भाव संवेदनाओं की गंगोत्री

सक्रिय समर्पण कैसा हो ?

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कसक पैदा हुई, इसका चिह्न है, विलासिता का पूरी तरह छूटना। जीवन की रंगीली-मौज-मस्ती फिर उसे किसी तरह रास नहीं आ सकती। नवयुवती आंडाल के कलेजे में ऐसी ही कसक उपजी। पिता, सगे-संबंधी विवाह के लिए जोर-जबरदस्ती कर रहे थे। उसने

पूछा,‘‘ विवाह क्यों............?’’

    ‘‘घर बसाने के लिए .......।’’

    ‘‘तो अभी कौन-सा उजड़ा है?’’

    ‘‘बात नया घर बसाने की है।’’

    ‘‘तो विवाह का मतलब घर बसाना है?’’

    ‘‘हाँ।’’

    तो जब इतने घर उजड़ रहे हैं, स्वयं भगवान का घर टूट-फूट रहा है, ऐसे में नया बसाने की बात सोचना कितनी मूर्खता है? जब बसाना ही है, तो इसी को क्यों न कायदे-करीने से बसाया जाए?

    ‘‘घर वालों के पास उसका कोई उत्तर न था। उसने घोषित कर दिया-भगवान ही एकमात्र मेरे पति हैं।

    घर के सदस्यों के मन में अभी भी एक क्षीण आशा थी, कि शायद वह घर में बैठकर कुछ पूजा-पाठ करे?

    पर क्रांतिकारियों का हर कदम अनूठा होता है। उसने भक्ति की नयी व्याख्या की। संसार और कुछ नहीं परमात्मा का विराट् स्वरूप है। आत्मा के रूप में वह हर किसी के अंदर विद्यमान है। आत्म चेतना को जगाना और उस भाव-धन को अर्पित करना ही भक्ति है।’’

    समर्पण निष्क्रिय क्यों? आत्मचेतना की सघन भावनाओं का प्रत्येक अंश, मन की सारी सोच, शरीर की प्रत्येक हरकत जब विश्व-उद्यान को सुखद-सुंदर बनाने के लिए मचल उठे, तब समझना चाहिए कि समर्पण की क्रिया शुरू हुई।

    उन दिनों मध्यकाल का प्रथम चरण था। उन्होंने अपने प्रयासों से अलवारों में नई चेतना फूँकी। साफ शब्दों में घोषित किया-भक्त वही है, जिसके लिए जन-जन का दर्द उसका अपना दर्द हो अन्यथा वह विभक्त है-भगवान् से सर्वथा अलग-थलग भगवान हाथी को बचाने नंगे पाँव भागता है, घायल पड़े गीध को गोद में उठाता है और स्वयं भक्त कहने वाले के अंतर में पर-पीड़ा की अनुभूति न उभरे, यह किसी तरह संभव नहीं।’’

     अलवारों की टोली लेकर वह निकल पड़ी। वाणी माध्यम बनी उदात्त भावनाओं से दूसरे के अंतराल क ो रंगने का। वाणी ही नहीं, लेखनी भी उठाई, तिरुप्पार्वे काव्य की रचना की, जिसके प्रत्येक शब्द से करुणा झरती है। इस काव्य के द्वारा उन्होंने बताया, जिसे शांति कहते हैं, वह क्रियाशीलता की चरम-अवस्था है। लट्टू जब पूरी तेजी के साथ घूमता है, तब शांत-स्थिर दिखता है।

    कावेरी के तटवर्ती समूचे क्षेत्र को उन्होंने मथ डाला। स्वयं के और अपने सहयोगियों के सम्मिलित प्रयासों से, प्रत्येक अंतर में सोए दिव्य-भावों को उभारती-विकसित करने का प्रयास करती। भक्ति की भाषा में हरेक से कहती-क्षीर सागर तुम्हारे अपने अंदर है। इस शेषशायी को झकझोरकर उठाओ, फिर देखो, तुम्हारा अपना घर बैकुंठ हो जाएगा।’’ विजय नगरम् का स्वर्णकाल उन्हीं के अथक प्रयासों की परिणति था। बाद में वहाँ के महाराज कृष्णदेव राय ने ‘‘आभुक्तभाल्दम्’’ की रचना कर उनके प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की।


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