गायत्री की गुप्त शक्तियाँ

निष्काम उपासना का महत्व

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गायत्री-साधना का प्रत्यक्ष परिणाम है—सात्विक आत्मबल की अभिवृद्धि। सात्विक आत्मबल के दश लक्षण हैं—उत्साह, सतत परिश्रम, कर्तव्य परायणता, संयम, मधुर स्वभाव, धैर्य, अनुद्वेग, उदारता, अपरिग्रह, तत्वज्ञान। यदि कोई व्यक्ति सच्ची गायत्री-साधना कर रहा है, तो उसमें अवश्य ही यह गुण बढ़ेंगे और जैसे-जैसे यह बढ़ोत्तरी आगे चलेगी वैसे ही वैसे जीवन की कठिनाइयों का समाधान होता चलेगा। जब साधक की आत्मा गायत्री-शक्ति से परिपूर्ण हो जाती है तो उसे किसी भी प्रकार का कोई कष्ट, अभाव या दुख नहीं रह जाता। वह निरन्तर पूर्ण परमानन्द का, ब्रह्मानन्द का अलौकिक रसास्वादन करता रहता है।

वेदमाता की आराधना एक प्रकार का आध्यात्मिक कायाकल्प करना है। जिन्हें कायाकल्प कराने की विद्या मालूम है वे जानते हैं कि इस महा अभियान को करते समय कितने धैर्य और संयम का पालन करना होता है, तब कहीं शरीर की जीर्णता दूर होकर नवीनता प्राप्त होती है। गायत्री आराधना का आध्यात्मिक कायाकल्प और भी अधिक महत्वपूर्ण है। उसके लाभ केवल शरीर तक ही सीमित नहीं हैं वह शरीर, मस्तिष्क, चित्त, स्वभाव, दृष्टिकोण सभी का नव-निर्माण होता है और स्वास्थ्य, मनोबल एवं सांसारिक सुख सौभाग्यों में वृद्धि होती है। ऐसे असाधारण महत्व के अभियान में समुचित श्रद्धा, सावधानी, रुचि एवं तत्परता रखनी पड़े तो इसे कोई बड़ी बात न समझना चाहिये। केवल शरीर को पहलवानी के योग्य बनाने में काफी समय तक धैर्यपूर्वक व्यायाम करते रहना पड़ता है। दण्ड, बैठक, कुश्ती आदि के कष्ट-साध्य कर्म-काण्ड करने होते हैं।

बालक अनेकों चीजें मांगता हैं पर माता उसे वह चीजें नहीं देती। रोगी की सब मांगें भी बुद्धिमान परिचर्या करने वाले पूरी नहीं करते। ईश्वर की सर्वज्ञता की तुलना में मनुष्य बालक और रोगी के समान है। जिन अनेकों कामनाओं को हम नित्य करते हैं उनमें से कौन हमारे लिए वास्तविक लाभ और हानि करने वाली हैं इसे हम नहीं जानते पर ईश्वर जानता है। यदि हमें ईश्वर की दयालुता और भक्त वत्सलता पर सच्चा विश्वास है तो कामनाओं को पूरा करने की बात उसी पर छोड़ देनी चाहिए और अपना सारा मनोयोग साधना पर लगा देना चाहिए। ऐसा करने से हम घाटे में नहीं रहेंगे वरन् सकाम साधना की अपेक्षा अधिक लाभ ही रहेंगे।





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