्रवृति हो जाते हैं, वे किन्हीं इन्द्रियों का बार बार दुरुपयोग करते हैं। हर बार उन्हें नरक भोगना पड़ता है पर वे आदत से इतने मजबूर होते हैं कि दण्ड भाग कर उसे भुला देते हैं और फिर उसी आदत का अनुसरण करने लगते हैं। ऐसे जीवों की वे इन्द्रियां कुछ जन्मों के लिए छीन ली जाती हैं। जैसे मध्य प्रान्त के मंत्री मि. खैर को कांग्रेस की सदस्यता से पांच साल के लिए वंचित कर दिया गया था। या जैसे बन्दूक का दुरुपयोग करने वालों से सरकार लाइसेंस जप्त कर लेती है। इसी प्रकार अदृश्य सत्ता यह आवश्यक समझती है कि इसकी अमुक इंद्रियों को जप्त कर लिया जाय, ताकि वह आदत अगले जन्म में छूट जाय। जन्म से गूंगे, बहरे, अन्धे, अपाहिज, नपुंसक वे होते हैं, जिनने अपनी उन इंद्रियों को अनुचित रीति से उपयोग करने की आदत डाल ली होती है। फिर भी यह भाग योनि नहीं है, जीवात्मा उनका भी जागृत होता है, और वे चाहें तो इच्छानुसार अन्धकार से प्रकाश की ओर चलने के लिए स्वतन्त्र हैं। कुछ मनुष्य इतने दुष्ट होते हैं कि जीवन भर अपनी सारी इन्द्रियों का दुरुपयोग ही दुरुपयोग करते हैं, उन्हें जड़ योनियों में जाना पड़ता है। वृक्षादि में जन्म लेना भोग योनि है। उनमें जीव तो रहता है पर क्रिया शील चेतना का अधिकांश भाग जब्त कर लिया जाता है। इन भोग योनियों में जन्म प्राप्त होना, प्रभु की ही कृपा का चिन्ह है, क्योंकि बिना जड़ योनि मिले उन दुष्ट संस्कारों को भुला सकना उस अज्ञानी के लिए कठिन है। वृक्षादि की योनियों में जीव को तब तक रहना पड़ता है, जब तक कि वह पुरानी बुरी आदतों को भूल नहीं जाता अब उसकी उन्नति का क्रम यहीं से आरम्भ होता है। वृक्ष के बाद कीड़े मकोड़े फिर पशु पक्षियों की योनियां धीरे धीरे पार करता है क्रमशः अधिक ज्ञान वाली योनि को अपनाता जाता है। डार्विन के उस मत को हम झूठा नहीं बताते जिसके अनुसार वह कहता है कि एक छोटे से कीड़े से बढ़ते बढ़ते जीव पशु पक्षियों की योनि धारण करता हुआ मनुष्य बनता है। हिन्दू धर्म शास्त्र इन योनियों की संख्या चौरासी लाख मानती हैं। भौतिक विज्ञानी उनकी संख्या इससे भी अधिक बताते हैं। जो हो यह निश्चित है कि दुष्ट कर्म करने वाले, अपनी इन्द्रियों को बार बार अनुचित रीति से प्रयोग करने वाले, जड़ योनियों में जन्म लेते हैं, और फिर वहां से उन्नति करते करते मनुष्य शरीर प्राप्त करने में हजारों लाखों शरीर बदलने पड़ते हैं। किसी योनि में उन्नति क्रम रुक गया तो वह योनि एक से अधिक बार भी ग्रहण करनी पड़ती है, जैसे फेल हो जाने पर विद्यार्थी को दूसरे वर्ष भी उसी कक्षा में पढ़ना पड़ता है।
जड़ योनियों में जाने का दण्ड प्रायः उन्हीं जीवों को दिया जाता है, जो अत्यन्त दुष्ट होते हैं और अपनी क्रियाशीलता को पतनोन्मुखी कर लेते हैं। साधारण पुण्य पाप करते रहने वालों को दूसरी बार भी मनुष्य जन्म मिलता है क्योंकि लाखों योनियों में भ्रमण करके उसने जो इतना ज्ञान सम्पादन किया है, वह इतना उपेक्षणीय नहीं है कि जरासी बात पर करोड़ों वर्षों तक भटकने के लिए उसी चक्कर में फिर पटक दिया जाय। मनुष्यों को बार बार यह अवसर दिया जाता है कि वे अपनी अन्तिम उद्देश्य परम पद को पावें।