गायत्री की गुप्त शक्तियाँ

गायत्री से शक्तियों और सिद्धियों की प्राप्ति

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जीभ में जो शब्द निकलते हैं। उनका उच्चारण कण्ठ, ताल, मूर्धा, ओष्ठ, दन्त, जिव्हा, कण्ठमूल आदि-आदि सुख के विभिन्न अंगों द्वारा होता है। इस उच्चारण काल में मुख के भागों से ध्वनि निकलती है, उन अंगों के नाड़ी तन्तु शरीर के विभिन्न भागों तक फैलते हैं, इस फैलाव क्षेत्र में कई सूक्ष्म ग्रन्थियां होती हैं जिन पर उस उच्चारण का दबाव पड़ता है। शरीर में अनेक छोटी बड़ी दृश्य अदृश्य ग्रन्थियां होती हैं। योगी लोग जानते हैं कि उन कोषों में कोई विशेष शक्ति भण्डार छिपा रहता है। सुषुम्ना के सम्बन्ध में षटचक्र प्रसिद्ध हैं ऐसी अगणित अनेकों ग्रन्थियां शरीर में हैं विभिन्न शब्दों का उच्चारण इन विविध ग्रन्थियों पर अपना प्रभाव डालता है और उस प्रभाव से उन ग्रन्थियों का शक्ति भण्डार जागृत होता है। मन्त्रों का गठन इसी आधार पर हुआ है। गायत्री मन्त्र में 24 अक्षर हैं इनका सम्बन्ध शरीर में स्थित ऐसी 24 ग्रन्थियों से है जो जागृत होने पर सद्बुद्धि प्रकाशक शक्तियों को सतेज करती हैं। गायत्री मन्त्र के उच्चारण से सूक्ष्म शरीर का सितार 24 स्थानों से झंकार देता है और उससे एक ऐसी स्वर लहरी उत्पन्न होती है जिसका अदृश्य प्रभाव जगत के महत्वपूर्ण तत्वों पर पड़ता है। यह प्रभाव ही गायत्री साधना के फलों का प्रधान हेतु है।

जिस प्रकार टाइप राइटर यन्त्र की कुंजियों पर उंगली चलते ही उससे सम्बन्धित अक्षर की तीली कागज पर लगती है और अक्षर छप जाता है। वैसे ही अमुक अक्षर के उच्चारण से मुंह में जो क्रिया उत्पन्न होती है उसके कारण कुछ ऐसी नाड़ियां विभिन्न स्थानों में अवस्थित बड़ी ही महत्वपूर्ण गुप्त ग्रन्थियों पर चोट करके उन्हें जगाती है। इस जागरण से वे ग्रन्थियां अपने अन्दर बड़ी ही महत्वपूर्ण ऐसी विशेषताएं उत्पन्न करती हैं जिन्हें शक्तियां या सिद्धियां कहते हैं। योगी लोग अन्य योगाभ्यासों द्वारा जिन ग्रन्थियों को जागृत करके सिद्धियां एवं शक्तियां प्राप्त करते हैं वे ही ग्रन्थियां गायत्री मन्त्र के विधिवत उच्चारण करते रहने से—जप से स्वमेव झंकृत होती हैं। इस प्रकार की योग साधना ही सिद्ध होती है। सितार में कई तार होते हैं इनके कई क्रम होते हैं। अमुक नम्बर के तार के बाद अमुक नम्बर का, फिर अमुक नम्बर का इतना हलका या जोर से बजने पर अमुक प्रकार की स्वर लहरी निकलती है। उस क्रम को बदल कर कोई और प्रकार के क्रम से उन तारों को बजाया जाय तो दूसरी स्वर लहरी निकलती है। इसी प्रकार मन्त्रों में जो अक्षर हैं उनके उच्चारण का क्रम भी शरीर में विशेष प्रकार की शक्तियों का संचार करता है। गायत्री मन्त्र के अक्षरों का अर्थ साधारण है, उससे भगवान् से सद्बुद्धि की प्रार्थना की गई है। ऐसे मन्त्र और भी अनेकों हैं पर गायत्री मन्त्र की विशेषता इसलिए अधिक है कि इसमें अक्षरों का गुंथन बड़े ही चमत्कारी एवं शक्तिशाली ढंग से बन पड़ा है। एक के बाद एक अक्षर ऐसे क्रम से गुथा है कि इनके उच्चारण से सितार के तार की तरह अनायास ही एक आध्यात्मिक संगीत भीतर ही भीतर गूंजता है। जिस गुंजन से आध्यात्मिक जगत के अनेकों पत्ते अपने आप कमल पुष्प की तरह खुलते चले जाते हैं और उसका परिणाम जप करने वाले के लिए उच्च कोटि के योगाभ्यास की तरह बहुत ही मंगलमय होता है।

दीपक राग गाने से बुझे हुए दीपक जल उठते हैं, मेघ मल्हार गाने से वर्षा होने लगती है, वेणुनाद सुनकर सर्प लहराने लगता है, मृग सुधि बुद्धि भूल जाते हैं गाएं अधिक दूध देने लगती हैं। कोयल की बोली सुनकर काम भाव जागृत हो आते हैं। सैनिकों के कदम मिलाकर चलने की शब्द ध्वनि से लोहे के पुल तक गिर सकते हैं, इसलिए पुलों को पार करते समय सैनिकों को कदम मिलाकर न चलने की हिदायत करदी जाती है। अमरीका के डॉक्टर हचिंसन ने विविध संगीत ध्वनियों से अनेक असाध्य और कष्टसाध्य रोगियों को अच्छा करने में सफलता और ख्याति प्राप्त की है। भारतवर्ष में तांत्रिक लोग थाली को घड़े पर रखकर एक विशेष गति से बजाते हैं और उस बाजे से सर्प बिच्छू आदि जहरीले जानवरों के काटे हुए कंठमाला, विषवेल, भूतोन्माद आदि के रोगी बहुत करके अच्छे हो जाते हैं। कारण यह कि शब्दों के कम्पन सूक्ष्म प्रकृति से अपनी जाति के अन्य परमाणुओं को लेकर ईश्वर का परिभूषण करते हुए अब अपने उद्गम केन्द्र पर कुछ ही क्षणों में लौट आते हैं तो उनमें अपने प्रकार की विशेष विद्युत शक्तियां भरी होती हैं और परिस्थिति के अनुसार उपयुक्त क्षेत्र पर उन शक्तियों का एक विशिष्ट प्रभाव पड़ता है। मंत्रों द्वारा विलक्षण कार्य होने का भी यही कारण है। गायत्री मन्त्र द्वारा भी इसी प्रकार शक्ति आविर्भाव होता है। मन्त्रोच्चारण में मुख के सौ अंग क्रियाशील होते हैं, उन भागों के नाड़ी तन्तु कुछ विशेष ग्रंथियों को गुदगुदाते हैं, उनमें स्फुरण होने से एक वैदिक छन्द को क्रमबद्ध योगिक संगीत प्रभाव ‘ईथर’ तत्व में फैलती है और अपनी कुछ क्षणों में पूरी होने वाली विश्व परिक्रमा से वापिस आते-आते एक स्वजातीय तत्वों की सेना वापिस ले आता है तो अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति में सहायक होती है। शब्द संगीत के शक्तिमय कम्पनों का पंचभौतिक प्रवाह और आत्मशक्ति की सूक्ष्म प्रकृति की भावना, साधना, आराधना के आधार पर उत्पन्न किया गया सम्बन्ध, यह दोनों ही कारण गायत्री शक्ति को ऐसी बलवान बनाते हैं जो साधकों के लिए दैवी वरदान सिद्ध होती है।

गायत्री मन्त्र को और भी अधिक सूक्ष्म बनाने वाला कारण है साधक का ‘श्रद्धामय विश्वास।’ विश्वास की शक्ति से भी मनोवैज्ञानिक वेत्ता परिचित हैं। केवल विश्वास के आधार पर लोग भय की वजह से अकारण काल के मुख में गये और विश्वास के कारण मृत प्रायः लोगों ने नवजीवन प्राप्त किया। रामायण में तुलसीदास जी ने ‘‘भवानी शंकरौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रूपणौ’’ गाते हुए श्रद्धा और विश्वास पूर्वक आराधना की है। शब्द विज्ञान और आत्म सम्बन्ध दोनों महत्ताओं से संयुक्त गायत्री का प्रभाव और भी अधिक बढ़ जाता है और वह एक अद्वितीय शक्ति सिद्ध होती है।

गायत्री 24 शक्तियों को साधक में जागृत करती है। वह गुण इतने महत्वपूर्ण हैं कि इनके जागरण के साथ अनेक प्रकार की सफलताएं, सिद्धियां और सम्पन्नता प्राप्त होना आरम्भ हो जाता है। कई लोग समझते हैं कि यह लाभ अनायास कोई देवता दे रहा है। कारण यह है कि अपने अन्दर हो रहे सूक्ष्म तत्वों की प्रगति और परिणति को वे देख और समझ नहीं पाते, यदि वे समझ पावें कि उनकी साधना से क्या-क्या सूक्ष्म प्रक्रियायें हो रही हैं तो यह समझने में देर न लगेगी कि यह सब कुछ कहीं से अनायास दान नहीं मिल रहा है वरन आम विद्या की सुव्यवस्थित वैज्ञानिक प्रक्रिया का यह परिणाम है। गायत्री साधना कोई अन्धविश्वास नहीं एक ठोस वैज्ञानिक कृत्य है और उसके द्वारा लाभ भी सुनिश्चित ही होते हैं।

योगी लोग अनेक प्रकार की साधनाओं द्वारा स्थूल और सूक्ष्म शरीर में अवस्थित जिन गुप्त शक्तियों को जागृत करते हैं वे गायत्री जप से अनायास ही जाग्रत होने लगती है। इस प्रकार यह साधना सरल होते हुए भी अत्यन्त उच्च कोटि की साधनाओं जैसी महान फलदायक है। इससे सरल, स्वल्प श्रम साध्य, हानि रहित तथा शीघ्र फलदायिनी साधना और कोई नहीं। कभी कोई भूल हो जाने पर या साधना में कुछ त्रुटि रहने पर भी इससे कभी किसी को, किसी प्रकार की हानि नहीं होती।





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