मनुष्य गिरा हुआ देवता या उठा हुआ पशु ?

‘अमीबा’ से नहीं मनुष्य ईश्वर की इच्छा से बना है

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भगवान मनु ने कहा है—

मनः सृष्टिं विकुरुते चोद्यमानसिसृक्षया ।
—मनु. 1। 74-75

सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा ने अपनी इच्छा शक्ति से मन (जीवों) को उत्पन्न किया।

सृष्टि की हलचल की ओर ध्यान जमाकर देखें तो यह सत्य ही प्रतीत होगा कि इच्छाओं के कारण ही लोग या जीव क्रियाशील हैं, यह इच्छायें अनेक भागों में बंटी हुई है—(1) दीर्घ-जीवन की इच्छा, (2) कामेच्छा, (3) धन की इच्छा, (4) मान की इच्छा, (5) ज्ञान की इच्छा, (6) न्याय की इच्छा और (7) अमरत्व या आनन्द प्राप्ति की चिर तृप्ति या मोक्ष। इन सात जीवन धाराओं में ही संसार का अविरल प्रवाह चलता आ रहा है। इन्हीं की खटपट, दौड़-धूप ऊहापोह में दुनिया भर की हलचल मची हुई है, इच्छायें न हों तो संसार में कुछ भी न रहे।

इन इच्छाओं की शक्ति से ही सूर्य, अग्नि और आकाश की रचना हुई है। देखने और सुनने में यह बात कुछ अटपटी-सी लगती है, किन्तु वस्तुस्थिति यह है कि जब हम शोक, क्रोध, काम या प्रेम आदि किसी भी स्थिति के होते हैं तो शारीरिक परमाणुओं में अपनी अपनी विशेषता वाली गति उत्पन्न होती है। परमाणु जो एक ही पदार्थ या चेतना की अविभाज्य स्थिति में होते हैं, भिन्न-भिन्न प्रकार से स्पंदित होते रहते हैं, इससे स्पष्ट है कि शरीर की हलचल इच्छाओं पर आधारित है।

अभी यह प्रश्न उठ सकता है कि क्या मूल चेतना में अपने आप इच्छायें व्यक्त करने की शक्ति है। इस बात को वर्तमान वैज्ञानिक उपलब्धियों से भली प्रकार सिद्ध किया जा सकता है। जिन्होंने विज्ञान का थोड़ा भी अध्ययन किया होगा, उन्हें ज्ञात होगा कि जड़ पदार्थ (मैटर) को शक्ति (एनर्जी) अथवा विद्युत (इलेक्ट्रिसिटी) में बदल दिया जाता है। इस बात का पता पदार्थ की अति सूक्ष्म अवस्था में पहुंचकर हुआ। हम जानते हैं कि पदार्थ परमाणुओं से बने हैं। परमाणु भी अन्तिम स्थिति न होकर उनमें भी इलेक्ट्रान तथा ‘प्रोट्रॉन’ आवेश होते हैं। प्रोटान परमाणु का केन्द्र है और इलेक्ट्रान उस केन्द्र के चारों ओर घूमते रहते हैं। यह दोनों अंश छोटे-छोटे टुकड़े नहीं हैं वरन् यह धन और ऋण आवेश (इलेक्ट्रिसिटी) है, दोनों की सम्मिलित प्रक्रिया का नाम ही परमाणु है। इस दृष्टि से देखें तो यह पता चलेगा कि संसार में जड़ कुछ है ही नहीं। जगत् का मूल तत्व विद्युत है और उसी के प्रकम्पन (वाइब्रेशन्स) द्वारा स्थूल और सूक्ष्म पदार्थों का अनुभव होता है। छोटे-छोटे पौधों, वृक्ष एवं वनस्पति से लेकर पहाड़, समुद्र, पशु-पक्षी, रंग-रूप और अग्नि, वायु, शीत, ग्रीष्म आदि सब विद्युत चेतना के ही कार्य हैं। एक ही शक्ति सब पदार्थों के मूल में है। सृष्टि के आविर्भाव से पूर्व एक ही तत्व था, यह बात इतने से ही साबित हो जाती है।

कृषि विज्ञान के बहुत से पण्डितों ने पदार्थों के अन्दर पाये जाने वाले गुण सूत्रों (क्रोमोसोम) में परिवर्तन करके उनकी नस्लों में भारी परिवर्तन करने में सफलता पाई है। दिल्ली के प्रसिद्ध वैज्ञानिक डा. जी.आर. राव ने मकोय के गुण सूत्रों पर ‘कोल्चीसाइन’ क्रिया के द्वारा प्रभाव डालकर उसे टमाटर की नस्ल में परिवर्तित कर दिया। शकर से हीरा बनाया गया है पर वह वास्तविक हीरे से महंगा पड़ता है। इससे भी यही जान पड़ता है कि पदार्थ की मौलिक चेतना विघटित और संगठित होकर नये-नये पदार्थों का निर्माण कर लेती है। यहां यह लगेगा कि यह प्रयोग मानव कृत है, फिर मूल-तत्व की अपनी इच्छा का क्या महत्व रहा?

वैज्ञानिक यह बताते हैं कि परमाणु में इलेक्ट्रान चक्कर लगाते-लगाते एकाएक अपना स्थान बदल देता है, जिसका कोई कारण नहीं होता उसका यह स्थान परित्याग कार्यकरण सिद्धान्त (ला आफ काजेशन) से परे होता है। अर्थात् विद्युत जहां एक बद्ध तत्व है, वहां उसकी अपनी इच्छा और चेतनता भी है, भले ही वह विद्युत तत्व से कोई सूक्ष्मतर स्थिति हो और अभी उसका अध्ययन एवं जानकारी वैज्ञानिकों को नहीं हो पाई हो। इस मौलिक स्वाधीनता को ला आफ इनडिटरमिनेसी के नाम से पुकारा जाता है और उसी के आधार पर अब वैज्ञानिक भी कहने लगे हैं कि विश्व की सभी वस्तुयें एक दूसरे से सम्बद्ध परस्पर अवलम्बित और एक ही संगठन में पिरोई हुई हैं। सारा संसार अर्थात् पृथ्वी से लाखों दूर के नक्षत्र तक गणित के सिद्धान्तों से बंधे हुए हैं, वैज्ञानिक तब यह मानने को विवश हुए कि सम्पूर्ण जगत् एक ही वांछित संस्थान (राशनल सिस्टम) के द्वारा संचालित है। प्रकृति में पूर्ण व्यवस्था और नियमबद्धता है और वह सब किसी विश्व-व्यापी, स्वेच्छाचारी शक्ति के ही आधीन है।

हम उसका स्वरूप भले ही समझ न पाते हों पर उस सत्ता के अस्तित्व से इनकार नहीं कर सकते। उसी ने अपनी इच्छा से धरती में पुरुष तत्व को पैदा किया। जब अनेक इच्छायें जीवधारियों के रूप में उत्पन्न हुई तो उनमें शक्ति और इच्छा बल के कारण परस्पर संघर्ष हुआ। एक जीव दूसरे को खाने और सताने लगा। उससे थोड़े ही दिन में सृष्टि का अन्त दिखलाई देने पर ईश्वरीय सत्ता को किसी सर्वशक्ति सम्पन्न जीवधारी के उत्पन्न करने की कल्पना सूझी होगी। मनुष्य का आविर्भाव उसी इच्छा का परिणाम लगता है। मनुष्य में ही वह क्षमता है जो उपरोक्त सातों इच्छाओं में क्रम और अनुशासन, न्याय एवं व्यवस्था बनाये रख सकता है क्योंकि उसके लिये प्रत्येक उचित शक्ति भगवान ने उसे दी है, जो और किसी भी प्राणी को नहीं दी। यदि मनुष्य इस बात को भावनाओं की गम्भीरता में उतर कर समझता नहीं और स्वयं भी पाशविक आचरण करता है, उसे उस योनि में जाने का भगवान का दण्ड-विधान अनुचित नहीं है। उत्तराधिकार में पाये हुए साम्राज्य और शक्तियों को मनुष्य जैसा विवेकशील प्राणी अपने स्वार्थ में लगाये और विश्व-व्यवस्था या ईश्वरीय आदेश का परिपालन न करे तो यह दण्ड मिलना उचित ही है।

अमीबा से मनुष्य जाति के विकास की पाश्चात्य थ्योरी को समूचे ज्ञान का एक अंश कहा जा सकता है, सम्पूर्ण नहीं। जो शक्ति सूर्य, चन्द्रमा जैसे प्रकाशवान् नक्षत्र, शीत ग्रीष्म, वर्षा जैसी जटिल और व्यापक प्रकृति उत्पन्न कर सकती है, उसे अमीबा से हाइड्रा, जोड़वाला, मछली, मण्डूक, सर्पणशील पक्षी और फिर स्तनधारी जीव के क्रमिक विकास की क्यों आवश्यकता हुई होगी।

विकास की थ्योरी को सत्य मान लें तो यह सोचना पड़ेगा कि अमीबा के एक कोष्ठ से ही स्त्री और पुरुष दो भेद कैसे पैदा हो गये। यदि ‘अमीबा’ के बाद दो कोष्ट का ‘हाइड्रा’ हुआ तो क्रम से सभी योनियां दुगुने परिणाम से क्यों नहीं बढ़ती? यदि सर्पणशील जीवों से पर-धारी जीव विकसित हुए तो वह कृमि जो पर-धारी होते हैं और उड़ लेते हैं वह किस विकास प्रक्रिया पर आधारित हैं? पक्षी, जलजन्तु और कीड़े सभी मांस खाते हैं, स्तनधारी यदि उन्हीं से विकसित हुये तो गाय, भैंस और बकरी आदि मांस क्यों नहीं खाते? एक-सी स्थिति में उत्पन्न हुए हाथी और हथनियों में, मुर्गी और मुर्गे में तथा मोर और मोरनी में शारीरिक विकास में अन्तर क्यों पाया जाता है। स्मरण रहे कि हथिनी के बड़े दांत नहीं होते, मोरनी के लम्बे पंख और मुर्गी के शिर में कलगी नहीं होती। प्राणियों में दांतों की संख्या और आकृति, प्रकृति में अन्तर पाया जाता है। घोड़े के स्तन नहीं होते, बैल के अण्डकोष के पास स्तन होते हैं। यदि यांत्रिक सिद्धान्त पर प्राणियों का विकास हुआ तो पक्षियों की अपेक्षा कछुए और सर्प ने अधिक जीवन क्यों पाया? आदि ऐसी आशंकायें हैं, जिनसे यह पता चलता है कि मनुष्य अन्य जीवों की विकसित अवस्था न होकर ईश्वरीय इच्छा से प्रकट अपने आप में एक पूर्ण चमत्कार है और वह किसी प्रयोजन के लिये ईश्वरीय इच्छा से ही हुआ है। मनुष्य शरीर की जटिल प्रक्रियायें, चक्रों और ग्रन्थियों की संरचना ऐसी है, जिसे देखकर भी ऐसा लगता है कि मनुष्य का निर्माण किसी बहुत सूझ, समझ और योग्यता के साथ हुआ है, उसमें अन्य जीवों की विकसित स्थिति के लक्षणों का पूर्णतया अपवाद है।

जब तक एक स्थान के वृक्ष वनस्पतियां या जीव अन्य स्थानों में नहीं ले जाये जाते वहां उनका अभाव रहता है, इससे भी विकासवाद का सिद्धान्त कट जाता है। भारत में बाघ, सिंह और हाथी होते हैं, इंग्लैंड में नहीं, सांप, बिच्छू और अन्य गर्मी में पैदा होने वाले प्राणी शीत प्रधान योरोपीय देशों में नहीं होते। अंग्रेज और भारतीय जलवायु के प्रभाव में अपने-अपने वर्ण के होते हैं, रंग रूप सभी भिन्न होते हैं, यूरोपवासी जब तक नहीं गये थे, आस्ट्रेलिया में खरगोश नहीं थे। जब तक प्राणी कहीं पहुंच कर अपनी संतति का स्वयं विस्तार न करे कोई जीव हो नहीं सकता, मनुष्य के सम्बन्ध में भी यही बात है, उसने अपना विकास तो किया है पर वह भिन्न भिन्न देशों में किसी एक स्थान से विकसित होकर गया है।

इस विकास की थ्योरी को बुद्धि संगत नहीं माना जा सकता, वह हम ऊपर लिख चुके हैं। मनुष्य की आदिम स्थिति और आज की स्थिति की तुलना करें तो लगता है कि शरीर, स्वास्थ्य, आयु और ज्ञान सब दृष्टि से आज का मनुष्य बहुत छोटा है, विकास की स्थिति में तो मनुष्य को अब तक कुछ से कुछ हो जाना चाहिये था पर प्रकृति में अपने आप विस्तार की क्षमता नहीं है।

इतने वर्ष पूर्व जो भी जीव सृष्टि में पहले आया होगा, उसे लेकर ही चलें तो भी यही मानना पड़ेगा कि वह चाहे प्रकृति कहें या परमेश्वर उनमें से किसी की इच्छा या चेतन-क्रियाशीलता के द्वारा ही हुआ होगा। मेन्टल रेडियो के लेखक अप्टन सिक्लेयर के इस कथन से भी यही बात पुष्ट होती हैं, वे लिखते हैं—हम स्पष्ट रूप से कॉस्मिक या ऐच्छिक चेतना का चिन्ह पा रहे हैं—कुछ ऐसा मानसिक पदार्थ (मेन्टल स्टफ) हम सब में समान होता है, हम उसे वैयक्तिक चेतना में ला सकते हैं। हमें यह भी मालूम है कि एक सर्वमान्य (यूनीवर्सल) मानसिक पदार्थ भी उसी प्रकार होता है, जिस प्रकार सर्वमान्य शरीर पदार्थ (यूनीवर्सल बॉडी स्टफ) जिससे हमारा निर्माण होता है। हम सब उसी इच्छा से जन्मे हैं।

वैज्ञानिकों के यह सूत्र आगे और भी भारतीय दावे की स्पष्ट पुष्टि करेंगे और यह बतायेंगे कि मनुष्य का जन्म किसी अज्ञात शक्ति की उद्देश्यपूर्ण इच्छा से हुआ है, उसे वन्य-जीवन के बीच शांति, व्यवस्था, मर्यादा, पुण्य और आनन्द की उपलब्धि के लिये भेजा गया है, ताकि भटकती हुई इच्छायें फिर आनन्द में परिणित हो सकें। जो मनुष्य इस ईश्वरीय प्रयोजन को पूरा नहीं करता वह बार-बार उसी वन्य-जीवन में कष्ट भोगने का ही दण्ड पाता है।

विकास या पतन अपनी इच्छा से

विकासवाद के सिद्धांतों को वैज्ञानिक क्षेत्रों में भी पुनः परखा जा रहा है। और नयी शोधें-नये निष्कर्ष भारतीय दर्शन की मान्यताओं को ही पुष्ट करते हैं। उदाहरण के लिए पुनर्जन्म के सिद्धान्त को ही लें महर्षि वशिष्ठ ने राम को पुनर्जन्म प्रकरण पढ़ाते हुए कहा है—

आशापाश शतावद्धा वादनाभाव धारिणः । कायात्कायमुपायान्ति वृक्षाद्वृक्षमिवाण्डजा ।।

हे राम! मनुष्य का मन सैकड़ों आशाओं (महत्वाकांक्षाओं) और वासनाओं के बन्धन में बंधा हुआ मृत्यु के उपरान्त उन क्षुद्र वासनाओं की पूर्ति वाली योनियों और शरीरों में उसी प्रकार चला जाता है जिस प्रकार एक पक्षी एक वृक्ष को छोड़कर फल की आशा से दूसरे वृक्ष में जा बैठता है।

मनुष्य जैसा विचारशील प्राणी इतर योनियों—मक्खी, मच्छर, मेढ़क, मछली, सांप, बैल, भैंस, नेवला, शेर, बाघ, चीता, भेड़िया, कौवा आदि योनियों में किस प्रकार चला जाता होगा। यह बात राम की समझ में नहीं आई। उन्होंने अपनी शंका महर्षि के समक्ष प्रकट की और कहा भगवन्! मनुष्य जैसा समझदार व्यक्ति भला दूसरी योनियां क्यों पसन्द करेगा? इस पर महर्षि ने राम को जिस ढंग से जीवात्मा द्वारा अन्य शरीर धारण करने की अवस्था और मनोविज्ञान समझाया है वह वस्तुतः हर विचारशील व्यक्ति के लिए मनन करने की अत्यन्त महत्वपूर्ण वस्तु है—वशिष्ठ ने राम को वह तत्वज्ञान जिन शब्दों में दिया योगवशिष्ठ में उन्हें तीसरे अध्याय के 55 सूत्र में 39, 40, 41 और 4 श्लोकों में इस प्रकार बताया है—

हे राम! वीर्य रूप में जीवात्मा ही स्त्री की योनि में आता है और गर्भ में पककर एक बालक का रूप धारण करता है। (यहां शास्त्राकार का वह कथन भी प्रामाणिक है जिसमें आत्मा को अणोऽरणीयान—अर्थात् सूक्ष्म से भी सूक्ष्म कहा गया है पुरुष शरीर का वीर्य कोष (स्पर्म) अत्यन्त सूक्ष्म अणु होता है यह विज्ञान भी सिद्ध कर चुका है और अपने पूर्व जन्मों के संस्कारों के अनुरूप अच्छा या बुरा शरीर प्राप्त करता है। उल्लेखनीय है कि उसी कोष में ही जीव की शारीरिक रचना के सारे गुण सूत्र (क्रोमोसोम) रहते हैं यह भी विज्ञान सिद्ध कर चुका है। बालक धीरे-धीरे बढ़ने लगता है और इस प्रकार वह युवावस्था में पदार्पण करता है। पकी हुई इन्द्रियां अपने सुख मांगती हैं कुछ पूरी होती हैं अधिकांश अधूरी। अधूरी रह गई वासनाओं महत्वाकांक्षाओं को मनुष्य अपने मन में भीतर ही भीतर दबाता रहता है क्योंकि एक बार उठी वासना जब तक पूर्ण नहीं हो जाती नष्ट नहीं होती वरन् वह भीतर ही भीतर और भी बलवती होती रहती है। फ्रायड ने स्वप्न प्रकरण में स्वीकार किया है कि मनुष्य की दमित वासनायें ही स्वप्न के उसी तरह के काल्पनिक चित्र तैयार करती हैं और मनुष्य अद्भुत तथा अटपटे स्वप्न देखता है। वासनाओं के दमन से शरीर के पंच भौतिक पदार्थों पर दबाव पड़ता है और वे क्रमशः कमजोर होते चले जाते हैं जिससे वृद्धावस्था आ जाती है और मनुष्य का शरीर मर जाता है पर मन अपनी वासना के अनुसार एक दूसरे जगत में प्रवेश कर जाता है। [गीता में भगवान् कृष्ण ने शरीरों को क्षेत्र या जगत कहा है महर्षि वशिष्ठ ने यह जो दूसरे जगत में जाने की बात कही उसका तात्पर्य दूसरी योनि के शरीर से ही है। शरीर और भौतिक प्रकृति में कोई अन्तर नहीं है यह विज्ञान भी मानता है कि अब तक ढूंढ़े गये 108 तत्व ही विभिन्न क्रमों में सजकर विभिन्न प्रकार के किन्हीं और शरीरों की रचना करते हैं।] इस प्रकार अपने तन की वासना के अनुरूप जीव तब तक अनेक शरीरों में भ्रमण करता रहता है जब तक उसकी वासनायें पूर्ण शान्त नहीं हो जातीं और वह फिर से शुद्ध आत्मा की स्थिति में नहीं आ जाता। प्रबुद्ध आत्मा बालक के रूप में फिर से जन्म लेती है, अब यह उसके अधिकार की बात होती है कि यह अपना फिर से प्राप्त यह सौभाग्य सार्थक करे, आत्म साक्षात्कार, स्वर्ग मुक्ति जैसे पवित्रतम जीवन उद्देश्य को सफल बनाने या फिर से उन्हीं तुच्छ भोग-वासनाओं और अहंकार पूर्ण आकांक्षाओं की दिशा में अपनी प्रगति प्रारम्भ करके फिर उन्हीं 84 लाख योनियों में चक्कर काटने के लिए चल दे।

जीवात्मा के बन्धन और मुक्ति के स्वरूप का इन पंक्तियों में महर्षि वशिष्ठ ने इतना सुन्दर और युक्त संगत दर्शन प्रस्तुत किया है जिसे पढ़कर यही मानना पड़ता है कि उन्होंने अपनी बुद्धि अपने मन को कितना सूक्ष्म और शुद्ध बनाकर इस तथ्यों की खोज की होगी। इस देश में करोड़ों वर्षों तक आत्मा का यह दर्शन लोगों को जीवन मुक्ति की दिशा प्रदान करता रहा। यहां का औसत नागरिक भी मूल आत्मा के गुणों और शक्तियों से परिपूर्ण हुआ करता था। थोड़े शब्दों में भारतवर्ष में स्वर्ग ही उतर कर आ गया था। किन्तु पश्चिम में इस सिद्धान्त से बिलकुल उल्टा ‘‘विकासवाद’’ का सिद्धांत [एवोल्यूशन थ्योरी] जब से चल पड़े तब से जीवात्मा के इस महान् दर्शन का पतन शुरू हुआ और लोग आत्मा को ऊर्ध्वगामी और शक्तिशाली बनाने वाली साधनों को छोड़ बैठे। विकासवाद का सिद्धांत मूल रूप से मनुष्य शरीर का रचना काल ढूंढ़ने और यह शरीर कैसे बना इस रहस्य को जानने के लिए प्रकाश में आया पर उसे जिस रूप में प्रस्तुत किया गया उससे मनुष्य और कला मनुष्य और उसके साथ अनिवार्य रूप से जुड़े हुए मनोविज्ञान का सम्बन्ध ही टूट गया। एक कोषीय जीव से जटिल कोषों वाले शरीरों की रचना का विकास दरअसल जीवात्मा के पतन का ही उल्टा खड़ा किया हुआ ढांचा है। संसार में जीवों की संख्या इतनी अधिक है कि उनको एक क्रम में सजाकर यह सिद्ध करना कि मनुष्य शरीर अमीबा जैसे किसी क्षुद्र एक कोषीय जीव का विकसित रूप है कोई-कठिन काम नहीं है पर विकासवाद का सिद्धान्त आखिर मनुष्य के साथ जुड़े हुए मनोविज्ञान को कहां सन्तुष्ट कर पाता है उसका खड़ा किया हुआ अपना ही ढांचा अब बेबुनियाद सिद्ध हो रहा है। नई वैज्ञानिक उपलब्धियों ने जो नये प्रश्न खड़े कर दिये विकासवादियों के पास उनके कोई उत्तर नहीं हैं।

उदाहरण के लिए स्वयं डारविन ने जो कि विकासवाद के जन्मदाता थे यह माना है कि अन्य जीवों विशेष रूप से बन्दर के शरीर से मनुष्य शरीर में विकसित होने की श्रृंखला हम ढूंढ़ नहीं सके। उन्होंने अपनी इस असफलता के बावजूद भी यह कहा कि एक दिन ऐसे अस्थि कंकाल मिलेंगे जो इस खोई हुई कड़ी (मिसिंग लिंक) की पूर्ति करेंगे। पीछे कुछ ऐसे अस्थि कंकाल मिले भी जिन्हें मनुष्य और मनुष्येत्तर जीवों के शारीरिक विकास की कड़ी माना जाता है। उदाहरण के लिए 1959 में डा. लीके ने टंगनियका प्रान्त में ओल्टवह जार्ज नामक स्थान में खुदाई कराते समय एक कंकाल पाया जिसका नाम ‘‘आस्ट्रोलिपिथोस’’ रखा गया। उस मनुष्य के पास ही हथियारों के आकार की कुछ वस्तुयें पाई गई। विकास शास्त्रियों ने उसे मनुष्य का बहुत समीपवर्ती वंशज माना। वैज्ञानिक कून ने पहले ही शंका प्रकट की थी कि विकासवाद की पुष्टि के लिए सबसे पहले वैज्ञानिक जानकारियां उपलब्ध की जानी चाहिए यह नहीं मान लेना चाहिए कि विकासवाद ही सही है अन्यथा वैज्ञानिक किसी भी तरीके से प्रणाम जुटाने का प्रयास करेंगे और इस तरह एक गलत सिद्धांत को भी सच्चा प्रमाणित कर दिया जायेगा। उन्होंने यह बताया कि गिवन ‘आरेन्यूटन’ गोरिल्ला और चिम्पैन्जी—ये चार बन्दरों की जातियां हैं जिनमें गोरिल्ला और चिम्पैन्जी मनुष्य की शारीरिक बनावट से बहुत अधिक समानता रखते हैं। इनके कंकाल मनुष्य के कंकाल से मिलते-जुलते होते हैं इसलिए यह सम्भव है कि जिन कंकालों को मनुष्य के और अन्य जीवों के बीच की कड़ी माना जाता है वे कड़ी न होकर किसी बन्दर के ही कंकाल रहे हों। कम से कम 1959 में खोजे गये अस्थि-कंकाल के बारे में यही हुआ। वैज्ञानिकों ने इस कंकाल की खोज करते समय आगे चलकर पाया कि यह अस्थि-कंकाल तो कुछ 100 वर्ष ही पुराना है और इस जाति के लोग अभी भी धरती में पाये जाते हैं।

वैज्ञानिक श्री सी.एस. कून ने अपनी पुस्तक ‘‘दि ओरिजिन आफ रेसेस न्यूयार्क 1962 पेज 4 में विकासवाद को गलत बताते हुये लिखा है—अगर मनुष्य की जातियां कुछ हजार साल पूर्व किसी एक जाति के प्राणी से बनी होती हों तो उन सब जातियों को एक ही भाषा बोलनी चाहिये थे। एक ही उत्पत्ति केन्द्र होने पर यह कैसे सम्भव है कि विश्व में हजारों प्रकार की बोली और वर्णमाला की रचना हुई। एस्किमो और एल्यूट जाति के लोग एक ही भाषा बोलते हैं जबकि दोनों के इतिहास में 2000 वर्ष का अन्तर है। दूसरी ओर आस्ट्रेलिया और तस्मानिया में रहने वाली कुछ जातियां उन जातियों से समानता रखती हैं जिनको 100000 वर्ष पुराना माना जाता है।’’

वैज्ञानिक अनुसन्धानों से यह भी पता चला है कि प्राचीन काल के मनुष्य का मस्तिष्क आज के मनुष्य के मस्तिष्क से विकसित था। तब के मस्तिष्क की क्षमता (कैपिसिटी) 1600 सी.सी. थी जबकि आज 1300 सी.सी. है। विकास क्रम में ऐसा नहीं होना चाहिये था। विकासवाद के अनुसार आदि मानव को बर्बर, असभ्य और जंगली होना था पर भूगर्भ की खुदाई से प्राप्त प्राचीनतम सिक्के, हथियार और कला-कृतियां इस बात की प्रमाण हैं कि आज की अपेक्षा पहले के लोकग शरीर मस्तिष्क दोनों से अधिक समर्थ थे। अलेक्जेन्डर मारशाक ने अपनी पुस्तक ‘‘दि बेटन आफ मांटगेडियर नेचुरल हिस्ट्री’’ वाल्यूम एल 39 न. 3 मार्च 1970 पेज 58 में लिखा है कि—मैं पिछले 6 वर्षों के निरन्तर अध्ययन से इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि प्राचीन मनुष्यों की कला और संस्कृति आज से ऊंचे स्तर की थी। विकासवाद के अनुसार कला को भी विकासोन्मुखी होना चाहिये। इससे प्रकट है कि विकासवाद का सिद्धान्त मनगढ़न्त अधिक तथा तथ्यपूर्ण कम है।

राकशेल्टर 9 होशंगबाद मध्य प्रदेश की गुफा में एक जिराफ और खंगधारी घुड़सवार की आकृति बनी है। भारतीय पुरातत्व जिसकी मान्यतायें पाश्चात्य देशों पर ही आधारित हैं, ने इस चित्रकारी को ईसा से अधिक से अधिक 1000 वर्ष पुराना माना है जबकि हिन्दुस्तान में इतने समय पहले तक कोई भी जिराफ नहीं पाया जाता था। जिराफ का एक कंकाल हिमालय में मिला था उसकी आयु 11 लाख वर्ष पूर्व बताई जाती है। इसी प्रकार मिर्जापुर की गुफाओं में, रामगढ़ की गुफाओं में, फ्रांस की गुफाओं में ऐसे चित्र उपलब्ध हैं जो यह प्रमाणित करते हैं कि मनुष्य जाति अपने प्रादुर्भाव काल से कला और संस्कृति का ज्ञान रखती रही है। यह तथ्य विकासवाद से बिलकुल उलटे हैं। लगभग 2।। करोड़ वर्ष पूर्व अमरीका में एक जानवर पाया जाता था उसके अस्थि कंकालों के अध्ययन के आधार पर उसका नाम मूर्खपाद (फुलिश फूटेड, मोरोपस) रखा गया है इसी तरह के जीव कुछ अन्य जैसे डायनोसौर, डेविल कार्क स्क्रू, स्टेबिंग कैट भी उस समय पाये जाते थे। यह अस्थि कंकाल विकास शास्त्रियों के लिये आज भी सिर दर्द हैं वे यह नहीं समझ पा रहे इन्हें विकास सिद्धान्त की किस श्रेणी में रखा जाये।

हमारा उद्देश्य इन पंक्तियों में विकासवाद की आलोचना करना नहीं यह बताना है कि इस सिद्धान्त ने मनुष्य जीवन के एक शाश्वत सिद्धान्त से किस प्रकार उसका ध्यान खींचकर उसे भ्रमित किया और उसे केवल भौतिक सुखों के ही आकर्षण जाल में फंसने को विवश किया। मनुष्य से आश्चर्य जनक मनुष्य का मन और उसका मनोविज्ञान है। मनुष्य की उत्पत्ति के साथ उसकी पुरानी हड्डियों का सम्बन्ध जोड़कर विकासवाद का सिद्धान्त बना दिया जाय पर उसके अभिन्न अंग मनोविज्ञान के साथ कोई सिद्धान्त न तय किया जाये इससे बढ़कर मूर्खता और दुर्भाग्य क्या हो सकता है। आज विज्ञान मानता है कि संस्कार और सम्पूर्ण मनोमय चेतना कोश (सेल) के भीतर रहते हैं। वह शक्ति या प्रकाश के रूप में प्रकृति की विलक्षण और जटिलतम रचना है। सृष्टि के समस्त 108 प्रकार के तत्व और उनसे सम्मिश्रित 1×2×3×4×5×6×7×8×9×10×11×12×13×14×15×16 ......... ×108=प्रकार के गुण सूत्रों से सम्पन्न कोश (सेल) मनुष्य शरीर में होते हैं यह संस्कार शक्ति के रूप में सदैव भ्रामर रहते हैं केवल इनमें रासायनिक परिवर्तन हुआ करता है। तब फिर यह क्यों न माना जाय कि मनुष्य की चेतना ही अपने एक-एक गुणों का त्याग करती हुई मनुष्य योनि से भटकती हुई अन्य योनियों में भ्रमण किया करती है। इस दृष्टि से यदि नये सिरे से अध्ययन प्रारम्भ किया जायेगा तो पता चलेगा कि विकासवाद का सिद्धान्त बिलकुल उल्टा है और यह सच है कि मनुष्य-चेतना या आत्म-चेतना ही है जो अपने मूलभूत गुणों को त्यागकर वासनाओं के कारण अन्य शरीरों में भ्रमण करने को विवश होता है। डा. फ्रायड के अनुसार दमित वासनायें स्वप्न की कल्पना में आती हैं यदि उसी सिद्धान्त को व्यापक रूप से भारतीय आचार्यों ने यह कहा कि जीवन भर की दबी हुई महत्वाकांक्षायें, वासनायें मन अन्य शरीरों में जाकर चरितार्थ करता है अर्थात् मनुष्य देखने में चाहे कितना साफ-सुथरा शिक्षित दिखाई देता हो अपनी वासनाएं, तृष्णाएं जब तक नहीं छोड़ता तब तक वह इन निकृष्ट योनियों में जाने को मजबूर होता रहता है इसमें चिढ़ने जैसी कोई बात क्यों हो?

प्रसिद्ध शल्य चिकित्सक (शिकागो) डा. विल्डर पेनफील्ड ने मनुष्य के मस्तिष्क पर अनेक प्रयोग करके बताया है इन्च के दसवें भाग जितनी मोटी लगभग 25 वर्ग इन्च क्षेत्रफल की मस्तिष्क में काले रंग की दो पट्टियां होती हैं यह पूरे मस्तिष्क को ढके रहती है, मनुष्य जब पुरानी बातें स्मरण करने का प्रयत्न करता है तब स्नायुओं से निकलती हुई विद्युत धारायें इन पट्टियों से गुजरती हैं और वह घटनायें याद हो जाती है। ‘‘सामान्य स्थिति में मनुष्य अपनी मानसिक विद्युत को न तो इतना प्रखर बना पाता है और न ही एकाग्र हुए बिना किसी मदद से इस काली पट्टी के सम्पूर्ण इतिहास का पता लगा सके और जान सके कि वह पूर्व जन्मों में कब क्या था पर वैज्ञानिक प्रयोगों ने यह सिद्ध कर दिया है कि मन कभी मरता नहीं अपनी वासना और कर्मों के अनुसार वह बार-बार जन्म लेता और मरता रहता है।

उदाहरण के लिये डा. पेनफील्ड ने एक व्यक्ति की इस काली पट्टी में विद्युत प्रवाहित की तो वह एक गीत गुनगुनाने लगा जो न तो अमरीकन था न जर्मनी। उपस्थित कोई भी व्यक्ति उसे समझ न सका। उस गीत को टेपरिकार्ड कर लिया गया और भाषा-शास्त्रियों की मदद ली गई तो पता चला कि वह भाषा किसी आदिवासी क्षेत्र की थी और वह गाना सचमुच ही उस क्षेत्र के लोग गाया करते हैं। इस तरह की अनेक घटनायें डा. पेनफील्ड ने संग्रहीत की हैं जो यह बताती हैं कि जीवों के शरीर से विकासवाद को ही पुष्ट करने में लगे रहना समस्त मानव जाति के साथ एक प्रकार का धोखा है। हमें मन और उसके उत्थान या पतन का विज्ञान भी ढूंढ़ना चाहिये यदि मन की शक्ति का ज्ञान वैज्ञानिक पा सके और उसे मानव जीवन के साथ जोड़ सकें तो आज महर्षि वशिष्ठ की जो बातें लोग समझ नहीं पा रहे कल राम की तरह सभी उसे समझने और मनुष्य शरीर में ही ईश्वरत्व की प्राप्ति करने लगें। जब तक यह नहीं होना मनुष्य जाति पतित और निम्नगामी योनियों में भ्रमण करती रहे तो इसे न तो कौतुक माना जाय न ही अतिशयोक्ति।

यह तथ्य प्रतिपादित करते हैं कि मनुष्य न तो अमीबा से बना है और न ही किसी ऐसे प्राणी से जिसके बाद की कड़ियां विलुप्त हो गयी हों। वस्तुतः मनुष्य सर्वसमर्थ परमात्मा की सन्तान है, अपने भले बुरे कर्मों के कारण ही उसे ऊंची और गिरी हुई योनियों में जाना पड़ता है।
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