दो महान अवलम्बन

आत्मा और परमात्मा का सम्बन्ध

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आत्मा परमात्मा का ही अंश है। जिस प्रकार जल की धारा किसी पत्थर से टकराकर छोटे छींटों के रूप में बदल जाती है उसी प्रकार परमात्मा की महान् सत्ता अपने क्रीड़ा-विनोद के लिए अनेक भागों में विभक्त होकर अगणित जीवों के रूप में दृष्टिगोचर होती है। सृष्टि सञ्चालन का क्रीड़ा कौतुक करने के लिए परमात्मा ने इस संसार की रचना की। वह अकेला था। अकेला रहना उसे अच्छा न लगा, एक से बहुत हो जाऊं। उसकी यह इच्छा ही फलवती होकर प्रकृति के रूप में परिणत हो गई। इच्छा की शक्ति महान है। आकांक्षा अपने अनुरूप परिस्थितियां तथा वस्तुएं एकत्रित कर ही लेती हैं। विचार ही कार्य रूप में परिणत होते हैं और उन कार्यों की साक्षी देने के लिए पदार्थ सामने आ खड़े होते हैं। परमात्मा की एक से बहुत होने की इच्छा ने ही अपना विस्तार किया तो यह सारी वसुधा बनकर तैयार हो गई।
परमात्मा ने अपने आपको बखेरने का झंझट भरा कार्य इसलिए किया कि बिखरे हुए कणों को फिर एकत्रित होते समय असाधारण आनन्द प्राप्त होता रहे। बिछुड़ने में जो कष्ट है उसकी पूर्ति मिलन के आनन्द से हो जाती है। परमात्मा ने अपने टुकड़ों को—अंश, जीवों को बखेरने का विछोह कार्य इसलिए किया कि वे जीव परस्पर एकता, प्रेम, सद्भाव, संगठन, सहयोग का जितना-जितना प्रयत्न करें उतने आनन्द मग्न होते रहें। प्रेम और आत्मीयता से बढ़कर उल्लास इस पृथ्वी पर और किसी वस्तु में नहीं है इसी प्रकार एकता और संगठन से बढ़कर शक्ति का स्रोत और कहीं नहीं है। अनेक प्रकार के बल इस संसार में मौजूद हैं पर उन प्राणियों की एकता के द्वारा जो शक्ति उत्पन्न होती है उसकी तुलना और किसी से भी नहीं की जा सकती। पति-पत्नी, भाई-भाई, मित्र-मित्र, गुरु-शिष्य आदि की आत्मीयता उच्च स्तर तक पहुंचती है तो उस मिलन का आनन्द और उत्साहवर्धक प्रतिफल इतना सुन्दर होता है कि प्राणी अपने को कृत्य-कृत्य मानता है।
कबीर का दोहा प्रसिद्ध है—
राम बुलाया भेजिया, कबिरा दीना रोय ।
जो सुख प्रेमी संग में, सो वैकुण्ठ न होय ।।
इस दोहे में वैकुण्ठ से अधिक प्रेमी के सान्निध्य को बताया गया है। कबीर प्रेमी को छोड़कर स्वर्ग जाने में दुःख मानते और रोने लगते हैं। वस्तुस्थिति यही है। सच्चे प्रेम में ऐसा ही आनन्द होता है। जहां मनुष्य-मनुष्य के बीच में निष्कपट, निःस्वार्थ, आन्तरिक और सच्ची मित्रता होती है वहां गरीबी आदि की कठिनाइयां गौण रह जाती हैं और अनेक अभावों एवं परेशानियों के रहते हुए भी व्यक्ति उल्लास भरे आनन्द का अनुभव करता है।
उपासना में प्रेम का अभ्यास एक प्रमुख आधार है। ईश्वर की भक्ति करने का अर्थ है—आदर्शवाद! प्रेम के विकास का आधार भी यही है। सच्चे और ईमानदार मनुष्यों के बीच ही दोस्ती बढ़ती और निभती है। धूर्त और स्वार्थी लोगों के बीच तो मतलब की दोस्ती होती है यह जरा-सी आघात लगते ही कांच के गिलास की तरह टूट-फूटकर नष्ट हो जाती है। लोभ में कमी आते ही तोते की तरह आंखे फेर ली जाती हैं। यह दिखावटी धूर्ततापूर्ण मित्रता तो एक प्रवंचना मात्र है, जहां पर जितने अंशों में जितना मैत्री भाव होता है वहां आनन्द, सन्तोष और प्रफुल्लता की निर्झरिणी निरन्तर झरती रहेगी। यदि कुछ लोगों का परिवार या संगठन प्रेम के उच्च आदर्शों पर आधारित होकर विकसित हो सके तो वहां उस परिवार के भी सदस्यों को विकास एवं हर्षोल्लास का परिपूर्ण अवसर मिलता रहेगा। जिस समाज में सच्ची मित्रता, उदारता, सेवा और आत्मीयता का आदर्श भली प्रकार फलने-फूलने लगता है वहां निश्चित रूप में स्वर्गीय वातावरण विनिर्मित होकर रहता है। देवता जहां कहीं रहते होंगे वहां उनके अच्छे स्वभाव ने प्रेम का वातावरण बना रखा होगा और उस भाव-प्रभाव ने वहां स्वर्ग की रचना कर दी होगी। स्वर्ग यदि कहीं भी हो सकता है तो उसकी सम्भावना वहीं होगी जहां सज्जन पुरुष प्रेमपूर्वक मिल-जुलकर आत्मीयता, उदारता, सेवा और सज्जनतापूर्वक रह रहे होंगे।
ईश्वर उपासना से स्वर्ग की प्राप्ति का जो महात्म्य बताया गया है उसका आधार यही है कि उपासना करने वाले को भक्ति का मार्ग अपनाना पड़ता है। परमात्मा को, आत्मा को, आदर्शवाद को जो भी प्यार करना सीख लेगा उसे अनिवार्यतः प्राणिमात्र से प्रेम का आभास होगा और इस कारण के रहते हुए उसका निवास स्थान एवं समीपवर्ती वातावरण स्वर्गीय अनुभूतियों से ही भरापूरा रहेगा। उपनिषद् का वचन है—‘‘रसो वै स’’ अर्थात् प्रेम ही परमात्मा है। बाइबिल ने भी इसी तथ्य की पुष्टि की है और मनुष्य को प्रेमी स्वभाव का बनने पर जोर देते हुए कहा है कि जो प्रेमी है वही ईश्वर का सच्चा भक्त कहलाएगा भक्ति की महिमा से अध्यात्म-शास्त्र का पन्ना-पन्ना भरा पड़ा है। भक्ति से मुक्ति मिलने की प्रतिस्थापना की गई है। भक्त के वश में भगवान को बताता गया है। इन मान्यताओं का कारण एक ही है कि प्रेम की हिलोरें जिस अन्तरात्मा में उठ रही होंगी उसका स्तर साधारण न रहेगा। जिसमें दिव्य गुण, दिव्य स्वभाव का आविर्भाव होगा, वह दिव्य कर्म ही कर सकेगा। ऐसे ही व्यक्तियों को देवता कहकर पुकारा जाता है। जहां देवता रहेंगे वहां स्वर्ग तो अपने आप ही होगा।
प्रेम का अभ्यास ईश्वर को प्रथम उपकरण मानकर किया जाता है। कारण यही है कि उससे भी स्वार्थ दोष नहीं है। सूक्ष्म की उपासना जिन्हें कठिन पड़ती है वे साकार प्रतिमा बनाकर अपनी भावनाओं को किसी पूजा प्रतीक पर केन्द्रित करते हैं, निर्जीव होते हुए भी वह माध्यम सजीव हो उठता है। मूर्ति पूजा का तत्वज्ञान यही है इस बात को हर कोई जानता है कि देव प्रतिमाएं पत्थर या धातु की बनी निर्जीव होती हैं। उनके सजीव होने की बात कोई सोचता तक नहीं। पर यह आध्यात्मिक तथ्य मूर्ति पूजा के माध्यम से प्रकाश में लाया जाता है कि जिस किसी से सच्चा प्रेम किया जायगा जिसके लिए भी सच्ची श्रद्धा का प्रयोग किया जायेगा वह वस्तु चाहे निर्जीव हो, या सजीव, भक्त की भावना के अनुरूप फल देने लगेगी। मूर्ति पूजा करते हुए साकार उपासना करने वाले अगणित भक्तजन जीवन लक्ष्य को प्राप्त कर सकने में सफल हुए हैं। मीरा, सूर, तुलसी, राम-कृष्ण परमहंस आदि की साकार उपासना निरर्थक नहीं गई। उन्हें परमपद तक पहुंचा सकने में ही समर्थ हुई।
रबड़ की गेंद दीवार पर मारने से लौटकर फेंकने वाले के पास ही पीछे को लौटती है। पक्के कुंए में मुंह करके आवाज लगाने से प्रतिध्वनि गूंजती है। उसी प्रकार इष्ट देव को दिया हुआ प्रेम लौटकर प्रेमी के पास ही आता है और उस प्रेम प्रवाह से रससिक्त हुआ अन्तरात्मा ईश्वर मिलन, ब्रह्म साक्षात्कार एवं भगवत् कृपा का प्रत्यक्ष अनुभव करता है। एकलव्य भील की बनाई हुई मिट्टी की द्रोणाचार्य की प्रतिमा उसे उतनी शस्त्र विद्या सिखाने में समर्थ हो गई जितनी कि गुरु द्रोणाचार्य स्वयं भी नहीं जानते थे। मिट्टी के द्रोणाचार्य में एकलव्य की जो अनन्य निष्ठा थी उसके कारण ही वह प्रतिक्रिया सम्भव हो सकी कि वह भील बालक उस युग का अनुपम शस्त्र चालक बन सका। ईश्वर के साकार व निराकार स्वरूप का ध्यान पूजन, जप, अनुष्ठान करते हुए साधक अपनी प्रेम भावना, श्रद्धा और निष्ठा को ही परिष्कृत करता है। इस मार्ग में वह जितनी प्रगति कर सके उतनी ही ईश्वरानुभूति परमानन्द उसे उपलब्ध होने लगता है।
साधना यदि सच्चे उद्देश्य से की गई हो तो उसका परिणाम यह होना ही चाहिए कि उपासक के मन में प्रेम की धारा प्रवाहित होने लगे वह प्राणिमात्र को अपनी आत्मा में और अपनी आत्मा को प्राणिमात्र में देखे। दूसरों का दुःख उसे अपने निज के दुःख जैसा कष्टकारक प्रतीत हो और दूसरों को सुखी, समुन्नत देखकर अपनी श्री समृद्धि की भांति ही सन्तोष का अनुभव करे। प्रेम का अर्थ है—आत्मीयता और उदारता। जिसके साथ प्रेमभाव होता है उस के साथ त्याग और सेवापूर्ण व्यवहार करने की इच्छा होती है, प्रेमी अपने को कष्ट और संयम में रखता है और अपने प्रेमपात्र को सुविकसित, सुन्दर एवं सुरम्य बनाने का प्रयत्न करता है। सच्चे प्रेम का यही एकमात्र चिन्ह है कि जिसके प्रति प्रेम भावना उपजे उसे अधिक सुन्दर अधिक उज्ज्वल एवं प्रसन्न करने का प्रयत्न किया जाय।
भगवान आपके अन्दर सोया है, उसे जगाइये—
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणः—‘‘मैं अज, नित्य, शाश्वत एवं पुराण हूं’’ यह आत्मा की अभिव्यक्ति है। जिसमें किंचित भेद भाव नहीं जो मुक्त है, जिसमें किसी प्रकार का कोई विकार नहीं, अभाव रहित, सदा सर्वदा सर्वज्ञ सम्पूर्ण एक रस, एक रूप हूं मैं, मेरा कभी परिवर्तन नहीं होता। नाना रूपों में मैं एक ही आत्मा विद्यमान हूं।
परमात्मा ने ही आत्मा को आच्छादित कर रखा है यह कहें तो अत्युक्ति न होगी। आत्मा में जो भी शक्ति और प्रकाश है वह सब परमात्मा का ही स्वरूप है। परमात्मा मुझसे विलग कहां? वह मैं हूं, मैं वह हूं, कर्त्तापन की भिन्नता है अन्यथा उसमें और मुझमें अन्तर नहीं। मैं और कुछ नहीं हूं परमात्मा की उपस्थिति ही मेरे जीवन का कारण बनी है वह मेरे साथ है इसलिए मैं जीवित हूं। वह चला जायगा तो मैं भी चला जाऊंगा। मेरा सम्पूर्ण अस्तित्व वह ब्रह्म ही है।
सृष्टि के प्रारम्भ में परमात्मा ने अनेक प्राणियों की रचना की पर सब अपूर्ण, सब अधूरे। किसी की शारीरिक शक्ति बड़ी थी, किसी का सौन्दर्य सर्वोपरि था, कोई बोलता मधुर था, किसी को नृत्य कला अच्छी आती थी, कोई अधिक ऊंचाई तक उड़ सकता था, किसी में अधिक दौड़ने की क्षमता थी। प्रवीण सब थे पर किसी एक ही विषय को लेकर। उपयोगी सब थे पर सर्वांगपूर्णता किसी में न थी। एक-दो गुण मिलते थे और बाकी एक दूसरे से भिन्न किसी में गुण, किसी में अवगुण। यह विषमता सम्भवतः उसे रुची न होगी इसलिए उसने अलौकिक देह रचने का निश्चय किया होगा।
वह विलक्षण प्राणी मनुष्य है। इसमें बड़ी सूक्ष्मता और सावधानी से कार्य किया गया। उसने एक-एक कल-पुर्जा कीमती से कीमती बनाया। बड़ी अजब शक्तियां पिरोई उनमें। मनुष्य बनकर तैयार हुआ तो सृष्टिकार स्वयं चकरा गया। इस रचना पर उसे सबसे अधिक आश्चर्य हुआ।
सम्पूर्ण देव शक्तियां इसमें प्रविष्ट हुईं। उन्होंने अपने-अपने कार्य प्रारंभ किए। अग्नि देव जाग्रत हुए तो भूख लगी, वरुण को जल की जरूरत पड़ी, किसी ने निद्रा मांगी, किसी ने जाग्रति। सबकी अपनी दिशा थी, अपना काम था। इनमें पारस्परिक प्रतिद्वन्दिता न होती रहे और उनका नियन्त्रण बराबर किया जाता रहे इस दृष्टि से एक जबर्दस्त नियामक सत्ता की आवश्यकता जान पड़ी तो परमात्मा स्वयं उसमें समा गया। इस तरह इस अद्भुत मनुष्य जीवन का प्रादुर्भाव हुआ इस सृष्टि में। सृष्टि के अन्य प्राणियों का सरदार बना मनुष्य तो उसे भी नियन्त्रित रखने के लिए उसका भगवान भी उसके साथ रहने लगा ताकि आवश्यकता पड़ने पर उसकी सहायता की जा सकती और उसे दुराचार या अधिकारों के दुरुपयोग से रोका भी जा सकता।
तब से अब तक मनुष्य निरन्तर एक प्रयोग के रूप में चलता आ रहा है। कभी वह गलती करता है तो उस अपराध के बदले सजा मिलती है और यदि वह अधिक कर्तव्यशील होता है तो उसे अधिक बड़े इनाम और अधिकार दिए जाते हैं। गलती का परिणाम दुःख और भलाई का परिणाम सुख। सुख और दुःख का यह अन्तर्द्वन्द आदि काल से चलता आ रहा है।
यदि मनुष्य के सम्पूर्ण ऐतिहासिक जीवन पर दृष्टि डालें तो ऐसा प्रतीत होता है कि जितना समय बीतता जाता है उसकी भलाई की शक्ति मरती जाती है और उसके अन्तर का असुर भाग बलवान होता जा रहा है। इसके फलस्वरूप उसके दुःखों में बढ़ोतरी होती जा रही है। वर्तमान युग इस स्थिति की पराकाष्ठा है यह कहें तो अतिशयोक्ति न होगी। आज लोगों में बड़ी दीनता है, लोग हीन और अभावग्रस्त हैं। यह झगड़ालू स्वार्थी और संकीर्ण प्रवृत्ति वाला हो गया है। मनुष्य का यह अधोगामीपन देखकर विश्वास नहीं होता कि उसके अन्दर परमात्मा जैसी महत्वपूर्ण शक्ति का निवास हो सकता है। दुर्बल मनुष्य में सर्वशक्तिमान परमात्मा ओत-प्रोत हो सकता है इसकी इन दिनों कल्पना भी नहीं की जा सकती।
मनुष्य की दयनीय दशा का एक ही कारण है और वह यह है कि उसके अन्दर का भगवान मूर्छित हो चुका है अथवा उसने अपनी मनोभूमि इतनी गन्दी बनाली है जहां परमात्मा का प्रखर प्रकाश सम्भव नहीं। यदि वह सचेत रहता उसकी मानसिक शक्तियां प्रबुद्ध रहतीं, भलाई की शक्ति जीवित रहती तो वह जिन साधनों को लेकर इस वसुन्धरा पर अवतीर्ण हुआ है वे अचूक ब्रह्म अस्त्र हैं। उनकी शक्ति वज्र से भी प्रबल है। सृष्टि का अन्य कोई भी प्राणी उसका सामना करने को समर्थ नहीं हो सकता। वह युवराज बनकर आया था। विजय, सफलताएं, उनमें सुख, शक्ति, शौर्य, साहस, निर्भयता उसे उत्तराधिकार में मिले थे। इनसे वह चिरकाल तक सुखी रह सकता था। भ्रम, चिन्ता, शंका, सन्देह आदि का कोई स्थान उसके जीवन में नहीं पर अभागे मनुष्य ने अपनी दुर्व्यवस्था आप उत्पन्न की। अन्तःकरण की ईश्वरीय सत्ता की उपेक्षा करने के कारण ही उसकी यह दुःखद स्थिति प्रकट हुई। अपने पैरों में कुल्हाड़ी मारने का अपराधी मनुष्य स्वयं है, इसका दोष परमात्मा को नहीं।
संसार में छोटे कहे जाने वाले प्राणी एक निश्चित प्रकृति लेकर जन्मते हैं और प्रायः अन्त तक उसी स्थिति में बने रहते हैं। इतना स्वार्थी मनुष्य ही था जिसे अपने साधनों से तृप्ति नहीं हुई और उसने दूसरों के स्वत्व का अपहरण करना प्रारम्भ किया। न्यायाधीश बनकर आया था उस पर स्वयं अन्याय करने लगा। ऐसी स्थिति में परमात्मा के अनुदान भला उसका कब तक साथ देते। ईश्वरीय गुणों से पथ भ्रष्ट मनुष्य की जो दुर्दशा होनी चाहिए थी वही हुई। दुःख की खेती उसने स्वयं बोई और उसका फल भी उसे ही चखना पड़ा।
परमात्मा हमारे अति समीप रहकर प्रेम का सन्देश देता है पर मनुष्य अपनी वासना से उसे कुचल देता है। वह अपनी सादगी, ताजगी और प्राण शक्ति से हमें सदैव अनुप्राणित रखने का प्रयत्न रखता है पर मनुष्य आडम्बर, आलस्य और अकर्मण्यता के द्वारा उस शक्ति को छिन्न-भिन्न कर देता है। कालान्तर में जब आन्तरिक-प्रकाश की शक्ति क्षीण पड़ जाती है तो दुःख और द्वन्द के बखेड़े बढ़ जाते हैं। तब मनुष्य को औरों की भलाई करना तो दूर अपना ही जीवन भार रूप हो जाता है। परमात्मा की अन्तःकरण से वियुक्ति ही कष्ट और क्लेश का कारण, बन्धन का कारण है।
मनुष्य बड़ा बुद्धि विवेक और विचारवान प्राणी है पर खेद है कि वह अपनी इन शक्तियों का उपयोग लौकिक कामनाओं और इन्द्रिय भोगों तक ही सीमित रखता है। उस अज्ञानान्धकार में ग्रसित मनुष्य को बड़ी शक्तियों का आभास भी नहीं होता इसीलिए वह कोल्हू की तरह एक सीमित दायरे का ही चक्कर काटता रहता है। उसे इतना भी पता नहीं होता कि हमारे शीश पर बड़ी शक्तियों का हाथ है और उनसे जीवन को सफल बनाने का आशीर्वाद प्राप्त किया जा सकता है।
मनुष्य समाज का एक बड़ा वर्ग ऐसा है जिसे अपनी गुप्त शक्तियों का आभास भी नहीं होता या वे उन्हें जानना हो नहीं चाहते, यह एक बड़े आश्चर्य की बात है। अपनी दुर्बलताओं का भार लादे हुए जानवरों की तरह जीना ही उन्हें पसन्द होता है। घोड़े, बैल, हाथी या बकरी की पीठ पर अच्छी-अच्छी वस्तुएं लादकर एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर ले जाते हैं पर बेचारे जानवरों को क्या पता कि उनकी पीठ पर कोई बहुमूल्य वस्तु रखी है। उनके लिए पीठ पर रखी कोई वस्तु भी भार समान ही है और इसी रूप में वे उसे ढोते रहते हैं। अज्ञान में फंसे मनुष्य की भी स्थिति ठीक ऐसी ही होती है। उनके लिए विचार, वाणी या विवेक उतना ही महत्वहीन है, जैसी पीठ पर कीमती सामान रखने वाले घोड़े या हाथी की दशा होती है।
मनुष्य को असीम शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, नैतिक एवं आत्मिक सम्पदाओं से सुसज्जित कर इस भूतल पर भेजा गया है पर अपने प्रयोग का ढंग विपरीत हो जाने, उद्देश्य बदल जाने के कारण उन शक्तियों से लाभ तो कुछ मिलता नहीं अशान्ति, भय, घबराहट, चिड़चिड़ापन, अस्थिरता, राग, द्वेष, घृणा, स्वार्थ और ईर्ष्या का वातावरण और तैयार कर लेता है। आत्मविकास के लिए अपनी क्षमताओं को ईश्वरीय रूप में देखना था और उनका प्रयोग दिव्य तेज और स्फूर्ति की प्राप्ति के लिए किया जाना चाहिए था। ऐसा करने वाले मनुष्य का अपना जीवन सार्थक होता और दूसरों को भी आत्मकल्याण की प्रेरणा मिलती।
आप अपनी मानसिक दुर्बलताओं का विश्लेषण किया कीजिए। देखिए क्या यह कामनाएं और वासनाएं अन्त तक आपका साथ देंगी। आप इस पर जितना अधिक विचार करेंगे उतना ही वे तुच्छ प्रतीत होगी और उनके प्रति आपके जी में घृणा उत्पन्न होगी। मानसिक दुर्बलताएं रुकेंगी तो आन्तरिक शक्तियों का प्रस्फुरण तीव्र होगा, आपके अन्दर ईश्वरीय अंश बढ़ेगा।
ईश्वर दिव्य है वह आपके अन्दर दिव्यता लाना चाहता है वह सत् है और वैसी ही प्रतिक्रिया आपके अन्दर भी चलाने की उसकी इच्छा होती है। आपके मन का मैल दूर हो तो आपका जीवन ईश्वरीय मन मोहकता, दिव्यता का आकर्षण केन्द्र बन जाय और उसकी सुवास से आपका सारा वातावरण महक जाय।
अपने भीतर समाविष्ट अमिट सत्य को पहचानिए, यह सत्य आपको संकीर्णता से मुक्त कर देगा। संसार की बदलती हुई गतिविधियों से, शरीर के नाना प्रकार के रूपों से तब आप दुःखी और विक्षुब्ध न होंगे। आपका जीवन हास्य युक्त, चहकता और दमकता हुआ रहेगा। मूल बात आत्म-चेतना को पहचानना है जिससे आप मन को तमोगुण से बचा सकते हैं और मनुष्य जीवन को आनन्दमय बना सकते हैं।
वह परमात्मा तेजस्वी, प्रकाशमान और सम्पूर्ण मानसिक पीड़ाओं को नष्ट करने वाला है। उसे विकसित करने में ही आपका कल्याण है। भगवान् कृष्ण ने कहा है—
यद्यद्विभूतिमत्सत्वं श्रमद्रर्जितमेव वा ।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोऽशसम्भवम् ।।
(गीता 10।49)
हे अर्जुन! इस जगत में जो कुछ भव्य ‘‘तेजस्वी तथा ऐश्वर्यवान् प्रतीत होता है वह मेरे ही तेज का अंश है। जो अपने अन्दर मुझ दैवी चेतना का अनुभव करते हैं मैं उनके बन्धन काट देता हूं।’’
जब व्यक्ति उस तेजस्विता को अपने भीतर बढ़ाता है, देवी चेतना का विस्तार करता है, तब वह प्रसुप्त ईश्वरत्व को जागृत, सक्रिय करता है। जो अपने भीतर के ईश्वर को सुलाए रहता है, वह बहुत समय तक मध्यवर्ती स्थिति में नहीं रह पाता। जिस मनुष्य के भीतर का ईश्वर सोया रहता है, उसके अन्दर शैतान घुस जाता है। वह उसे अपने इशारों पर नचाने लगता है।

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