मनुष्य गिरा हुआ देवता या उठा हुआ पशु ?

प्राण सत्ता का उदय और विकास श्रोत

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बात उन दिनों की है जब चीन में ब्रिटेन शासन करता था। शंघाई (चीन) के एक गुरुद्वारे में आत्मसिंह नामक एक ग्रन्थी रहता था। आत्मासिंह के सौम्य स्वभाव से लोग बहुत प्रभावित थे। वह जितने चरित्रवान थे उतने ही ईश्वर भक्त—उन्हें ईश्वरीय विधान पर अटूट आस्था थी।

दैवयोग से कुछ दिन पीछे बाबा सिंह की किसी ने हत्या कर दी। पुलिस ने आत्मासिंह पर सन्देह किया और परिस्थिति का लाभ उठाकर उसे गिरफ्तार कर मुकदमा चला दिया। आत्मासिंह अपनी निर्दोषिता के कोई स्थूल प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर सके इसलिये अन्धे कानून ने उन्हें फांसी की सजा दे दी।

फांसी के लिये शंघाई से जल्लाद न मिलने पर हांग-कांग से जल्लाद बुलाये गये। नियत समय पर फांसी प्रारम्भ हुई। गले में फांसी का फन्दा डालकर जैसे ही नीचे का तख्ता हटाया गया कि एक जोर की धड़ाम की आवाज आई। रस्सा बीच से टूट गया। आत्मासिंह फर्श पर जा गिरे उन्हें चोट नहीं आई।

पदाधिकारी बड़े विस्मित हुए। मामला ब्रिटिश काउन्सिल जनरल सरजान ब्रेनन के पास पहुंचा। उन्हें कई विशेषज्ञ बुलाकर रस्से की जांच कराई। विशेषज्ञ कोई कारण नहीं ढूंढ़ सके—रस्सा टूटा कैसे इस पर सभी आश्चर्य चकित थे। दूसरा रस्सा मंगाया गया। उसमें आत्मासिंह के वजन से चार गुना अधिक वजन के पत्थर लटकाकर रस्से की परीक्षा करली गई और दुबारा फांसी की व्यवस्था की गई। इस बार बड़े-बड़े उच्च पदाधिकारी भी उपस्थित थे। जैसे ही दुबारा फिर फन्दा डालकर लटकाया गया कि पुनः पहले जैसी आवाज हुई और रस्सा टूट गया। आत्मासिंह को कोई चोट नहीं आई। चीन में ब्रिटिश राजदूत सरह्यू नायपुल ह्यूगेशन ने कहा—आत्मासिंह निर्दोष है, उसे फांसी नहीं दी जा सकती, क्योंकि उसका रक्षक परमात्मा है।

ईश्वर के प्रति आस्था-उसका सतत सान्निध्य मनुष्य में अद्भुत और विलक्षण शक्तियां जागृत कर देता है। इस तरह के कई प्रमाणिक उदाहरण मिलते हैं। स्वामी विवेकानन्द ने भी इस प्रकार के अनुभव का उल्लेख किया। उन दिनों स्वामी जी हैदराबाद गये हुए थे। वहां कोई ब्राह्मण रहता था, उसके बारे में स्वामी जी ने सुन रखा था कि ‘‘वह मनुष्य न जाने कहां से अनेक वस्तुयें उत्पन्न कर देता है।’’ वह उच्च खानदान का और शहर का नामी व्यापारी था। स्वामीजी उसके पास गये और अपने चमत्कार दिखाने को कहा। उस समय वह बेचारा बीमार था। भारतवर्ष में ऐसा विश्वास है कि अगर कोई पवित्र मनुष्य किसी के सिर पर हाथ रख दे तो उसकी बीमारी ठीक हो जाती है। वह ब्राह्मण स्वामी जी के समीप जाकर बोला—‘‘भगवन्! पहले आप मेरे सिर पर हाथ रख दें तो मेरा बुखार भाग जाय। अनन्तर में अपने चमत्कार दिखाऊंगा।’’ स्वामीजी ने शर्त स्वीकार करली।

वह मनुष्य अपनी कमर में एक चिथड़ा पहने था। अन्य सब कपड़े उतार कर रख दिये। अब उसे केवल एक कम्बल ओढ़ने को दिया गया। शीत के दिन थे और भी अनेक लोग एकत्रित हो गये। उसने कम्बल ओढ़ा और एक कौने में बैठ गया।

उसके बाद उसने कहा—‘‘आप लोगों को जो कुछ चाहिये वह लिखकर दीजिये।’ सबने कुछ लिख-लिखकर दिया, स्वामी जी ने स्वयं भी उन फलों के नाम लिखकर दिये, जो उस प्रान्त में पैदा ही नहीं होते थे, किन्तु आश्चर्य कि उसने कम्बल में से अंगूर के गुच्छे तथा सन्तरे इतनी अधिक मात्रा में निकाल कर दिये कि उनका वजन उस मनुष्य के वजन से दोगुना होता। वह फल सबने खाये भी। खाने योग्य थे भी अन्त में स्वामी जी के आग्रह पर उसने सौ डेढ़ सौ गुलाब के फूल निकाल कर दिये। प्रत्येक फूल बढ़िया खिला हुआ और पंखड़ियों पर सवेरे के ओस बिन्दु विद्यमान थे, न कोई खण्डित फूल था, न मुरझाया और न टूटा।

इस घटना पर अपनी सम्मति व्यक्त करते हुए स्वामी विवेकानन्द जी लिखते हैं—‘‘लोग इसे जादू मानते हैं, चमत्कार कहते हैं, यह अवांछित है, ऐसी मान्यता है किन्तु मैं ऐसा नहीं मानता। यह सत्य का ही प्रदर्शन था। जो है ही नहीं उसकी छाया कहां से आ सकती है, इसलिये यह माया नहीं थी।’’

‘‘यह मन की अनन्त शक्तियों का प्रमाण है, हम मन से जो चाहें उत्पन्न कर सकते हैं। मन के भीतर सारी सृष्टि की समृद्धि और सम्पत्ति है। शर्त यही है कि हम मन से काम लें। अनियन्त्रित मन अपना भी बुरा कतरा है, संसार का भी। हैदराबाद का यह ब्राह्मण मन से तो काम लेता है, मगर यह नहीं जानता कि मन से काम ले रहा है, वह भी भ्रान्त, इसलिये वह चमत्कार की दुनिया तक ही सीमित रह गया। अपने अन्दर ईश्वर को व्यक्त नहीं कर पाया।’’

पाल ब्रान्टन ने भारतवर्ष में इस तरह के चमत्कारों को ढूंढ़-ढूंढ़कर देखा और बाद में इस गुप्त विद्या के प्रतिपादन में पुस्तक लिखी। पांडिचेरी के फ्रांसीसी न्यायाधीश लुई जंकालियट ने भी एक ऐसी ही पुस्तक लिखी है, जिसमें भारतवर्ष की इस पुरातन विद्या की भूरि-भूरि प्रशंसा की है।

इस तरह की घटनायें दर्शाती हैं कि मनुष्य अपने आपके बारे में कितना कम जानता है और यह भी कि जैसा वह सोचता है उससे अधिक बड़ी व समर्थ शक्तियां उसके भीतर बीज रूप से विद्यमान हैं। इन अर्थों में मनुष्य को सर्व समर्थ ईश्वरीय सत्ता की प्रतिनिधि उत्तराधिकारी सन्तान ही कहा जाना चाहिए, परन्तु आधुनिक वैज्ञानिकों के अनुसार मनुष्य आरम्भ में क्षुद्र और अशक्त दुर्बल जीव ही था। धीरे धीरे ही उसका विकास हुआ।

क्रमशः विकास करने की इस वैज्ञानिक मान्यता को विकासवाद कहा जाता है। इन दिनों जीव-विज्ञानी विकासवाद के सिद्धान्त का बहुमत से समर्थन कर रहे हैं। यह मान्यता बहुचर्चित-बहु श्रुत होते-होते बहुमान्य भी हो गई है कि जीवन का आरम्भ अविकसित स्तर पर हुआ और वह क्रमशः आगे बढ़ता चला आया। आज-कल यही सिद्धान्त विद्यालयों में पढ़ाया जाता है और समझाया जाता है कि आदमी की आदि सत्ता अभिनन्दनीय नहीं है। उसका पूर्व इतिहास गौरवास्पद नहीं है। आज का मनुष्य अपने पूर्वजों से कहीं अधिक अच्छी स्थिति में है, यह मान्यता हमें अहंकारी ही नहीं बनाती वरन् पूर्वजों के प्रति अश्रद्धा, एवं उपहास के भाव भी पैदा करती है। ऐसी दशा में इतिहास का कोई मूल्य ही नहीं रह जाता। तब अविकसित लोगों के रचे हुए वेद, शास्त्र आज के विकसित लेखकों द्वारा लिखे गये अश्लील, जासूसी और तिलस्मी उपन्यास कहीं अधिक कला एवं कल्पना के आधार कहे जा सकते हैं।

यदि तथ्य ऐसे ही होते और उनके पीछे प्रमाण एवं तर्क का समुचित समावेश रहा होता तो जो कुछ कहा जा रहा है उसे सत्य की प्रतिष्ठा के नाम पर अपनाना ही समीचीन होता, भले ही उससे अतीत के प्रति उपहास बुद्धि ही क्यों न उपजती, भले ही पूर्वजों की क्षुद्रता पर व्यंग करना पड़ता और अपनी प्रगतिशीलता पर निस्संकोच गर्व करने का द्वार खुलता।

विकासवाद के सिद्धान्त का एक अंश ही ग्राह्य हो सकता है। जैसे बालक का शरीर और मस्तिष्क अविकसित होता है, समयानुसार उसकी सर्वतोमुखी प्रगति होती है और युवावस्था में पहुंचने पर वह प्रौढ़, प्रगल्भ परिपक्व बन जाता है। इतने पर भी उसकी मूल चेतना में शुक्राणु में ही वंश परम्परा की आश्चर्यजनक सम्भावनाएं विद्यमान मानी जाती हैं। गेहूं के बीज से गेहूं उत्पन्न होता है। आम की आकृति और स्वाद का पूरा ढांचा उस गुठली में भरा रहता है जिससे कि नया पौधा उगता है। इस वंशधर में अपने पूर्वज के गुण ही विकसित होते पाये जायेंगे। विकास क्रम की यह परम्परा कहीं भी देखने में नहीं आती कि सरसों का बीज क्रमशः विकसित होते-होते कटहल जैसे फूल लगाने लगा हो। मूंग की बेल पर कद्दू जैसे स्वाद और आकार के फल लग सकना शायद कभी भी सम्भव न हो सकेगा।

क्या यह भी विकास है?

वस्तुतः परमात्मा ने अपनी प्रत्येक रचना को पूर्ण बनाया है ओर आये दिन कई ऐसी घटनायें भी घटती रहती हैं जो इस मान्यता को झुठलाती रहती हैं। यहीं नहीं, ये घटनायें अपनी विलक्षण विचित्रताओं और रहस्यमय विशेषताओं के कारण उस अज्ञात अलौकिक और सर्वसमर्थ सत्ता की ओर भी संकेत करती है।

सन् 1857 भारतवर्ष में प्रथम स्वतंत्र संग्राम (गदर) के नाम से विख्यात है यही वर्ष कैलीफोर्निया की नापाकाउन्टी स्टेट में एक ऐसे आश्चर्य के लिए विख्यात है जिसने देववाद की यथार्थता का एक अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत कर लाखों लोगों को विस्मित कर दिया।

27 अगस्त । कई दिन से बादल घुमड़ रहे थे पर वर्षा नहीं हो रही थी और तब एकाएक बूंदें गिरनी प्रारम्भ हुईं। वर्षा से बचाव के लिए लोग जल्दी जल्दी घरों में छिपने लगे। तो भी कुछ लोग जो बाहर जंगल में काम कर रहे थे वे जल्दी ही घन नहीं पहुंच सके घर तो पहुंचे पर देर से भीगते हुए पहुंचे।

बरसात का पानी सिर से पांव तक बह रहा था, कुछ बूंदें एक चरवाहे के ओठों पर लगीं, पानी क्या था पूरा शर्बत। अब उसने अपनी हथेली आगे कर दी और पूरा चुल्लू पानी इकट्ठा कर पिया तो वह आश्चर्य में डूब गया क्योंकि वह पानी नहीं वास्तव में शर्बत था। ठीक वैसा ही जैसा कि चीनी घोल कर शर्बत बनाया जाता है।

एक चरवाहे को ही नहीं, कई किसानों, कुछ अध्यापकों और शहर के अनेक लोगों को भी एक साथ ही अनुभव हुआ कि आज जो पानी बरस रहा है वह सामान्य वर्षा से बिल्कुल भिन्न है अर्थात् पूरे नापाकाउन्टी क्षेत्र में बरसे जल में भरी पूरी मिठास थी ऐसा नहीं कोई हलका मीठापन रहा हो।

बात की बात में चर्चा सारे क्षेत्र में फैल गई। जो जहां था उसने वहीं वर्षा का जल पीया और पाया कि उस दिन की बरसात में मिश्री घोली हुई थी।

इस घटना को प्रकृतिगत रहस्य माना गया, कुछ लोगों ने इसके पीछे देववाद को भी कारक रूप में स्वीकार किया। अपवाद स्वरूप होने पर भी उन घटनाओं का कोई न कोई कारण तो होना ही चाहिए। कई बार ऐसी विलक्षण आकृति प्रकृति के लोग और मनुष्येत्तर प्राणी भी मिल जाते हैं जो क्रमशः विकास वाले सिद्धान्त को चुनौती देते हैं। मिशिगन (अमेरिका) में एक ऐसा व्यक्ति है जो मुंह से सांस खींचकर आंखों से निकाल सकता है, इस सज्जन का नाम है एल्फ्रड लागेवेन। इस तरह की अनुभूति उन्हें अपने आप तब हुई जब एक दिन उन्होंने मुंह में हवा भर गाल फुलाए तो उन्हें अनायास ही ऐसा लगा कि वह हवा आंखों से निकल रही है। आंखों के आगे हाथ लगाकर देखा तो हवा की स्पष्ट अनुभूति हुई। इस बात को वहां उपस्थित अन्य लोगों ने भी अनुभव किया।

कुछ लोगों को लगा कि अल्फ्रेड किसी टेकनीक से हवा जैसी अनुभूति हाथों को करा देता होगा तो वह मोमबत्ती जलाकर ले आये और जब अल्फ्रेड ने मुंह को पूरी तरह सांस से भर कर बन्द कर लिया तब उसके नथुने भी बन्द करके मोमबत्ती आंखों के सामने ले जाई गई और कहा गया अब आप इसे आंख से फूंक मारकर बुझाइये। अल्फ्रेड ने सचमुच आंख से फूंक मारी और उस जलती मोमबत्ती को भी बुझा कर दिखा दिया। उसकी यह विलक्षणता इस बात की प्रमाण है कि मनुष्य शरीर भगवान की बताई हुई रहस्यपूर्ण विशेषताओं का प्रतीक है, यदि आन्तरिक दृष्टि से खोज की जाये तो इस शरीर यन्त्र से सैकड़ों ऐसे कार्य किये जा सकते हैं, स्थूल दृष्टि से जो विलक्षण चमत्कार ही जान पड़ते हों।

‘‘स्टेन्टर’’ नामक जीव को देखना चाहिये। वह मृत्यु के समय एक क्षण तूफान से पूर्व के वातावरण की भांति अत्यन्त शान्त सा प्रतीत होता है दूसरे ही क्षण एक भयंकर विस्फोट के साथ अपने प्राण निकाल देता है। उस विस्फोट को सुनते हुए भय लगता है, मानो ‘‘स्टेन्टर’’ मृत्यु के समय भावी जीवन की कल्पना से भयभीत हो उठा हो। इंग्लैंड के विश्व विख्यात प्लीमथ बन्दरगाह पर बने प्रसिद्ध प्रकाश स्तम्भ एडिस्टोन के पीछे भी एक ऐसी ही विलक्षण घटना जुड़ी हुई है। योरोपियन भी जिसकी आश्चर्य के साथ चर्चा करते और यह मानते हैं कि ऐसी घटनायें किसी अतीन्द्रिय कारण का ही फल हो सकती हैं।

यह प्रकाश स्तम्भ हेनरी विस्टनले नामक अंगरेज शिल्पी ने बनाया था। इसे बनाने में उसने अपनी सारी आत्मा लगा दी थी। अपने निर्माण के प्रति उसका प्यार इसी बात से प्रकट होता है कि उसने इस प्रकाश स्तम्भ का एक छोटा मॉडल भी बनाया और उसे अपने घर में ड्रॉइंग रूप में सजाकर रखा।

दिन बीतते गये एकबार की बात है कि समुद्र में भयंकर तूफान आया। तूफान ने ने केवल बन्दरगाह को ध्वस्त कर दिया वरन् इस प्रकाश स्तम्भ को भी बर्बाद कर दिया। विस्टनले उस समय बन्दरगाह से 200 मील दूर अपने घर पर था। इधर समुद्र में तूफान आया और प्रकाश स्तम्भ गिरा उधर घर में रखा वह माडल भी अपने आप जमीन पर गिरकर चकनाचूर हो गया। और उसी समय अपनी चारपाई पर लेटे विस्टनले ने कहा अब जब न यह कलाकृति रही और न वह तो मैं ही जीकर क्या करूं इतना कहते कहते उसने भी अपने प्राणों का परित्याग कर दिया। उस समय तो इन शब्दों का अर्थ वहां उपस्थित कोई भी व्यक्ति नहीं समझ पाया पर पीछे जब सब बातें प्रकाश में आई तो लोग आश्चर्य चकित रह गये कि दो जड़ और एक चेतन—तीन आत्माओं का एक साथ विसर्जन क्यों हुआ और 200 मील दूर बैठे मिस्त्री विस्टनले को पूर्वाभास अपने आप कैसे हो गया।

विलक्षण चेतना की झांकियां—

इन सब तथ्यों से यह तो प्रकट हो ही जाता है कि इस विश्व का सुव्यवस्थित संचालन करने वाली सत्ता सर्वव्यापी है और हममें हर एक उससे सतत जुड़ा रहता है। वह चैतन्य सत्ता ही हमारी चेतना का कारण एवं आधार है। उसी विराट अनन्त चेतना-समुद्र की बूंदें हैं व्यष्टि-चेतना। पर इस तथ्य से आंखें मूंदकर मात्र जड़ प्रकृति को सृष्टि व्यापार की संचालक मानने वाले न तो अपनी ही चेतना की गहराइयों तक पहुंच पाते हैं न दूसरों की चेतना का अनुभव कर पाते हैं।

आत्म-सत्ता के संकेतों के प्रति उदासीन मनुष्य अपने को सम्भ्रांत प्रगतिशील मानते हुए भी वस्तुतः आत्मतत्व से कितना अनभिज्ञ और आध्यात्मिक दृष्टि से कितना अपरिपक्व-अविकसित होता है, इसका प्रमाण है—यह एक घटना जो पाण्डिचेरी के अरविन्द आश्रम की संचालिका श्री यज्ञ शिखा मां (श्री मां) को लिखे गये एक पत्र के आधार पर लिखी जा रही है। यह पत्र मध्य प्रदेश के महान् राजनैतिक क्रान्तिकारी काशीराम का है, जो उनके एक मित्र द्वारा श्रीमां को भेजा गया था। श्री काशीराम जी अमर शहीद भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद आदि के साथियों में हैं, कानपुर शूटिंग केस में उन्हें सात वर्ष की जेल हुई थी। गाड़ोदिया बैंक के डकैती केस में वे चन्द्रशेखर के साथ रहे थे।

इस पत्र में अपने प्रिय पुत्र के निधन का सकरुण चित्रण करते हुये काशीराम ने आत्मा सम्बन्धी भारतीय दर्शन को गम्भीर आस्था के साथ स्वीकार किया है और लिखा है कि हम सांसारिक व्यापारों में इतने पदार्थवादी हो गये हैं कि आत्मा की आवाज को भी नहीं पहचान सकते। आत्मा हर क्षण हमें अपने सन्देश ओर प्रेरणायें देकर हमारा मार्गदर्शन करना चाहती हे, पर सांसारिक आसक्तियों में फंसे हम साधारण मनुष्य उसकी अपेक्षा ही करते रहते हैं और मनुष्य शरीर जैसे अलभ्य अवसर को यों ही गंवाते रहते हैं।’’

श्री काशीराम ने लिखा है—‘‘सहदेव के जन्म के समय मेरे एक मित्र, जिन्होंने ज्योतिष का बहुत अध्ययन किया था, मेरे पास ही थे। उन्होंने भैया (जिस परिवार को यहां उद्धृत किया जा रहा है, उनके घर छोटे बच्चों को भैया के ही सम्बोधन से पुकारा जाता है) की जन्म तिथि के आधार पर बताया कि आपके घर कोई देवात्मा आई है। इसे तो किसी बड़े सम्पन्न घर में जन्म लेना चाहिये था, पता नहीं वह कैसे आपके घर आ गया। फिर कुछ रुककर उन्होंने कहा—जून सन् 1955 की किसी तारीख को आपका बच्चा नहीं रहेगा? यदि कुछ उपाय कर लोगे तो यह बना भी रह सकता है, बचा रहा तो आपके जीवन में तीव्र परिवर्तन आयेगा। सुख-सम्पत्ति का घाटा नहीं रहेगा।’’ ‘‘बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि ज्योतिष शास्त्र के अब ज्ञाता रहे नहीं, अब तो जहां-तहां उसका झूठा व्यवसाय चल रहा है, पर यदि सचमुच भविष्य विद्या की साधना करे तो न केवल बालक के पूर्व जन्मों का इतिहास जाना जा सकता है, वरन् भविष्य के एक-एक दिन का इतिहास भी सिनेमा के पर्दे की तरह देखा जा सकता है। उन्होंने नकली प्रचलित फलित ज्योतिष का बहुत खण्डन किया था।’’

‘‘मेरे पूछने पर उन्होंने बताया पूर्व जन्मों की जो ईश्वर उपासक और देव वृत्ति की आत्मायें हैं, वे यदि किसी प्रकार परमात्मा को नहीं पा पाती तो उनका दूसरा जन्म श्री, कुल, यश, साधन सम्पन्न परिवारों में जन्म होता है। यदि वे किसी साधारण परिवार में ही जन्म ले लें तो ‘‘तिमि सुख सम्पत्ति विनहिं बुलाये। धर्मशील पहें जाहिं सुहाये।।’’ के अनुसार साधन सम्पत्तियां उसके पास अपने आप दौड़ी चली आती हैं इसी आधार पर हमने कहा है कि यदि बच्चा 6 वर्ष की आयु के बाद जीवित रहा तो आपके घर किसी बात की कमी न रहेगी।’’

उस समय की यह बात आई गई हो गई।

‘‘आगे की घटना फिर प्रारम्भ होती है—सहदेव बच्चा था, पर वह जीवन में एक बार भी असत्य नहीं बोला। उसने कभी पैसे भर की किसी और की वस्तु नहीं उठायी। उसके मुंह से निकली हुई कोई भी बात असत्य नहीं होती थी। एक बार काशीराम के एक पड़ौसी का मुकदमा चल रहा था। जिस दिन उन्हें फैसला सुनाया जाना था, सवेरे-सवेरे वे घर आये और पूछा ‘‘भैया! बताओ मैं मुकदमा जीत जाऊंगा या नहीं।’’ भैया ने कहा—‘‘तुम मुकदमा हार जाओगे और तुम्हें तीन साल की सजा होगी।’’ उन सज्जन ने इस मुकदमे में बड़ी लम्बी रिश्वतें दी थीं और उन्हें छूट जाने का पक्का आश्वासन मिला था। इसीलिये बच्चे कितने संवेदनशील होते हैं, पर हम उसकी भावनाओं का आदर कहां करते हैं। माता-पिताओं की उपेक्षा उन्हें गलत रास्तों में भटका देती है। उन्हें गुनहगार ठहराया जाता है, पर सारी भूल अभिभावकों की होती है, जो उन्हें स्नेह और मनोवैज्ञानिक ढंग से सिखाना, समझाना भी नहीं जानते।’’

रात बारह बजे बच्चे की नींद टूटी। उसने कई बार श्री काशीराम जी को पिताजी, पिताजी! कहकर पुकारा—उस दिन दुर्भाग्य से पति-पत्नी दोनों ने भंग पी ली थी। देर तक नींद न टूटी एक पड़ौसी ने आकर जगाया—बच्चा कब से चिल्ला रहा है और आप ऐसे धुत्त सो रहे हैं। उस दिन श्री काशीराम जी ने पहली बार अनुभव किया—नशा—मनुष्य जीवन का कितना बड़ा पाप है।

बच्चे ने बिना किसी प्रकार की शिकायत किये कहा—‘‘पापाजी—मेरी गरदन दुःख रही है’’ यह कहकर उसने काशीराम जी का हाथ पकड़ कर अपने दाहिनी गरदन पर रख कर वह स्थान बताया। श्री काशीराम जी चौक पड़े—बच्चे का सारा शरीर गर्म तवे की भांति जल रहा था। उन्होंने घबड़ा कर पत्नी को जगाया। दोनों उतर कर नीचे आये। पत्नी बच्चे को लेकर सो गई काशीराम जी अलग जा सोये। नशे का अभिशाप—दोनों में से किसी को भी यह ध्यान नहीं रहा कि बच्चे को बुखार है उसे डॉक्टर को दिखाना चाहिये, औषधि दिलानी चाहिए।

प्रातःकाल सहदेव की स्थिति बहुत बिगड़ी हुई मिली तब श्री काशीराम जी डॉक्टर के लिये दौड़े। समय निकल जाता है, तब सिवाय हड़बड़ी के और क्या हो सकता है। डॉक्टर आया उसने देखकर बताया कि स्थिति ठीक नहीं है, उसे अस्पताल ले जाना चाहिये।

नानी-नाना बुला लिए गए। बच्चा दिनभर तीव्र ज्वर में अचेत नानी की गोद में पड़ा रहा। काशीराम जी डॉक्टर के पास गए। डॉक्टर ‘‘अभी-अभी’’ कहकर अपने मरीजों में व्यस्त था, उसे पता था, काशीराम जी की स्थिति तंगी की है, वहां से दवाओं के पैसे मिलना कठिन है, इसलिए उसने शाम के सात बजा दिए ओर चला नहीं।

काशीराम जी डॉक्टर के पास खड़े थे, तो उन्हें ऐसा लगा जैसे सहदेव कह रहा हो—‘‘पिताजी अब तो लौट आओ अब मैं हमेशा के लिए जा रहा हूं’’ आत्मा की आवाज, पर कितनी स्पष्ट और शक्तिशाली। श्री काशीराम जी ने कहा—‘‘डॉक्टर साहब! धन्यवाद! अब आपको कष्ट करने की आवश्यकता नहीं रही। सहदेव रहा नहीं।’’ यह कह कर वे घर की तरफ भागे और तब पीछे-पीछे डॉक्टर साहब भी अपनी कार लेकर दौड़े पर प्राण किसी की प्रतीक्षा करते हैं? बच्चे का शरीर ठण्डा पड़ चुका था, ओठ सूख गए थे। डॉक्टर ने जल्दी-जल्दी देखा और कह दिया—‘‘बच्चे की मृत्यु हो गई है।’’ किसे दोष दिया जाए ऐसे तो हजारों बच्चे रोज मरते रहते हैं डॉक्टर लौटा और अपने काम में लग गया।

जल्दी नाना जी को भी थी। जीवन और मृत्यु के क्षणों में भी मनुष्य उस काल की विलक्षण घटनाओं के बारे में एक क्षण भी विचार नहीं करता सम्भव है ऐसे प्रसंग देखकर ही धर्मराज युधिष्ठिर ने यक्ष के ‘‘संसार में सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है?’’ प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा था—

अहन्यहति भूतानि गच्छन्ति यम मन्दिरम् । शेषा स्थिरत्वमिच्छन्ति किंवाश्चार्यमतः परम् ।।

अर्थात् एक-एक करके सारा संसार मृत्यु के मुख में समाता चला जा रहा है, पर पीछे रह जाने वालों की गतिविधियां ऐसी रहती हैं मानों उन्हें मृत्यु तक जाना ही नहीं—हे यक्ष! इससे बढ़कर संसार में और कोई दूसरा आश्चर्य नहीं हो सकता।

व्यवस्थापक नाना जी ही थे। बच्चे को ले जाकर जल्दी-जल्दी गड्ढा खोदकर दफना दिया गया। श्री काशीराम जी उसका अच्छी तरह मुंह भी नहीं देख पाये। मित्र, परिचित और सम्बन्धी आते और श्रीकाशीराम जी को सान्त्वना दिलाते रहे। वह दिन ऐसे ही बीता। संध्या आई और चली गई। बत्तियां जल गईं। बच्चे की मां की स्थिति अब भी बड़ी गम्भीर थी। पर काशीराम जी के दुःख का पारावार ही न था। स्वतन्त्रता आन्दोलन का क्रान्तिकारी जो कभी गोली और बन्दूक दागने और डकैती डालने जैसे कामों में भी नहीं घबराता था, पुत्र की ममता के आगे उसकी सारी दृढ़ता ढेर हो गई।

रात कोई आठ बजे होंगे। काशीरामजी चारपाई पर लेटे थे। बिजली का खम्भा सामने ही था बल्ब जल गया था। उससे सड़क के उतने हिस्से में खूब प्रकाश फैल रहा था। तन्त्र वस्य (हिप्कोटाइज्ड) मस्तिष्क की भांति काशीराम जी को एकाएक ऐसा लगा जैसे सहदेव की छाया बल्ब के नीचे प्रकाश में खड़ी है। आकृति थोड़ा आगे बड़ी और बोली—‘‘पिताजी! आपने मुझे जीवित गाढ़ दिया। जल्दी करो मुझे निकाल लो। मुझे बड़ा कष्ट हो रहा है।’’ रुक-रुक कर बच्चे ने तीन बार यही शब्द कहे। बच्चे की आकृति सामने आते ही पिता का हृदय छलक पड़ा। वे चिल्लाये—भैया! मेरे भैया! और उनके इतना कहने पर ही उनकी धर्मपत्नी का ध्यान उनकी ओर गया। उन्होंने बताया अभी भैया आया था और कह रहा था, मुझे जीवित गाढ़ दिया गया है। मुझे फावड़ा तो लाओ, मैं अभी जाकर सहदेव को खोद लाता हूं।

धर्मपत्नी ने कहा—तुम्हें यों ही वहम हो गया है, जब बच्चा बीमार था, तब दवा कराते नहीं बना अब जब उसकी लाश गाड़ दी गई तो उसे उखाड़ने से क्या लाभ? श्री काशीराम ढीले पड़ गये और फिर इन्हीं शोकपूर्ण विचारों में डूब गये।

हल्की सी नींद लगी और भैया की आवाज फिर सुनाई दी—‘‘पिताजी—मुझे जीवित गाड़ दिया गया है, मुझे निकाल लो पिताजी मेरा दम घुट रहा है।’’ काशीरामजी की नींद टूट गई। फिर सोये तो फिर वही आवाज। रात भर बच्चे की आत्मा पिता के आस-पास घूमती, जगाती और सन्देश देती रही, पर कुछ धर्मपत्नी के शब्द, कुछ अपना भी अविश्वास बेचारे लेटे के लेटे ही रहे। पर प्रातःकाल 4 बजे जब बच्चे को मरे 24 घण्टे ही रहे थे, फिर जोर से बच्चे की आवाज सुनाई दी—पिताजी मुझे जीवित गाढ़ दिया गया है, मुझे निकाल लो।’’

श्री काशीराम जी को नींद टूट गई। वह भागे। पागलों की तरह बच्चे की कब्र के पास पहुंच गये। एक क्षीण सी आवाज आई—‘‘पिताजी! बहुत देर करदी। मैं मर रहा हूं, अब आने का क्या लाभ?’’ काशीरामजी पागल हो उठे। हाथ में कोई वस्तु नहीं किससे खोदते। फिर घर को भागे। फावड़ा लेकर फिर उसी स्थान की ओर दौड़े, जहां बच्चा गड़ा था। अब तक घर के सब लोग जाग चुके थे। सबने यही कहा कि काशीराम जी बच्चे की ममता में पागल हो गये हैं, यह किसी ने नहीं समझा कि आत्मा की भी कोई आवाज होती है, उसका भी कहीं कोई अस्तित्व होता है?

काशीरामजी ने कब्र खोदकर बच्चे को निकाला तो आश्चर्य चकित रह गये। बच्चे की देह बिलकुल गर्म थी, लाश में किसी प्रकार की खराबी नहीं थी। सांस चलने का तो कोई लक्षण नहीं दे रहा था, पर कनपटी की नसें अब भी फड़क रही थीं और उससे यह स्पष्ट होता था कि अभी भी उसके शरीर में जीवन शेष है। अब तक घर के बहुत से लोग और दूसरे लोग भी जमा होने लगे थे। बहुत लोगों ने उसके फोटो लिये। कई लोग कई तरह की चर्चा कर रहे थे, पर यह किसी से न बना कि कोई किसी डॉक्टर को लाता। बच्चे का शरीर उसकी नानी को देकर काशीराम जी कई डाक्टरों के पास गये। पर जिसने भी यह चर्चा सुनी उसे ने काशीराम जी को पागल कह कर टाल दिया। इसी बीच कोई एक तान्त्रिक भी दौड़ा-दौड़ा वहां आया और बच्चे को देखकर चिल्लाया—तुम लोगों ने बच्चे को जीवित मार डाला—उसका इलाज भी नहीं करते बना। उसके इतना कहते-कहते एक बार बच्चे ने खून की उल्टी की और फिर सदा के लिये इस संसार से विदा हो गया। मिट्टी जहां से आई थी उसी में मिल गई।’’

यह पत्र श्री मां ने बहुत ध्यान से पढ़ा और फिर काशीराम जी के मित्र को, जिन्होंने उन तक यह पत्र पहुंचाया था—लिखा—ओह! उसने आत्मा की आवाज को नहीं पहचाना (पिटी, ही डिडनाट लिसन टू दि इन्ट्यूशन)। एक काशीराम क्या, हम सब भी तो पागलों की सी जिन्दगी जीते हैं। बाहरी भौतिक संसार के सुख के लिए न जाने क्या-क्या करते हैं, पर आत्मा तो उपेक्षित पड़ी है। हमें उसकी आवाज सुनने का अवकाश ही कहां?

एक सुशिक्षित-सुसंस्कृत आदर्शनिष्ठ क्रान्तिकारी का यह संस्मरण आक्त चेतना की सूक्ष्म शक्ति और उसकी प्रचंड सामर्थ्य का प्रमाण है। इतनी प्रचण्ड शक्ति परिस्थिति या वातावरण पर निर्भर नहीं हो सकती। वह स्वयं ही अपना विकास करने और अपनी शक्ति का उचित उपयोग करने में समर्थ है, जो लोग इस शक्ति का उपयोग करने की कला जानते हैं वे इसका कल्याणकारी प्रयोजनों के लिए उपयोग करते भी हैं।

एक अंग्रेज शिकारी डेविड लेजली ने अपने अफ्रीकी शिकार यात्राओं के विवरणों की एक पुस्तक लिखी है ‘‘जुलुओ के बीच’’ उसमें एक घटना यह है कि उसके साथी हाथियों की शिकार के लिए घेराबन्दी करते हुए कहीं गायब हो गये और बहुत ढूंढ़ने पर भी उनका कहीं कुछ भी पता न चला। इस तलाश में एक ‘जुलु’ तान्त्रिक की सहायता ली गई। उसने उन सभी साथियों की शक्लें, वस्तुएं आदि का ब्यौरा बताते हुए यह भी कहा कि वे इस समय अमुक स्थान पर हैं बताये हुए स्थान पर है जाकर उन्हें खोज लिया गया। धना के भूतपूर्व राष्ट्रपति एन्क्रुमा सदैव एक तांत्रिक की सलाह लेते थे। कीनिया के प्रधानमंत्री जोमो केन्याटा का तान्त्रिकों पर विश्वास है। वे जब भी विदेश प्रवास पर जाते हैं, अपने साथ एक तान्त्रिक भी ले जाते हैं।

मनुष्य शरीर की सामान्य विद्युत शक्ति से दैनिक जीवन का क्रिया-कलाप चलता है किन्तु यह नहीं मान बैठना चाहिए कि मानवी ऊर्जा की मात्रा इतनी ही सीमित है। यदि वह किसी प्रकार बढ़ सके तो मनुष्य शरीर चलते फिरते बिजली घर के रूप में परिणत हो सकता है। इस शक्ति को योगीजन भले कार्यों में और दुष्ट प्रकृति के लोग दुष्प्रयोजनों में लगते हैं। आग का भोजन बनाने और घर जलाने में कुछ भी प्रयोग हो सकता है। यही बात साधना द्वारा उत्पन्न हुई आत्म-शक्ति के सम्बन्ध में भी है। फिजी द्वीप के निवासी एक त्यौहार मनाते हैं उस दिन उन्हें आग पर चलना पड़ता है। इसे अभ्यास भी कहा जा सकता है और आत्मविश्वास की शक्ति भी, कि वे लोग दहकते आग के शोलों में घन्टों नाचते रहते हैं किन्तु कभी ऐसा कोई अवसर नहीं आता कि उनके पैर जल जाते हों।

आयरन ड्यूक आफ वेलिंग्टन कंसास राज्य अमेरिका के जान डब्लू हार्टन ने पेट में न जाने कहां की आग पैदा कर ली थी कि नाश्ते में 40 पौंड तरबूजा खा लेने के बाद भी सोडा की बोतलें, टूटे शीशे, अण्डों के छिलके और केले के अनगिनत छिलके चला जाते थे। एक बार एक इंजीनियर द्वारा चुनौती दिये जाने पर उन्होंने भरपूर भोजन करने के बाद सीमेंट का पूरा कट्टा सीमेंट खा लिया और उसे इस स्वाद के साथ एक एक चम्मच भक्षण किया जैसे छोटे बच्चे प्रेम पूर्वक शक्कर या मिठाई खाते हैं उन्होंने यह भी कहा मैं कुछ और अभ्यास करूं तो इतनी ही मात्रा में विष खाकर दिखा सकता हूं।
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