दो महान अवलम्बन

मानव जीवन और ईश्वर विश्वास

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महाभारत का युद्ध प्रारम्भ होने में कुछ दिन ही शेष थे। कौरव और पाण्डव दोनों पक्ष अपनी-अपनी तैयारियां कर रहे थे। युद्ध के लिए अपने-अपने पक्ष के राजाओं को निमन्त्रित कर रहे थे। भगवान श्री कृष्ण को निमन्त्रित करने के लिए अर्जुन और दुर्योधन एक साथ पहुंचे। भगवान ने दोनों के समक्ष अपना चुनाव प्रश्न रखा। एक ओर अकेले शस्त्रहीन श्रीकृष्ण और दूसरी ओर श्रीकृष्ण की सारी सशस्त्र सेना, इन दोनों में से जिसे जो चाहिए वह मांग ले। दुर्योधन ने सारी सेना के समक्ष निरस्त्र कृष्ण को अस्वीकार कर दिया। किन्तु अपने पक्ष में अकेले निरस्त्र भगवान कृष्ण को देखकर अर्जुन मन-ही-मन बड़ा प्रसन्न हुआ अर्जुन ने भगवान को अपना सारथी बनाया। संग्राम हुआ। अन्ततः पांडव जीते और कौरव हार गये। इतिहास साक्षी है कि बिना लड़े भगवान कृष्ण ने अर्जुन का सारथी बनकर पांडवों को जिता दिया तथा शक्तिशाली सेना प्राप्त करके भी कौरवों को हारना पड़ा। दुर्योधन ने भूल की जो स्वयं भगवान के समक्ष सेना को ही महत्वपूर्ण समझा और सैन्य बल के समक्ष भगवान को ठुकरा दिया।
किन्तु आज भी हम दुर्योधन बने हुए हैं और निरन्तर यही भूल करते जा रहे हैं। संसारी शक्तियों, भौतिक सम्पदाओं के बल पर ही जीवन संग्राम में विजय चाहते हैं, ईश्वर की उपेक्षा करके। हम भी तो भगवान और उनकी भौतिक स्थूल शक्ति दोनों में दुर्योधन की तरह स्वयं ईश्वर की उपेक्षा कर रहे हैं और जीवन में संसारी शक्तियों को प्रधानता दे रहे हैं। किन्तु इससे तो कौरवों की तरह असफलता ही मिलेगी।
वस्तुतः जीत उन्हीं की होती है जो भौतिक शक्तियों तक ही सीमित न रहकर परमात्मा को अपने जीवन रथ का सारथी बना लेते हैं। उसे ही जीवन का सम्बल बनाकर मनुष्य इस जीवन संग्राम में विजय प्राप्त कर लेता है। हम देखते हैं कि ईश्वर को भूल कर संसार का ताना बाना हम बुनते रहते हैं अपने मन में हवाई किले बनाते हैं, कल्पना की उड़ान से दुनिया के ओर-छोर नापने की योजना बनाते हैं, किन्तु हमें पद-पद पर ठोकरें खानी पड़ती है। स्वप्नों का महल एक ही झोंके से धराशायी हो जाता है, कल्पना के पर कट जाते हैं, सब कुछ बिगड़ जाता है अन्त में पछताना पड़ता है। दुर्योधन, रावण, हिरण्यकशिपु, सिकन्दर आदि बड़ी-बड़ी हस्तियां पछताती चली गयीं। भगवान के संसार में रहकर भगवान को भूलने और केवल शक्तियों को प्रधानता देने से और क्या मिल सकता है? संसार के रणांगण में उतर कर हम इतने अन्धे हो जाते हैं कि इस सारी सृष्टि के मालिक का आशीर्वाद लेना तो दूर उसका स्मरण तक हम नहीं करते और भौतिक स्थूल संसार को ही प्रधानता देकर जूझ पड़ते हैं। ऐसे अहंकारी व्यक्ति चाहे कितनी भी सफलता प्राप्त क्यों न कर लें उनकी विजय संदिग्ध ही रहती है।
आज मानव जीवन की जो करुण एवं दयनीय स्थिति है जो सन्ताप दुःख असफलतायें मिल रही हैं इन सबका मूल कारण है ईश्वर विश्वास की कमी, ईश्वरीय सत्ता की उपेक्षा करना और एकमात्र भौतिक सांसारिकता को ही महत्व देना।
ईश्वर विश्वास के लिए श्रद्धा का महत्वपूर्ण स्थान है। भौतिक जीवन तथा शारीरिक क्षेत्र में प्रेम की सीमा होती है। जब यही प्रेम आन्तरिक अथवा आत्मिक क्षेत्र में काम करने लगता है तो उसे श्रद्धा कहते हैं। यह श्रद्धा ही ईश्वर-विश्वास का मूल स्रोत है एवं श्रद्धा के माध्यम से ही उस विराट की अनुभूति सम्भव है। श्रद्धा जीवन नैया के समस्त चप्पू ईश्वर के हाथों सौंप देती है। जिसकी जीवन डोर प्रभु के हाथों में हो भला उसे क्या भय? भय तो उसी को होगा जो अपने कमजोर हाथ पांव अथवा संसार की शक्तियों पर भरोसा करके चलेगा। जो प्रभु का आंचल पकड़ लेता है वह निर्भय हो जाता है, उसके सम्पूर्ण जीवन में प्रभु का प्रकाश भर जाता है। तब उसके जीवन व्यापार का प्रत्येक पहलू प्रभु प्रेरित होता है, उसका चरित्र दिव्य गुणों से सम्पन्न हो जाता है। वह स्वयं परम पिता का युवराज हो जाता है। फिर उसके समक्ष समस्त संसार फीका और निस्तेज बलहीन, क्षुद्र जान पड़ता है। किन्तु यह सब श्रद्धा से ही सम्भव है।
परमात्मा की सत्ता, उसकी कृपा पर अटल विश्वास रखना ही श्रद्धा है। ज्यों-ज्यों इसका विश्वास होता है त्यों-त्यों प्रभु का विराट स्वरूप सर्वत्र भासमान होने लगता है। हमारे भीतर बाहर चारों ओर श्रद्धा के माध्यम से ही हमें परमात्मा का—उस ईश्वर का अवलम्बन लेना चाहिए। श्रद्धा से ही उस परमात्म—तत्व पर जो हमारे बाहर-भीतर व्याप्त है विश्वास करना मुमुक्ष के लिए आवश्यक है और सम्भव भी है।
स्थूल जगत का समस्त कार्य व्यापार ईश्वरेच्छा एवं उसके विधान के अनुसार चल रहा है। वैज्ञानिक, दार्शनिक सभी इस तथ्य को एक स्वर से स्वीकार भी करते हैं। कहने के ढंग अलग-अलग हो सकते हैं, फिर भी यह निश्चित ही है कि यह सारा कार्य व्यापार किसी अदृश्य सर्वव्यापक सत्ता द्वारा चल रहा है। हमारा जीवन भी ईश्वरेच्छा का ही रूप है। अतः जीवन में ईश्वर विश्वास के साथ-साथ समस्त कार्य व्यापार में उसकी इच्छा को ही प्रधानता देनी चाहिए। वह क्या चाहता है इसे समझना और उसकी इच्छानुसार ही जीवन रण में जूझना आवश्यक है। इसी तथ्य का संकेत करते हुए भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा था—
‘‘तस्मात् सर्वकालेषु मामनुस्पर युध्यच ।’’
‘‘हे अर्जुन तू निरन्तर मेरा स्मरण करता हुआ मेरी इच्छानुसार युद्ध कर।’’ परमात्मा सभी को यही आदेश देता है। ईश्वर का नाम लेकर उनकी इच्छा को जीवन में परिणित होने देकर जो संसार के रणांगण में उतरते हैं उन्हें अर्जुन की ही तरह निराशा का, असफलता का सामना नहीं करना पड़ता। ईश्वरेच्छा को जीवन संचालन का केन्द्र बनाने वाले की हर सांस से यह आवाज निकलती रहती है ‘‘हे ईश्वर तेरी इच्छा पूर्ण हो।’’ ईश्वर तेरी इच्छा पूर्ण हो—जीवन का यह मूल मन्त्र है। महापुरुषों के जीवन इसके साक्षी हैं। हामी दयानन्द ने अन्तिम बार जहर खाते हुए भी कहा—‘‘ईश्वर तेरी इच्छा पूर्ण हो।’’ महात्मा गांधी ने गोली खाकर कहा ‘‘हे राम तेरी इच्छा पूर्ण हो।’’ ईसा को क्रूस पर चढ़ाया गया तब उन्होंने भी प्रभु इच्छा को ही पूर्ण होता बताया। जीवन में हर सांस, हर धड़कन में प्रभु की इच्छा को ही प्रधान समझें। जीवन को प्रभु के हाथों सौंप दें तो अन्त में भी उसके पावन अंक में ही स्थान मिलेगा। साथ ही हमारा भौतिक जीवन भी दिव्य एवं महान बन जायगा। भगवान कहते हैं—
‘‘मन्मना भव मद भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु । ’’
‘‘मेरा भक्त बन जा सारे कर्म अकर्म मुझे अर्पित कर दे, मैं तुझे सर्व दुःखों से पार कर दूंगा।’’
अहंकार का पुतला मनुष्य प्रभु की इच्छा को, उनकी आज्ञा को स्वीकार नहीं करता और अपने ही निर्बल कन्धों पर अपना बोझ उठाये फिरता है। इतना ही नहीं दुनिया का भार उठाने का दम भरता है। यही कारण है कि निराशायें, चिंतायें, दुख-रोग, असफलतायें उसे घेरे हुए हैं और रात दिन व्याकुल सा सिर धुनता हुआ मनुष्य अत्यन्त परेशान-सा दिखाई देता है। अहंकार वश प्रभु की इच्छा के विपरीत चलकर कभी सुख शान्ति मिल सकती है? नहीं, कदापि नहीं। हमें अपने हृदय मन्दिर में से अहंकार, वासना, राग-द्वेष को निकाल कर रिक्त करना होगा और ईश्वरेच्छा को सहज रूप में काम करने देना होगा तभी जीवन यात्रा सफल हो सकेगी।
ईश्वर के प्रति विश्वास, श्रद्धा, उसकी इच्छा को जो समस्त स्थूल और सूक्ष्म संसार का संचालन कर रही है, सहज रूप में काम करने देना, जीवन के मूलमन्त्र हैं। मनुष्य की शक्ति अत्यन्त अल्प है, वह अहंकार की शक्ति है। बड़े-बड़े कौरव, वाणासुर, रावण, हिरण्यकशिपु, अनेकों असुरों ने ईश्वरीय सत्ता को चुनौती दी थी अपने सांसारिक बल और अहंकार बल से, किन्तु अन्त में पछताते गये। साधारण मनुष्य की तो बात ही क्या है, अपने जीवन की बागडोर उनके हाथों में देकर निश्चिन्त हो जाने वाले ही उनके विराट रूप का दर्शन कर कृतार्थ हो जाते हैं। हमें सचेत होकर अपना रथ भगवान के हाथों में देना है। परम पिता के संरक्षण में हमें अपनी विजय यात्रा पर चलने को तैयार हो जाना है। हमारी प्रत्येक सांस और धड़कन में प्रभु का अमर संगीत गूंजता रहे, हमारे हृदय मन्दिर में विराजमान प्रभु हमारे जीवन रथ का संचालन करते रहें और अन्त में उनके पावन अंक में ही हमें स्थान मिले, ऐसी उनसे प्रार्थना है। वे ही हमारे बाहर भीतर एक रस से व्याप्त हो रहे हैं। उनसे विमुख होकर हमारी गति कहां है?
ईश्वर से विमुख न हों—
जिन्दगी को ठीक तरह जीने के लिए एक ऐसे साथी की आवश्यकता रहती है जो पूरे रास्ते हमारे साथ रहे, प्यार करे, सलाह दे, और सहायता की शक्ति तथा भावना दोनों से ही सम्पन्न हो। ऐसा साथी मिल जाने पर जिन्दगी की लम्बी मंजिल बड़ी हंसी-खुशी और सुविधा के साथ पूरी हो जाती है। अकेले चलने में यह रास्ता भारी हो जाता है और कठिन प्रतीत होता है।
ऐसा सबसे उपयुक्त साथी जो निरन्तर मित्र, सखा, सेवक, गुरु, सहायक की तरह हर घड़ी प्रस्तुत रहे और बदले में प्रत्युपकार न मांगे केवल एक ईश्वर ही हो सकता है। ईश्वर को जीवन का सहचर बना लेने से मंजिल इतनी मंगलमय हो जाती है कि यह धरती ही ईश्वर के लोक—स्वर्ग जैसी आनन्द-युक्त प्रतीत होने लगती है यों ईश्वर सबके साथ है और वह सबकी सहायता भी करता है पर जो उसे समझते और देखते हैं, वास्तविक लाभ उन्हें ही मिल पाता है। किसी के घर में सोना गढ़ा है और उसे वह प्रतीत न हो तो गरीबी ही अनुभव होती रहेगी, किन्तु यदि मालूम हो जाये कि हमारे घर में इतना सोना है, तो उसका भले ही उपयोग न किया जाय, मन में अमीरी का गर्व और और विश्वास बना रहेगा। ईश्वर को भूले रहने पर हमें अकेलापन प्रतीत होता है पर जब उसे अपने रोम-रोम में समाया हुआ, अजस्र प्रेम और सहयोग बरसाता हुआ अनुभव करते हैं तो साहस हजारों गुना अधिक हो जाता हैं। आशा और विश्वास हृदय हर घड़ी भरा रहता है।
जिसने ईश्वर को भुला रखा है, अपने बलबूते पर ही सब कुछ करता है और सोचता है उसे जिन्दगी बहुत भारी प्रतीत होती है, इतना वजन उठा कर चलने में उसके पैर लड़खड़ाने लगते हैं। कठिनाइयां और आपत्तियां आने पर भय और आशंका से कलेजा धक-धक करने लगता है। अपने साधनों में कमी दीखने पर भविष्य अन्धकारमय प्रतीत होने लगता है। पर जिसे ईश्वर पर विश्वास है वह सदा यही अनुभव करेगा कि कोई बड़ी शक्ति मेरे साथ है। जहां अपना बल थकेगा वहां उसका बल मिलेगा। जहां अपने साधन कम पड़ रहे होंगे वहां उसके साधन उपलब्ध होंगे। इस संसार में क्षण-क्षण पर प्राणघातक संकट और आपत्तियों के पर्वत मौजूद हैं, जो उनसे अब तक अपनी रक्षा करता रहा है यह आगे क्यों न करेगा?
अब तक के जीवन पर यदि हम ध्यान दें तो ऐसे ढेरों प्रसंग याद आ जायेंगे जब चारों ओर अंधेरा छाया हुआ था और यह प्रतीत होता था कि नाव अब डूबी, पर स्थिति बदली, विपत्ति की घटायें हटीं और सुरक्षा के साधन बन गये। लोग इसे आकस्मिक अवसर कहकर ईश्वर के प्रति अपनी आस्था को भुलाते रहते है। वास्तविकता यह है कि समय समय पर हमें दैवी सहायता मिलती है और अपने स्वल्प साधन होते हुए भी कोई बड़ी शक्ति सहायता करने के लिए आ पहुंचती है। कृतघ्नता को हमने अपने स्वभाव में यदि सम्मिलित नहीं किया है तो अपने निज के जीवन में ही अगणित अवसर दैवी सहायता के ढूंढ़ सकते हैं और यह विश्वास कर सकते हैं कि उसकी अहेतुकी कृपा निरन्तर हमारे ऊपर बरसती ही है।
अब तक जिसने समय-समय पर इतनी सहायता की है, जन्म लेने से पहले ही हर घड़ी गरम, मीठे और ताजे दूध से निरन्तर भरे रहने वाले दो-दो डिब्बे जिसने तैयार करके रख दिये थे, माता के रूप में धोबिन, भंगन, डॉक्टर, नर्स, आया तथा मनमाना खर्च और दुलार करने वाली एक चौबीस घण्टे की बिना वेतन की सेविका जिसने नियुक्त कर रखी थी, प्रत्येक अवसर पर जिसकी सहायता मिलती रही है, वह आगे भी मिलेगी ही और अपना भविष्य उज्ज्वल बनेगा ही, यह विश्वास करने वाला व्यक्ति कभी निराश नहीं हो सकता। उसकी हिम्मत कभी टूट नहीं सकती। आस्तिकता के आधार पर हिम्मत बढ़ती और साहसी शूरवीरों जैसा कलेजा बना रहता है।
हमारा सच्चा जीवन सहचर है ईश्वर—
इस संसार में पग-पग पर कठिनाइयों और संकटों का सामना मनुष्य को ही करना पड़ता है। संसार संकटों का आलय कहा गया है। बहुत कुछ साधन होने पर भी आपत्तियां आ जाती हैं। उनसे छुटकारे का कोई मार्ग नहीं दिखता। मनुष्य बहुत कुछ हाथ-पैर मारता है लेकिन संकटों का निस्तार नहीं हो पाता।
ऐसी भयप्रद परिस्थितियां कभी न कभी प्रायः सभी मनुष्यों के सामने आती रहती हैं। ऐसा लगता है जैसे उसका सारा बल, सारे साधन समाप्त हो गये हैं। इस अन्धकार में कोई साथ देने वाला नहीं है, जीवन भारी हो गया है। पैर लड़खड़ाने लग गये हैं। चारों और अन्धेरा ही छाया हुआ है। इस प्रकार वह निराशा और भय से घिर कर असहाय हो जाता हैं।
लेकिन फिर धीरे-धीरे सारा ज्वार शान्त होने लगता है। सभी ओर समाधान दीखने लगता है वही साधन जिनकी शक्ति में अविश्वास होने लगा था उसी अपने बल में, जिसमें अनास्था हो गई थी, उसी जीवन में, जिसमें केवल अन्धेरा ही अन्धेरा दीख रहा था, विश्वास, श्रद्धा और प्रकाश आता दिखाई देने लगता है। आपत्तियों और संकट के बादल छटने लगते है और निराश मनुष्य एक बार फिर अपने ही पैरों पर खड़ा हो जाता है। यह सब चमत्कार क्या है?
यह चमत्कार वह ईश्वरीय कृपा है जिसका उदय अपने भीतर से ही होता है। यह मनुष्य के आस्तिक भाव का लाभ है, उसी का प्रसाद है। यह लाभ उसे नहीं मिल पाता जो नास्तिक होता है, जिसके हृदय में उस सर्वशक्तिमान् के प्रति विश्वास नहीं होता। नास्तिक व्यक्ति को ऐसा प्रत्याशित सम्बन्ध प्राप्त नहीं होता। वह तो अपने साधनों, अपने बल और अपनी शक्ति के थकते ही पराजित हो जाता है और तब संकट और आपत्तियां उस शक्ति को पूरी तरह नष्ट कर देती हैं। ईश्वर उन्हीं पर करुणा करता है, जो उसके विश्वासी होते हैं, आस्तिक भाव से ओत प्रोत होते हैं।
ईश्वर की यह महती कृपा ही है कि वह अपने विश्वासी की निरुपाय स्थिति में सहायता करता है, वह किसी का बन्धक नहीं होता, किसी का उस पर कोई इजारा नहीं होता। यदि वह सहायता न करे तो इसका कोई उलाहना नहीं। लेकिन नहीं वह अपने उस जन की सहायता बिना मांगे ही करता रहता है। क्योंकि वह करुणा सागर है, दया का आगार है। परमात्मा की इस कृपा के प्रति हम सबको कृतज्ञ ही रहना चाहिए।
अनेक लोग जरा-सा संकट आते ही बुरी तरह घबरा जाते हैं। हाय-हाय करने लगते हैं, उसे ईश्वर का प्रकोप मानकर भला-बुरा कहने लगते हैं। निराश और हतोत्साह होकर ईश्वर के प्रति अनास्थावान् होने लगते हैं। यह ठीक नहीं। आपत्तियां संसार में सहज सम्भाव्य हैं। किसी समय भी आ सकती हैं। किन्तु उनसे घबराना नहीं चाहिए। उन्हें ईश्वर का अपने बच्चों के साथ एक खेल समझना चाहिए। जैसे कोई कागज का भयावह चेहरा लगा कर कभी-कभी बच्चों को डराने का विनोद किया करता है, उसी प्रकार ईश्वर भी संकट की स्थिति लाकर अपने बच्चों के साथ खेल किया करता है। उसका आशय यही होता है कि बच्चे भयावह स्थितियों के अभ्यस्त हो जायें और डरने की उनकी आदत छूट जाये। वे संसार में हर संकट का सामना करने के योग्य बन जाये। आपत्तियों को ईश्वर का खिलवाड़ समझ कर डरना नहीं चाहिए। उसमें उस खिलाड़ी का साथ देकर खेलते ही रहना चाहिए।
आपत्तियां उन्हीं के लिए भय का कारण बनती हैं, जो ईश्वर विश्वासी नहीं होते। उनमें ईश्वर के मंगल मन्तव्य का आभास नहीं देखते। अन्यथा संसार की किसी भी परिस्थिति से डरने का कोई कारण नहीं। जिसे ईश्वर की कृपा में विश्वास है, उसकी सर्वशक्तिमत्ता में अखण्ड आधार है, जो उसे अपना स्वामी, सखा, और माता-पिता समझता है, उसे किसी बात से डरने का क्या अर्थ? डरना तो उसे चाहिए, जिसने उस सर्वशक्तिमान का साथ छोड़ दिया है।
जो उसके आदेशों और निर्देशों का उल्लंघन करने का अपराध करता है, जो ईश्वर के विरोध से नहीं डरता है, जो उसकी इच्छा का अनुसरण करने में आनाकानी करता है, डर तो उसके लिए है। जो उसकी उपासना करता है, आज्ञा में चलता है, अपना विश्वास सुरक्षित रखता है, उसको संसार में न तो किसी से भय लगता है न और वह किसी परिस्थिति से विचलित होता है। अपने विश्वासी को ईश्वर बिना मांगे ही साहस, सम्बल और शक्ति देता रहता है। उसकी महती कृपा है, इसके प्रति हम सबको आभारी रहना चाहिए।
जीवन एक लम्बी यात्रा के समान है। सर्वथा एकाकी चल कर इसे आसानी से पूरा कर सकना सरल नहीं है। जब किसी यात्रा में कोई मनचाहा साथी मिल जाता है, तो वह बड़ी आसानी से कट जाती है। रास्ता लम्बा और नीरस नहीं लगता। लेकिन साथी सच्चा, सहयोगी और योग्य ही होना चाहिए। अन्यथा वह यात्रा को और भी संकटपूर्ण बना देगा। किन्तु संसार में ऐसे मनचाहे साथी मिलते कब हैं?
संसार में स्वार्थी, विश्वासघाती और आपत्ति के समय साथ छोड़ जाने वाले ही अधिक पाये जाते हैं। जीवन यात्रा के लिए सबसे योग्य एवं उपयुक्त साथी ईश्वर के सिवा और कौन हो सकता है? वही एक ऐसा मित्र, सखा, सज्जन सहायक और गुरु होता है, जो पूरे रास्ते साथ रहे, भूलने पर रास्ता दिखाये, थकने पर सहारा दे और आपत्ति के समय हाथ पकड़ कर बाहर निकाल लाये। एक ईश्वर को छोड़ कर ऐसा साथी और कौन हो सकता है, जो जीवन भर साथ दे सके, पग-पग पर चेतावनी और सहारा दे सके, किन्तु अपने इस उपकार के बदले में न तो कुछ ले और न मांगे। ऐसे निःस्वार्थ एवं हित-चिन्तक, साथी, सखा और सहचर के उपकार यदि भुला दिये जाते हैं, तो इससे बढ़कर कृतघ्नता और क्या हो सकती है?
जिसने ईश्वर से मित्रता कर ली है। उसे अपना साथी बना लिया है। उसके लिए यह संसार वैकुण्ठ की तरह आनन्द का आगार बन जाता है। जिसकी यह सारी दुनिया है, जो इस संसार का स्वामी है, उससे सम्पर्क कर लेने पर, हाथ पकड़ लेने पर, फिर ऐसी कौन-सी सम्पदा, ऐसा कौन-सा सुख शेष रह सकता है, जिसमें भाग न मिले। जो स्वामी का सखा है, वह उसके ऐश्वर्यों का भी साथी होता है।
ईश्वर के अनन्त उपकारों को कोई कृतघ्न नास्तिक ही भुला सकता है, श्रद्धालु आस्तिक नहीं। उस अहेतुक उपकार करने वाले के प्रति हमें सदैव विश्वासी एवं आस्थावान् ही रहना चाहिए। जब वह जीव को जन्म देने को सोचता है तब उसके लिए सारी सुविधायें पहले से संचय कर देता है जिससे जन्म लेने के बाद उसके प्यारे जीवों को कोई कष्ट न हो। उसकी मनोनीत माता को दो स्तन दे देता है। जन्म देते ही उसमें नित्यप्रति ताजा, स्वादिष्ट और स्वास्थ्यदायक दूध पैदा करता रहता है। माता के हृदय में वात्सल्य और स्नेह उपजा कर अबोध जीव की सुरक्षा सेवा और देखभाल करने की प्रेरणा देता रहता है। यदि वह ऐसा न करे तो संसार में जीवन एक दिन भी नहीं चल पाये।
इतना ही क्यों? आगे चल कर भी वह जीवों पर अत्यन्त उपकार करता है। उसे क्रमिक वृद्धि देता है, उसका विकास करता है, बल, बुद्धि और विवेक की कृपा करता है। यदि वह ऐसा न करे जीव भी जड़ की तरह अगतिशील ही बना रहे। न वह संसार में किन्हीं कर्तव्यों को कर पाये और न उनका आनन्द उठा पाये। ऐसे चिर-कृपालु ईश्वर के उपकारों को किस प्रकार भुलाया जा सकता है?
इस संसार में क्या नहीं है? सुख, सौभाग्य, आनन्द-मंगल सभी तो इस संसार में भरा पड़ा है। किन्तु यह मिलता उन्हें ही है, जो इसके स्वामी परमात्मा के अनुकूल रहते हैं। उसके प्रतिकूल चलने वालों को संसार में दुःख और आपत्तियों के सिवाये और कुछ नहीं मिल पाता। जो इस जगत के स्वामी को अपना माता-पिता मानेगा, उसकी आज्ञा में चलेगा, उसे हर प्रकार से प्रसन्न रखने का प्रयत्न करेगा, वही उत्तराधिकारी बनेगा और संसार का वैभव पायेगा। संसार का सारा वैभव हमारे पिता का है—जब यह विश्वास हृदय में जम जायेगा तो पुत्र भाव रखने वाला आस्तिक उस अतुल वैभव को अपना अनुभव करने लगेगा। उसे गरीबी, अभाव, दरिद्रता अथवा दुःख का अनुभव ही न होगा। जब सांसारिक राजा, रईसों के लड़के अपने आप को सम्पन्न और सन्तुष्ट अनुभव करते हैं और पिता के बल पर संसार में निर्भय होकर विचरते हैं, तब भला उस सर्वशक्तिमान् को अपना पिता मानने वाला क्यों तो किसी से डरेगा और क्यों अपने को विपन्न मानकर दुःखी होगा?
ईश्वर मनुष्य के भाव के अनुरूप ही अपना भी भाव बनाता है। जो उसमें पिता का भाव रखता है, वह बदले में उसकी ओर से पुत्र का भाव पाता है। अब ऐसा कौन-सा पिता होगा जो अपने पुत्र को अपनी सम्पदाओं से वंचित रखेगा अथवा उसे विपत्ति में पड़ा रहने देगा? वह तो उसका हर प्रकार से लालन-पालन करेगा और हर प्रकार से आपत्तियों से बचायेगा। ऐसे परम दयाल पिता का उपकार न मानना बहुत बड़ा पाप है।
संसार की इस लम्बी जीवन-यात्रा को एकाकी पूरा करने के लिए चल पड़ना निरापद नहीं है। इसमें आपत्तियां आयेंगी, संकटों का सामना करना होगा। निराशा और निरुत्साह से टक्कर लेनी होगी। इन सब बाधाओं और दुःखदायी परिस्थितियों से लड़ने के लिए एक विश्वस्त साथी का होना बहुत आवश्यक है। वह साथी ईश्वर से अच्छा कोई नहीं हो सकता। उसे कहीं से लाने-बुलाने की आवश्यकता नहीं होती है। वह तो हर समय, हर स्थान पर विद्यमान है। एक अणु भी उससे रहित नहीं है। वह हमारे भीतर भी बैठा हुआ है। किन्तु हम अपने अहंकार के कारण उसे जान नहीं पाते। उसी प्रकार जैसे किसी के घर में बड़ा भारी खजाना छिपा पड़ा हो और वह उसे अज्ञानवश न जान सका। जब किसी को अपनी सम्पत्ति का पता हो जाता है, तो वह उसे खर्च भले ही न करे तब भी उसे उसके बल पर एक सम्पन्नता, एक विश्वास और एक बल अनुभव होता रहता है। जो अन्तस्थ ईश्वर का विश्वास पा लेता है, समझ लेता है कि वह सर्वशक्तिमान् हर समय उसके साथ रहता है, उसे एक बड़ा आनन्ददायक आत्म-विश्वास बना रहता है। फिर उसे न किसी से भय लगता है और न वह किसी प्रकार की कमी अनुभव करता है। वह स्वयं ही अपने उस विश्वास के बल पर हर परिस्थिति से टक्कर ले लेता है, प्रायः रो, कलप कर ईश्वर को पुकारने की भी आवश्यकता नहीं रहती।
ईश्वर हमारा महान् उपकारी पिता है वह हमारा स्वामी और सखा भी है। हमें उसके प्रति सदा आस्थावान् रहना चाहिए और आभारपूर्वक उसके उपकारों को याद करते हुए उसके प्रति विनम्र एवं श्रद्धालु बना रहना चाहिए। इसमें हमारा न केवल सुख ही निहित है बल्कि लोक-परलोक दोनों का कल्याण भी। उसके प्रति अनास्था ही शैतानियत की जननी है।
परमात्मा की अनन्त अनुकम्पा ठुकराएं नहीं—
वह भगवान् सदा सभी के साथ है, घट-घटवासी और सर्वव्यापी होने के कारण जहां भी हम रहते हैं वहां हमारे साथ ओत-प्रोत रहा हुआ होता है। इस विश्व में तिल भर भी ऐसा नहीं जहां भगवान न हो। हमारी हर सांस के साथ वह भीतर जाता और बाहर निकलता है। रक्त की हर तरंग के साथ वह अंग-प्रत्यंगों में प्रतिक्षण दौड़ता है, हृदय की धड़कन के साथ उसका ताल-वाद्य बजता रहता है। जब हम सो जाते हैं तब भी हमारी चौकसी के लिए जागता है। माता की गोदी की तरह निद्रा की चादर से ढक कर वह हमें अपनी छाती से चिपका कर सुलाया करता है। जब सब ओर से जीव अशान्त और क्लान्त होकर थका हुआ चकनाचूर हो जाता है तो निद्रा के रूप में परमात्मा की गोदी ही उसे विश्रान्ति प्रदान करती है। असमर्थ जीव को चिर निद्रा में सुलाकर क्लोरोफार्म देकर आपरेशन करने वाले और सड़ा अंग काटकर उसकी जगह नया अंग लगा देने वाले कुशल डॉक्टर की तरह वही पुनर्जन्म की व्यवस्था करता है मृत्यु और कुछ नहीं एक गहरी चिरनिद्रा मात्र होती है।
प्रभु की अनन्त अनुकम्पा को हर घड़ी अनुभव किया जा सकता है। उसके इतने अनन्त अनुदान अपने को प्राप्त हैं कि एक-एक पर विचार करने से ऐसा लगता है मानों सृष्टि की सारी विभूति उसने अपने ही लिए बनाकर रख दी है और वस्तु का मनमाना उपयोग करने की पूरी-पूरी छूट दी गई है। इठला कर बहती हुई नदियां, शांति से निकलते हुए सरोवर, मधुर मुसकाते हुए पुष्प, चहकते हुए पक्षी, उमड़ घुमड़कर गरजते बरसते बादल, लहलहाती हरियाली, आकाश चूमने वाले पर्वत, जिधर भी दृष्टि डाली जाय उधर ही प्रकृति का अनन्त सौन्दर्य बिखरा पड़ा है और हर कोई मनचाही मात्रा में उसका पूरा-पूरा निर्बाध रसास्वादन करने को स्वतन्त्र है।
जो शरीर हमें मिला है उसका एक-एक कलपुर्जा ऐसा कीमती है कि विज्ञान की उन्नति के इस युग में भी वैज्ञानिक लोग करोड़ों रुपया खर्च करके भी वैसे पुर्जे नहीं लगा सकते जैसे इस देह में लगे हैं। आंखे जैसा स्पष्ट देखती हैं वैसा कैमरा कोई अब तक नहीं बन सका।  मस्तिष्क की रचना ऐसी विलक्षण है कि उसके सूक्ष्म विद्युत संस्थान की छोटी-छोटी गतिविधियों को समझने का प्रयत्न करने मात्र में मानव बुद्धि थक जाती है। हाथ, पांव, पाचन संस्थान, श्वांस संस्थान, रक्त संस्थान, मल विसर्जन संस्थान की रचना और उपयोगिता ऐसी आश्चर्यजनक है कि उस वैज्ञानिक की, उस कलाकार की कृति को निहारते-निहारते यही लगता है कि इस रचनाकार की मानव शरीर की अद्भुत रचना प्रक्रिया को समझ सकना भी कठिन है। समझने की आवश्यकता भी नहीं।
इस मानव शरीर में सुख-सुविधाएं प्राप्त हैं उन्हीं का विश्लेषण करें और अन्य जीव-जन्तुओं की तुलना में उनकी श्रेष्ठता का अनुभव करें तो मन कृतज्ञता से भर जाता है। परमात्मा के अनन्त अनुदान पर सन्तोष व्यक्त करें और प्रभु का आभार मानें तो यह सारा जीवन इस एक कार्य को पूरा करने में भी पर्याप्त नहीं हो सकता। बाह्य जीवन में जो उपलब्धियां हमें प्राप्त हैं वे अद्भुत हैं। बोलने की, लिखने की, पढ़ने की जो विशेषता जितनी मात्रा में किसी भी जीव को नहीं मिल सकीं वह हमें प्राप्त हैं। यह रचना उसकी कैसी मंगलमय व्यवस्था है कि उसके सहारे हंसते-खेलते जिन्दगी कट जाती है और जो पुण्य-परमार्थ प्राप्त करना लक्ष था वह भी उस छोटी बगीची के सींचने में पूरा हो जाता है। आनन्द और उल्लास का कितना श्रेष्ठ समन्वय परिवार रचना के साथ सम्बन्धित है उस पर विचार करते हैं तो लगता है कि पूरा आनन्दानुभूति का एक बहुत ही मनोरम व्यवस्था-क्रम बना कर हमारे साथ जोड़ दिया गया है। मनोरंजन की परिपूर्ण व्यवस्था रख दी गई और कर्तव्य पालन एवं आत्म विकास का भरपूर अवसर उसमें मौजूद है।
संसार की बाह्य परिस्थितियों में भगवान का कैसा कडुआ-मीठा स्वाद सन्निहित किया हुआ है कि एक के सम्बन्ध से दूसरे की महत्ता बढ़ती है रात का अन्धकार दिन के प्रकाश का महत्व बढ़ाता है और दिन का प्रकाश रात्रि के अन्धकार को श्रेय प्रदान करता है। गरीबी की उपस्थिति से अमीरी का गौरव टिका हुआ है और अमीरी से खिन्न हुए लोग गरीबी—संन्यास की शरण में शांति खोजते हैं। रोग से आरोग्य का महत्व समझ में आता है, पाप को देखकर पुण्य की प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है। दुरात्माओं की उपस्थिति से महात्माओं का सम्मान होता है। यदि सब कुछ एक-सा ही रहा होता—व्यक्तियों और परिस्थितियों में अन्तर न रहता तो मनुष्य की सूझ-बूझ का ही कोई महत्व न रहता वह कुण्ठित पड़ी रहती और जो हलचल चारों ओर दिखाई पड़ती है उसके स्थान पर सन्नाटा छाया होता। जिन बातों को हम परमात्मा की भूल, अकृपा एवं अव्यवस्था समझते हैं उसमें वस्तुतः उसकी सुव्यवस्था सन्निहित रहती है।
जो परिस्थितियां हमें अपने लिए प्रतिकूल अप्रिय, अखरने वाली, कष्टकारक लगती हैं उनमें भी परमात्मा का सत्प्रयत्न और सदुद्देश्य छिपा रहता है। पढ़ने के लिए ताड़ना करने वाला अध्यापक, सड़े अंग का आपरेशन करने वाला डॉक्टर उद्दण्डता के लिए क्रोध प्रकट करने वाला पिता, अपराध के लिए दण्ड देने वाला न्यायाधीश उन्हें बुरे लगते हैं जिन्हें उनके व्यवहार से कष्ट पहुंचता है। पर कष्ट पहुंचाना सदा अकृपा में ही नहीं होता। माता को प्रजनन का कष्ट भुगतना पड़ता है पर क्या यह किसी के क्रोध या दुर्वासा का प्रतिफल होता है? ईश्वर का प्रेम और अनुग्रह कई बार माता के दूध पिलाने की तरह मधुर और कई बार कान ऐंठने की तरह कडुआ होता है। बालक नहीं माता ही जानती है कि इन दोनों में केवल बालक के कल्याण और सुख का ही ध्यान रखा गया है।
वह परमात्मा हमारे प्रतिक्षण साथ रहते हैं पर उनकी उपस्थिति से जो लाभ मिलना चाहिए उसे कोई विरले ही उठा पाते हैं। घर की जमीन में गढ़ा धन, यदि अपनी जानकारी में न हो तो उससे क्या लाभ मिलेगा? गले में पड़े हुए हीरा के कण्ठा को यदि हमने कांच जितना ही समझ लिया हो तो उससे क्या लाभ अपने को प्राप्त होगा? परमात्मा की अपार और अत्यन्त शक्ति एवं अनुकम्पा हर घड़ी अपने साथ है पर उसका परिपूर्ण लाभ उठा सकना अनजानों के लिए कठिन है। जिस जानकारी के आधार पर परमात्मा के सहचर होने का समुचित सत्परिणाम प्राप्त किया जा सकता है उसे ही सद्ज्ञान या अध्यात्म कहते हैं।
कपड़े के झीने पर्दे की आड़ में बैठे हुए दो व्यक्ति एक दूसरे को देख नहीं सकते यद्यपि यह अनुभव करते है कि पर्दे के भीतर कोई बैठा है। हम यह तो जानते हैं कि परमात्मा हमारे समीप है, भीतर ही है पर उसकी उपस्थित से वह आनन्द और लाभ नहीं उठा पाते जो सान्निध्य सहचरत्व से मिलना चाहिए। राजा रईस, अमीर अधिकारी, योद्धा, विद्वान, कलाकार आदि श्रेष्ठ लोगों की मित्रता और समीपता से लोग बहुत लाभ उठा लेते हैं, तब उदार तथा अनुग्रही परमात्मा के निरन्तर सामीप्य का हम लाभ न उठा सकें, अपनी स्थिति उन्नत न बना सकें, इसे दुर्भाग्य के अतिरिक्त और क्या कहा जायेगा?
परमात्मा निरन्तर हमारे साथ है, वह हमें अपने समान बनने ऊपर उठने का आमन्त्रण देता रहता है, आवाह्न करता रहता है। पर, उसे मुंह से पुकारते रहने वाले अनेक मनुष्य मन से शैतान का ही सान्निध्य चाहते, उसी की ओर खिंचने में सुख का अनुभव करते हैं, यह भी मनुष्य की—जीवन की एक विचित्र विडम्बना है।

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